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________________ जैन दर्शन और विज्ञान प्रेतात्माओं के अस्तित्व, उनसे वार्तालाप करने की संभावना आदि आस्थाओं के आधार पर अनेक नैतिक मान्यताओं व आचारों का प्रतिपादन करते हुए एक नये आंदोलन - प्रतिकवाद (स्पिरिच्युअलिज्म) का प्रादुर्भाव हुआ और शनै: शनै: इसके अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई । प्रेतत्व संबंधी प्रघटनाओं के विस्तार, प्रभाव व उनके प्रति जागृत अभिरुचियों ने अनेक दार्शनिकों, विद्वानों व वैज्ञानिकों को झकझोर डाला । इन सभी घटनाओं के पीछे वास्तव में सत्य क्या है व उसे कैसे जाना जा सकता है? क्या कोई ऐसा प्रयास किया जा सकता है जिसके परिणामस्वरूप इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के विवाद - रहित, सुनिश्चित उत्तर सर्व - सुलभ हो सकें? ८८ लगभग इसी समय विद्वानों, विचारकों व वैज्ञानिकों को कुछ अन्य मिलतीजुलती सी घटनाओं की अव्याख्येयता की चुनौती का सामना करना पड़ रहा था । इन प्रघटनाओं का सम्बन्ध मूलतः मन की एक विशिष्ट अवस्था से था जिसे आज 'सम्मोहन' (हिप्नोटिज्म) कहा जाता है । वैसे तो १७७९ में मैस्मर द्वारा रोगियों के उपचार के लिए इस पर आधारित एक नई पद्धति का आविष्कार कर लिया गया था । उसके अनुसार “ब्राह्मण्डीय मण्डल, पृथ्वी व जीवित प्राणी परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं ।" यह प्रभाव एक सर्वव्यापी द्रव के माध्यम से पड़ता है। यह द्रव मनुष्य के शरीर में स्नायु तत्त्वों द्वारा प्रसारित रहता है जो मनुष्य के शरीर को चुम्बकीय विशेषताएं प्रदान करता है । मैस्मर का विचार था कि यदि इस द्रव को निश्चित प्रकार से निर्दिष्ट किया जाए, तो उससे सभी प्रकार के रोगियों का उपचार संभव है । इस समय मैस्मर के उपचार की धूम मची हुई थी। पर इस बात पर विवाद उत्पन्न हो गया कि उपचारों की प्रभावोत्पादकता किसी जैविक चुम्बकत्व (एनीमल मैगनेटिज्म) के कारण है अथवा मानसिक कल्पनाशक्ति के कारण । दोनों मतों के बीच विवाद आज तक पूर्णत: सुलझा नहीं है। मैस्मर के रोगी यद्यपि हिस्टीरिया के लक्षण यथा, संज्ञाशून्यता, ऐंठन व अतिउत्साह आदि प्रदर्शित करते रहे थे, लेकिन उनमें अभी तक कोई परासामान्य लक्षण नहीं उभरा था। १८७४ के करीब मैस्मर का एक शिष्य मारक्विस डी. प्यूसेगर एक बार कुछ किसानों का उपचार कर रहा था । उपचार के दौरान उसने देखा कि उसका एक २३ वर्षीय किसान एक विचित्र प्रकार की निद्रा में लीन होकर हंसने, बोलने व अन्य दैनन्दिनी क्रियाओं को पूर्व की अपेक्षा और भी अधिक बुद्धिमत्ता से सम्पन्न करने लगा है। और, सबसे विचित्र बात तो यह थी कि उसने स्वयं ही अपने रोग का पूरा विवरण और उपचार बताया। धीरे-धीरे अन्य रोगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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