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दर्शन और विज्ञान आधारों पर नहीं दिया जा सकता। अत: यदि यह मान भी लिया जाये कि पृथ्वी पर 'जीवन' का प्रारम्भ पृथ्वी के उत्पत्ति के बहुत समय बाद हुआ, तो भी 'भूत' के गुणात्मक परिवर्तन से ही चेतन' की उत्पत्ति हुई, ऐसा भी किसी वैज्ञानिक आधार पर नहीं कहा जा सकता; यह तो केवल आनुमानिक कल्पना ही है।
सामान्य अनुभव के आधार पर भी उक्त मान्यता की असिद्धि सरलतया हो सकती है। सामान्य अनुभव हमें यह बतलाता है कि जीव और भूत; इन दोनों तत्त्वों में गुणों की मौलिक भिन्नता है। आत्मा के चैतन्य-गुण का भूत में सर्वथा अभाव है। जिस पदार्थ में जिस गुण का सर्वथा अभाव हो, वह गुण किसी भी प्रकार के परिवर्तन द्वारा प्रकट नहीं हो सकता। तर्क शास्त्र में उत्पादन की यह मर्यादा सर्वमान्य है; अत: गुणात्मक परिवर्तन का उक्त प्रकार का सिद्धांत ही गलत हो जाता है। इसके अतिरिक्त हम यह भी अनुभव करते है कि जब आज भी जीवन की उत्पत्ति भूत-पदार्थ से होनी शक्य नहीं है, तो अतीत में ऐसा हुआ हो, यह कैसे माना जा सकता है।
जैन दर्शन के आलोक में यदि उक्त मान्यता का अवलोकन किया जाये, जो सहसा उसकी निरर्थकता स्पष्ट हो जाती है। जैन दर्शन बतलाता है कि आत्मा और पुद्गल; ये दोनों तत्त्व सदा से इस विश्व में थे और सदा रहेंगे। दोनों के अस्तित्व को अनादिकालीन माने बिना विश्व-आयु' सबंधित अनेक प्रदेशों का समाधान नहीं मिल सकता। अब यदि विकासवादियों द्वारा कथित पृथ्वी की जीवन-विकास की कहानी को सत्य माना भी जाये, तो भी यह मानना जरूरी नहीं है कि 'भूत' ही स्वयं परिवर्तित होकर चेतन का रूप धारण कर विकसित हो रहा है। जैन दर्शन के काल-चक्र का सिद्धांत यह तो निरूपण करता ही है कि विकास और हास का क्रम विश्व के कुछ क्षेत्रों में चलता रहता है। 'पृथ्वी' के आदिकाल में पौद्गलिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण जीवों के उत्पन्न होने के योग्य योनियों के अभाव में यहां जीवन का अभाव हो, यह सम्भव है। बाद में जैसे-जैसे जीवनानुकूल स्थिति बनी और जीवों के उत्पन्न होने के योग्य योनियों का प्रादुर्भाव हुआ, तो जीव' उनमें आकर जन्म लेने लगे। ऐसी ही सम्भवत: जीवन-विकास का क्रम बना हो। इस प्रकार भूत के गुणात्मक परिवर्तन से चेतन की उत्पत्ति को मानने की अपेक्षा जीव और भूत को पृथक-पृथक सत्ता के रूप में स्वीकार करना ही तर्कसंगत है।
इस चर्चा के निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भौतिकवाद, चाहे वह प्राचीन रूप में हो या नवीन रूप में, विश्व क्या है?' का जो उत्तर प्रस्तुत करता है, १. द्रष्टव्य, दर्शनशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ७८ ।
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