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________________ २०२ जैन दर्शन और विज्ञान १. उच्छ्वास के साथ शब्दों-स्वरों के उच्चारण से उत्पन्न प्रकम्पनों से आंतरिक अवयवों का व्यायाम हो जाता है। २. भीतर के ऊतकों तथा तंत्रिका-कोशिकाओं की गहराई तक प्रकंपन पहुंचते हैं। ३. इससे ऊतकों तथा अवयवों में रक्त-संचार, निर्बाध बनता है और उनमें प्रचुर मात्रा में रक्त की आपूर्ति होने से प्राण-शक्ति प्रदीप्त होती है। नवीनतम शरीरशास्त्रीय अध्ययन से इस बात का पता चला है कि इन स्पन्दनों का हमारी अन्त:स्रावी ग्रन्थियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, जिनके द्वारा हमारी भावधारा चिन्तन एवं आचरण को प्रभावित किया जा सकता है। __ ध्वनि-प्रकम्पनों के प्रभाव से अनुकम्पी तथा परानुकम्पी तंत्रिकाओं में एक सुदृढ़ता स्थापित की जा सकती है। म्युनिख ने एक संगीतज्ञ मीटर लुडविग मात्र अपने संगीत से तहखाने में स्थित अपने क्लीनिक में १३ से १६ वर्ष के अत्यधिक असामान्य बच्चों के लिए अभिव्यक्ति के नये उपाय रचने में संलग्न हैं। उनकी इस चिकित्सा पद्धति का महत्त्व परम्परागत चिकित्सक भी असंदिग्ध रूप से मानते हैं। शब्द और संगीत-चिकित्सा संगीत आदमी के उल्लसित मन की एक सरस अभिव्यक्ति है। अनादिकाल से आदमी इस माध्यम से अपने मन की कुंठाओं को विसर्जित करता रहा है। नादस्तु पंचमो वेदः' कहकर वैदिक परम्परा में इसे महत्त्व दिया गया है। श्रमण परम्परा में भी इसे आदर प्राप्त है। इटली की बात हैं-तेरहवीं शताब्दी में यहां एक विचित्र प्रकार की बीमारी का प्रचलन हो गया। उसके प्रभाव से आदमी को सोते समय मधुमक्खी के दंश की-सी पीड़ा का अनुभव होगा। धीरे-धीरे वह पीड़ा इतनी असाध्य हो जाती कि आदमी उछल-कूद मचाने लगता। वह वस्त्रों के उतार फेंकता और अश्लील शब्दों का प्रयोग कर धक्का-मुक्की करते लगता। कभी-कभी तो वह सूअर की तरह गन्दे स्थानों में लोटने-पोटने भी लगता। डॉक्टरों को यह रोग समझ में नहीं आ रहा था। 'फार्डीना सूड' नाम के एक डॉक्टर के पास एक ऐसा ही केस आया। डॉक्टर उस समय वीणा पर संगीत का अभ्यास कर रहा था। उसे सुनकर सहसा रोगी की बीमारी शांत होने लगी। थोड़ी देर में तो वह पूर्ण रूप से स्वस्थ बन गया। उसके बाद तो इसी पद्धति से डॉक्टर ने अनेक लोगों को स्वस्थता प्रदान की। अंतत: वह संगीत एक दवा बन गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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