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________________ दर्शन और विज्ञान दर्शन के आधार पर सहजतया हो सकता है। जैन दर्शन के तथ्यों का विवेचन हम कर चुके हैं; उनमें से इन तथ्यों को ध्यान में रखना होगा : १. पंचास्तिकाय रूप विश्व का प्रत्येक अस्तिकाय ‘अस्तित्व' की दृष्टि से एक-दूसरे से स्वतंत्र है; अत: जीव और पुद्गल का अस्तित्व भी परस्पर स्वतन्त्र है। २. सत् (वास्तविकता) की परिभाषा में ही प्रत्येक अस्तिकाय की 'अनश्वरता' (Conservation) का नियम निहित है। पर्यायत्व की अपेक्षा से सत् उत्पन्न और नष्ट होता रहता है, फिर भी द्रवयत्व की अपेक्षा से तो सदा ध्रुव ही रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्याय (अवस्था) के सतत प्रवाह में प्रति समय परिवर्तन पाता हुआ भी पुद्गल द्रव्य सदा ही पुद्गल रहता है और जीव सदा जीव रहता है, न पुद्गल कभी जीव के रूप में परिणत होता है और न जीव कभी पुद्गल के रूप में। ३. पुद्गल द्रव्य में सभी भौतिक पदार्थों का और भौतिक शक्तियों का समावेश हो जाता है। अत: पुद्गल द्रव्य की अनश्वरता के नियम में भौतिक पदार्थों और भौतिक शक्तियों के परस्पर रूपान्तरण का निषेध नहीं है। अब पदार्थ और शक्ति की सुरक्षा का नियम वैज्ञानिक जगत् में संयुक्त रूप धारण कर चुका है। और इसके अनुसार विश्व के सभी प्रकार के भौतिक पदार्थ और भौतिक शक्ति की तुला-राशि सदा अचल रहती है। यह नियम केवल भूत तत्त्व पर ही लागू होता है। जैन दर्शन आत्मा को पुद्गल से भिन्न मानता है; अत: जैन दर्शन में आत्मा की अनश्वरता और पुद्गल की अनश्वरता के दो नियम बन गये हैं। प्रथम नियम के अनुसार पुद्गल-तत्त्व, चाहे वह भौतिक शक्ति के रूप में, द्रव्य की अपेक्षा से अक्षय और ध्रुव रहता है। दूसरे नियम के अनुसार जीव तत्त्व द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत और अचल रहता है। इन दो पृथक नियमों के आधार पर ऊपर दिये गये तर्क का सहजतया निराकरण हो जाता है। शरीर-सम्बन्धी समस्त क्रियाएं पौद्गलिक हैं, अत: अन्न, जल, गर्मी आदि जिस शक्ति का उत्पादन करते हैं, वह भी पौलिक ही है। ऊपर दिये गये तर्क में जिस जीवन-शक्ति को भौतिक शक्ति से भिन्न कहा गया है। वह वस्तुत: भिन्न नहीं है, बल्कि भौतिक (पौद्गलिक) ही है; क्योंकि अन्नादि की परिणति रस, रक्त, वीर्य, आदि में होती है, जो सारे पौद्गलिक हैं और इनके ही रूपान्तर को ऊपर जीवन शक्ति' कहा गया है। उसी प्रकार मन या चैतन्य से शारीरिक क्रियाओं की उत्पत्ति मानना भी गलत है। जैन-दर्शन के अनुसार कर्म-पुद्गलों से आवृत और संशलिष्ट आत्मा तो पौद्गलिक क्रियाओं का केवल प्रेरक बनता है। शारीरिक क्रियाओं में जो शक्ति व्यक्त होती है, वह कोई आत्मा से उत्पन्न नहीं होती है, बल्कि यह तो १. उत्पाद्व्यध्रौव्यमुक्तं सत्। -श्री जैन सिद्धान्त दीपिका, ९-३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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