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________________ ३० जैन दर्शन और विज्ञान भौतिकवादी' के आधार पर जीवन ओर मन को जड़ भौतिक तत्त्व से सर्वथा अभिन्न नहीं मानते। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार-“वैज्ञानिक भौतिकवादियों की मूल ईंटें परमाणु नहीं; कण, तरंग, विच्छेद-युक्त घटना-प्रवाह है, जिनके खमीर में भी क्षण-क्षण नाश उत्पाद का नियम मिला हुआ है। यह सच है कि जीवन या मन (आत्मा)जिससे पैदा हुआ है, वह भूत (भौतिक तत्त्व) ही है, किन्तु मन भूत हर्गिज नहीं है। किसी तरह से भी नहीं है, चाहे उसके अन्तस्तल में घुस कर देख लें। यह बिलकुल गुणात्मक परिवर्तन पूर्व (भूत) प्रवाह से टूट कर नया प्रवाह है।'२ इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भौतिकवादी वैज्ञानिक चेतन को भूत से भिन्न तो मानते हैं और उसकी वास्तविकता का भी निषेध नहीं करते, परन्तु चेतन की सत्ता को चरम वास्ततिकता के रूप में स्वीकार नहीं करते। बल्कि उसको भूत के गुणात्मक परिवर्तन द्वारा ही उद्भूत मानते है; अत: इनके मत में विश्व के मूल में तो एक मात्र भूत ही चरम वास्तविकता हे। वैज्ञानिकों के भौतिकवाद के समर्थन में यह एक युक्ति दी जाती है कि शक्ति की अनश्वरता का नियम (ला ऑफ कोन्जरवेशन ऑफ ऐनर्जी) विज्ञान का प्रतिष्ठित नियम है। इस नियम के अनुसार विश्व की कुल शक्ति समान रहती है; न घटती है और न बढ़ती है, लेकिन रूपान्तरित होती है। यदि जीव और चैतन्य को हम अभौतिक मान लेते हैं, तो उस नियम का उल्लंघन होता है। विज्ञान ने सिद्ध किया है कि शरीर भौतिक तत्त्वों से बना है, इसलिए भौतिक है। जीवन और चैतन्य का अधिष्ठान वही है। हम देखते हैं कि भौतिक पदार्थों (जैसे-अन्न, जल, गर्मी आदि) से जीवन-शक्ति बढ़ती है। अब, यदि जीवन-शक्ति भौतिक शक्ति से भिन्न है, तो उसका अर्थ होगा कि बढ़ी हुई जीवन-शक्ति के रूप में नई शक्ति की उत्पत्ति हुई है, क्योंकि अभौतिक होने से उसे भौतिक शक्ति (अन्न, जल, आदि से प्राप्त शक्ति) का रूपान्तर नहीं कहा जा सकता। हम यह भी देखते है कि मानसिक इच्छाओं के कारण शरीर के अंगों का संचालन होता है। यहां भी मन या चैतन्य को अभौतिक मानने का अर्थ होगा कि शारीरिक क्रियाओं के रूप में व्यक्त अभौतिक शक्ति मन की इच्छाओं की अभौतिक शक्ति से उत्पन्न नई शक्ति है; क्योंकि भौतिक होने के कारण उसे अभौतिक शक्ति का रूपान्तर नहीं माना जा सकता। इस प्रकार जीव और चैतन्य को अभौतिक मानने का निष्कर्ष होता है-नई शक्ति की उत्पत्ति। किन्तु ऐसा होने से विश्व की कुल शक्ति में वृद्धि हो जायेगी, जो कि उपर्युक्त नियम के विरुद्ध है। चूंकि वह नियम सत्य है उसका विरोधी निष्कर्ष सत्य नहीं हो सकता; अत: जीव और चैतन्य को अभौतिक नहीं माना जा सकता। भौतिकवादियों की इस तर्क का निराकरण जैन १. देखें, वैज्ञानिक भौतिकवाद, ले० राहुल सांस्कृतायन, (प्रथम संस्करण), पृ० ५८-६० । २. वही, पृ० ५९। ३. देखें, दर्शनशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ७४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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