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________________ १९० जैन दर्शन और विज्ञान प्रतिदिन आदतन शराब पीने से पेट के अन्दर सूजन रहने लगती है। पुराने मद्यपायी वातनाड़ी शोथ, मस्तिष्क-ज्वर, चमड़ी फटने का रोग, रक्ताल्पता आदि अनेक बीमारियों से घिर जाते हैं। वैज्ञानिक खोजों से पता लगा है कि दीर्घकाल तक मद्य पीने से हृदय की नसें बेकार हो जाती हैं। इससे अनेक प्रकार के विकार प्रकट हो जाते हैं। इसी प्रकार मद्यपान से अप्रत्यक्ष रूप से गुर्दे पर भी भारी प्रभाव पड़ता है। शराबी के मूल-अम्ल का निकलना कम हो जाता है, जिससे मूत्र के रक्तसारों में कमी हो जाती है। उससे मेगनेशियम की भी कमी हो जाती है। नशीले पेय शराब आदि कैंसर के भी मुख्य कारण हैं। उन समस्त देशों में जहां शराब अधिक पी जाती है, कैंसर का प्रसार अधिक है। यकृत (liver) शरीर में प्रविष्ट विषों को निकालने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। मदात्यय (over-intoxication) से शरीर की कोशिकाएं असामान्य रूप से विषाक्त बन जाती हैं, जिन्हें निर्विष बनाने के लिए यकृत को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। इस प्रकार मदात्यय से मस्तिष्क और यकृत को अपूरणीय क्षति होती है। युवावस्था में मौत तक हो सकती है। सवाल होता है-शराब से जब इतना नुकसान है तो लोग इसका प्रयोग क्यों करते हैं? इसका कारण यह है कि साधारण आदमी समझता है कि शराब पीने से वह चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है। ऐसा केवल बीमार आदमी ही नहीं समझते हैं अपितु दिन भर की मेहनत से थका हुआ हर आदमी यही सोचता है। पर यह बात ध्यान रखने की है कि नशे से न तो शक्ति आती है और न उससे चिन्ताएं मिटती है; अपितु नशे के बाद कार्यक्षमता तथा चिन्ताएं और अधिक बढ़ जाती हैं। अल्कोहल के लगातार सेवन से आदमी के शरीर में अनेक बीमारियां घर कर लेती हैं। आंखें जलने लगती हैं, मितली-सी आने लगती है, भूख खत्म हो जाती है, थकावट आने लगती है, पसीना ज्यादा छूटने लगता है, शरीर में कम्कम्पी शुरू होती है। आदमी उसे दूर करने के लिए फिर ज्यादा शराब पीता है। परिणामत: परेशानियां भी बढ़ने लगती हैं। और आदमी एक दुश्चक्र में उलझ जाता है। ____ सुप्रसिद्ध ब्रिटिश सर्जन सर लाउडर ब्रुटन ने कहा है-शराब धीरे-धीरे निर्णय को पंगु बनाती है, उसका यह कार्य प्रथम जाम के साथ ही प्रारम्भ हो जाता डाक्टर क्वैनसैल का अभिमत है-मद्यसारयुक्त पेय की लघु मात्रा भी मूत्राशय की थैली की कार्य-प्रणाली में भारी परिवर्तन कर सकती है। विचार को पंगु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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