________________
५. जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा
(१) नियमवाद
-
नियंता की अस्वीकृति ने नियम की ओर ध्यान आकर्षित किया। जैन दर्शन नियंता को नहीं मानता, नियम को मानता है । भगवान् महावीर ने चार मुख्य नियमों का प्रतिपादन किया-द्रव्यावेश, क्षेत्रोदेश, कालादेश और भावादेश । आदेश का अर्थ है-अपेक्षा। किसी भी घटना, विषय-वस्तु का ज्ञान करना हो तो कम से कम इन चार नियमों से उसकी समीक्षा करें और उसके बाद निर्णय लें। यह नियमवाद सत्य की खोज का सिद्धांत है। जैन दर्शन ने प्रत्येक व्यक्ति को सत्य की खोज का अधिकार दिया है। केवल अमुक व्यक्ति ही सत्य का खोजी नहीं हो सकता; प्रत्येक मनुष्य हो सकता है । 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा' - स्वयं सत्य की खोज करो । यह बहुत वैज्ञानिक बात है ।
नियमवाद: जैन- दर्शन की मौलिक प्रस्थापना
सत्य की खोज का अर्थ है नियमों की खोज । नियमों की खोज ही सत्य की खोज है। वैज्ञानिक पहले नियम को खोजता है, फिर नियम की खोज के आधार पर कार्य करता है । धर्म के क्षेत्र में कहा गया- नियमों की खोज करों । जैन- दर्शन ने नियमों को खोजा है और नियमों का काफी विस्तार किया है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव-ये चार दृष्टियां जैन-दर्शन में ही उपलब्ध हैं, अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं हैं। उत्तरकाल में जैनाचार्यों ने इनका विकास किया । चार आदेशों के स्थान पर पांच समावायों का विकास हुआ है-स्वभाव, काल, नियति, पुरुषार्थ, भाग्य और कर्म । ये पांच समवाय चार दृष्टियों का विकास है। इन पंच समवायों को समाहित किया जाए तो यह पांच उत्तरवर्ती दृष्टियां और चार पूर्ववर्ती दृष्टियां- -आठ नियम प्रस्तुत होते हैं । (काल दोनों में है । इसलिए आठ दृष्टियां होंगीं ।) इन दृष्टियों के द्वारा समीक्षा करके ही किसी सचाई का पता लगाया जा सकता है, किसी घटना की समीक्षा या व्याख्या की सकती है। इनके बिना एकांगी दृष्टिकोणों से वास्तविकता का पता नहीं चलता, मिथ्या धारणाएं पनप जाती हैं।
एकान्तवाद से बचने का सिद्धान्त
सम्यग्दर्शन का सिद्धांत नियमों के बिना चल नहीं सकता । तत्त्वज्ञान के विषय में दृष्टिकोण का सम्यक् होना आवश्यक है । प्रत्येक घटना और वस्तु के बारे में भी व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होना चाहिए, एकांगी नहीं होना चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org