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विश्व का परिमाण और आयु
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जो सांत आकाश-काल का प्रतिपादन करता है । किन्तु कुछ वैज्ञानिक सांत आकाश और अनन्त काल का प्रतिपादन करते हैं, जबकि कुछ दोनों को सात स्वीकार करते हैं। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक मीन्काउस्की का आव्यूह, जो आपेक्षिकता के सिद्धांत में प्रयुक्त है, दोनों को अनन्त प्रतिपादित करता है !"
(III) तुलनात्मक अध्ययन
आइन्स्टीन का विश्व और जैन-लोक
आइन्स्टीन के वेलनाकार विश्व में आकाश को इस प्रकार वक्र माना गया है कि सम्पूर्ण विश्व एक बद्ध-आकार को धारण करने वाला और 'सान्त' बन जाता है। जैन दर्शन भी लोक-आकाश को वक्र तथा सान्त स्वीकार करता है ।
आइन्स्टीन के विश्व में समग्र आकाश स्वयं सान्त और बद्ध हो जाता है, जबकि जैन दर्शन के अनुसार आकाश द्रव्य तो अनन्त है; किन्तु लोकाकाश सान्त और बद्ध है। अथवा यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय - इन दो द्रव्यों की सान्तता और बद्धाकारता के कारण लोक सान्त और बद्धाकार हो जाता है ।
आइन्स्टीन के विश्व में समग्र आकाश अवगाहित है - भरा हुआ है - रिक्त नहीं है । आइन्स्टीन के ई. १९०५ के मूलभूत समीकरणों के अनुसार तो अवगाहित पदार्थ के अभाव में आकाश का अस्तित्व ही नहीं रह जाता।
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विश्व की वक्रता के विषय में विश्व - समीकरण के हल वैज्ञानिकों के सामने यह समस्या खड़ी कर देते हैं कि वक्रता धन है अथवा ऋण ? धन वक्रता वाला विश्व सान्त और बद्ध तथा ऋण वक्रता वाला विश्व अनन्त और खुला पाया जाता है । आइन्स्टीन का विश्व धन वक्रता वाला है; अतः सान्त और बद्ध है । ऋण वक्रता वाले विश्व की सम्भावना भी विश्व समीकरण के आधार पर हुई है। इस प्रकार धन और ऋण वक्रता के आधार पर क्रमश: 'सान्त और बद्ध' तथा 'अनन्त और खुले' विश्व की सम्भावना होती है। लोकाकाश की वक्रता धन और अलोकाकाश की ऋण मान लेने पर जैन दर्शन का विश्व- सिद्धान्त पुष्ट हो सकता है। इस प्रकार जैन विश्व - सिद्धान्त धन और ऋण वक्रता स्वीकार करने वाले विश्व - सिद्धान्त का समन्वय
है ।
करते
श्री जी. आर. जैन आइन्स्टीन के विश्व की जैन-लोक के साथ तुलना हुए लिखते है; “आइन्स्टीन के वेलनाकार विश्व- सिद्धान्त के अनुसार विश्व की आदि भी नहीं है । अन्त भी नहीं है, दूसरे शब्दों में यह 'स्थिर इकाई' है । अब
१. कास्मोलोजी ओल्ड एण्ड न्यू पृ० १२३ - १२४ ।
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