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________________ ३४० जैन दर्शन और विज्ञान __ आधुनिक परमाणु-ऊर्जा तो केवल उष्मा के रूप में ही प्रकट होती है, पर तेजोलेश्या में उष्णता और शीतलता दोनों गुण विद्यमान हैं। भगवती सूत्र शतक १५ में तेजोलेश्या के दो भेद बताये गये हैं : उष्ण तेजोलेश्या (न्यूक्लीयर एनर्जी), शीतल तेजोलेश्या (एंटीन्यूक्लीयर एनर्जी)। .. शीतल तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या के प्रभाव को तत्क्षण नष्ट कर सकती है। वैज्ञानिक अभी तक उष्ण तेजोलेश्या अणुबम और उद्जन बम का ही आविष्कार कर पाये हैं, किंतु अणु-आयुद्धों का प्रतिकारण अस्त्र उन्हें अभी तक नहीं मिला है। . परमाणु-शक्ति दो तरह से उत्पन्न होती है : गलन (परमाणु-विखण्डन या परमाणु-विगलन; फिसन) से, पूरण (परमाणु-संलयन; न्यूक्लीयर फ्यूजन) से। .. यह परमाणु-विगलन तथा परमाणु-संलयन के सिद्धांत जैन दर्शन की 'पूरण-गलन धर्मत्वात् पुद्गल:' संकल्पना को परिपुष्ट करते हैं। पूरण अर्थात् मिलन या संयोग, गलन अर्थात् वियोग या पार्थक्य । भावी संभावना निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक जिस परमाणु (एटम) के अनुसन्धान में रत है, जैन दर्शन के अनुसार वह अनेक परमाणुओं से संघटित कोई स्कन्ध (मॉलीक्यूल) है; क्योंकि जैन शास्त्रों में परमाणु की सूक्ष्मता के विषय में कहा गया है : परमाणु इंद्रियों का एवं प्रयोग का विषय नहीं है अत: वह मनुष्यकृत नाना प्रक्रियाओं से प्रभावित नहीं होता है। जैन दर्शन की परिभाषा के अनुसार इलेक्टॉन, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन, फोटॉन, क्वार्क, न्यूट्रिनों आदि में से कोई भी कण परमाणु नहीं है; परमाणु के उदरस्थ जितने भी कण हैं, जैन दर्शन मानता है कि वे सूक्ष्मतम, या परमाणु, या मौलिक कण कहलाने के उपयुक्त नहीं हैं। जैनदर्शनकारों ने परमाणु के दो भेद किये हैं-निश्चय परमाणु और व्यवहार परमाणु। अविभाज्य और सूक्ष्मतम कण निश्चय परमाणु हैं और सूक्ष्मतम स्कंध जो इन्द्रिय-व्यवहार में सूक्ष्मतम-से लगते हैं, व्यवहार परमाणु हैं। विज्ञान का परमाणु वास्तव में व्यवहार परमाणु ही है। . सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जी. ओ. जॉन्स, जे. रोटब्लेट तथा जी. जे. विटरो ने 'परमाणु और विश्व' (एटम एण्ड यूनीवर्स) नामक पुस्तक में, जो १९५६ ई. में लंदन से प्रकाशित है, स्पष्ट किया है कि " प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन ये तीन मूलभूत कण माने गये, और अब वह संख्या बीस तक पहुंच गयी है मौलिक अणुओं की यह अप्रत्याशित बढत बहत असंतोष का विषय है क्या वास्तव में पदार्थ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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