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जैन दर्शन और विज्ञान यह घाव जन्म से ही रविशंकर के शरीर पर है तथा जन्म के समय वह इससे भी अधिक लम्बा था। घाव वाली जगह पर चमड़ी का रंग आसपास की चमड़ी से और अधिक गहरा था तथा छूरी से किये हुए घाव की तरह स्पष्ट दिखाई देता था। रविशंकर के कथनानुसार पूर्व-जन्म में उसकी शस्त्र द्वारा गर्दन काटकर हत्या की गई थी।
पूर्वजन्म में शरीर पर हुए चिन्ह वर्तमान-जन्म में शरीर पर उसी प्रकार और उसी स्थान में पाये जाये-यह एक बहुत ही अद्भुत एवं विचित्र बात है। ऐसे वृत्तान्तों की व्याख्या मृतात्मा-प्रवेश की उपकल्पना द्वारा नहीं की जा सकती। ऐसे चिह्नों की शरीर-शास्त्र सम्बन्धी सामान्य वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर भी कोई व्याख्या संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में पूर्व-जन्म के साथ ही उसका सम्बन्ध जुड़ता है। यह अवश्य शोध का विषय है कि किस प्रकार आत्मा अपने एक जन्म के शारीरिक चिह्नों को भी दूसरे जन्म में ले जाती है।
जैन दर्शन द्वारा प्रदत्त कर्म-सिद्धांत के आधार पर इस तथ्य की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है
जैन दर्शन में शरीर-सम्बन्धी समस्त निर्माण का मूल कारण नाम कर्म है। नाम कर्म की प्रकृतियों में संघातननाम कर्म, निर्माणनाम कर्म तथा आनुपूर्वी नाम कर्म के द्वारा उक्त तथ्य की व्याख्या हो सकती है। औदारिक आदि शरीर नाम कर्म के उदय से औदारिक आदि वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण होता है, बन्धननाम कर्म के उदय से गृहीत पुद्गल के साथ गृह्यमान पुद्गल का संमीलन होता है, तथा संघातन नाम कर्म के उदय से औदारिक आदि वर्गणा के पुद्गलों की औदारिक आदि शरीर के रूप में विशेष रचना होती है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार-बद्ध पुद्गलों के परस्पर जतुकाष्ठ न्याय से रचना विशेष का संघात कहते हैं। यह पुद्गलविपाकी कर्म हैं, क्योंकि पुद्गल-रचना के आधार-विशेष के द्वारा इसका परिपाक होता है।
आनुपूर्वी नाम कर्म के विषय में दो परम्पराएं प्रचलित हैं। एक के अनुसार विग्रहगति में आत्म प्रदेशों के रचनाक्रम को, जो कि पूर्व शरीर के अनुसार होता है, करने वाले कर्म को आनुपूर्वी नाम कर्म कहा है। दूसरी परम्परा के अनुसार-जिसके उदय से निर्माण कर्म के द्वारा निर्मापित बाहु आदि अंग तथा अंगुली आदि उपांगों की रचना की परिपाटी को आनुपूर्वी नाम कर्म कहा जाता है। पूर्व जन्म के शरीर के अनुसार विग्रहगति में आत्म-प्रदेशों की आकर-रचना तो आनुपूर्वी नाम कर्म के द्वारा होती ही है, पर उसके पश्चात् भी वर्तमान शरीर के निर्माण में पूर्व शरीराकार का प्रभाव भी आनुपूर्वी नाम कर्म के माध्यम से कार्य करता है। उपाघात नाम कर्म शरीर के अंगोपांगों के उपघात का कारण है, उसकी भी पुनरावृत्ति दूसरे जन्म में यथावत् हो
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