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जैन दर्शन और विज्ञान भोजन के विमर्श का साधना का दृष्टिकोण है-आन्तरिक वृत्तियों का शोधन । भोजन का प्रयास केवल शरीर के बाहरी तत्त्वों तक ही सीमित नहीं है। उसका प्रभाव हमारी आन्तरिक शक्तियों पर, शरीर के सूक्ष्म तत्त्वों पर और सूक्ष्म-शरीर पर भी होता है। इसलिए भोजन के विषय में हमें बहुत सावधान होना चाहिए। अन्तर्वृति को मूर्च्छित बनाने वाली वस्तुएं साधक के लिए निषिद्ध हैं।
एक प्रकार का आहार विचार को, भाषा को, मन को स्वस्थ बनाता है। दूसरे प्रकार का आहार इन्हें अस्वस्थ बनाता है।
(१) उपवास आदि तप जैन जीवन-शैली में तप का एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक साधना है। महावीर की साधना-पद्धति में उसे 'निर्जरा' अर्थात् कर्म-संस्कारों से मुक्ति का एक सक्षम साधन माना है। तप या निर्जरा के बारह प्रकार हैं-छह बाह्य, छह आन्तरिक । उपवास, ऊनोदरी, वृति-संक्षेप रस-परित्याग आदि बाह्य तप के प्रकार हैं। चारों का सम्बन्ध भोजन और अभोजन से है। खाना जितना महत्त्वपूर्ण है, 'नहीं खाना' उतना ही महत्त्वपूर्ण है। खाने का जितना मूल्य है 'नहीं खाने का भी उससे कम मूल्य नहीं है। जब तक हम 'नहीं खाने' पर विचार नही करते, तब तक भोजन का विषय पूर्ण दृष्टि से चर्चित नहीं होता। स्वास्य के लिए यदि संतुलित भोजन जरूरी है तो उसके लिए भोजन को छोड़ना भी बहुत जरूरी है। अनाहार को छोड़कर केवल आहार को देखना वास्तव में आहार के प्रति भ्रांत होना है और अपने स्वास्थ्य के प्रति भी अन्याय करना है। जो लोग केवल भोजन का ही महत्त्व समझते हैं, उसे छोड़ने का महत्त्व नहीं समझते, वे न केवल मोटापे की बीमारी से ग्रस्त होते हैं, अन्य किन्तु बीमारियां भी उन्हें आक्रांत करती हैं।
'खाना' 'नहीं खाना', कब, कैसे, और कितना खाना, मधुर और स्निग्ध खाना या रूखा-सूखा खाना आदि-आदि अनेक प्रश्नों का सम्यग् उत्तर है-आहार-विवेक। आहार और अनाहार
आप आहार करते हैं, परन्तु यदि उपवास करना नहीं जानते, अनाहार रहना नहीं जानते तो आपका आहार आपके लिए कठिनाई बन जाता है। आहार ही जटिलता पैदा करता है। हम आहार करते हैं भूख की समस्या को समाहित करने के लिए । वही आहार अनेक समस्याएं हमारे सामने प्रस्तुत कर देता है। जो लोग केवल आहार करते हैं, उपवास नहीं करते या उपवास का मर्म नहीं जानते, वे समस्याओं को कम नहीं कर सकते। उपवास का अर्थ नहीं खाना भी है, कम खाना भी है, आहार की मात्रा को कम करना भी है।
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