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________________ विश्व का परिमाण और आयु २६७ दो परम्पराओं का मतभेद और उसकी समीक्षा उपरोक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर-परम्परा, लोक के कुल आयतन के विषय में एकमत हैं ही कि लोक का आयतन ३४३ घन रज्जु है। दोनों परम्पराओं में मुख्य मतभेद रह जाता है-लोक के आकार के विषय में । लोक की ऊंचाई १४ रज्जु है, यह भी दोनों परम्पराओं को मान्य है। लोक की दो विमितियां (लम्बाई और चौड़ाई) लोक के अधस्तन अन्त पर सात रज्जु है, यह भी दोनों परम्पराएं मानती हैं। अधस्तन अन्त से ७ रज्जु ऊपर लोक की एक विमिति १ रज्जु, अधस्तन अन्त के १०-१/२ रज्जु ऊपर लोक की एक विमिति ५ रज्जु और ऊर्ध्वान्त में (अधस्तन अन्त से १४ रज्जु ऊपर) लोक की एक विमिति १ रज्जु है; यह भी दोनों परम्पराओं को मान्य है। जहां दिगम्बर-परम्परा लोक के उत्तर-दक्षिण बाहुल्य को सर्वत्र ७ रज्जु और लोक के समग्र आकार को 'आयत-चतुरस्राकृति' वाला मानती है, वहां श्वेताम्बर-परम्परा सर्वत्र समान बाहुल्य को स्वीकार नहीं करती है। लोक के उत्तर-दक्षिण बाहल्य की सर्वत्र सात रज्जु की स्थापना आचार्य वीरसेन की ही मौलिक देन है। इसी मान्यता को अधिक पुष्ट प्रमाण मिले हैं और अधिकांश विद्वानों ने इसको स्वीकार किया है। इससे यह कहा जा सकता है कि धवलाकार वीरसेनाचार्य से पूर्व दिगम्बर-परम्परा में लोक के आकार के विषय में गणित की दृष्टि से कोई सुस्पष्ट मान्यता नहीं थी। उस समय सम्भवत: श्वेताम्बर आचार्यों में मृदंगाकार लोक की कल्पना प्रचलित थी, उसका उल्लेख धवला में किया गया है। किन्तु उस मान्यता में गणितीय दृष्टि से यह त्रुटि थी कि लोक का समग्र घनफल ३४३ घन रज्जु से बहुत कम था। वीरसेनाचार्य ने गणितीय आधारों पर मृदंगाकार लोक का घनफल निकाल कर दिखा दिया कि यह मान्यता ३४३ घन रज्जु की मान्यता के साथ संगत नहीं हो सकती है। तदुपरान्त उन्होंने दो प्राचीन गाथाओं के आधार पर यह बताया कि लोक का घनफल अधोलोक में १९६ घनरज्जु और ऊर्ध्वलोक में १४७ घन रज्जु होना चाहिए। उन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा खोज निकाला कि ऐसा फलित तभी हो सकता है, जबकि लोक की एक विमिति को सर्वत्र सात रज्जु मान लिया जाये। इस परिकल्पना के आधार पर उन्होंने लोक की जो आकृति बनाई, उसमें लोक का समग्र घनफल ३४३ घनरज्जु, अधोलोक का १९६ घनरज्जु और ऊ र्वलोक का १४७ घनरज्जु हुआ। इस आकृति में मूल मान्यताएं जैसे कि समग्र ऊंचाई १४ रज्जु, अधोलोकान्त में बाहुल्य सात रज्जु, लोक-मध्य में १ रज्जु, ऊर्ध्वलोक के मध्य में ५ रज्जु और ऊर्ध्वलोक के अन्त में १ रज्जु ही सुरक्षित रह गई। इस प्रकार वीरसेन द्वारा प्रतिपादित लोकाकृति दिगम्बर-परम्परा में सर्वमान्य हो गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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