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जैन दर्शन और विज्ञान वैज्ञानिकों के द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक विचारधाराएं, उन वैज्ञानिकों के दर्शन है, न कि 'विज्ञान का दर्शन'।
आदर्शवादी वैज्ञानिकों में मुख्यत: एडिंग्टन, वाईल, सर जेम्स जीन्स जैसे वैज्ञानिक हैं। एडिंग्टन ने यह तो स्वीकार किया है कि वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता का अस्तित्व है, किन्तु भौतिक विज्ञान के द्वारा हम विश्व का जो ज्ञान करते हैं, वह ज्ञाता-सापेक्ष है। एडिंग्टन की विचारधारा में ज्ञाता अथवा चैतन्य को प्रधानता दी गई है। विज्ञान (विशेषत: भौतिक विज्ञान) विश्व के विषय में निरपेक्ष सत्य अथवा वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता को न जानना चाहता है और न जान सकता है। वैज्ञानिक पद्धतियों के द्वारा हम जो ज्ञान करते हैं, वह पूर्णत: ज्ञाता-सापेक्ष है। इसका कारण यही है कि विज्ञान चैतन्य और बाह्य विश्व की संयुक्त अनुभूति से सम्बन्धित है। इसका तात्पर्य यही हुआ कि भौतिक विश्व के पदार्थों का अस्तित्व चैतन्य की ज्ञान-पद्धति के द्वारा ही व्यक्त होता है और विज्ञान का सम्बन्ध इसके साथ होने के कारण विज्ञान द्वारा निर्मित नियम अथवा सिद्धांत ज्ञाता-सापेक्ष ही है।
___एडिंग्टन वास्तविकतावाद के कड़े विरोधी रहे हैं। उन्होंने वास्तविकतावाद को विरोधी विचारधारा के रूप में मानकर ही अपनी विचारधारा का प्रतिपादन किया है। वास्तविकतावाद का यह साधारण प्रतिपादन है कि भौतिक पदार्थो का अस्तित्व वस्तु-सापेक्ष है तथा उनमें रहे हुए स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि गुण भी वस्तु-सापेक्ष हैं। एडिंग्टन के कथनानुसार--'भौतिक पदार्थो में स्पर्श आदि वास्तविक गुणधर्म होते हैं, यह बात वैज्ञानिक प्रतिपादन के विरुद्ध है। उदारणस्वरूप वास्तविक सेव' का अस्तित्व ज्ञाता के मस्तिष्क के बाहर स्वतन्त्र रूप से होता है, इस बात का मैं विरोध नहीं करता और न मैं इस बात का भी विरोध करता हूं कि 'रस' का वास्तविक अस्तित्व है। मेरा विरोध तो वास्तविकतावादियों की इस मान्यता से है कि वास्तविक सेव के भीतर ही वास्तविक रस का अस्तित्व है, जो ज्ञाता से सर्वथा निरपेक्ष है। ‘एडिंग्टन स्वयं यह मानते है कि अनुभूति में आने वाली बातों में ज्ञाता' अथवा 'मन' सर्वप्रथम और प्रत्यक्ष है; शेष सब उत्तरवर्ती अनुमान होने से परोक्ष हैं। प्रत्येक मनुष्य की अनुभूति में यह बात तो आती ही है कि उसकी चेतना में क्रमगत परिवर्तन होता रहता है-स्मृति, कल्पना, भावना आदि की अनुभुति भी इसके
१. देखें, दी फिलोसोफी ऑफ फिजिकल साईन्स, पृ० १८५, १८७ । २. देखें, वही, पृ० १८४ ।
३. दी न्यू पाथवेज इन साईन्स, पृ० २८१ । Jain Education International
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