SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर्शन और विज्ञान साथ-साथ होती रहती है। इस प्रकार किसी भी प्रकार की अनुभूति में एक ऐसा तत्त्व रहता है, जो यद्यपि व्यक्तिगत चैतन्य से भिन्न है, बहिर्जगत् के पदार्थों से भी भिन्न है; बहिर्जगत् के पदार्थ और उनकी ऐन्द्रिय अनुभूति तो इससे बहुत बाद के हैं तथा परोक्ष हैं। इस प्रकार देखा जा सकता है कि एडिंग्टन की विचारधारा में ज्ञाता को प्रधानता दी गई है; वह इसलिए कि उनके अभिमत में ज्ञाता की कोई भी अनुभूति नई नहीं होती; पुरानी अनुभूति के साथ कुछ-न-कुछ सादृश्य रखती ही है। ज्ञाता वही रहता है और पुरानी अनुभूति के आधार पर नई अनुभूति को जन्म देता है। यह नई-पुरानी का चक्र चलता रहता है और पुन: हमें वही अनुभूति होती है, जो पहले हो चुकी थी। भौतिक विज्ञान इसी बात पर आधारित है कि भिन्न-भिन्न अनुभूतियों का ज्ञाता एक ही है और इसलिए ही भौतिक विज्ञान ज्ञाता-सापेक्ष विश्व का प्रतिपादन करता है। एडिंग्टन ने अपनी विचारधारा को सीमित ज्ञाता-सापेक्षवाद कहा है। नितान्त आत्वाद में केवल 'स्व' को ही वास्तविक माना गया है। एडिंग्टन की विचारधारा के अनुसार हमारी चेतना के अतिरिक्त भी अन्य चेतना का वास्तविक अस्तित्व हो सकता है, क्योंकि मेरे कान और वाचा की अनुभूति (सुने जाने और पढ़े जाने वाले शब्दों की) का जो मेरे लिए प्रत्यक्ष ज्ञान है, वह दूसरों के लिए नितान्त भिन्न अनुभूति का परोक्ष ज्ञान हो सकता है, किन्तु नितान्त आत्मवाद यह स्वीकार नहीं करता। अत: भौतिक विज्ञान आत्मवाद का विरोधी हो जाता है। एक स्थान में वास्तविकतावादी विचारधारा को उद्धृत करके, उन्होंने लिखा है कि इस प्रकार की विचारधारा बीसवीं सदी के दर्शन का आधार कैसे बन सकती है, यह मेरी समझ में नहीं आता। ___इस प्रकार एडिंग्टन के ज्ञाता-सापेक्षवाद का तात्पर्य यही लगता है कि चैतन्य या मन वस्तु-सापेक्ष वास्तविकतावाद है, जबकि भौतिक जगत् ज्ञाता-सापेक्ष वास्तविकता है। प्रो. स्टेबिंग ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है-'सर आर्थर एडिंग्टन के दार्शनिक ग्रन्थों में यह बात पायी जाती है कि उनकी स्वयं की रूढ दार्शनिक भावना १. वही, पृ० २८० । २. वही, पृ० २८६। ३. वही पृ० २८७। ४. देखें, दी फिलोसोफी ऑफ फिजिकल साईन्स, पृ० २७ । ५. दी फिलोसोफी ऑफ फिजिकल साईन्स, पृ० १९८, १९९ । ६. वही, पृ० २११, २१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy