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जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा
कर्म का कर्तृत्व नहीं है
कर्म हमारी कृति है किन्तु कर्तृत्व उसका नहीं है । कर्तृत्व है आत्मा का । कृति का प्रभुत्व नहीं हो सकता । प्रभुत्व कर्तृत्व का हो सकता है । यदि व्यक्ति द्वारा किया हुआ कर्म सब कुछ बन जाए तो कर्ता गौण बन जाए। कर्ता का तो कोई अर्थ ही नहीं रहे। कर्म में कर्तृत्व नहीं है । कर्तृत्व व्यक्ति के भीतर संकल्प में है । यदि कृति और कर्ता का भेद स्पष्ट होता है तो कर्म को उतना ही मूल्य मिलेगा, जितना कि उसका मूल्य है ।
मिथ्या अवधारणाएं
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भगवान महावीर ने कर्म को बहुत लचीला माना है। कहा गया- ' - 'सुचिन्ना कम्मा सुचिन्ना फला भवंति दुचिन्ना कम्मा दुचिन्ना फला भवंति ।' अच्छे काम का अच्छा फल होता है और बुरे कर्म का बुरा फल होता है - यह एक सामान्य बात है किन्तु इसके अपवाद बहुत हैं । कृत कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, यह भी एक सामान्य सिद्धांत है। जब तक कर्म के सारे अपवादों को, विशेष नियमों को नही जाना जाता तब तक कर्म की बात पूरी समझ में नहीं आती। कर्म को सब कुछ मान लेने पर एक निराशावादी धारणा, भाग्यवादी धारणा बन जाती है और आदमी अकर्मण्य होकर बैठ जाता है। यह मिथ्या धारणा है । वह सोचता है-मैं क्या करूं? कर्म का फल ऐसा ही था, कर्म का योग ऐसा ही था। मेरे कर्म में ऐसा ही लिखा था ।
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कर्मवाद में पुरुषार्थ का मूल्य
पुरुषार्थ और कर्मवाद को कभी अलग नहीं किया जा सकता । ईश्वरवादी धारणा में अगर पुरुषार्थ नहीं होता है तो आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु यदि कर्मवादी में पुरुषार्थ नहीं होता है तो इससे बड़ा कोई आश्चर्य नहीं । यह बहुत बड़ा आश्चर्य है । पुरुषार्थ और कर्मवाद का जोड़ा है। उन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता किन्तु कर्मवाद को सही न समझने के कारण पुरुषार्थीवादी दर्शन भी अकर्मण्य दर्शन जैसा बन जाता है ।
महावीर पुरुषार्थवाद के सशक्त प्रवक्ता
भगवान महावीर ने कर्म के विषय में अनेक सिद्धांत दिए । पुरुषार्थ के द्वारा कर्म को भी बदला जा सकता है। एक व्यक्ति ने बहुत अच्छा कर्म किया, क्षयोपशम भी हुआ और पुण्य का बन्ध भी हो गया। किंतु कुछ समय बाद उसने बहुत बुरे कर्म किए और उसका परिणाम हुआ उसने जो अच्छा किया, वह बुरे में संक्रांत हो गया। एक व्यक्ति ने बहुत बुरा किया, किंतु उसने बाद में बहुत अच्छे कार्य
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