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________________ १६ जैन दर्शन और विज्ञान लगता है, न वर्तमान में उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर और न जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा के आधार पर ही। सामान्य बुद्धि हमें यही बताती है कि दूब का चैतन्य से सम्बन्ध न हो तो भी वह हरी ही रहती है। दूसरी ओर विज्ञान 'रंग' की प्रक्रिया को तरंग-सिद्धांत के आधार पर समझाता है। विज्ञान का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि सूर्य के सफेद प्रकाश में समग्र चाक्षुष वर्णपट का समावेश हो जाता है। सूर्य से प्रसारित होने वाले प्रकाश-तरंग जब पदार्थ में होकर गुजरते हैं, तब उस पदार्थ की स्वयं की विशिष्टता के कारण एक विशेष तरंग-दैर्ध्य को छोड़कर शेष सभी उस पदार्थ के द्वारा शोषित हो जाते है। इस प्रकार जब दूब में से प्रकाश की तरंगें गुजरती हैं, तब दूब की विशिष्टता के कारण ही हरे रंग को सूचित करने वाली तरंग-दैर्ध्य को छोड़कर शेष तरंग दैर्ध्य वाली सभी तरंगें दूब के द्वारा शोषित (एब्सोर्ड) हो जाती हैं। हमारी आंख तक केवल वे ही तरंगें पहुंचती हैं, जिनका तरंग-दैर्ध्य हरे रंग को सूचित करता है और इसीलिए हमें दूब हरी दिखाई देती है। इस तरह वैज्ञानिक सिद्धांतो के अनुसार भी हमारा-चैतन्य का-ज्ञाता का-दूब को हरा, गुलाब को लाल और संतरे को नारंगी देखना हमारे चैतन्य पर आधारित नहीं है, किन्तु इस बात पर आधारित है कि कौन-सा तरंग दैर्ध्य उन पदार्थों के द्वारा शोषित नहीं हो पाता। तरंग-दैर्ध्य का शोषण पदार्थ के स्वरूप पर निर्भर करता है अथवा दूसरे शब्दों में कहा जाये तो पदार्थ के स्वरूप में ही पदार्थ का वर्ण निहित है। इसलिए एडिंग्टन का यह मन्तव्य कि वर्ण को बुनने वाला चैतन्य है, वैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार पर भी गलत ही सिद्ध हो जाता है। जैन दर्शन तो यह स्पष्ट रूप से बताता है कि पुद्गल स्वयं ही स्पर्श, रस, गन्ध, और वर्ण से युक्त होता है। दूब के परमाणुओं में सभी वर्ण वाले परमाणु मौजूद हैं, इसलिए वस्तुत: तो दूब का रंग हरा ही नहीं है, किन्तु हरे रंग वाले परमाणुओं की संख्या अधिक होने के कारण दूब हमें हरी दिखाई देती है। वस्तुत: तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जैन दर्शन के दृष्टिकोण में अधिक अन्तर ही नहीं रह जाता; क्योंकि पदार्थ का वर्ण दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार पदार्थ की रचना में ही निहित होता है। पदार्थ के द्वारा कौन-कौन से तरंग-दैर्ध्य का शोषण होता है, इसका आधार पदार्थ की रचना है-पदार्थ-स्थित परमाणुओं का मूल वर्ण ही है। वर्णादि गुणों से रहित ऋणाणु किस प्रकार का अस्तित्व रखता है, इस विषय में एडिंग्टन ने कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है। सम्भवत: उनके अभिमतानुसार संहित या विद्युत-आवेश ही केवल भौतिक पदार्थ (ऋणाणु आदि) का वास्तविक गुण है और वर्णादि गुण केवल चैतन्य द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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