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________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १५३ क्या रात? और क्या प्रकाश और क्या अंधकार? ___ रात्रिभोजन न करना धर्म से सम्बन्धित तो है ही क्योंकि यह धर्म के द्वारा प्रतिपादित हआ है। इसके साथ इस निषेध का एक वैज्ञानिक कारण भी है। हम जो भोजन करते हैं, उनका पाचन होता है तैजस शरीर के द्वारा। उसको अपना काम करने के लिए सूर्य का आतप आवश्यक होता है। जब उसे सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता तब वह निष्क्रिय हो जाता है, पाचन कमजोर हो जाता है। इसलिए रात को खाने वाला अपच की बीमारी से बच नहीं सकता। यह कारण वैज्ञानिक है। दुसरा कारण है कि जब सूर्य का आतप होता है तब कीटाणु बहुत सक्रिय नहीं होते हैं। बीमारी जितनी रात में सताती है उतनी दिन में नहीं सताती। उदाहरणार्थ-वायु का प्रकोप रात में अधिक होता है। ये सारी बीमारियां रात में इसलिए सताती हैं क्योंकि रात में सूर्य का प्रकाश और ताप नहीं होता। जब वे होते हैं, तब बीमारियां उग्र नहीं होती। रस-परित्याग इसके अतिरिक्त महावीर भोजन में जिस एक बात पर और जोर देते हैं, वह है रस-परित्याग। रस-परित्याग का सामान्य अर्थ है दूध, दही, घी, चीनी, मिठाई तथा तेल-इन छह विकृतियों (विगयों) का परित्याग। विकृति शब्द प्रकृति का विलोम है। जब महावीर विकृति शब्द का प्रयोग करते हैं, तो निश्चय ही उनका संकेत प्रकृति की ओर है। प्राकृतिक भोजन सहज मन के लिए भी उत्तेजना-रहित है। वृत्तियों में उत्तेजना न आये, इसके लिए वे बार-बार रूखे-सूखे नीरस भोजन की याद दिलाते हैं। इस दृष्टि से वे विकृतियों के परित्याग की बात कहते हैं। वे न केवल शरीर को उपचित ही करती हैं पर विकारों को भी जन्म देती हैं। इसीलिए वे कहते हैं 'रसा पगामं न निसेवियव्वा। भुत्ता-रस दित्तिकरा नराणं, दितं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ।।' -प्रकाम रसों का निषेवन मत करो। वे मनुष्य के लिए उत्तेजक हैं। वे मनुष्य को उसी तरह से परेशान करते हैं जैसे मधुर फलोंवाले वृक्ष को पक्षी। पर इसका यह मतलब नहीं कि वे एकदम नीरस आहार के समर्थक तथा रसपूर्ण आहार के विरोधी हैं। आवश्यकतानुसार रसपूर्ण आहार के लिए भी उनका निषेध नहीं है। पर व्यक्ति को उसके संतुलन का बोध अवश्य होना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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