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________________ ६० जैन दर्शन और विज्ञान शक्तिशाली और इतना विकसित तथा एक अन्य प्राणी इतना अविकसित क्यों? यह सब तैजस शरीर का कार्य नहीं है। तैजस शरीर के पीछे भी एक प्रेरणा है सुक्ष्मतर शरीर की। वह सूक्ष्मतर शरीर है कर्म-शरीर। जिस प्रकार के हमारे अर्जित कर्म और संस्कार होते हैं, उनका जैस-स्पंदन होता है, उन स्पंदनों से स्पंदित होकर तैजस शरीर अपना विकिरण करता है। तैजस शरीर जिस प्रकार की प्राणधारा प्रवाहित करता है, वैसी प्रवृति स्थूल शरीर में हो जाती है। तीन शरीरों की एक श्रृंखला है-स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्मतर शरीर । स्थूल शरीर यह दृश्य शरीर है। सूक्ष्म शरीर है तैजस शरीर और सूक्ष्मतर शरीर है। कर्म-शरीर, कार्मण शरीर। प्राणी की मूलभूत उपलब्धियां तीन हैं-चेतना (ज्ञान), शक्ति और आनन्द । चेतना का तारतम्य-अविकास और विकास, शक्ति का तारतम्य- अविकास और विकास, आनन्द का तारतम्य-अविकास और विकास-यह सारा इन शरीरों के माध्यम से होता है। कुंडलिनी: स्वरूप और जागरण कुंडलिनी-जागरण का प्रश्न शरीरों के साथ जुड़ा हुआ है। तीन शरीरों से जो मध्य का शरीर है, तैजस शरीर (सूक्ष्म शरीर), उसकी एक क्रिया का नाम है तिजालब्धि' । हठयोग तंत्र में इसे 'कुंडलिनी' कहा गया है। कहीं-कहीं इसे 'चित्शक्ति' कहा जाता है। जैन साधना-पद्धति में इसे तिजोलब्धि' कहा जाता है। नाम का अन्तर है। कुंडलिनी के अनेक नाम हैं। हठयोग में इसके पर्यायवाची नाम तीस गिनाए गए हैं। उनमें एक नाम है 'महापथ' । जैन साहित्य में 'महपथ' का प्रयोग मिलता है। कुंडलिनी के अनेक नाम हैं। भिन्न-भिन्न साधना-पद्धतियों में यह भिन्न-भिन्न नाम से पहचानी गयी है। यदि इसके स्वरूप-वर्णन में की गयी अतिशयोक्तियों को हटाकर इसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो इतना ही फलित निकलेगा कि यह हमारी विशिष्ट प्राणशक्ति है। प्राणशक्ति का विशेष विकास ही कुंडलिनी का जागरण है। प्राणशक्ति के अतिरिक्त, तैजस शरीर के विकिरणों के अतिरिक्त कुंडलिनी का अस्तित्व वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध नहीं हो सकता। उनके प्रयास में कुंडलिनी का अस्तित्व प्रमाणित होता है, पर होता है वह सामान्य शक्ति के विस्फोट के रूप में। वह कुछ ऐसा आश्चर्यकारी तथ्य नहीं है जिसे अमुक योगी ही प्राप्त कर सकते हैं या जिसे अमुक-अमुक योगियों ने ही प्राप्त किया है। यह साधारण है। कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसकी कुंडलिनी जागृत न हो। वनस्पति के जीवों की भी कुंडलिनी जागृत है। हर प्राणी की कुंडलिनी जागृत होती है। यदि वह जागृत न हो तो वह चेतन प्राणी नहीं हो सकता। वह अचेतन होता है। जैन आगम ग्रन्थों में कहा गया--चैतन्य (कुंडलिनी) का अनन्तवां भाग सदा जागृत रहता है। यदि यह भाग भी Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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