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जैन दर्शन और विज्ञान में शक्ति के तीन स्थान है-गुदा, नाभि और कंठ। एक नीचे, एक बीच में और एक ऊपर। नीचे का लोक, मध्य का लोक और ऊपर का लोक। ये तीन हमारे शक्ति के केन्द्र हैं। होता यह है कि शक्ति ऊपर से नीचे को आ रही है। जबकि होना यह चाहिए की शक्ति नीचे से ऊपर की ओर जाए। आचार्यों ने, तीर्थंकरों ने कहा कि इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त मत बनो। क्या उन्हें कोई द्वेष था? क्या घृणा थी? क्या कोई बुरा लगता था? भला खाना किसको अच्छा नहीं लगता! इन्द्रियों के सारे विषय बहुत अच्छे लगते हैं, किसी को बुरे नहीं लगते। किन्तु उन्होंने देखा कि इन इन्द्रियों के माध्यम से हमारी बड़ी-से-बड़ी शक्ति नीचे के स्रोत से बाहर जा रही है
और आदमी शक्ति से खाली हो रहा है और शक्ति-शून्य होकर एक प्रताड़ना का जीवन जी रहा है। इसलिए उन्होंने कहा कि संयम करो। आज संयम को शायद लोग मान बैठे है कि यह दमन है, नियंत्रण है। आज का मनोवैज्ञानिक कहता है कि दमन नहीं होना चाहिए। आज का प्रबुद्ध आदमी कहता है कि नियंत्रण की कोई जरूरत नहीं। अच्छी बात है, दमन की कोई जरूरत नहीं है। नियंत्रण की कोई जरूरत नहीं है। कुछ भी आवश्यक नहीं तो क्या हम एक ऐसे दरवाजे को खोल दें, ऐसी खिड़की खोल दें, जिसमें से भीतर में सिमटी हुई सारी शक्ति बाहर चली जाए? मुझे लगता है, यदि हम भीतर के महत्त्व को समझ पाते, शरीर का मूल्य कर पाते तो यह नहीं होता कि नीचे का नाला तो खुला रहे और ऊपर का नाला बन्द हो जाए। दो स्रोत हैं हमारे शरीर में । शक्ति और आकर्षण के ये दो केन्द्र हैं। एक है काम की शक्ति और दूसरी है ज्ञान की शक्ति । ज्ञान की शक्ति ऊपर रहती है काम की शक्ति नीचे रहती है। नीचे के स्रोत में कामनाएं, वासनाएं, इच्छाएं, हिंसा, असत्य, चोरी की भावना-ये सारी वृत्तियां पैदा होती हैं। एक है ज्ञान का केन्द्र हमारे सिर में, जहां सारी निम्न वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। चेतना का विकास; ज्ञान का विकास, बुद्धि का विकास, उदारता, परमार्थ-यह महान् चेतना जहां पैदा होती है, वह है ऊपर का केन्द्र-सिर। आवश्यकता इस बात की थी कि हम शरीर का मूल्यांकन करते और नीचे की शक्ति को ऊपर की शक्ति के साथ मिलाकर महान् बना देते। किंतु ऐसा नही हुआ।
हमारे शरीर में बिजली है। बिजली नहीं होती है तो आदमी शून्य-सा हो जाता है। शरीर निकम्मा, इन्द्रियां निकम्मी, बुद्धि निकम्मी, सब कुछ निकम्मा-सा बन जाता है। बिजली थोड़ी होती है तब टिमटिमाता है दीप। और जब बिजली शरीर मे पूरी होती है तो आदमी जगमगाने लग जाता है।
हमारे शरीर की विद्युत्, हमारी प्राण-ऊर्जा जितनी शक्तिशाली बनती है, उतना शक्तिशाली बनता है हमारा जीवन। शरीर का आध्यात्मिक मूल्यांकन है उस
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