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जैन दर्शन और परामनोविज्ञान
११७ को शरीर से बाहर फैलने का अवसर मिलता है। आवरण की विशुद्धि संपूर्ण चैतन्य में होती है, किंतु उसका प्रकाश शरीर-प्रदेशों को करण बनाए बिना नहीं जा सकता। विद्युत्-प्रवाह होने पर भी यदि बल्ब न होता उसका प्रकाश नहीं होता। ठीक यही बात ज्ञान पर लागू होती है । आवरण की विशुद्धि होने पर चैतन्य का प्रवाह उपलब्ध हो जाता है फिर भी शरीर-प्रदेश की विशुद्धि हुए बिना वह बाह्य अर्थ को नहीं जान सकता, प्रकाशित नहीं कर सकता। इसलिए ज्ञान के क्षेत्र में आवरण-विशुद्धि और करण-विशुद्धि-ये दोनों आवश्यक होती है। केन्द्र और संवादी केन्द्र
चैतन्य-केन्द्र हमारे स्थूल शरीर में होते हैं। नाभि, हृदय, कंठ, नासाग्र, भृकुटि, तालु, सिर-ये चैतन्य-केन्द्र हैं। आवरण की विशुद्धि होने पर ये जागृत हो जाते हैं, निर्मल हो जाते हैं और अतींद्रिय ज्ञान की अभिव्यक्ति के माध्यम बन जाते हैं। ज्ञात चैतन्य-केन्द्रों के अतिरिक्त स्थल- शरीर के ऐसे अन्य परमाणस्कंध भी हैं जो अतींद्रिय ज्ञान के माध्यम बनते हैं। परिष्कृत या निर्मल बने हुए परमाणु-स्कंधों को स्थूल शरीर में देखा नहीं जा सकता। इसीलिए इन चैतन्य-केन्द्रों के विषय में विचार-भिन्नता मिलती है। कुछ लोग इनकी उपस्थिति प्राण-शरीर में मानते हैं और कुछ वासना-शरीर में । ये उन दोनों में हो सकते हैं, किंतु प्राण और वासना-शरीर में होने वाले केन्द्रों के संवादी केन्द्र यदि स्थूल शरीर में न हों, तो ज्ञान को अभिव्यक्ति नहीं मिल सकती। इंद्रियज्ञान के केंद्र सूक्ष्म शरीर में होते हैं और उनके संवादी केन्द्र हमारे स्थूल में होते हैं, तभी भीतर की ज्ञान-रश्मियां बाह्य जगत् में आती हैं। इन चैतन्य-केन्द्रों पर भी यही नियम लागू होता है।
जो चैतन्य-केंद्र नाभि से ऊपर के भाग में होते हैं, वे विशद होते हैं। कुछ चैतन्य-केंद्र नीचे भी होते हैं, वे अविशद होते है; इसलिए आध्यात्मिक उत्क्रमण करने वालों के वे नहीं होते। परामनोविज्ञान में अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण (एक्स्ट्रा-सैन्सरी परसैप्शन)
सामान्यत: बाह्य जगत् का बोध हमें अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही होता है। किन्तु जब किसी भी मन: प्रभाव अथवा भौतिक वस्तु या घटना का बोध हमें बिना किसी इन्द्रिय संवेद अथवा तार्किक अनुमान से हो तो उसे अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण (एक्स्ट्रा -सैंसरी परंसैप्शन) कहा जा सकता है। और, क्योंकि अभी तक इस प्रकार के बोध की कोई सामान्य व्याख्या किसी भी विज्ञान द्वारा सम्भव नहीं हो पाई है -अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण को 'परासामान्य' की श्रेणी में रखकर इसका परामनोविज्ञान में विस्तृत व गहन अध्ययन करने का प्रयास किया जा रहा है।
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