Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोभारती-जैन-प्रकाशनपुष्पम्-६ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् विजयोल्लास-महाकाव्यम् तथा सिद्धसहसूनामकोशः रचयितारः स्व. न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्यायपू० भीमद्यशोविजयजीमहाराजाः सम्पादकः संशोधकश्च प्राचार्यश्रीयशोदेवसूरीश्वरजीमहाराजः (भूतपूर्व-मुनि-श्रीयशोविजयजीमहाराजः) साहित्य-कलारत्नम् प्रकाशिका श्रीयशोमारतीजनप्रकाशनसमितिः 1604 ROMAME DOOPY Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोभारती-जैन-प्रकाशन-पुष्पम्-६ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यं विजयोल्लास-महाकाव्यं -तथासिद्धसहस्रनामकोशः - रचयितार: - . न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्यायपू० श्रीमद् यशोविजयजी महाराजाः . *** - सम्पादक: संशोधकश्चजैनमुनिः पू० श्रीयशोविजयजीमहाराजः - साहित्य-कलारत्नम् . प्रकाशिका श्रीयशोभारतीजनप्रकाशनसमितिः बम्बई Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिकाश्रीयशोभारती जैन प्रकाशन समितिः द्वारा-जे० चित्तरंजन एण्ड कम्पनी 312, मेकर भवन, रूम नं. 3, 21, न्य मरीन लाइन्स, बम्बई - 400020 प्रथमावृत्तिःप्रतय:-५०० मूल्यम्-२०-०० बीस रुपये वि० सं० 2034] वीर सं० 2504 [ई० सं० 1976 (c) सर्वेऽधिकाराः प्रकाशिका-समित्यधीना: प्राप्ति स्थान- . (1) श्री यशोभारती जैन प्रकाशन समिति द्वारा–जे० चित्तरंजन एण्ड कम्पनी 312, मेकर भवन, रूम नं० 3, 21, न्यू मरीन लाइन्स, बम्बई - 400020 (महाराष्ट्र) (2) श्रीयशोभारती जैन प्रकाशन समिति द्वारा-श्रीकान्तिलाल डी० कोरा 5/48 महावीर जैन विद्यालय, अगस्त क्रान्ति मार्ग, बम्बई - 400026 (महाराष्ट्र) मुद्रक-निरुपमा प्रिन्टर्स, 5336 लड्डूघाटी, पहाड़गंज, . नई दिल्ली-११००५५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Yashobharati Jain Publication Series-9 Arshabhiya-Charita-Mahakavyam Vijayollasa-Mahakavyam and Siddhasahasranamakoshah By Nyaya-Visharada, Nyayacharya, Mahopadhyaya Shrimad Yashovijayaji Mahaarja Cheif Editor and Vetter Jain Muni Shri Yashovijayji Maharaja Sahitya-Kala-ratpa Publisher : Shri Yashobharati Jain Prakashan Samiti BOMBAY Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher Shri Yashobharati Jain Prakashan Samiti, C/o. M/s. J. Chittaranjan & Co. 312, Maker Bhawan, III 21, New Marine Lines, Bombay - 400020 (Maharastra) First Edition Copies 500 Price : Rs. 20.00 Rupees Twenty Vikram Samvat-2034). Vir Samvat 2504 (A.D. 1978 (c) Shri Yashobharati Jain Prakashan Samiti, BOMBAY Distribution Centres : 1. Shri Yasho Bharati Jain Prakashan Samiti, C/o. M/s J. Chittaranjan & Co. 312, Maker Bhawan, III 21, New Marine Lince, Bombay-400020. 2. Shri Yasho Bharati Jain Prakashan Samiti, C/o. Kanti Lal D. Kora, 5/48, Mahavir Jain Vidyalaya, August Kranti Marg, BOMBAY-26 Printers ; Nirupama Printers, 5339, Laddu Ghati, Paharganj, New Delhi-110055. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका 1. प्रकाशकीय निवेदन 6-8 2. महोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयजी गणिवर्य का चित्र एवं जीवन-चरित्र. 6-24 3. प्रस्तुत पुस्तक में संगृहीत ग्रंथों की स्वयं पू० उपाध्यायजी द्वारा लिखित पाण्डुलिपियों के परिचयात्मक चित्र 25-27 4. प्रधान-सम्पादकीय-आर्षभीयचरित्र अने विजयोल्लास बे ___महाकाव्यो अने एने अनुलक्षीने कथनीय कईंक गुजराती) (-11) 5. सिद्धसहस्रनी प्रस्तावना (गुजराती) (12-26) 6. भगवान् श्री नेमिनाथजी- स्तवन "पू० म०म० श्रीमद् यशोविजयजी महाराज (27-28) 7. उपर्युक्त दोनों प्रस्तावनाओं का हिन्दी अनुवाद (1-26) 8. भगवान् श्रीनेमिनाथजी का स्तवन (गुजराती भाषा में) (27-28) 6. प्राक्कथन ........ डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी 1-48 10. आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् / प्रथमः सर्गः 1-36 द्वितीयः सर्गः 36-70 तृतीयः सर्गः 71-101 चतुर्थः सर्गः (अपूर्णः) 102-116 11. विजयोल्लास-महाकाव्यम् प्रथमः सर्गः 121-147 द्वितीयः सर्गः (अपूर्णः) 148-164 12. सिद्धसहस्रनाम कोशः 165-164 सिद्धसहस्रनामावलीपाठः 185-207 परिशिष्ट 1. आर्षभीयचरितमहाकाव्यस्य श्लोकानामकाराद्यनुक्रमणिका 206-18 2. विजयोल्लासमहाकाव्यस्य श्लोकानामकाराद्यनुक्रमणिका 216-222 3. सिद्धसहस्रनामकोशस्य श्लोकानामकाराद्यनुक्रमणिका ... 223-224 4. सिद्धसहस्रनामकोशस्य नाम्नामकाराद्यनुक्रमणिका 225-240 5. शुद्धि-पत्र 241-242 6. श्रीमद्यशोविजयजीमहाराज की कृतियों की सूची :: ... (क से ज) 7. मुनि श्रीयशोविजयजी (वर्तमान-आचार्य श्रीयशोदेव : सूरीश्वरंजी) महाराज की कृतियों की सूची -x तियों की सूची ... (झ से ध) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन परमपूज्य आचार्य श्री 1008 श्रीमद् विजय प्रतापसूरीश्वरजी महाराज ' तथा युगदिवाकर परमपूज्य आचार्य श्री 1008 श्रीमद् विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज एवं परमपूज्य साहित्य-कलारत्न मुनिवर श्रीयशोविजयजी महाराज की प्रेरणा से आज बीस वर्ष पूर्व सन् 1957 ई० में बम्बई के माटुंगा उपनगर में दानवीर धर्मश्रद्धालु श्रेष्ठिवर्य श्रीयुत माणेकलाल चुन्नीलाल के शुभ करकमलों से 'श्रीयशोविजय-स्मृतिग्रन्थ' के प्रकाशन का भव्य-समारोह सम्पन्न हुआ था। उस समय वम्बई के अनेक सुप्रसिद्ध तथा अग्रणी. समाजसेवी उपस्थित हुए थे। उसी प्रसङ्ग पर सत्रहवीं शती में उत्पन्न, हमारे परमोपकारी, जैनशासन के समर्थ ज्योतिर्धर, सैकड़ों ग्रन्थों के प्रणेता, षड्दर्शनवेत्ता, न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य सुगम बने, इस दृष्टि से एक छोटा-सा फण्ड इकट्ठा किया गया और उसमें जैन-जनता ने उदारता-पूर्वक सहयोग दिया / तदनन्तर उनके ग्रन्थों को प्रकाशित करने के लिए 'श्री यशोभारती जैन प्रकाशन समिति' नामक एक संस्था की स्थापना की गई। इस संस्था द्वारा आज तक कुछ ग्रंथों का प्रकाशन किया गया, जिनमें 'ऐन्द्रस्तुतिचतुविशतिका, यशोदोहन और वैराग्यरति' आदि ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। इन ग्रन्थों के प्रकाशन के पश्चात् फण्ड कम होने से चिरस्थायी फण्ड के लिए प्रयास किया गया। जैन श्रीसंघ ने पुनः प्रशंसनीय उत्साह से सहयोग दिया। उसके परिणाम-स्वरूप पूर्ववत् प्रकाशन के कार्य को आगे बढ़ाया गया। उसी का यह परिणाम है कि पू. उपाध्यायजी के अन्य ग्रंथों के प्रकाशन का कार्य सुलभ हो सका। एतदर्थ उपदेशकों, प्रेरकों और ज्ञानप्रेमी दानदाताओं को हम धन्यवाद देते हैं। पूज्य उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज की रचनाएं क्रमशः प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी और मिश्रभाषा में हैं। वे संस्कृत भाषा के एक महान् Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि और टीकाकार थे / उनकी रचना-शैली प्रौढ-पाण्डित्य से परिपूर्ण थी ।अतः उनका प्रानन्द सर्वसाधारण को प्राप्त हो, इस बात को लक्ष्य में रखकर संस्था ने प्रारम्भ से ही गुजराती और हिन्दी भाषा में अनुवाद करवाकर ग्रन्थ-प्रकाशन को प्राथमिकता दी है। इस दिशा में गत वर्ष पूज्य उपाध्यायजी महाराज के संस्कृत भाषा में रचित स्तोत्रों का हिन्दी अनुवाद करवाकर 'स्तोत्रावली' नामक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशन किया गया। इनके प्रकाशन से जहाँ भक्तजनों को भगवद्भक्ति की प्रेरणा प्राप्त हुई वहीं काव्य-कलारसिकों को उनकी उत्तम काव्यकला का प्रानन्द भी मिला। हिन्दी भाषा में अनुवाद होने से भारत के सभी प्रान्तों में उसका समान आदर हुमा और संस्था का यह कार्य सर्वत्र सम्मान को प्राप्त हुआ। ऊपर यह कहा गया है कि श्री उपाध्याय जी न केवल कवि ही थे, अपितु एक महान् टीकाकार भी थे। इस दृष्टि से उनकी साहित्यशास्त्र के एक महान् ग्रन्थ 'काव्य-प्रकाश' पर की हुई टीका की प्रति परमपूज्य, जैन साहित्य के प्रखर संशोधक, ग्रन्थ-प्रकाशक तथा आजीवन श्रुतोपासक, विद्वद्वर्य, प्रागमप्रभाकर मुनिप्रवर 'श्रीपुण्यविजयजी महाराज' ने एक अशुद्धप्राय प्रति की अत्यन्त सुन्दर अक्षरों में स्वयं अपने हाथ से प्रेस कापी तैयार की तथा वह इस संस्था के प्रेरक पूज्य मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज को सहर्ष प्रदान की / यद्यपि दुर्भाग्य से यह टीका केवल दूसरे और तीसरे उल्लास पर ही मिली और शेष उल्लासों के बारे में कुछ निर्णयात्मक रूप में कहा भी नहीं जा सकता है तथापि इन दो उल्लासों की उपलब्ध टीका को सर्वप्रथम सम्पादित कर विद्वज्जनों तक पहुंचाने का प्रार्ष-पुरुषार्थ पू० मुनि श्री यशोविजयजी महाराज ने किया / अत्यन्त परिश्रम-पूर्वक पाण्डुलिपि के आधार पर शुद्ध पाठयोजना की तथा खण्डित अंशों को यथासम्भव जोड़ने का सफल प्रयास किया, यह अत्यन्त मानन्द का धिषय था। संस्कृत-साहित्य के प्रत्येक अध्येता के लिए 'काव्यप्रकाश'. का अध्ययन अत्यावश्यक होता है और यही कारण है कि इसकी अनेक टीकाएं बनी हैं। ऐसे उत्तम ग्रन्थ की इस महत्त्वपूर्ण टीका का हिन्दी अनुवाद भी हो जाय तो अत्युत्तम हो, ऐसी भावना होने के कारण डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी के माध्यम से इसका अनुवाद करवाया गया और विद्वत्प्रवर मुनिराज श्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजय जी के निरीक्षण-परीक्षण के पश्चात् डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी के सम्पादन में ही इसका उन्हीं के विस्तृत उपोद्धात—जिसमें जैन साहित्य-ग्रन्थ और टीकाकारों के परिचय के साथ ही, 'काव्यप्रकाश' की अब तक उपलब्ध 146 टीका और टीकाकारों का परिचय है-के साथ व्यवस्थित प्रकाशन भी हुआ। * इसी परम्परा में पूज्य मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज के निर्देशन में हीस्याद्वादरहस्यम् वीतरागस्तोत्र के आठवें प्रकाश की 'बृहद्, मध्यम और जघन्य' नामक तीन वृत्तियों से युक्त, प्रमेय-माला, प्रात्मख्याति–वादमाला-(द्वितीयतृतीय विषयतावाद-न्यायसिद्धान्तमञ्जरी--शब्दखण्ड-टीकादिसंग्रहः' का भी प्रकाशन हो रहा है, जो अब प्रायः पूर्णता पर है / इस दिशा में हमारा अगला चरण यह ग्रन्थ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में क्रमश:१. पार्षभीय चरित-महाकाव्य 2. विजयोल्लासमहाकाव्य तथा 3. सिद्धसहस्रनामकोश: ये तीन ग्रन्थ (जिनमें प्रथम, द्वितीय अपूर्ण और तृतीय पूर्ण) हैं / इनका प्रकाशन किया गया है। . 'स्तोत्रावली' तथा 'काव्यप्रकाश' के समान ही इस ग्रन्थ के सम्पादन, मुद्रण आदि का कार्य पूज्य मुनिराजजी के निर्देशन में डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी' ने ही किया है / साथ ही पूज्य श्री की कार्यव्यस्तता के कारण भूमिका लेखन के लिए भी डॉ० त्रिपाठी जी ने महाराज श्री से अपेक्षित साहित्य प्राप्त करके विस्तारपूर्वक विभिन्न विषयों का विवेचन किया है तथा इस ग्रन्थ को उपयोगी बनाने का प्रयास किया है, तदर्थ समिति उनकी आभारी है। _ 'यशोभारती जैन समिति' द्वारा प्रकाशित यह नौवां ग्रन्थ विद्वजनों को अवश्य ही आनन्दित करेगा इस मङ्गल-कामना के साथ इसके प्रकाशन में शास्त्रदृष्टि अथवा मतिदोष से कोई त्रुटि रह गई हो, तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हैं और आशा करते हैं कि सुधी पाठक हमें सूचित करने की कृपा करेंगे और स्वयं सुधार कर इसके अध्ययन-अध्यापन द्वारा श्रम को सफल बनायेंगे। मन्त्रीमाघ शुक्ला 5, श्रीयशोभारती जन प्रकाशन समिति, वि० सं० 2034 बम्बई: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय, -परमपूज्य श्रीमद् यशोविजयजी महाराज आर्ष भीयचरित महाकाव्य, विजयोल्लास महाकाव्य तथा सिद्धसहस्रनामकोश के प्रणेता Page #11 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय, षड्दर्शनवेत्ता पूज्य श्रीमद यशोविजयजी महाराज. [संक्षिप्त व्यक्तित्व और कृतित्व] ' -मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज गुजरात-प्रदेश हमारे भारतवर्ष के पश्चिमी भाग में गुजरात प्रदेश है / इस भूमि पर ही शत्रुञ्जय, गिरनार, पावागढ़ जैसे अनेक पर्वतीय पवित्र धाम हैं, जो दूर-दूर से लोगों के मन को आकर्षित करते हैं / धार्मिक क्षेत्र में दिग्गजस्वरूप समर्थ विद्वान्, महान् प्राचार्य और श्रेष्ठ सन्त, तपस्विनी साध्वियाँ तथा राष्ट्रीय अथवा सामाजिक क्षेत्र में सर्वोच्च कोटि के नेता, कार्यकर्ता, साहित्यक्षेत्र में विविध भाषा के विख्यात लेखक, कवि और सर्जक भी गुजरात की भूमि ने उत्पन्न किए हैं। महान वैयाकरण पाणिनि के संस्कृत व्याकरण से निर्विवादरूप में अति उच्चकोटि का माने जाने वाले 'सिद्धहेम-शब्दानुशासन' नामक व्याकरण की अनमोल भेंट केवल गुजरात को ही नहीं, अपितु समस्त विश्व को जो प्राप्त हुई है, उसके रचयिता गुजरात की सन्तप्रसू भूमि पर उत्पन्न जैनमुनि कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जी ही थे। भारत के अठारह प्रदेशों में अहिंसा धर्म 1. सोमप्रभसूरि ने 'शतार्थ-काव्य' की स्वोपज्ञवृत्ति में श्री हेमचन्द्राचार्य जी के बारे में निम्नलिखित पद्य दिया है जो कि उनकी कृतियों का परिचायक क्लप्तं व्यांकरणं नवं विरचितं छन्दो नवं द्वधाश्रयालङ्कारौ प्रथितो नवौ प्रकटितं श्रीयोगशास्त्रं नवम् / तर्कः सज्जनितो नवौ जिनवरादीनां चरित्रं नवं, बद्धं येन न केन केन विधिना मोहः कृतो दूरतः // Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 का व्यापक प्रचार करनेवाले गुर्जरेश्वर परमाहत महाराजा कुमारपाल भी गुजरात की धरती पर उत्पन्न होनेवाले नर-रत्न थे। जिनके आदेश से सेना के लाखों की संख्या में नियुक्त व्यक्ति, हाथी एवं घोड़े भी जहाँ वस्त्र से छना हुया पानी पीते थे। सिर में पड़ी हुई जूं तक को जिसके राज्य में मारा नहीं जा सकता था, जिसने धरती से हिंसा-राक्षसी को सर्वथा देशनिकाला दे दिया था, वे महाराजा कुमारपाल पूज्य श्री हेमचन्द्राचार्यजी के ही शिष्य थे / यही कारण है कि हेमचन्द्राचार्य एवं कुमारपाल की जोड़ी द्वारा लोकहृदय में बहाई गई अहिंसा, दया, करूणा, प्रेम, कोमलता, सहिष्णुता, समभाव, शान्तिप्रियता, धार्मिकभाव, सन्तप्रेम, उदारता आदि गुणों. की धारा इस देश में प्रमुख स्थान रखती है। वस्तुतः अपने गुरुदेव के आदेश से कुमारपाल द्वारा योग्यता और सत्ता के सहारे गुजरात की धरती के प्रत्येक घर से लेकर कण-कण तक फैलाई गई अहिंसा भारत के इतिहास में बेजोड़ है, अद्भुत है और सदा के लिए अमर है / जसवन्तकुमार भावी यशोविजयजी, __ ऐसी गुजरात की पुण्य भूमि पर उत्तर गुजरात में एक समय गुजरात की राजधानी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त 'पाटण' शहर है जो कि मन्दिर, सन्त, महात्मा, धर्मात्मा तथा श्रीमन्तों से सुशोभित है / उस पाटण नगर के निकट ही 'धीणोज' गाँव है। इस धीणोज से कुछ दूरी पर 'कनोडूं" नामक गाँव है। आज वह गाँव सामान्य गाँव जैसा है / आज वहां संभवत: जैनों के एक-दो ही घर होंगे किन्तु सोलहवीं शती में वहाँ जनों की बस्ती अधिक रही होगी। इसी 'कनोई' गांव में 'नारायण' नामक एक जैन व्यापारी रहते थे, जो धर्मिष्ठ थे, उनकी पत्नी का नाम 'सौभाग' (सौभाग्यदेवी) था। इस पत्नी ने किसी 1. पूज्य उपाध्यायजी ने स्वरचित किसी भी कृति में अपनी जन्मभूमि, शैशवकाल की निवासभूमि एवं माता-पिता आदि का उल्लेख नहीं किया है किन्तु प्रायः 150 वर्ष पश्चात् उनके बारे में कान्तिविजयजी द्वारा लिखित 'जसबेलड़ी' अर्थात् 'सुजसबेली भास' से कुछ परिचय प्राप्त होता है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 सुयोग्य समय में एक महान् तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। माता-पिता ने उसका नाम 'जसवंत कुमार' रखा। ये जसवंत ही थे हमारे भावी महान् विद्वान् मुनि 'यशोविजयजी।' जन्मकाल अत्यन्त खेद की बात है कि वे किस वर्ष के किस मास में किस दिन उत्पन्न हुए थे' इसका कहीं कोई उल्लेख हमें प्राप्त नहीं होता है / उनके जीवन को व्यक्त करने वाली---'सुजसबेली, ऐतिहासिक वस्त्रपट, हैमधातुपाठ की लिखित पोथी, ऊना के स्तवन का लिखित पत्र तथा उनके द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ - इन सब सामग्रियों का अध्ययन करने से आपका जन्म सम्भवतः वि० सं० 1640 से 1650 के बीच माना जा सकता है तथा वे सं० 1743 में स्वर्गवासी हुए थे और इस उल्लेख के आधार पर ही उनकी आयु सौ वर्ष की रही होगी यह अनुमान किया जा सकता है / शासन-सेवा के लिए समर्पण सं० 1678 में 'सुजसबेली' रचना के कथनानुसार पण्डित मुनि 'नयविजय जी' कुणगेर से चातुर्मास करके कनोड़ पधारे / जसवन्त की माता 'अपने पुत्र का जीवन धार्मिक-संस्कारों से सुवासित बने' इस भावना से प्रतिदिन देवदर्शन तथा गुरुदर्शन के लिए जाती थीं तब जसवन्त को भी साथ ले जाती थीं। देवदर्शन करके नित्य उपाश्रय में गुरु को वन्दना और सुखसाता की पृच्छा करके 'माङ्गलिक पाठ का श्रवण करतीं और अपने घर गोचरी-भिक्षा का लाभ देने की प्रार्थना करतीं। धीरे-धीरे जसवन्त अन्य समय में भी उपाश्रय जाता-आता, 1. 'सुजसबेलि' (ढाल 1, कड़ी 13) के अनुसार उपाध्यायजी की बड़ी दीक्षा का समय वि० सं० 1688 दिया है, 'ऐतिहासिकवस्त्रपट' में वि० सं० 1663 का उल्लेख करते हुए यशोविजयजी का उल्लेख किया है, 'हैमधातुपाठ' की प्रति वि० सं० 1665 में लिखित तथा 'उन्नतपुरस्तवन' की वि० सं० 1668 की प्रति पू० उपाध्याय जी द्वारा लिखित प्राप्त होती है, अतः इन सभी के आधार पर इस समय का अनुमान किया जाता है / Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 साधुओं के साथ बैठता, साधु महाराज उसे प्रेम से बुलाते तथा दीक्षा के सम्बन्ध में बालक को ज्ञान हो उस पद्धति से प्रेरणा देते / रत्नपरीक्षक जौहरी जिस प्रकार हीरे को परखता है तथा उसके मूल्य का अनुमान निकालता है, उसी के अनुसार गुरुवर्य नयवियजी ने भी जसवन्त के तेजस्वी मुख, विनय तथा विवेक से पूर्ण व्यवहार, बुद्धिमत्ता, चतुरता, धर्मानुरागिता आदि गुणों को देखकर उसमें भविष्य के एक महान् नररत्न की झाँकी पाई और जसवन्त के भविष्य का अङ्कन कर लिया। ___ गुरुदेव श्री नयविजय जी महाराज ने स्थानीय जैन श्रीसंघ की उपस्थिति में बालक जसवन्त को जैन-शासन के चरणों में समर्पित करने अर्थात् दीक्षा देने की मांग की। जैनशासन को ही सर्वस्व माननेवाली माता ने सोचा कि 'यदि मेरा पुत्र घर में रहेगा तो अधिक से अधिक वह धनाढय बनेगा, देशविदेश में प्रख्यात होगा या कुटुम्ब का भौतिक हित करेगा।' गुरुदेव ने जो कहा है उस पर विचार करती हूं तो मुझे लगता है कि 'मेरा पुत्र घर में रहेगा तो सामान्य दीपक के समान रहकर घर को प्रकाशित करेगा किन्तु यदि त्यागी होकर ज्ञानी बन गया तो सूर्य के समान हजारों घरों को प्रकाशित करेगा, हजारों आत्माओं को प्रात्मकल्याण का मार्ग बताएगा। अत: यदि एक घर की अपेक्षा अनेक घरों को मेरा पुत्र प्रकाशित करे, तो इससे बढ़कर मुझे और क्या प्रिय हो सकता है ? मैं कैसी बड़भागी होऊँगी? मेरी कुक्षी रत्नकुक्षी हो जाएगी।' ऐसे विचारों से माता के हृदय में हर्ष और प्रानन्द का ज्वार उठा, जनशासन को अपनाई हुई माता ने उत्साहपूर्वक गुरु और संघ की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने अतिप्रिय कुमार को एक शुभ चौघड़िये में समस्त जैन श्रीसंघ की मंगल उपस्थिति में प्रसन्नतापूर्वक गुरु श्रीनयविजयजी को समर्पित कर दिया। यह भी एक धन्य क्षण था। इस प्रकार जैन-शासन के भविष्य में होने वाले जयजयकार का बीजारोपण हुआ / 1. 'पत्तनासन्नवत्ति-'कुणगिरि'-ग्रामतः समेतानां श्रीनयविजय-गुरुवर्याणां बभूव परिचय' इति / 'जम्बूस्वामी रास उद्धरण, भूमिका—जैनस्तोत्रतसन्दोह. भाग प्रथम / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जसवन्त की भागवती दीक्षा धर्मात्मा सोभागदे ने बैरागी और धर्मसंस्कारी जसवन्त को शासन के चरणों में अर्पित कर दिया। छोटे से कनोड़ ग्राम में ऐसे उत्तम बालक को दीक्षा देने का कोई महत्त्व नहीं था। अतः श्रीसंघ ने अनुकूल साधन-सामग्रीवाले निकटस्थ पाटण नगर में ही दीक्षा देने का निर्णय लिया। पिता नारायणजी का पाटण शहर के साथ उत्तम सम्बन्ध था। इसलिए हमारे चरित्रनायक पुण्यशाली जसवंतकुमार की भागवती दीक्षा शुभ-मुहूर्त में 'अणहिलपुर' के नाम से प्रसिद्ध पाटण शहर में बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुई। पद्मसिंह की विरक्ति और दीक्षा बचपन से ही बालक जसवन्त के वैराग्यपूर्ण संस्कारों का प्रभाव उसके भाई पद्मसिंह पर पूर्णतया पड़ रहा था, अतः अपने भाई को संयम के पथ पर जाते हुए देखकर जसवन्त के भाई ‘पद्मसिंह' का मन भी वैराग्य के रंग में रंग गया। धर्मात्मा माता-पिता उसमें सहायक बने और पद्मसिंह द्वारा दीक्षा लेने की उत्कट भावना व्यक्त करने पर उसे भी उसी समय दीक्षा दी गई / जनश्रमण परम्परा के नियमानुसार गृहस्थाश्रम का नाम बदलकर जसवन्त का नाम---'जसविजय' 'यशोविजय' और पद्मसिंह का नाम 'पद्मविजय' रखा गया। इन नामों का समस्त जनता ने जयनादों की प्रचण्ड घोषणा के साथ अभिनन्दन किया। जनता का अानन्द अपार था। चतुर्विध श्रीसंघ ने सुगन्धित अक्षतों द्वारा प्राशीर्वाद दिए / दोनों पुत्रों के माता-पिता ने भी अपने दोनों लाड़लों को आशीर्वाद देते हुए हार्दिक बधाई दी। अपनी कोख को प्रकाशित करनेवाले दोनों बालकों को चारित्र के वेश में देखकर उनकी आँखें अश्रु से भीग गईं। घर में उत्पन्न प्रकाश आज से जगत् को प्रकाशित करनेवाले पथ पर प्रस्थान करेंगे, इस विचार से दोनों के हृदय आनन्दविभोर हो गए। संयम-साधना और धार्मिक शिक्षा पहले छोटी दीक्षा दी जाती है, बाद में बड़ी। अतः इस दीक्षा के पश्चात् बड़ी दीक्षा के योग्य तप किया। पूरी योग्यता प्राप्त होने पर उन्हें बड़ी दीक्षा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 16 दी गई / तदनन्तर गुरु नयविजयजी विहार करके अहमदाबाद पधारे / वहाँ विविध प्रकार का धार्मिक शिक्षण प्रारम्भ किया। तीव्र बुद्धिमत्ता के कारण वे तेजी से पढ़ने लगे। पढ़ने में एकाग्रता और उत्तम व्यवहार को देखकर श्रीसंघ के प्रमुख व्यक्तियों ने बालमुनि जसविजय में भविष्य के महान् साधु की अभिव्यक्ति पाई / बुद्धि की कुशलता, उत्तर देने की विलक्षणता आदि देखकर उनके प्रति बहुमान उत्पन्न हुआ, धारणा-शक्ति का अनूठा परिचय मिला। वहाँ के भक्तजनों में 'धनजी सुरा' नामक एक सेठ थे। उन्होंने जसविजयजी से प्रभावित होकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि 'यहाँ उत्तम पण्डित नहीं हैं अतः विद्याधाम काशी में यदि इन्हें पढ़ने के लिए ले जाएँ तो ये द्वितीय हेमचन्द्राचार्य जैसे महान् और धुरन्धर विद्वान् बनेंगे / ' इतना निवेदन करके धनजी भाई ने इस कार्य के लिये होनेवाले समस्त व्यय का भार उठाने तथा पण्डितों का उचित सत्कार करने का वचन भी दिया। विद्याधाम काशी में शास्त्राध्ययन यशोविजय गुरुदेव के साथ उत्तम दिन , विहार करके परिश्रम-पूर्वक गुजरात से निकल कर दूर सरस्वतीधाम काशी में पहुंचे। वहाँ एक महान् विद्वान् के पास सभी दर्शनों का अध्ययन किया / ग्रहण-शक्ति, तीव्रस्मृति तथा आश्चर्यपूर्ण कण्ठस्थीकरण शक्ति के कारण व्याकरण, तर्क-न्याय आदि शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही वे अन्यान्य शास्त्रों की विविध शाखाओं के पारङ्गत विद्वान् भी बन गये / दर्शन-शास्त्रों का ऐसा आमूल-चूल अध्ययन किया कि वे 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में प्रसिद्ध हो गए / उसमें भी नव्यन्याय के तो वे बेजोड़ विद्वान् बने तथा शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने में उनकी बुद्धि-प्रतिभा ने 1. 'यशोदोहन' में 'इस दीक्षा का समय वि० सं० 1668 दिया है तथा यह दीक्षा हीरविजयजी के प्रशिष्य एवं विजयसेन सूरि जी के शिष्य विजय देवसरिजी ने दी थी' ऐसा उल्लेख है / देखो पृ० 7 / 2. वहीं इसके लिए दो हजार चाँदी के दीनार व्यय करने का भी उल्लेख है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए। वहाँ आपको अध्ययन कराने वाले पण्डितजी को प्रतिदिन एक रुपया दक्षिणा के रूप में दिया जाता था। सरस्वती-मन्त्र-साधना काशी में गङ्गातट पर रहकर उपाध्यायजी ने 'ऐङ्कार' मन्त्र द्वारा सरस्वतीमन्त्र का जप करके माता शारदा को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया था जिसके प्रभाव से पूज्य यशोविजय जी की बुद्धि तर्क, काव्य और भाषा के क्षेत्र में कल्पवृक्ष की शाखा के समान पल्लवित, पुष्पित एवं फलवती बन गई। तब से ही श्री यशोविजयजी महाराज विभिन्न शास्त्रों का स्वयं पालोडन करके उन पर टीका आदि का निर्माण और उत्तमोत्तम प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी एवं गुजराती भाषा में काव्य रचनाएँ करने लगे। . . शास्त्रार्थ एवं सम्मानित पदवीलाभ ... एक बार काशी के राज-दरबार में एक महासमर्थ दिग्गज विद्वान्-जो प्रजैन थे—के साथ पू. उपाध्यायजी ने अनेक विद्वज्जन तथा अधिकारी-वर्ग की उपस्थिति में शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला धारण की थी। उनके अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से सम्मानित किया था। उस समय जैन संस्कृति के एक ज्योतिर्धर और जैन प्रजा 1. इस सम्बन्ध में वि० सं० 1736 में स्वरचित 'जम्बस्वामी रास' में स्वयं उपाध्यायजी ने निम्नलिखित पंक्तियाँ दी हैं शारदा सार दया करो, पापी वचन सुरंग / तू तूटी मुझ ऊपरे, जाप करत उपगंग // तर्क काव्यनो तें सदा, दोधो वर अभिराम / .. . भाषा पण करी कल्पतरु शाखासम परिणाम // इसी प्रकार 'महावीर-स्तुति' (पद्य 1) तथा 'अज्झत्तमतपरिक्खा' की स्वोपज्ञवृत्ति को प्रशस्ति (पद्य 3) में भी ऐसा ही वर्णन किया हैं / Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के इस सपूत ने जैन धर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया तथा जैन शासन का अभूतपूर्व गौरव बढ़ाया / आगरा में न्यायशास्त्र का विशिष्ट अध्ययन काशी से विहार करके आप आगरा पधारे और वहाँ चार वर्ष रहकर किसी न्यायाचार्य पण्डित से और भी तलस्पर्शी अभ्यास किया। तर्क के सिद्धान्तों में आप उत्तरोत्तर पारङ्गत होते गए / वहाँ से विहार करके गुजरात के अहमदा: बाद नगर में पधारे। वहाँ श्रीसंघ ने विजयी बनकर आनेवाले इस दिग्गजविद्वान् मुनिराज का भव्य स्वागत किया। अवधान प्रयोग तथा सम्मान उस समम अहदाबाद में महोबतखान नामक सूबा राज्य-कार्य चला रहा था। उसने पूज्य उपाध्याय जी की विद्वत्ता के बारे में सुनकर आपको आमन्त्रित किया / सूबे की प्रार्थना पर आप वहाँ पधारे और 18 अवधानप्रयोग कर दिखाए।' सूबा आपकी स्मरणशक्ति पर मुग्ध हो गया / आपका भव्य सम्मान किया और सर्वत्र जैनशासन के जयजयनाद द्वारा एक अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया। इसी प्रकार के अन्य अवधान-प्रयोग भी आपने किये होंगे / इससे भी आपकी तीव्र स्मृति शक्ति का परिचय मिलता है / उपाध्याय पद-प्राप्ति वि० सं० 1718 में श्रीसंघ ने तत्कालीन तपागच्छीय श्रवणसंघ के अग्रणी श्रीदेवसूरिजी ने प्रार्थना की कि 'यशोविजयजी महाराज बहुश्रुत विद्वान् हैं और उपाध्याय पद के योग्य हैं / अतः उन्हें यह पद प्रदान करना चाहिए।' इस प्रार्थना को स्वीकृत करके सं० 1718 में श्रीयशोविजयजी गणी को उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। 1. इसी प्रकार श्री यशोविजय जी गणी ने वि० सं० 1677 में जनसंघ के समक्ष आठ बड़े अवधान किए थे, जिसका उल्लेख उनकी हिन्दी रचना 'अध्यात्मगीत' में मिलता है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 शिष्य-सम्पदा की दृष्टि से श्री उपाध्याय जी महाराज के अपने छह शिष्य थे, ऐसी लिखित सूचना प्राप्त होती है।' विभिन्न विरुद-प्राप्ति ___ उपाध्याय जी ने स्वयं लिखा है कि 'न्याय के ग्रन्थों की रचना करने से मुझे 'न्यायाचार्य' का विरुद विद्वानों ने प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त आपको 'न्यायविशारद, कवि, लघुहरिभद्र, कूर्चालीशारद तथा ताकिक' प्रादि गौरवपूर्ण विरुदों से भी विद्वानों ने अलंकृत किया था।' उपाध्यायजी ने अनेक स्थानों पर विचरण किया था किन्तु प्रमुख रूप से वे गुजरात और राजस्थान में रहे होंगे ऐसा उनके ग्रन्थों एवं स्तुतियों से ज्ञात होता है। स्वर्गवास एवं स्मारक . 'सुजसबेली' के आधार पर उनका अन्तिम चातुर्मास बड़ौदा शहर के पास डभोई (दर्भावती) गाँव में हुआ और वहीं वे स्वर्गवासी हुए। इस स्वर्गवास का वर्ष सुजसबेलि के कथनानुसार सं० 1743 था तदनन्तर उनका स्मारक डभोई में उनके अग्निसंस्कार के स्थान पर बनाया गया और वहाँ उनकी चरणपादुका स्थापित की गई। पादुकाओं पर वि० सं० 1745 में प्रतिष्ठा करने का उल्लेख है। 1. इन शिष्यों के छः नाम-हेम विजय, जितविजय, पं० गुणविजयगणि, दयाविजय, मयाविजय, मानविजयगणि आदि प्राप्त होते हैं। 2. जैसलमेर से लिखित पत्र में आपने लिखा था कि-"न्यायाचार्य विरुद तो भट्टाचार्यई न्यायग्रन्थ रचना करी देखी प्रसन्न हुई दिऊं छई।" .. 3. तर्कभाषा (प्रशस्ति पद्य 4) तत्त्वविवेक (प्रारम्भ पद्य 2) तथा सुज सबेलि में इनका उल्लेख है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्कर्षरूप परिचय उपाध्यायजी के जीवन का 'निष्कर्षरूप परिचय' 'यशोदोहन' नामक ग्रन्थ में मैंने दिया है वही परिचय यहाँ भी उद्धृत करता हूँ जिससे उपाध्याय जी के जीवन की कुछ विशिष्ट झांकी होगी। * "विक्रम की सत्रहवी शती में उत्पन्न, जैनधर्म के परम प्रभावक, जनदर्शन के महान् दार्शनिक, जैनतर्क के महान् तार्किक, षड्दर्शनवेत्ता और गुजरात के महान् ज्योतिर्धर, श्रीमद् यशोविजयजी महाराज एक जैन मुनिवर थे। योग्य समय पर अहमदाबाद के जैन श्रीसंघ द्वारा समर्पित उपाध्याय पद के विरुद के कारण वे 'उपाध्यायजी बने थे। सामान्यतः व्यक्ति विशेष नाम' से ही जाना जाता है किन्तु इसके लिए यह कुछ नवीनता की बात थी कि जैन संघ में आप विशेष्य से नहीं अपितु 'विशेषण' द्वारा मुख्य रूप से जाने जाते थे। "उपाध्यायजी ऐसा कहते हैं, यह तो उपाध्याय जी का वचन है" इस प्रकार उपाध्यायजी शब्द से श्रीमद् यशोविजयजी का ग्रहण होता था। विशेष्य भी विशेषण का पर्यायवाची बन गया था। ऐसी घटना विरल व्यक्तियों के लिए ही होती है / इनके लिए तो यह घटना वस्तुतः गौरवास्पद थी। इसके अतिरिक्त उपाध्याय जी के वचनों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही एक और विशिष्ट एवं विरल घटना है। इनकी वाणी, वचन अथवा विचार 'टंकशाली' ऐसे विशेषण से प्रसिद्ध हैं। तथा 'उपाध्याय जी की साख (साक्षी) 'पागमशास्त्र' अर्थात् शास्त्रवचन ही है' ऐसी भी प्रसिद्धि है। आधुनिक एक विद्वान् आचार्य ने आपको 'वर्तमान काल के महावीर' के रूप में भी व्यक्त किया था। 1. देखिए 'यशोदोहन' पृ० 6-12 में सम्पादकीय निवेदन / यह ग्रन्थ गुजराती भाषा में 'प्रो० हीरालाल रसिकदास कापड़िया' द्वारा लिखित है तथा यशोभारती जैन प्रकाशन समिति, बम्बई से प्रकाशित हुआ है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 आज भी श्रीसंघ में किसी भी बात पर विवाद उत्पन्न होता है तो उपाध्याय जी द्वारा रचित शास्त्र अथवा टीका के 'प्रमाण' को अन्तिम प्रमाण माना जाता है / उपाध्याय जी का निर्णय कि मानो सर्वज्ञ का निर्णय / इसीलिए इनके समकालीन मुनिवरों ने आपको 'श्रुतकेवली' ऐसे विशेषण से संबोधित किया है। श्रुतकेवली का अर्थ है 'शास्त्रों के सर्वज्ञ' अर्थात् श्रुत के बल में केवली के समान / इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ के समान पदार्थ के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन कर सकने वाले / ऐसे उपाध्याय भगवान् को बाल्यावस्था में (प्रायः आठ वर्ष के निकट) दीक्षित होकर विद्या प्राप्त करने के लिए गुजरात में उच्चकोटि के विद्वानों के अभाव तथा अन्य किसी भी कारण से गुजरात छोड़कर दूर-सुदूर अपने गुरुदेव के साथ काशी के विद्याधाम में जाना पड़ा और वहाँ उन्होंने छहों दर्शनों तथा विद्याज्ञान की विविध शाखा-प्रशाखाओं का आमूल-चूल अभ्यास किया तथा उस पर उन्होंने अद्भुत प्रभुत्व प्राप्त किया। उसके फलस्वरूप विद्वानों में ये 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में विख्यात हो गए। काशी की राजसभा में एक महान् समर्थ दिग्गज विद्वान्-जो कि अजैन था, उसके साथ अनेक विद्वान् तथा अधिकारी वर्ग की उपस्थिति में प्रचण्ड शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला पहनी थी / पूज्य उपाध्याय जी के अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' * विरुद से अलंकृत किया था उस समय जैन-संस्कृति के एक ज्योतिर्धर ने-जैन प्रजा के एक सपूत नेजैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया था तथा जैनशासन की शान बढ़ाई थी। ऐसे विविध वाङ्मय के पारङ्गत विद्वान् को देखते हुए आज की दृष्टि से उन्हें दो-चार नहीं, अपितु अनेक विषयों के पी-एच० डी०-वाचस्पति कहें तो भी अनुचित न होगा। भाषा-ज्ञान एवं ग्रन्थ-रचना भाषा की दृष्टि से देखें तो उपाध्याय जी ने अल्पज्ञ अथवा विशेषज्ञ, बालक Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अथवा पण्डित, साक्षर अथवा निरक्षर, साधु अथवा संसारी सभी व्यक्तियों के ज्ञानार्जन की सुलभता के लिए जैनधर्म की मूलभूत प्राकृत. भाषा में, उस समय की राष्ट्रीय जैसी मानी जानेवाली संस्कृत भाषा में तथा हिन्दी और गुजराती भाषा में विपुल साहित्य का सर्जन किया है। उपाध्यायजी की वाणी सर्वनय-सम्मत मानी जाती है अर्थात् वह सभी नयों की अपेक्षा से गभित है। .. विषय की दृष्टि से देखें तो आपने आगम, तर्क, न्याय, अनेकान्तवाद, तत्त्वज्ञान, साहित्य, अलङ्कार, छन्द, योग, अध्यात्म, प्राचार, चारित्र, उपदेश आदि. अनेक विषयों पर मार्मिक तथा महत्त्वपूर्ण पद्धति से लिखा है / संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो उपाध्यायजी की कृतियों की संख्या 'अनेक' शब्दों से नहीं अपितु 'सैकड़ों' शब्दों से बताई जा सके इतनी है / ये कृतियाँ बहुधा आगमिक और तार्किक दोनों प्रकार की हैं। इनमें कुछ पूर्ण तथा कुछ मपूर्ण दोनों प्रकार की हैं तथा कितनी ही कृतियाँ अनुपलब्ध हैं / स्वयं श्वेताम्वर-परम्परा के होते हुए भी दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ पर आपने टीका लिखी है / जैन मुनिराज होने पर भी अजैन ग्रन्थों पर टीकाएँ लिख सके हैं। यह आपके सर्वग्राही पाण्डित्य का प्रखर प्रमाण है / शैली की दृष्टि से यदि हम देखते हैं तो आपकी कृतियाँ खण्डनात्मक, प्रतिपादनात्मक और समन्वयात्मक हैं। उपाध्यायजी की कृतियों का पूर्ण योग्यतापूर्वक पूरे परिश्रम के साथ अध्ययन किया जाए, तो जैन आगम अथवा जैनतर्क का सम्पूर्ण ज्ञाता बना जा सकता है। अनेकविध विषयों पर मूल्यवान् अति महत्त्वपूर्ण सैकड़ों कृतियों के सर्जक इस देश में बहुत कम हुए हैं उनमें उपाध्यायजी का निःशङ्क समावेश होता है। ऐसी विरल शक्ति और पुण्यशीलता किसी-किसी के ही भाग्य में लिखी होती है / यह शक्ति वस्तुतः सद्गुरुकृपा, सरस्वती का वरदान तथा अनवरत स्वाध्याय इस त्रिवेणी-सङ्गम की आभारी है। तीव्र स्मृति शक्तिशाली उपाध्याय जी 'अवधानकार' अर्थात् बुद्धि की धारणाशक्ति के चमत्कारी, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 भी थे / ' अहमदाबाद के श्रीसंघ के समक्ष और दूसरी बार अहमदाबाद के मुसलमान सूबे की राज्यसभा में आपने अवधान के प्रयोग करके दिखलाये थे। उन्हें देखकर सभी आश्चर्यमुग्ध बन गए थे / मानव की बुद्धि-शक्ति का अद्भुत इस प्रसंग में आपकी स्मृति-तीव्रता के दो अन्य प्रसंग भी बहुचर्चित हैं / जो इस प्रकार हैं 1. बचपन में जसवन्त कुमार जब अपनी माता के साथ उपाश्रय में साधु महाराज को वन्दन करने जाता था, उस समय उनकी माता ने चातुर्मास में प्रतिदिन 'भक्तामर-स्तोत्र' सुनकर ही भोजन बनाने और खाने का नियम लिया था। एक दिन वर्षा इतनी आई कि रुकने का नाम ही नहीं लेती थी। ऐसी स्थिति में माता सोभागदे ने भोजन नहीं बनाया / मध्याह्न का समय भी बीतता जा रहा था। तब बालक जसवन्त ने माता से पूछा कि आज भोजन क्यों नहीं बनाया जा रहा है तो उत्तर मिला'वर्षा के न रुकने से उपाश्रय में जाकर भक्तामर-सुनने का नियम पूरा नहीं हो रहा है। अतः रसोई नहीं बनाई गयी।' यह सुन जसवन्त ने कहा-मैं आपके साथ प्रतिदिन वह स्तोत्र सुनता था अतः वह मुझे याद है ऐसा कह कर वह स्तोत्र यावत् सुना दिया। इस प्रकार बाल्यावस्था में ही उनकी स्मृति तीव्र थी। 2. एक बार वाराणसी में जब अध्ययन पूर्ति पर था और पू० यशोविजयजी ने वाद में विजय प्राप्त कर ली थी तब अध्यापक महोदय अपने पास पाण्डुलिपि के रूप में सुरक्षित एक न्यायग्रन्थ को पढ़ाने में संकोच करने . लगे। वे यह समझते थे कि यदि यह ग्रन्थ भी पढ़ा दिया तो मेरे पास क्या रहेगा ? उपाध्याय जी इस रहस्य को समझ गये थे / अतः एक दिन वह ग्रन्थ देखने के लिए. विनयपूर्वक मांग लिया और मिलने पर रात्रि में स्वयं तथा अपने अन्य सहपाठी मुनिवर ने उस पूरे ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके प्रातः लौटा दिया। कहा जाता है कि उस ग्रन्थ में प्रायः 10 हजार श्लोकप्रमाण जितना विषय निबद्ध था। यह भी उनकी धारणा-शक्ति का अपूर्व उदाहरण है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय देकर जन-धर्म और जैन साधु का असाधारण गौरव बढ़ाया था। उनकी शिष्य-सम्पत्ति अल्प ही थी। अनेक विषयों के तलस्पर्शी विद्वान् होते हुए भी 'नव्य-न्याय' को तो ऐसा आत्मसात् किया था कि वे 'नव्यन्याय के अवतार' माने जाते थे। इसी कारण वे 'तार्किक-शिरोमणि' के रूप में विख्यात हो गए थे। जैनसंघ में नव्यन्याय में आप अनन्य विद्वान् थे। जैन सिद्धान्त और उनके त्याग-वैराग्य-प्रधान प्राचारों को नव्यन्याय के माध्यम से तर्कबद्ध करने वाले एकमात्र अद्वितीय उपाध्याय जी ही थे। उनका अवसान गुजरात के बड़ौदा शहर से 16 मील दूर स्थित प्राचीन दर्भावती, वर्तमान डभोई शहर में वि० सं० 1743 में हुआ था। आज उनके देहान्त की भूमि पर एक भव्य स्मारक बनाया गया है जहाँ उनकी वि० सं० 1945 में प्रतिष्ठा की हुई पादुकाएँ पधराई गई हैं। डभोई इस दृष्टि से सौभाग्यशाली है / इस प्रकार संक्षेप में वहाँ के उपाध्याय जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व को छूनेवाली घटनाओं संक्षेप में सच्ची झाँकी कराई गई है / ". पूज्य उपाध्याय जी महाराज ने अपने जीवन-काल में जिन बहाल्य ग्रन्थों की रचना की थी, उनकी परिमार्जित सूची हम इस ग्रन्थ के अन्त नं :कर रहे हैं।' १-इस सूची में अंकित ग्रन्थों के ही अकारादि क्रम से संकलित प्रत्येक ग्रन्थ के आदि और अन्त भाग के अंश तथा ग्रन्थ-प्रशस्ति से युक्त एक ग्रन्थ भी तैयार किया जा रहा है, जिसे शीघ्र ही प्रकाशित करने की योजना है / Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविशारायाचार्य, महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी बहाराज के स्वहस्त से लिखित 'आर्षभीय-चरित की प्रति की प्रतिकृति nif करायनना पत्रिपतदिनजातिममनिजात मिति मपरमवाति विरदता अपिमानित खपरैकमतलवकरलागार सोमनसेननगम,2440135 मारहापुराताजा पटसंपदा विमलकिपर गोमातामाकननाशिमे५४तिरेनानापतितीवासिबलप्रवलनाबमूलकनमनुभवमाननुपवान मनापरवाधिकं मामितरतातफलदानि किमुहानमात्मनामरत्नावरगारमा समयमारदिवतीवितालीरटिका किती किमुलम्मकाजरायमनामनिवार वतमकारमामला बिनाशिवाम्मतिरविमनिशीकाथलाविनमावन तिवदकर अपना मारा माल ROMवनिमरेतत्रिपार पनवा विकलमानपतशल्पश्यदिवान दिया शिशिरतालिमदेवरिद्रिय प्रतिपादिवता परमासमक्राममाविमा तिरवमेवपुरितगतिमा दुनिकताकरवायमेवनीतरोतुसनतावमावितापाचश्यामलोनाबरलमारलकोपपती Railदराके गुमलातिनामावतारामिता:समुरवयर्मदा किन जानरोता माता कतावनीलमभिधामुपयामा सजायरिमानितारटीजरतेनमाजमन नदीवितरीन 391 कपणेवकथाanaमहत्तवपातनातकला करावा जनामकदशनहर विहानहानको शिरदिनाममारितोविमलापककरांकमा मामलजधानाचमुहमपात मरामारणततमधमेनिगारमंचात मसोपवातितकमापिमहानवताश्रम यता नितीनोamaanा कानुमतिविनापत्रलमा मानमात्रमंगरंसरविताननिकाय फोटोस्टेट कापी ब्लाक [पू० मुनि श्रीयशोविजयजी साहित्य-कला-संग्रह से प्राप्त ] प्रकाशकश्रीयशोभारती जैन प्रकाशन समिति, बम्बई Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय विशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज-विरचित 'सिद्ध सहस्रनामकोश' की पाण्डुलिपि के पहले पत्र की प्रतिकृति uoist:भानम्पाफलेयस्पारपंगिकाममहाव्यप्रतिलिमिप्रतिभाशानन्यायहेमला रखामारणेडागामा(नानाचमातीपरममंग बस्पताम्शानसरहामास्वयानि स्वयंना स्वयकवलीहानी के बयानमालककसिनामाईमकवानातरणमाजावि ककवानिवनागनेनानावनापूतिर४ रननजस्यपरमेष्टरपरयत्नश्यापरमानना समानमशिवः२०परयानि::मिवावनिरजनावानरूपेश्यनगारव्या म्नबामपरशस्त वागनावारूपाण्यामानावणमवारवालावरयाविनाशाहनिकायमा लिरिकहानशाला का गोकविताक कः५ जारकम्बाबरलोकपेक्यलोकात्रानाइवाकर योपटर:३॥भिवारpuotaन राश्विनापरवाना बिज४पार्थिवान्मारक्ष्यतामुरबाण AAGIस्विरूपाहियरुपबागाभागाचायण विपिनमाया विकाधारणपपस्विमू:पहाणाधिनरपतशिवपन्ध मानापासरत गभिरया नारजयादशमृत्युजियाचमृत्यूनिवारणः॥रामवादिया / मनीमनीनारामदर्शनकातमुनामुम्बारापुरात:२४ानना३धिमा विविविधःमारवापराविधिनियधनः॥शापून वाहनाच्याटमलागयरक्षया 8022 पानसरोनियनहानिशाणायावयफवान नारयावावर (मन: आनाबान८३श्वानularवस्वाना समनवमूलमा पराया फोटोस्टेट कापी ब्लाक [ मुनि श्रीयशोविजयजी साहित्य-कला-संग्रह से प्राप्त ] प्रकाशकश्रीयशोभारती जैन प्रकाशन समिति, बम्बई Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज-विरचित 'सिद्धसहस्रनामकोश' की पाण्डुलिपि के अन्तिम पत्र की प्रतिकृति H EIRRIDOREMEMARATRALIA k:EASEARVAD k etermummerSTORIECRUITMalai LBARDancialman IMITEDipakNMDCRamSTRICKELEELSDaraEERanaPAM R RORAJDEDICTIONARY upamuKORARIANIMATEDuc T HASERATURERAKESHARMADAM bhaIRIKNERAMANARINAR CasरासमाROENDur R TAINRITTENSTRAT फोटोस्टेट कापी ब्लाक [ मुनि श्रीयशोविजय जी साहित्य-कला-संग्रह से प्राप्त ] प्रकाशकश्रीयशोभारती जैन प्रकाशन समिति, बम्बई Page #29 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , છે મહીશ્વરાય નમઃ नमो लोअ सव्वसाहूण। આર્ષીય ચરિત્ર અને વિલાસ બે મહાકાવ્યો અને એને અનુલક્ષીને કથનીય કંઈક વિ. સં. 2009 અને ઈ. સ. 1973 ની સાલમાં મારી માતૃભૂમિ - જન્મભૂમિ અને ન્યાયવિશારદ ન્યાયાચાર્ય મહોપાધ્યાય શ્રીમદ્દ યશોવિજયજી મહારાજશ્રીની સ્વર્ગવાસ ભૂમિ ભેઈ [દભવતી] મુકામે, પૂસ્વ. પૂ. યશોવિજયજી મહારાજના નવી ભવ્ય દેરી અને ગુરુમૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા પ્રસંગે, સાથે સાથે મહાપાદયાયજીના જીવન અને કવનથી જૈનઅજૈન વિદ્વાને અને પ્રજાને પરિચિત કરાવવા “શ્રી યશોવિજય સારસ્વત સત્ર” આ નામ નીચે સત્રોત્સવ પણ ઉજવવાનું નકકી કર્યું હતું. પૂજ્યપાદ ચાર આચાર્યોની અધ્યક્ષતામાં સવાર, બપોર જાહેર સભામાં જાતી, પૂજ્યપાદ ગુરુદેવના : 1. ઉત્સવ ફાગણ વદિ બીજથી ફાગણ વદિ આઠમ સુધી હતો. , સત્ર સાતમ-આઠમ તા. 7-3-53 અને 8-3-53 બે દિવસ હતું. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વક્તવ્ય સાથે દેશના વિવિધ ભાગોમાંથી આવેલા અનેક વિદ્વાનોએ પૂર ઉપાધ્યાયજીનાં જીવન-કવન ઉપર અભ્યાસપૂર્વક મનનીય પ્રકાશ પાડયો હતે. સભામાં પાંચેક હજારની જનતા ઉપસ્થિત હતી. આ એક અભૂતપૂર્વ પ્રસંગ હતે. ખાસ કરીને ગુજરાતની પ્રજાને ગુજરાતના એક મહાન ધર્મ સપૂતને ઓળખવા માટે કરેલા આ પ્રયાસ આ સત્રને લીધે, તેમજ સરકારી તંત્ર અને એના પ્રચાર સાધના સુંદર સહકારથી તેમજ વર્તમાનપત્રેના ઉત્સાહથી સફળતાને વર્યો હતું અને મારે ઉદ્દેશ સફળ થતાં અને તેને અવર્ણનીય અને અમાપ આનંદ થયો હતો. તે કરેલે સંક૯૫ આ સત્રની બેઠકના મારા પ્રવચનને અંતે મેં એક સંકલપ જાહેર કરેલે કે, ઉપાધ્યાયજી ભગવંતની અનુપલબ્ધ કૃતિઓને ઉપલબ્ધ કરવા માટે તમામ પ્રયાસ કરીશ. પછી પ્રાપ્ત કૃતિઓની પ્રેસ કેપી કરી-કરાવી તેનું સંશોધન કરી, આધુનિક પદ્ધતિએ સંપાદિત કરી મુદ્રિત કરાવી, પ્રકાશિત કરાવીશ. એ પછીનું કાર્ય, છાપેલા અનુપલબ્ધ બનેલાં ગ્રો જે ઘણું જરૂરી હશે તેનું પુનર્મુદ્રણ કરાવવાનું કરીશ અને તે પછી ભાષાંતર યેગ્ય જે કૃતિઓ હોય તેનું ભાષાંતર કરી પ્રગટ કરાવવું, તે પછી ઉપાધ્યાયજીના જીવન-કવન ઉપર અભ્યાસપૂર્વક એક નિબંધ લખ વગેરે. પરમપૂજ્ય આગમપ્રભાકર પૂ. મુનિપ્રવર શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ આ સત્રની ઉજવણીથી અસાધારણ રીતે ખુશી થયા હતા, તે પછી ભેગે થયે ત્યારે મને પાર વિનાના Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 3 ] અભિનંદન આપી ખૂબ જ રાજીપે વ્યક્ત કરેલ. પછી અમે સાથે પણ રહ્યા અને સંક૯૫ મુજબ અભિનવ કૃતિઓ માટે પ્રયાસો આદર્યા, અન્ય મિત્રોએ પણ પ્રયાસ કર્યા. કેટલીક કૃતિઓ પ્રાપ્ત થઈ. અમદાવાદ દેવશાના પાડાના ભંડારને પુનરોદ્ધાર કરવામાં પૂ. પુણ્યવિજયજી મહારાજશ્રી સાથે હું પણ હતા. ત્યાંથી પણ ઉપાધ્યાયજીના સ્વહસ્તાક્ષરમાં જ તેઓશ્રી રચિત કૃતિઓ સારી સંખ્યામાં મળી. એ પ્રાપ્તિમાં સહુથી વધુ ફળે પૂજ્ય પુણ્યવિજયજી મહારાજને હતે. જેઓશ્રી મારા પ્રત્યે અનન્ય પક્ષપાત ધરાવતા હતા. તે પછી મારી વિનંતિથી તેઓશ્રીએ સુંદર સુવાચ્ય પ્રેસકોપી કરનાર ધર્માત્મા શ્રી નગીનદાસ કેવળચંદ દ્વારા કેટલીક પ્રેસ કોપીઓ પણ કરાવી આપી, પોતે કરેલી તે પણ મને આપી. તે પછી તેનું સંશોધન, સંપાદન, મુદ્રણાદિના કાર્યો ઉત્સાહથી આરંભાયા અને ફલતઃ આજે યશભારતીનું આ નવમું પુષ્પ બહાર પડતાં કરેલા સંકલ્પના કિનારા નજીક પહોંચવા આવ્યો છું. અને એકાદ બે વરસમાં કિનારે ઉતરી પણ જશું અને કરેલા સંકલ્પ કે લીધેલ માનસિક પ્રતિજ્ઞાની પૂર્ણાહુતિ થતાં જીવનમાં એક વિશિષ્ટ વાડ્મયની સેવા કર્યાને ઉંડે સંતોષ મેળવીશ. આજ સુધીમાં પ્રકાશિત થયેલી કૃતિઓની નોંધ : આજ સુધીમાં ભારતી જૈન સંસ્થા તરફથી પૂo ઉપાધ્યાયજી ભગવાનની પંદર કૃતિઓ જે પ્રગટ થઈ ચુકી છે તેની યાદી આ પ્રમાણે છે. 1. ઐન્દ્રસ્તુતિ. પજ્ઞ–સ્વકૃત ટીકા, ભાષાંતર સાથે. :: 2 વેરાગ્યરતિ (મૂલ માત્ર.) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . તેત્રાવલી સંસ્કૃત કૃતિ. હીન્ની ભાષાંતર સાથે (સ્તુતિઓ, તેત્રો પત્રો આદિ) 4. કાવ્ય પ્રકાશ, 2, 3 ઉલાસની ટીકા, હીન્દી ભાષાં તર સાથે. 5. સ્વાદુવાદ રહસ્ય બૃહદ્ ટીકા. 6. છ છ મધ્યમ ટીકા. 7. , જઘન્ય ટીકા. 8. તિજ્વતિ. [પ્રારંભ માત્ર] 9. આત્મખ્યાતિ. 10. પ્રમેયમાલા. 11. વાદમાલા બીજી. 12. ત્રીજી. 13. વિષયતાવાદ. 14. ન્યાય સિદ્ધાન્તમંજરી (શબ્દખંડ પૂરતી ટકા) બાઈડીંગ કરેલા 6 ગ્રન્થમાં અને સાતમા નંબરના પુ૫ સુધીમાં નાની-મોટી ઉપરોક્ત 14 કૃતિઓ છપાઈ ગઈ છે. ત્રીજા પુષ્પ તરીકે યશદહન છપાયું છે. જેમાં ઉપાધ્યાયજીના ઉપલબ્ધ બધાય ગ્રન્થોને પરિચય છે. શરૂઆતની ચાર પુષ્પકૃતિઓ સ્વતંત્ર એક જ ગ્રન્થરૂપે અને છઠું પુષ્પ, ચાર કૃતિઓથી અને સાતમું છ કૃતિઓથી સંયુક્ત છે. આજે આઠમા પુષ્પ તરીકે ઉપાધ્યાયજીની ત્રણ કૃતિઓનું સંયુક્ત પ્રકાશન થઈ રહ્યું છે. ઉપરોકત 14 માં ત્રણ ઉમેરતાં કુલ 17 કૃતિઓ યાભારતી જૈન ગ્રન્થ પ્રકાશન સંસ્થા પ્રગટ કરી રહી છે. તેમાંની પંદર કૃતિઓ તે પહેલ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ પ ] વહેલીજ કટ થઈ છે. બાકીની ઐ સ્તુતિ અને થોડાંક સ્તોત્રેવાળી તેત્રાવલી અગાઉ અન્ય સ્થળેથી મુદ્રિત થઈ હતી. એમ છતાં પ્રસ્તુત બંને પ્રકાશને અપૂર્ણ હતાં. તેથી તે બંને સુધારા-વધારા સાથે. નવીન કૃતિઓના ઉમેરે કરવા પૂર્વક ભાષાંતર સાથે, વિશિષ્ટ રીતે પ્રકાશિત થયાં છે. - હવે 108 બોલ, અઢારસહસ શીલાંગ રથ, કૃપદ્રષ્ટાંત વિચારબિન્દુ, તેરકાઠીઆ, આ છ કૃતિઓ બહાર પડવાની છે. ત્યારે કુલ 23 કૃતિઓ પ્રકાશિત થશે. કાર્ય ચાલુ છે. હવે પ્રસ્તુત ગ્રન્થ અંગે આજે ઉપાધ્યાયજીની સ્વકૃતિ તરીકેનું આઠમું પ્રકાશન થઈ રહ્યું છે. યશેભારતી સંસ્થા તરફથી આઠમું માં પ્રકાશન ઉપાધ્યાયની ત્રણ કૃતિઓથી સંયુક્ત છે અને તેથી તેના પર ત્રણ નામ છાપવામાં આવ્યા છે. આ ત્રણેય કૃતિઓનો પરિચય વિદ્વદ્દવર્ય, પ્રખર સાહિત્યકાર ડે. શ્રી રૂદ્રદેવજી ત્રિપાઠીએ આ ગ્રન્થમાં જ આ છે તે જોઈ લે. જે કહેવાનું શેષ રહે છે તે અહીં જણાવું છું. આ ત્રણેય કૃતિઓનું રચના પ્રમાણ ઘણું ઓછું હેવાથી દરેકની અલગ અલગ પુસ્તિકાને જન્મ આપે એ હાથે કરીને નબળાં બાળકની જમાતને જન્મ આપવા જેવું દેખાય અને તે અદર્શનીય બની જાય. એને કઈ અર્થ પણ ન રહે. પુસ્તકનું કલેવર પુષ્ટ બને, એ માટે આ સંયુક્ત પ્રકાશન નક્કી 1. લાયબ્રેરીનું લીસ્ટ કરનારાએ, આ કૃતિની ત્રણેય કૃતિઓને તે તે અક્ષરવિભાગમાં અલગ અલગ નોંધવી. જેથી જલદી મેળવી શકાય. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] કર્યું. કદ વધે એ માટે 1/16 ક્રાઉન સાઈઝ પસંદ કરી. જેથી પુસ્તકને કદ સાંપડ્યું. - પ્રથમની બે કૃતિઓ ચરિત્ર રૂપે છે. બંને કૃતિઓ કાવ્યાત્મક છે. આ બંને કાવ્ય મહાકાવ્યની હરોળમાં ઉભા રહે તેવા છે. એકનું નામ મીર અને બીજાનું નામ છે વિકાસ. બંને કૃતિઓને થોડી ઐતિહાસિક પણ ગણી શકાય. આર્ષભીય કાવ્ય મોટા ભાગે કયર્થકકાવ્ય છે. એટલે કે એક પ્લેક બે પ્રકારના જુદા જુદા અર્થને વ્યક્ત કરે તે. આ બે કૃતિઓ કાવ્યની છે. કાવ્યના વિષય ઉપર ઘણું ઘણું લખી શકાય જૈન સાહિત્ય-કાવ્ય ઉપર ઘણા વિદ્વાનેએ અચિત લખ્યું છે. એમ છતાં મારા જ્ઞાનવિકાસ માટે અને કે કોઈ અણસ્પર્શાએલી બાબતેને અનુલક્ષીને કાવ્યનાં પાસા પર યથામતિ કંઈક લખી શકાય. જેમાં જૈનધર્મમાં કાવ્ય પરંપરાને શું સ્થાન હતું? આ પરંપરામાં માત્ર સાધુઓ જ જ્ઞાન-વિજ્ઞાનના ક્ષેત્રો સંભાળતા રહ્યાં, તે ગૃહસ્થ (રડયાખડયા અપવાદ સિવાય) શા માટે આ વિદ્યાથી અસ્પૃશ્ય રહ્યા અને આજે છે તે જૈન-અજેન કાબૅમાં વચ્ચેની તુલનાત્મક છણાવટ. જૈનધર્મમાં સ્વતંત્ર પ્રતિભા ધરાવતાં કાવ્ય છે ખરા? અનુશાસક કે ઉ૫જીવ્ય કૃતિઓ કઈ? સ્વતંત્ર અને ઉપજીવ્યમાં વધુ પ્રમાણ કેનું ? કાવ્યમાં રસે ન હોય પણ એનું પૂર્ણવિરામ જન-અજૈન બંનેમાં સમાન બિન્દુ ઉપર હતું કે અસમાન? એનું પર્યવસાન ક્યા રસમાં થતું 1. સર્જનની અજબ-ગજબની ધૂની જગાવનાર ઉપાધ્યાયની સર્જન સમૃદ્ધિ અને તે પાછળનો તેઓશ્રીને અપ્રમત્તભાવ જતાં હરકોઈનું રર ઝુકી જાય તેવું છે. ' Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ 7] હતું અને જૈન ધર્મની એ મૂળભૂત ખાસીયત, આખરી થેય, કે અંતિમ લક્ષ્યનું સાતત્ય કવિઓએ કેવી રીતે જાળવી રાખ્યું? તે ઉપરાંત સૈકાવાર કાવ્યની રચના કઈ કઈ થઈ અને તેને લગતી જરૂરી બાબતેને યથાશક્તિ-યથામતિ રૂપરેખા આપવાની તીવ્રછા રાખેલી પણ વર્તમાનની શારીરિક માનસિક કે મસ્તિષ્કની પ્રતિકૂલ પરિસ્થિતિ અને અન્ય સાધનાક્રમ ચાલતું હોવાથી આજે એ બધું લખી શકાય તેવી સ્થિતિ નથી, અને તેથી તેને રંજ જરૂર છે. કમનસીબી એ છે કે બંને કૃતિઓ અપૂર્ણ મળી છે. આ કૃતિનું સાર્થમીર નામ વાચકોને અપરિચિત લાગશે. આવા નામની ખાસ પ્રસિદ્ધિ પણ કયાંય જોવા મળી નથી. સામાન્ય વાચકને વિચાર થઈ પડે કે આમીર એટલે શું હશે? વ્યાકરણના નિયમથી યમરા આર્ષીયમ્ રષભદેવ સંબંધી જે હોય તે આર્ષભીય અને આ ચરિત્ર છે. તેથી ઝષભનું જે ચરિત્ર તેને આર્ષભીય કહેવાય. પહેલા તીર્થકરનું માતા-પિતાએ પાડેલું સાન્વર્થક નામ ઋષભ હતું. ઋષભ ઇશ્વર બન્યા ત્યારે સહુના નાથ-સ્વામી બન્યા કહેવાય, પણ ઉચ્ચારની થેડીક અસરલતાના કારણે કે બીજા ગમે તે કારણે ઋષભનામને બદલે આદિ ભગવાન હેવાથી આદિનાથ-આદીશ્વર આ નામને ખૂબ જ પ્રસિદ્ધિ 1. કૃતિઓ કેમ અધૂરી રહી હશે? એ પ્રશ્નાર્થક જ રહેશે. 2. સાધના કરનાર તો આભ નામને ઉપયોગ કરવા લાભપ્રદ છે. 3. કલ્પસત્ર ગ્રન્થમાં ભગવાનને પાંચ વિશેષણોથી ઓળખાવ્યા છે. કલમ, રાણા, , પઢા Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | [ 4 ] મળી છે. અજેને ગ્રન્થ-વેદ-પુરાણાદિકમાં ઋષભ અને આદિનાથ બંને નામે ઉલ્લેખ થયે છે. ઋષભદેવને મહિમા જ્યારે આ દેશમાં ઉત્કટ બન્યું હશે ત્યારે અજૈન ધાર્મિક અગ્રણીઓએ જૈનેના પહેલા તીર્થકરને પિતાના ઈશ્વરી અવતારમાં સમાવિષ્ટ કરવાને વિચાર નિર્ણય કર્યો, ત્યારે તેમને વશમાંથી બીજા કેઈને પસંદગી ન આપતાં બુદ્ધિ કૌશલ્ય વાપરીને એમને પહેલા તીર્થકરને પસંદ કરીને એમને અવતારમાં સ્થાપિત કરી દીધા અને એમને અવતાર તરીકેના નામમાં “રાષભ” નામ જ પસંદ કર્યું. અને રૂષભને અવતાર તરીકે જાહેર કર્યા. અને ભાગવદ્ પુરાણમાં અવતારના વર્ણનમાં તેમનું જીવનચરિત્ર પણ દાખલ કરી દીધું. આમ જડબેસલાક રીતે જૈન તીર્થકર રૂષભ, રૂષભાવતાર રૂપે અર્જુન વિભાગમાં માન્ય, વંદનીય, અને પૂજનીય બની ગયા ! " ભાષાંતર અંગે– ભારતીય સંસ્કૃતિને આત્મા પ્રાકૃત ભાષામાં જીવે છે તેમ આર્યકુલની ગણાતી સંસ્કૃત ભાષામાં પણ જીવે છે. આ ભાષા હજારો વર્ષથી આ દેશમાં સર્વત્ર પથરાયેલી છે. કેમકે તિરાં, કરમ-રૂષભ, પ્રથમ રાજા, પ્રથમ ભિક્ષાચર-સાધુ - આદિ વિતરાગ, આદિ તીર્થકર. આજે કોઈ પ્રશ્ન કરે કે આ યુગના આદિ રાજા, સાધુ પહેલા વીતરાગ અને આદિ તીર્થ કર કોણ? તો જવાબમાં રૂષભદેવ. 4. જુઓ ભાગવત પુરાણ. 5. રૂષભદેવાવતારનું ચરિત્ર જેનોથી ડું જુદું પડે છે. જો કે અન્તમાં ડી-વિચિત્ર વિકૃતિઓ જોવા મળે છે. . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ન આ ભાષાને નિયમબદ્ધ કરવામાં આવી છે એટલે એને દેશકાળના સીમાડા બાધક ન બન્યા. જ્યારે બીજી લેકભાષાપ્રાકૃત બેલી માટે બાર ગાઉએ બોલી બદલાય એવી સ્થિતિ હતી. વ્યવહારની ભાષા વ્યાકરણશાસ્ત્રથી સુસંસ્કારી એટલે નિયમબદ્ધ બનતાં સંસ્કૃત ભાષા જન્મી, એટલે આ દેશની હરકોઈ વ્યક્તિ એને શીખી શકે તેવી પરિસ્થિતિ નિર્માણ થઈ. એટલે જ આ ભાષામાં તમામ દર્શનકાએ પોતાના સાહિત્યની જંગી રચના કરી છે. ભારતીય સંસ્કૃતિના આત્માને એકતાના સત્રે બાંધનાર, વિવિધતામાં એકતાનો અનુભવ કરાવવામાં આ ભાષાને ફાળે ઘણે ઉમદા રહ્યો છે. જો કે દરેક ધર્મશાસ્ત્રકારોએ પોત પોતાના મૂળભૂત શાસ્ત્રો માટે સ્વતંત્ર ભાષાઓ અપનાવી છે. જેમકે જેને એ પ્રાકૃત, વૈદિકે એ સંસ્કૃત અને બૌદ્ધોએ પાલી. એમ છતાં આ ધર્મશાસ્ત્રોને સમજાવવા માટે જે ભાષાને છૂટથી ઉપયોગ થયે તે બહુલતાએ સંસ્કૃત ભાષાને જ થયો છે. આ સમજાવવા માટે રચાયેલી સંસ્કૃત રચનાઓ સર્વત્ર રીજા શબ્દથી ઓળખાય છે. આમ ભારતીય સંસ્કૃતિને આમા ભાષામાં શબ્દબદ્ધ થઈ વણાઈ ગયે. આવી વ્યાપક સર્વત્ર સમાન સમાદરને પાત્ર બનેલી ભાષા પ્રત્યે આજે પતી ઉતરી છે. દેવભાષાથી ઓળખાતી ભાષા પ્રત્યે એની જન્મદાત્રી ધરતીમાં જ અભાવ, અપ્રીતિ, તિરસ્કાર અને અતિ ઉપેક્ષાના ભાવ પ્રગટ થઈ રહ્યાં છે. વિદ્યાથી એનું આ ભાષા પ્રત્યે સાવકી મા કરતાંએ ખરાબ એવું વર્તન જોઈને કેઈ પણ સંસ્કૃતપ્રેમી ભારતીયને દુઃખ અને ચિંતા થયા વિના નહીં રહે. * ચરિત્રે આજ ભાષામાં લખાયા છે. એટલે જે આ ભાષાને અનુવાદ થાય તે જ તેને લાભ બહુજન ઉઠાવી શકે. આ માટે પ્રયાસ કર્યો પણ ભાષાંતરકારેને દુકાળ, કિલષ્ટ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 10 ] ભાષા રચનાને ભાષામાં સમજનારા ઓછા થઈ ગયા. સાધુશ્રમણસંઘમાં પણ સંસ્કૃત ભાષા પ્રત્યે ઘટેલે આદ, આ બધા કારણે તત્કાલ સારૂં ભાષાંતર થઈ શકે તેવી શક્યતા ન હોવાથી અહીં આપી શકાયું નથી. એટલે આ ગ્રન્થને ઉપકેગ કેટલે થશે એની ચિંતા છતાં, ચિંતા ન કરતાં ઉપાધ્યાય જીની ઘણું મહામૂલી કૃતિઓ કાળના ખપ્પરમાં સ્વાહા થઈ ગઈ તેમ, નવી ઉપલબ્ધ કૃતિઓનું ન બને અને તે ચિરંજીવ બની રહે, એ ઉદ્દેશથી . સંસ્થા પ્રકાશન કાર્ય કરી રહી છે. હવે પ્રતિ પરિચય જોઈએ. આર્ષભીની પ્રતિને જરૂરી પરિચય આર્ષલીયની પ્રતિનું દીર્ઘ માપ 9 ઇંચ એક દેરો, પહોળાઈ 4 ઇંચ બે દશા છે. પહેલા ખાનામાં પંક્તિ 13 છે. પ્રારંભના પાંચ ખાનામાં અક્ષરો એક ઇચમાં ચારથી પાંચ સમાય તેવડા મોટા લખ્યા છે. તે પછી અક્ષરે નાના થતા જાય છે. પત્ર દીઠ પંક્તિપ્રમાણ 14 થી 19 સુધીનું પહોંચે છે. અને અક્ષર સંખ્યામાન એક ઈંચમાં વધતું ગયું છે. આ પ્રતિ એક જ હાથે લખાઈ હોય તેમ લાગતું નથી. પણ પાછળનું લખાણ ખુદ ઉપાધ્યાયજીના પિતાના અક્ષરમાં હેય તેમ સમજાય છે. પ્રતિની સ્થિતિ સારી છે. આની એક જ નકલ મળી છે. કાળી શાહીમાં લખાઈ છે. એક ભક્તજનની વિનંતિથી તેને સંભળાવા માટે આ રચના કરી છે તેવું લેખકે જણાવ્યું છે. વળી અતિમ કલેકમાં તેમને પોતાને પદ એવા જ શબને પ્રવેગ કર્યો છે. આર્ષીય પ્રતિ અંગેની આલેચના પૂરી થઈ 1. કેટલાક પ્રાચીન ગ્રન્થકારો ગ્રન્થના અન્તિમ બ્લેકમાં પૂર્ણાતિમાં Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 ] વિજલાસની પ્રતિ માપમાં લગભગ આર્ષીય જેવી જ છે. બાકી લિપિની લઢણ અને પ્રતિની સ્થિતિ સારી છે. આ બંને કાવ્યો નહિં પણ મહાકાવ્યની રચના જોતાં એક નિયાયિક પણ કેવા સફળ સાહિત્યકાર બની શકે છે તે ઈરિણા મનના મરઘg iામ પૂર્વક મસ્તક નમી પડે છે. આર્ષીય અને વિજયે લાસ બે કાવ્ય માટે મારું જે કંઈક કથયિતવ્ય હતું તે અહીં જણાવી દીધું છે. હવે “સિદ્ધહસ” અંગે લખું છું. પાલીતાણું ) સાહિત્ય મંદિર, યદેવસૂરિ. આ . પૂનમ સં. 2035 સ્વવ્યક્તિત્વને સૂચક કોઈ પણ એક સાંકેતિક શબ્દ મુક્તા હતા. ઉપાધ્યાયજીએ “શ્રી” શબ્દ ઉપર પસંદગી ઉતારી હતી. 2. આ ચરિત્રમાં લેકે 132 માં સાર્વજોરાપુર૧૩ - કોડ સોનૈયાની વૃષ્ટિની નવી જ વાત રજૂ કરી છે. આમ તો - 1શા કોડ સૌનેયા વૃષ્ટિની વાત સર્વત્ર આવે છે. વિદ્વાનોએ વિચારવું. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર્વવિભાગ શ્રીફળવર્ષનાવાર મા સિદ્ધસહસ્ત્રની પ્રસ્તાવના સિદ્ધકેશ અથવા સિદ્ધસહસ્ત્રનામ પ્રકરણ આ બે નામથી પરિચાયક આ લધ્વીકૃતિ અંગે જે કંઈ કથયિતવ્ય હતું તે બહુધા ધર્મનેહી શ્રી અમૃતલાલ ભાઈએ લખી નાખ્યું છે. અને તે આ જ ગ્રન્થમાં મુદ્રિત કરી પ્રગટ કર્યું છે. જે આ જ પુસ્તકના પ્રારંભના પેજ 36 થી વાંચી લેવું, જેથી કૃતિને વિસ્તૃત પરિચય મળી જશે. જે શેષ મારે કહેવાનું છે તે અહીં જણાવું છું. ભારતમાં સહસ્ત્રનામે દ્વારા કઈ પણ ઈષ્ટ દેવ-દેવીનાં વિવિધ નામે દ્વારા ગુણકીર્તન નામ સ્તવન-તુતિ કરવાની પરંપરા જુગજુગ પુરાણી છે. સહુથી પ્રથમ અજૈનેએ સહસ્ત્ર નામે દ્વારા આવી સ્તુતિ રચનાઓ કરી. તે પછી બૌદ્ધજેનેએ પણ કરી. જેનદર્શનમાં પણ આ પરંપરા અર્વાચીન નથી, પ્રાચીન માત્ર નથી, પણ અતિ પ્રાચીન-પુરાણી પ્રથા છે. | ઉપલબ્ધકૃતિના આધારે કહીએ તે જૈનસંઘમાં ચોથી શતાબ્દિથી જિનસહસ્ત્ર નામની કૃતિ મળી આવવાથી 1. કદ જેટલી પ્રાચીન તો ખરી જ. .. 2. સહસ્ત્ર રચનાની અજૈનેની યાદી ઘણું લાંબી હોવાથી નમૂના Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 13] 1600 વર્ષ પહેલાં આ હતી તે પુરવાર થાય છે. પણ આ પહેલાં આવી કઈ કૃતિ રચાણ હશે ખરી? એ પ્રશ્નાર્થક રહે છે. આ કૃતિ દિગમ્બરીય છે. આવી રચના શુષ્ક લાગતી હોય છે એટલે આ દિશામાં અત્યલ્પ વ્યક્તિઓએ કલમ ચલાવી છે. પ્રાપ્ત સાધનોથી અનુમાન કરી શકાય કે જેથી શતાબ્દિથી બે હજારની શતાબ્દિ સુધીમાં જૈન સમાજમાં સહસ્ત્રનામથી અંકિત કૃતિઓ પંદરેકથી વધુ તે નહિં જ હેય. આ વિષય જ એ છે કે જેમાં માત્ર નામની જ રચના હોય છે. એમાં બીજું કંઈ કથયિતવ્ય હોતું નથી. જે કે નામો રચવાનું પણ કાર્ય સહેલું નથી. એમાંએ કાર્ય કારણ ભાવની વ્યવસ્થિત તત્વવ્યવસ્થા જે દર્શનમાં હોય ત્યાં શબ્દો નક્કી કરવા માટે ખૂબ જ પ્રતિભા અને સાવધાની માગી લે તેવી બાબત છે. છતાંય એકંદરે બીજા વિષયનું જે ખેડાણ થયું છે એની સરખામણીમાં આ દિશાને પ્રયાસ રૂપે જ છેડા નામને અહીં નિર્દેશ કરૂં છું. 1 વિષ્ણુસહસ્ત્ર, ગોપાલસહસ્ત્ર, ગણેશ, દત્રાત્રેય, સૂર્યનારાયણ, પુરૂષોતમ વગેરેના સહસ્ત્રનામે રચાયા છે. દેવીઓમાં લક્ષ્મી. રેણુકા, પદ્માવતીનાં પણ સહસ્ત્રનામે રચાયાં છે. 3. “જિન” શબ્દનો અર્થ જીતે તે જિન. આટલાથી અર્થ તૃપ્તિ થતી નથી. અર્થ સાકjક્ષ રહે છે એટલે પ્રશ્ન થાય કે કોને જિતે? તો આત્માને રાગદ્વેષરૂપી શત્રુને. આ છતાઈ જાય . એટલે આત્મા વીતરાગ બની જાય. જિન-વીતરાગ એક જ - અર્થના વાચક છે. વીતરાગ થયા એટલે સર્વત્ર સમભાવવાળા બન્યા એટલે જ સર્વગુણસંપન્ન બન્યા. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 14 ] નાને કહી શકાય. આ એક શોખની-રસની બાબત છે. અનિવાર્ય જરૂરીયાતની બાબત નથી. છતાંએ હિન્દુ પરંપરા કે વૈદિક ક્ષેત્રમાં સ્પર્શાએલા ક્ષેત્રે જૈનીક્ષેત્રમાં અણુસ્પર્યા રહે, આ ક્ષેત્રમાં જેનેની દેણ ન હોય તે એક સ્વતંત્ર સંસ્કૃતિ ધરાવતા જૈનસંઘ માટે સમુચિત ન હોવાથી જનમુનિઓએ કરેલે આ પ્રયાસ ખરેખર જૈન સંઘ માટે અતિ અગત્યને અને ઉપકારક ગણી શકાય તેવો છે. જૈન સાધુઓની દેશકાળને ઓળખીને સમયસાથે તાલ મિલાવવાની યુગલક્ષી ઉદાત્ત ભાવનાના પરિણામે ત્યાગ, વૈરાગ્ય ના પાયા ઉપર ઉભેલા જૈનધર્મમાં પણ અજોડ વિષય ઉપર જેનાચાર્યો-મુનિઓએ વિશાળ સર્જન કર્યું. અનેક વિષયેના ખેતર ખેડી નાખ્યા અને પરિણામે જન સમાજને મહાન સંસ્કૃતિને મહાન વારસો મળે. જેના લીધે દેશમાં આજે જૈન સમાજ પોતાની આ વિશાળ જ્ઞાન–સાહિત્ય સમૃદ્ધિનાં કારણે ઉનત મસ્તકે જીવન જીવી રહ્યો છે. અને છેલ્લા પચીસ વર્ષમાં દેશ-પરદેશમાં પણ સંશોધન ક્ષેત્રે, જૈનતત્વજ્ઞાને અને જેનગ્રાએ વિદ્વાનોમાં ભારે ઉત્સાહ અને આતુરતા જગાડી દીધી છે. - જન-માનસ વિવિધ સંસ્કારથી સભર છે. અનેક કોમ્યુટરને શરમાવી શકે તેવા અગાધ, વિશાળ, વ્યાપક અને વિવિધ ખ્યા ધરાવતાં મગજને નાના નહિં પણ વિશાળ વિચારે, નાની કલ્પના નહિં પણ વિશાળ કલ્પનાઓ વધુ આકર્ષી શકે છે. આ અતિજ્ઞાનીઓ-બુદ્ધિશાળીઓ માટેની જાણીતી સમજી શકાય તેવી બાબત છે. નાની આકૃતિ કરતાં મે ર આકૃતિ (આઈ લેવલથી મોટી) વધુ ધ્યાન ખેંચે છે. એ માનવ ચક્ષુ અને મનનું સાદું ગણિત છે. અલપતા કરતાં (સારી બાબતેની) વિશાળતા કેને ન ગમે? . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 15]. આવા માનસિક કારણે એક નામ કરતાં અનેક નામથી, અનેક કરતાં દશ નામથી, દશ કરતાં જ્યારે વધુ આનંદ અનુભવ્યો એટલે મન આગળ વધે. દશમાં વધુ આનંદ આવ્યું તે સોમાં તે આનંદની છોળો ઉડશે. આવી કઈ પુણ્યભાવનામાંથી શતકની રચના થઈ. પછી એ અંગે ઉત્સાહ લમણરેખા ઓળંગી જતાં જીવડે સીધો કુદકે મારી હજાર, વાસ્તવિક રીતે તે 1008 નામની રચના ઉપર પહોંચે અને એ ઈચ્છાને સંતોષવા ભગવાનને વિવિધરૂપે કલ્પવા માંડયા. વિવિધ ગુણની અલંકૃત કરવા પડયા. બુદ્ધિને ઉંડી કામે લગાડી મંથન કર્યું. યેનકેન પ્રકારે અનેક સાન્વર્થક નામે બનાવી છન્દને અનુકૂળ રહીને) સહસ્ત્રનામની ભવ્ય કૃતિને જન્મ આપ્યો કહો કે જન્મ મળ્યા. ઉપર જે કહ્યું તે માનવ સ્વભાવને અનુલક્ષીને કહ્યું, પણ એ કરતાં ય વધુ વાસ્તવિક કારણ એ સમજાય છે કે મન્ત્રશાસ્ત્રને એક સર્વ સામાન્ય નિયમ-ધોરણ એવું છે કે કાર્યની સફળતા માટે કઈ પણ મન્સને જાપ ઓછામાં છે એક હજારનો રેજ થવું જ જોઈએ તે જ તેની ફલશ્રુતિનાં કંઇકે દર્શન થાય, હજારનો જાપ રોજ થતું જાય તે લાંબા ગાળે જાપકને અભૂતપૂર્વ શક્તિને સંચાર, દર્શન અને રહને કંઈક અનુભવ થયા વિના રહે નહિં, પણ આના કરતાં વધુ વાસ્તવિક એ લાગે છે કે ભગવાનના 1. જુઓ, શિ૯૫માં શું થયું કે ભગવાન શ્રી પાર્શ્વની મૂર્તિમાં પાંચ સાત, કે નવ જણાથી સંતોષ ન થયો, એટલે સીધા વધીને સહાફણ એટલે એક હજાર સર્પમુખના ઢાંકણવાળી મૂર્તિ– ઓનું નિર્માણ થવા પામ્યું. એવું અહીં વિચારી શકાય. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16] શારિરીક લક્ષણોની સંખ્યા 11008 છે. આવા અંકને લયમાં રાખી ભગવાનના ગુણનિષ્પન્ન ૧૦૯૮નામેની સ્તવન કરવાનું કદાચ બન્યું હોય ! ઉપર નિર્દિષ્ટ કારણોને લક્ષ્યમાં રાખીને પણ આવા સહસ્ત્ર (1008) નામની કૃતિઓ રચાઈ હોય તે તે સુસંગત બાબત છે. * અલબત પરમાત્માના ગુણે અનંત છે. અનન્ત ગુણના અનન્ત નામે પણ રચી શકાય, પણ માનવ બુદ્ધિથી તે શક્ય નથી એટલે જે વધુ યોગ્ય, ભાત્પાદક આકર્ષક અને ઉત્તમ હોય તેવાં જ નામનું નિર્માણ કરવાની પ્રથા છે. .. આ જાતની પ્રથા જૈન, વૈદિક અને બૌદ્ધ ત્રણેય સંતિમાં હતી. આવી રચનાઓ મુખ્યત્વે પોતપોતાના ઈષ્ટ દેવ અને દેવીઓને કેન્દ્રમાં રાખીને રચવામાં આવી હોય છે. . . . . - સ્તવ-સ્તવના કે સ્તંત્ર ચાર પ્રકારે થાય છે. 1. નામસ્તવ. 2. સ્થાપનાસ્તવ. 3. દ્રવ્યસ્તવ અને 4. ભાવસ્તવર આ સ્તવનામાં સર્વકાળના સર્વ ક્ષેત્રના તીર્થ કરા-પરમાત્મા ઓને આવરી લેવાના હાર્યા છેજેથી કોઈપણ સ્થાનની કોઈ 1. જુઓ મહા. પુ. પર્વ ૨પ, બ્લ. 99 2. નામાં િવશમા પુનખિકા . * ક્ષેત્રે વારે 4 સર્વજિત: સમુvમil (સકલહત) -જૂઓ શા-ટીકાઓ-ચરિત્રો કાવ્યકૃતિઓ. ' - -આની મઝા એ છે કે આથી, ત્રણે ય કાળમા અનંત આત્માઓની સ્તુતિને લાભ સ્તુતિ કરનારને પ્રાપ્ત થાય છે, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " [ 17 ] પણ ક્ષેત્રમાં રહેલી ઈશ્વરીય વ્યક્તિઓ અસ્તુત્ય રહી ન જાય, અને તેથી પરમ મંગલ-કલ્યાણની પ્રાપ્તિ થાય. સહસ્ત્ર નામની રચના અરિહંત-અહેતો સિવાય વર્તમાન ચોવીશીના કોઈ પણ તીર્થકરને ઉદ્દેશીને પણ કરી શકાય છે. પણ આ વીશીમાં સહસ્ત્ર નામે રચી શકાય કે પ્રાપ્ત થાય તેવા ભગવાન જે કોઈ પણ હોય તે તે પાર્શ્વનાથ ભગવાન છે. તેથી તેઓશ્રીના નામની સ્તુતિ રચાણ છે. જેનું નામ “પાર્શ્વનાથ નામસહસ” છે. અરિહંતથી વધુ ઉચ્ચ સ્થાન ધરાવતા સિદ્ધાત્માઓના સહસ્ત્ર નામ ઉપાધ્યાયજી સિવાય બીજા કોઈએ કર્યા હોય એવું જાણવામાં નથી, એટલે જ સહસ્ત્ર નામની રચના ઉપાધ્યાયજી સુધી અરિહંતેને અનુલક્ષીને જ થતી હતી તે ધ્યાનમાં રાખવું ઘટે. આ પ્રથાનો આદર વેતામ્બર-દિગમ્બર બંને સંપ્રદયમાં થયે છે. એમાં સહસ્ત્રની સહુથી જુની રચના કહેતા મ્બર આચાર્ય શ્રી સિદ્ધસેન દિવાકરજીની છે. અને તેને સમય થી શતાબ્દિને છે. ત્યારપછી લગભગ 500 વરસ બાદ વિદ્વાન દિગમ્બર આચાર્યશ્રીએ . “જિનસહસ્ત્ર નામના તેત્ર-સ્તવની રચના કરી. આ રચનાને સમય નવમી શતાબ્દિને છે. પણ આમાં એક વિવેક કરે જરૂરી છે કે દિવાકરજીની રચનામાં નામ ભલે હજાર હોય પણ તે ગદ્ય પદ્ધતિએ સંગૃહીત થયા છે. પદ્ય-કલેક રૂપે નહિં. અને શૈલીને પ્રકાર પણ ભિન્ન છે. એટલે વાસ્તવિક રીતે લેકબદ્ધ પદ્ધતિઓ 1. એમના જ બનાવેલા આદિ પુરાણના એક અંશ–ભાગ રૂપ આ કૃતિ છે. પણ સ્વતંત્ર રચના નથી. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 18 ] રચાયેલી રચના સહુથી પ્રથમ આચાર્ય શ્રી જિનસેનની છે. એમ પ્રાપ્ત સાધને જોતાં કહી શકાય. . જિનસેનજીની કૃતિ પછી લગભગ ત્રણ સૈકા પછી (વિ. સં. 1229) કલિકાલ સર્વજ્ઞ શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યજી આવી જ કૃતિ આપણને આપે છે. ફક્ત નામમાં શેડોક ફરક કરીને, અહંનૂર નામસહસ્ત્રસમુચ્ચય” નામ રાખીને આપે છે. અર્થ દ્રષ્ટિએ અહંન કે જિન એક જ અર્થના વાચક છે. જો કે આ કૃતિને “જિન સહસ”થી પણ ઓળખવામાં તે આવે જ છે. જિનસહસ્ત્રનામ સ્તોત્ર અથવા અહંન્નમસ્કાર તેત્ર, આવા નામની અતિમ મુદ્રિત કૃતિ સત્તરમી શતાબ્દિ (સં. 1731) ની મલે છે. જેના કર્તા ઉપાધ્યાય શ્રી વિનયવિજયજી મહારાજ છે. જિનસહસ્ત્રની રચનાઓ એકંદરે સાત મળી છે. એમાં ત્રણ દિગમ્બરની અને ચાર વેતામ્બરની છે. દિગમ્બરની ત્રણેય કૃતિઓ મુદ્રિત થઈ ગઈ છે. જ્યારે વેતામ્બરની બે મુદ્રિત થઈ છે અને બે અમુદ્રિત છાણ અને પુનાના ભંડારમાં હસ્તલિખિત પ્રતિ રૂપે વિદ્યમાન છે. એમાં મને દિગમ્બરીય શાયર પંડિત (વિ. સંવત 1287) વિરચિત રચના એની વિશિષ્ટ ક્રમબદ્ધ ગોઠવણ અને નામમાં વ્યક્ત થતી પ્રતિભાના કારણે રચનાની દ્રષ્ટિએ 2. દિગમ્બરીય જિનસહસ્ત્રનાં નામો અને વેતામ્બરીય અહેન સમુચ્ચયના નામમાં ગ્રન્થગત નવમા શતકની રચનાને બાદ કરીએ તો બાકીના શતકના નામમાં અસાધારણ સામ્ય દેખાઈ આવે છે. આજે આ પ્રથાને એક સમસ્યા રૂપ લેખવા કરતાં સાહિત્યના ક્ષેત્રમાં પરસ્પર એક બીજાનું આદાન પ્રદાન કરવાની કેવી પ્રથા હતી તે રૂપે સમજવું વધુ ઉચિત રહેશે. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 18 ] ઘણી વિશિષ્ટ કૃતિ લાગી છે. આશાધરને કવિકાલિદાસ તરીકે ઓળખાવ્યા છે. તેઓ ગૃહસ્થ વિદ્વાન હતા. 1. ભારત વિવિધ ધર્મો અને પન્થોનો દેશ છે. આવા દેશમાં પ્રજા પ્રજા વચ્ચે સહિષ્ણુતાનો સેતુ ટકી રહે, સંપનો દોરો પરોવાએલો રહે, તો જનતા વિવિધતામાં પણ એકતાને અનુભવે, જેથી ભાતૃભાવ, પ્રેમ અને મિત્રીની ભાવના મજબૂત થતી રહે. આ માટે જૈનાચાર્યોએ પ્રસંગ આવે સાહિત્યના ક્ષેત્રમાં ઉદાર ઉદાહરણ પૂરાં પાડ્યાં છે. એમાં પ્રાચીનમાં સુપ્રસિદ્ધ મહાન આચાર્યોમાં સૂરિપુંગવ શ્રી હરિભદ્રજી, તે પછી શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યજી, શ્રી માનતુંગસૂરિજી અને તે પછી ઉપાધ્યાયજી યશોવિજયજી આદિને ગણાવી શકાય. દિગમ્બરમાં પંડિત પ્રવર શ્રી આશાધરજીને રજૂ કરી શકાય. આશાધરજીએ સહસ્ત્રનામના શતકેમાં અર્થની દૃષ્ટિએ જેનદૃષ્ટિને ખ્યાલમાં રાખીને બ્રહ્મશતક, બુદ્ધિશતકની કરેલી રચનાઓ પ્રસ્તુત બાબતના પ્રબુદ્ધ પુરાવા છે. આ, ભગવાન મહાવીરે આ દેશને આપેલી તદન નવી, અદ્ભુત અનેકાન્તદષ્ટિની સર્વતોમુખી દષ્ટિને " આભારી છે. ભેદમાં અભેદ અને અભેદમાં ભેદને સ્થાપન કરી સત્યને જીવંત રાખવું એ આ દૃષ્ટિની ફલશ્રુતિ છે. સાપેક્ષદષ્ટિ એ અનેકાન્તનું બીજુ નામ છે. તમામ સંધર્ષોના ઉકેલ માટે આ એક મહાન સિદ્ધાન્ત છે. અને આ અનેકાન્તના સિદ્ધાન્તને “યાદવોદલી દ્વારા જૈનાચાર્યોએ ખૂબ ખૂબ વિકસાવ્યો છે. ઉપાધ્યાયજીએ પણ ઉપરોકત પરંપરાને આદર ચિત કર્યો છે. એમને જ શાબ્દિક ઝઘડાથી દૂર રહેવાનું જણાવતાં ભાષામાં રચેલ સિદ્ધ સહસ્ત્રનામ વર્ણનની કૃતિમાં કહ્યું છે કે Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |[ 20 ] સહસ્ત્ર નામની સહુથી આદ્ય રચના (અજેન કૃતિ) વિષ્ણુ સહસ્ત્ર નામની છે. અને તેથી ઉપલબ્ધ સહસ્ત્રના વાડમયમાં તે સહુથી વધુ પ્રાચીન છે. જિનસહસ્ત્ર નામ ઉપરાંત વ્યક્તિગત તીર્થકરની એક રચના ઉપલબ્ધ છે તે ભગવાન પાર્શ્વનાથજીની છે. અને એથી એનું નામ “પાર્શ્વ સહસ્ત્ર નામ છે. જે વાત ઉપર જણાવી છે. ભગવાન પાર્શ્વનાથ આ કાળના કપ્રિય તીર્થંકર રહ્યા છે અને સદાએ રહેશે. 23 માં એક જ ભગવાન એવા છે કે જે સેંકડો નામેથી ભારતમાં ઓળખાય છે અને એનાં મંદિર મૂર્તિઓ પણ વધુ છે. જેનેરેમાં શંકર ભગવાનનું જે સ્થાન છે તેવું સ્થાન જૈનેના લોક હદયમાં પાર્શ્વનાથ પ્રભુનું છે. જેમ શંકર આશુતેષ કહેવાય છે એમ ભગવાન પાર્શ્વની ભક્તિ પણ શીવ્રતાષ આપનારી છે. આ ઉપરાંત ગ્રહોમાં જોઈએ તે મુખ્ય સૂર્યગ્રહની તેમજ શ્રી પદ્માવતી આદિ દેવ-દેવીઓની પણ સહસ્ત્ર નામની રચનાઓ મળે છે સહસ્ત્રનામની રચનાઓ સંસ્કૃતથી અનભિન્ન છ માટે ભાષામાં પણ રચાઈ છે. તેના કર્તા તરીકે બનારસીદાસ, વહર્ષ અને ઉપાધ્યાયજી તો છે જ. ઈસ્યા સિદ્ધ જિનનાં કહાં સહસ્ત્ર નામ, રહો શબ્દ ઝઘડો કહાં લો શુદ્ધ ધામ, 1. આ કૃતિ મહાભારતના અનુશાસનપર્વમાં છે. 2. આશુ એટલે જલદી તે–પ્રસન્ન થાય, સંતોષ આપે છે, 3. જૈનેતરમાં એમને માન્ય અંબિકાસહસ, રેણુકા સહસ્ત્ર આદિની અનેક દેવીઓની કૃતિઓ છે. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 21 ] હવે પ્રસ્તુત ગ્રન્થના મૂલ મુદ્દા પર આવીયે, જે કૃતિના કારણે ઉપરોક્ત ભૂમિકા બાંધવી પડી તે કૃતિનું નામ છે “સિદ્ધસહસ્ત્રકોશ " જે અગાઉ જણાવી ગયો છું. જિન સહસ્ત્રનામની કૃતિઓ જૈન સંઘ પાસે હતી એટલે ઉપાધ્યાયજીએ એકને એક ચીજમાં વધુ ઉમેરો કરવા કરતાં ન વિષય પસંદ કરવાનું મુનાસિબ માન્યું અને એમનાં મનમાં (જિન અરિહંતની રચનાને છેડીને) સિદ્ધ ભગવંતના સહસ્ત્રનામ રચવાની અભિનવ કલ્પના જ્યુરી અને તેને સાકાર બનાવીને આપણને સિદ્ધસહસ્ત્ર નામની વિશિષ્ટ ભેટ આપી. એ ખરેખર ! ઉપાધ્યાયજીની બુદ્ધિ પ્રતિભાને આભારી છે. જિનસહસ્ત્રમાં જેવી નામોની રચના થાય છે તેવી તે આમાં ક્યાંથી થાય? કેમ કે જિન તીર્થકરોની તે વખતની ગુણાવસ્થા જુદી છે. જિન ત્યારે સદેહી છે. ઉપદેશની પ્રવૃત્તિ વગેરેથી સંકળાએલા હોય છે. અઘાતી ચાર કર્મો પણ બેઠાં હોય છે. ત્યારે સિદ્ધોને આમાનું કશું જ નથી હતું. એટલે સ્વાભાવિક રીતે જ સકલ કર્મ રહિત બનેલા સિદ્ધોને જે ગુણે ઘટમાન થાય તે ગુણોનું નિર્માણ કરવું પડે અને એ રીતે જ નામસંગ્રહ થતા હોય છે. અલબત્ત આમાં જિનસંગ્રહમાંના નામે મળશે ખરાં પણ તે થોડાંક. 1008 નામના સંગ્રહ માટે સ્થાપિત છેરણ મુજબ શતકનું ધોરણ રાખી દશ શતકે નિર્માણ કર્યા છે. આ કૃતિ માટે સંપૂર્ણ અનુકૂળ ગણતા અનુચ્છુપ છંદની પસંદગી આપી છે. દરેક શતકમાં 100 નામને સુમેળ રાખે છે. પણ સે નામ માટેના વિભાગની સંખ્યા સમાન નથી. નામ ટૂંકાક્ષરી હોય ત્યારે તે માટે ઓછા કે રચવા પડે, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 22 ] આથી દસ શતકમાં 9 થી 13 ની સંખ્યાના લેકનું ધારણ છે. કર્તાએ પોતાને ઉપાધ્યાય નહિં માત્ર ગણિ તરીકે ઓળખાવ્યા છે. આ કૃતિ પૂ. આ. શ્રી દેવસૂરિજીના સામ્રાજ્યમાં રચી છે. એમના ભક્તજનના શ્રવણ માટે રચી છે. તેવું તેમને શતકના અન્તમાં જણાવ્યું છે. સિદ્ધ એટલે શું? - જેને જે દેવને માને છે તે બે પ્રકારે છે. એક સાકાર અને બીજા નિરાકાર. એક કર્મ સહિત. એક કર્મ રહિત. સાકાર એટલે દેહધારી હોય તે અવસ્થા. દેહધારી હોય ત્યારે જનકલ્યાણ માટે તેઓ અવિરત ઉપદેશની વર્ષા કરે છે. અને એજ સાકાર દેહધારી દેવ પિતાનું માનવદેહનું આયુષ્ય પૂર્ણ થતાં અવશેષ જે ચાર અઘાતી કર્મો હોય તેને સર્વથા ક્ષય કરી સર્વાત્મપ્રદેશે નિષ્કર્મ બની, સકલ કર્મથી મુક્ત થતાં આત્માનું પોતાનું શાશ્વત જે સ્થાન મેક્ષ કે મુક્તિ જે અબજોના અબજો માઈલ દૂર છે ત્યાં આંખના એક જ પલકારામાં પસાર થતી અસંખ્યાતી ક્ષણે –સમયે) પૈકીની માત્ર એક જ ક્ષણમાં પહોંચી જાય છે. ત્યાં અનાદી કાળથી તિરૂપે અન તાનંત આત્માઓ વિદ્યમાન છે. શાશ્વત નિયમ મુજબ એક આત્માની જાતિમાં અનંતાનંત આત્મા. ઓની તિ સમાવિષ્ટ થતી જ રહે છે. (જેમ પ્રકાશમાં પ્રકાશ ભળતું રહે છે તેમ) ત્યાં નથી શરીર, નથી ઘર, નથી ખાવાનું-પીવાનું, કેઈ ચીજ નથી, કેઈ ઉપાધિ નથી, એનું નામ જ મેક્ષ. મેક્ષનું બીજું નામ સિદ્ધ છે, શિવ-મુક્તિ નિવણ વગેરે છે. આ મોક્ષ-સિદ્ધ સ્થાનમાં રહેનાર છે પણ સિદ્ધો જ કહેવાય અને સર્વ કર્મ વિમુક્ત અએવ સર્વ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 23 ] ગુણસંપન્ન, સર્વોચ્ચ કોટિએ પહોંચેલા આજ સિદ્ધાત્માઓને ઉપાધ્યાયજીએ વિધવિધ નામે સ્તવ્યા છે. બીજી વાત સ્પષ્ટ કરવી જરૂરી છે કે જિનસહસ્ત્રમાંના સહસ્ત્ર” શબ્દથી પૂરા એક હજાર જ ન સમજવા, પણ એક હજારને આઠ સમજવાના છે. પણ “અષ્ટાધિક જિન સહસ” આવું નામકરણ બરોબર ન લાગે એટલે ગ્રન્થના નામકરણમાં સહસને પૂણુંક રાખ્યા છે, અને તે ઉચિત છે. માનવની પ્રવૃત્તિ હંમેશાં ફલેઘેશ્યક હોય છે. પ્રવૃત્તિનું સારૂં ફળ મળશે એવું લાગે તે શ્રદ્ધાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરે, ન લાગે તે ન કરે. કદાચ કરે તે એ મન વિના. એટલે પ્રશ્ન એ થાય છે કે નામસહસ્રને પાઠ કરવાથી શું લાભ થાય? આનો જવાબ એ કે નામાવલિના રચયિતાએ એને નામસ્તવ કરનારે આત્મા, તીર્થકર નામકર્મ એટલે ઈશ્વર બનવા સુધીનું પુણ્ય બાંધી શકે એટલી હદ સુધીને મહિમા ગાયે છે. એ પ્રાપ્ત થાય એ દરમિયાન–વચગાળાની અવસ્થાએમાં આ સહસ્ત્રનામને પાઠ કરવાથી શુભની અને પરમ શાંતિની પ્રાપ્તિ, પાપોને નાશ, અભીષ્ટ સિદ્ધિ અને સર્વ દુઃખોથી મુક્તિ વગેરે લાભ મળે છે.” ઉપાધ્યાયજી મહારાજે પણ સિદ્ધોને નમસ્કાર કરવાથી 1. ઉપાધ્યાયજીએ સિદ્ધોને ગુજરાતી ભાષામાં પણ સ્તવ્યા છે. જેનું નામ સિદ્ધસહસ્ત્ર નામ વર્ણન છંદ” રાખ્યું છે. જે ગુર્જર સાહિત્ય સંગ્રહ ભાગ એકમાં મુદ્રિત થયેલ છે. યદ્યપિ ઉપલબ્ધ આ કૃતિમાં નામો ઘણાં ઓછાં છે. 2. સુવરતે.... regયુમનવા: સુમન્ (વિષ્ણુસહસ) -સર્વવિૌવા સામઢાવ૬ (ગણેશસહસ્ત્ર) -પરમં રાં ઘરારમા (મહાપુરાણ 25 99 ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 24] . ગૌણફળ તરીકે ઋદ્ધિ-સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ અને મુખ્ય ફળ તરીકે મહેદય પ્રાપ્તિ-મુક્તિની પ્રાપ્તિ જણાવ્યું છે. ' મુક્તિનું જ બીજું નામ મહદય છે. ઉદય શબ્દ તે સંસારવતી ઉન્નતિમાં લાગુ પડે છે, પણ મહાન ઉદય (શબ્દના યથાર્થ સ્વરૂપમાં મહાદય) સૃષ્ટિ ઉપર થતું જ નથી. એ તે મોક્ષમાં જ પહોંચાય ત્યાં જ તે અનુભવાય છે. આ દર્શાવ્યું . સિદ્ધોને પ્રણિપાત નમસ્કાર કરવાનું ફળ. સ્મરણનું ફળ શું? તે ઉપાધ્યાયજીએ કહ્યું કે મંગલ નહિં પણ પરમ મંગલ. મંગલ એટલે પાપને વિઘનો નાશ. વળી સ્વર્ગલોકની પ્રાપ્તિ અને તેના સર્વોત્તમ ફલમાં સિદ્ધસ્થાનની પ્રાપ્તિ. તાત્પર્ય એ કે આ સ્તવના મુક્તિ મુક્તિપ્રદા છે. એટલે બાહ્ય-આત્યંતર બંને પ્રકારના સુખને આપનારી છે. - અહીં ચર્ચાને માટે અવકાશ નથી. પરંતુ એકાંગી, અને નિશ્ચયનયવાદી બનીને ધર્મારાધન કે ભક્તિના ફળ તરીકે માત્ર મુક્તિને જ જણાવવી જોઈએ એ આગ્રહ રાખનાર ભુક્તિ શબ્દ તરફ નજર કરે. * આ ઉપરથી કેટલાક વાચકોને એમ થાય કે તવનું મહત્વ વધારવા ખાતર જ આવા પ્રલોભને બતાવાતાં હોય છે. એવું તે નથી ને? - આને જવાબ વિશેષ વિવેચન કર્યા વિના જ જૈન–અજૈન વિદ્વાનેએ પિતાના અનુભવની જે વાર્તા–વાણી જે કલેકમાં ઉતારી છે. તે જ કલેકે તેના અર્થ સાથે અહીં ઉદ્દધૃત કરૂં છું. જેમને આ સિદ્ધકોશની રચના કરી એજ મહર્ષિની વાણી એક લેકમાં રજૂ કરૂં છું. ભક્તિ માર્ગ શું છે તે જણા– વતાં કહે છે કે :-- Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 2 ] श्रुताब्धेः अवगाहनात् साराऽसारसमुद्धृतः / भक्तिर्भागवती बीजं परमानन्दसम्पदाम् // 1 // અર્થ– આગમ શાસ્ત્રોના સાગરમાં ડૂબકી મારી અને સાર મેં એ મેળવ્યું છે કે-પરમાનંદ રૂપ મેક્ષસ્થાનની પ્રાપ્તિ કરવી હોય તો તમે સહુ પવિત્ર એવી ભગવાનની ભક્તિનું આલંબન લઈ લો. અજેનેમાં પણ આના જેવા જ ભાવને વ્યક્ત કરતે લેક જૂઓ - आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः / इदमेकं मुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः // 1 // અર્થ– સર્વશાસ્ત્રોનું વાંચન-મનન કર્યું, પછી તે શાસ્ત્ર વચને પર વારંવાર ચિંતન કર્યું, પણ સરવાળે તે મને એકજ સાર મળે છે કે–આ. વિશ્વની અંદર પરમાત્મા એ એક જ ધ્યાનને લાયક કે પ્રાપ્ત કરવાને લાયક છે. મને વૈજ્ઞાનિક દ્રષ્ટિએ વિચારીએ તે માનવ સ્વભાવને સરળ અને સહજ સાધ્ય માર્ગ વધું ગમતું હોય છે. ભક્તિ માર્ગ અમીર કે ગરીબ, શિક્ષિત કે અશિક્ષિત, બાળ કે વૃદ્ધ સહુને માટે લાભકર્તા હોય છે. વિવિધ પ્રકારના ભક્તિમાર્ગનું શરણું દિવ્યપ્રકાશ આપી અંતિમ આત્મસિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરાવે છે. બીજા બધા સાધનાના માર્ગો કપરા છે. દુર્ગમ છે. કષ્ટ સાધ્ય છે. બુદ્ધિ હોય તે સમજી શકાય તેવા છે અને દીર્ઘ સમય માગે તેવા છે. સામાન્ય કક્ષાના જીત માટે એ સંસાધ્ય નથી. માટે તે એક અજૈન કવિએ સારભૂત નવનીત આપતાં 1. આવશ્યક સૂત્રોમાં, તેત્રો સ્તુતિઓ શાંતિપાઠોમાં તે ભૌતિક લાભોની વાતો પાર વિનાની જણાવી છે. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 26 ] કહ્યું છે-“પુરાણ કો પાર નહિં, વેદન કે અન્ત નહિં; વાણ તે અપાર કહી, કહાં ચિત્ત દીજીએ; ' ' સયન કે સાર એક, રામનામ રામનામ લીજીએ.” એટલે સૂહ કેઈએ, આબાલવૃદ્ધો માટે રાજમાર્ગ ઈશ્વર-પ્રભુ-ભગવદ્ સ્મરણ જ બતાવ્યો છે. કારણ કે ઈશ્વરનું સ્મરણ હૃદયની ગ્રન્થીઓને ભેદી નાંખવામાં અજોડ કામ કરે છે. બહાસ્યાન્તર દુઃખ, અશાંતિને ભગાડી મૂકે છે. અતૃપ્તિથી ભરેલા જીવનમાં જીવ પરમતૃપ્તિ અને દુઃખ દાવાનલમાં જલતાને પરમશાંતિ કરાવે છે. આ નામને જપ પણ કરી શકાય છે અને એથી આ પુસ્તકમાં અન્તમાં આપેલા પરિશિષ્ટમાં ચતુથી વિભકિતમાં તમામ નામ આપીને અન્તમાં નમઃ શબ્દ જોડીને તમામ નામે છાપ્યાં છે. જેથી દરેક પદ જાપને ચગ્ય બનાવી આપ્યું છે. આથી આના પ્રેમીઓને રેડીમેડ માલંથી જરૂર આનંદ થશે જ. ઘણાં નામે અર્થની દષ્ટિએ આનંદ આપે તેવાં છે. આની જે કઈ ટીકા રચે તે એની ખૂબીઓનું દર્શન જાણવા મલે. ચાલે ત્યારે આપણે સહુ, સર્વગુણસંપન્ન, પુરૂષેતમ, સત્તયું, સાચ્ચ કેટિના આત્માઓની નામ ગંગામાં ડૂબકી માત્રાને સંકલ્પ કરીને મન-આત્મા અને તનના મેલેને ધોતા રહીએ. - આ ત્રણેય પ્રકાશનમાં મતિષ, દષ્ટિદોષ અને પ્રેસદેણગી સતિ રહી ગઈ હોય તે માટે ગ્રન્થકાર પાસે ક્ષમા. | ન સાહિત્ય મંદિર | આસો સુદિ પૂર્ણિમા પાલીતાણું તા. 11-10-79 છે આ, યશોદેવસૂરિ 1. ચાર વેદ. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભગવાન શ્રી નેમિનાથજીનું સ્તવન નેધ–વિ. સં. 1713 પૂ ઉપાધ્યાયજી મહારાજે મહેસાણામાં માસું રહીને રચેલું સ્તવન અહીં પ્રથમવાર જ પ્રગટ થાય છે. સદ્દગુરૂના પ્રણમી પાય, થુણસું શ્રી યદુપતિરાય; ઉલટ અધિકે રહ્યો થાય, રે! સામલિઆ૦ 1 કરડી રાજુલ બલઈ, અષ્ટભવની પ્રીતિ જ લઈ નવમઈ ભવિ કાં ડમડલઈ, રે! સામલિઆ૦ 2 પૂરવલી પ્રીતિ સંભારો; તુહ દરિસણ લાગઈ પ્યારે; કિમ રાખે નેહ ઉધાર, રે! સામલિઆ૦ 3 કંત અજાણ હોઈ તેહની કહીઇ, નેહ કીજઇ તે નિરવહીઈ, ડું-ડઈ એકમડા ન રહીઈ, રે ! સામલિઆ૦ 4 આવી પાવ સરતિ સુખકારા દસઈ છઈ અતિ મને હાર; | બાપઈ એ કરઈ પુકારા, રે! સામલિઆ૦ 5 પંથી સબહી ધરિ આવઈ, કંદર્પ તે અધિક જગાવઈ; એક નિષ્ફર નેમ ન આવઈ, રે! સામલિઆ૦ 6 સખિ ! શ્રાવણ માસ તે આયે, અંગિં મુઝ મદન જગાયે; વિરહીનઈ અતિ દુઃખદાયે, રે! સામલિઆ૦ 7 ઝિમિર વરસઈ છઈ મેહ, તાપઈ મુંજ દાઝઈ દેહ; એણે અતિ સાલઈ સનેહ, રે! સામલિઆ૦ 8 આવ્યો તે આ માસ, આ એણુઈ આવાસ; પૂરનિ મુઝ મન આસ, રે! સામલિઆ૦ 9 ભાદવદઈ ભેગ મ છરો, અબલાસું કામ ન કરે તુમ્હ સાથિ કિસ્યો ચાલઈ રે! સામલિઆ૦ 10 1. આ રતવનનું હસ્તલિખિત પાનું મલી આવતા તેની નકલ કરી અહિં પ્રસિદ્ધ કર્યું છે. ઉપાધ્યાયજીનાં સ્તવને હજુ પણ છુટક હસ્તપાનાંઓ કે ગુઢકાઓ દ્વારા મળવા જોઈએ. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [28] તુઝ વિણ નિશિ સિંદ ન આવઈ, મુઝ અને ન ભાઈ - દહિલા તુઝ વિણ દિન જાવઈ, રે! સામલિઆ૦ 11 પ્રેમમાં પૂરી બલઈ નારી, યેવન કાં જાઓ હારી; જુઓ હઈડઈ કંથ વિચારી, રે! સામલિઆ૦ 12 કુણુ આગવિ દુખ કહી જઈ, યેવનરે લાહે લી જઈ જિમ દુઃખ સઘલાં તે જઈ, રે! સામલિઆ૦ 13 સખિ ! જાઈ મના એકાંત, વેગિં તેડી આ કંત; ' જિમ વિરહને થાઈ અંત, રે! સામલિઆ૦ 14 આવી રૂડી એ ચિત્રશાલી, નેહ નિજ રિજીઓ નિહાર; એહવી સેજ કાં મૂકે સુહાલી, રે! સામલિઆ૦ 15 નાહથિઓ વેગિ મનાવે, જેરઈ હાથ ગ્રહી ઝાલી લાવે; : ધણ મૂકી નિરધાર કાં જા, 2! સામલિઆ૦ 16 એહવા જુલ વચન બેલતી પ્રિલનું તે ધ્યાન ધરંતી; ગિરનાસી ચઢી વિલવંતી, રે! સામલિઆ૦ 17 સામી મુઝ સુણિ એક વાત, એસી જઈ તમારી ઘાત (?) માની વચન શિવાજેવી જાત, 2! સામલિઆ૦ 18 નેમ હાર્થિ સંયમ લેઈ અવિહડ તબ પ્રીતિ કઈ . શિવપુર પિઉપહિલી પહઈ, રે! સામલિઓ૦ 19 નેમ યુણિએ મને ઉલ્લાસ, મહીસાણઈ રહી ચઉમાસ; ' પૂગી છઈ મુઝ મનિ આસ, રે! સામલિઆ૦ 20 સંવત સતર તેર વરસિં, કાર્તિક સુદિ પંચમી દિવસિં; તવન કરિઉં મન હરખં, રે! સામલિઆ૦ 21 પંડિત શ્રી નયવિજયઈશ, શ્રી જયવિજય તેહને સીસ * સીસ તવ દિઈ આસીસ, રે! સામલિઆ૦ 22 इति श्रीनेमिजिनस्तवनं संपूर्णम् / - - * * Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ प्रादीश्वराय नमः नमो लोए सव्वसाहूणं। आर्ष भीयचरित तथा विजयोल्लास दोनों महाकाव्य एवं उनके सम्बन्ध में संक्षिप्त कथनीय वि० सं० 2006 तथा ई० स० 1653 के' वर्ष में मेरी मातृभूमिजन्मभूमि और न्यायविशारद न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराजश्री की स्वर्गवास भूमि 'डभोई' [दर्भावती] नगरी में, पू० स्व० उ० श्रीयशोविजयजी की नवीन भव्य देहरी तथा गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा के प्रसंग पर, साथ ही साथ महोपाध्यायजी के जीवन और कवन से जैन-अजैन विद्वान् एवं प्रजा को परिचित कराने के लिए 'श्रीयशोविजय सारस्वत सत्र' नाम से एक सत्रोत्सव भी आयोजित करने का निर्णय किया। पूज्यपाद चार आचार्यों की अध्यक्षता में प्रातः और मध्याह्न में सार्वजनिक सभाएँ होती थीं, पूज्यपाद गुरुदेवों के वक्तव्यों के साथ ही देश के विविध भागों से आये हुए अनेक विद्वानों ने पूज्य उपाध्यायजी के 'जीवन तथा कवन' विषय पर अध्ययनपूर्ण मननीय प्रकाश डाला था / सभा में प्रायः पाँच हजार जनता की उपस्थिति थी। यह एक अभूतपूर्व प्रसंग था। मुख्यरूप से गुजरात की जनता को गुजरात के एक महान धर्मसपूत को परिचित कराने के लिये किया गया यह प्रयास इस सत्र के हात, तथा शासकीय तन्त्र एवं उसके प्रचार साधनों के सुन्दर सहयोग से, साथ ही समाचार पत्रों के उत्साह से सफलता को प्राप्त हुआ था और मेरा उद्देश्य सफल होने से मुझे उसका अवर्णनीय एवं अपार आनन्द हुआ था। 1. यह उत्सवं फाल्गुन कृष्णा (गुजराती) द्वितीया से फाल्गुन कृष्णा अष्टमी तक हुआ था / इसी में सारस्वत-सत्र सप्तमी और अष्टमी दि० 7-3-53 एवं 8-3-53 को दो दिन आयोजित था। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) किया गया संकल्प-- इस सत्र की बैठक के मेरे प्रवचन के अन्त में मैंने एक संकल्प सभी के समक्ष प्रकट किया था कि, "उपाध्यायजी भगवन्त की अनुपलब्ध कृतियों को उपलब्ध करने के लिए मैं सभी सम्भव प्रयत्न करूगा / तदनन्तर प्राप्त कृतियों की प्रेसकापी करके अथवा करवाकर उनका संशोधन-पूर्वक आधुनिक पद्धति से सम्पादन करके मुद्रित करवाकर प्रकाशित कराऊंगा। ___ इसके बाद का कार्य, मुद्रित किन्तु अनुपलब्ध बने हुए ग्रन्थ, जो बहुत आवश्यक होंगे उनका पुनर्मुद्रण कराने की व्यवस्था करूगा और तदनन्तर भाषान्तर के योग्य जो कृतियाँ होंगी उनका भाषान्तर करके प्रकाशित कराना, इसके पश्चात् उपाध्यायजी के जीवन-कवन पर अध्ययन-पूर्वक एक निबन्ध लिखना आदि होगा।" परमपूज्य आगम-प्रभाकर पू० मुनिप्रवर श्री पुण्यविजयजी महाराज इस सत्र की योजना से अत्यन्त प्रसन्न हुए थे और उसके पश्चात् जब मैं उनसे मिला तब उन्होंने मुझे अगणित अभिनन्दन देते हुए अपनी अपार प्रसन्नता अभिव्यक्त की थी। तदनन्तर हम साथ भी रहे एवं संकल्पानुसार अभिनव कृतियों के लिए प्रयास आरम्भ किये, अन्य मित्रों ने भी प्रयास किये। कुछ कृतियाँ प्राप्त हुई। अहमदाबाद के 'देवशाना पाडा' में स्थित भण्डार का पुनरुद्धार करने में पू० पुण्यविजयजी महाराज के साथ मैं भी था। वहाँ से भी उपाध्यायजी के स्व-हस्ताक्षरों में ही उनके द्वारा रचित कृतियाँ उचित मात्रा में उपलब्ध हुई / इस उपलब्धि में सब से अधिक सहयोग पूज्य पुण्यविजयजी महाराज का था, जो कि मेरे प्रति अनन्य पक्षपात रखते थे। इसके पश्चात् मेरी प्रार्थना पर ही उन्होंने सुन्दर सुवाच्य प्रेसकॉपी करनेवाले धर्मात्मा श्रीनगीनदास केवलचन्द द्वारा कतिपय प्रेसकॉपियाँ भी करवा दीं तथा अपने द्वारा की हुई प्रेसकॉपियाँ भी मुझे दीं। तत्पश्चात् उनके संशोधन, सम्पादन एवं मुद्रणादि के कार्य उत्साह से आरम्भ किये गये और उसके परिणामस्वरूप आज 'यशोभारती' का यह नौवां पुष्प प्रकाशित होने से किये गये संकल्प के किनारे के पास पहुंच गया हूं। और एक-दो वर्ष में किनारे पर उतर भी जाऊंगा एवं किये गये संकल्प अथवा ली गई मानसिक प्रतिज्ञा की पूर्णाहुति होने पर जीवन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में एक विशिष्ट वाङमय की सेवा कर लेने का एक हार्दिक सन्तोष प्राप्त करूंगा। आज तक प्रकाशित कृतियों के बारे में-- आज तक 'यशोभारती जैन संस्था' की ओर से पू० उपाध्यायजी भगवान् की पन्द्रह कृतियां जो प्रकाशित हो चुकी हैं, उनकी सूची इस प्रकार है-- 1. ऐन्द्रस्तुति, स्वोपज्ञ-स्वरचित टीका, भाषान्तर सहित / 2. वैराग्यरति (मूलमात्र)। 3. स्तोत्रावली सस्कृतकृति, हिन्दी भाषान्तर सहित (स्तुति, स्तोत्र-पत्रादि) 4. काव्यप्रकाश 2, 3 उल्लास की टीका, हिन्दी भाषान्तर सहित / 5. स्याद्वाद-रहस्य बहद टीका। 6. स्याद्वाद-रहस्य मध्यम टीका / 7. स्याद्वाद रहस्थ जघन्य टीका / 8. तिङन्वयोक्ति [प्रारम्भ मात्र] / 6. आत्मख्याति 10. प्रमेयमाला 11. वादमाला द्वितीया . 12. वादमाला तृतीया .. 13. विषयतावाद 14. वायुष्मादेः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षविवादरहस्यम 15. न्यायसिद्धान्तमञ्जरी (केवल शब्दखण्ड की टीका) ___ बाइण्डिग किये हुए छह ग्रन्थों में तथा सातवें क्रमांक के पूष्प तक छोटीबड़ी उपर्युक्त 15 कृतियाँ छप चुकी हैं। तीसरे पुष्प के रूप में 'यशोदोहन' छपा है जिसमें उपाध्याय जी के सभी उपलब्ध ग्रन्थों का परिचय है। आरम्भ की चार पुष्परूप कृतियाँ स्वतन्त्र एक-एक ग्रन्थ के रूप में तथा छठा पुष्प चार कृतियों से और सातवां पुष्प छह कृतियों से संयुक्त है। .आज आठवें पूष्प के रूप में उपाध्यायजी की तीन कृतियों का संयुक्त Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) प्रकाशन हो रहा है। उपर्युक्त 15. में तीन जोड़ने से कुल 18 कृतियां 'यशोभारती जैन ग्रन्थ प्रकाशन संस्था' प्रकाशित कर रही है, इनमें पन्द्रह कृतियां तो पहली बार ही प्रकाशित हुई हैं। शेष दो 'ऐन्द्रस्तुति' और कतिपय स्तोत्रोंवाली 'स्तोत्रावली' पहले अन्य स्थानों से प्रकाशित हुई थीं। इतना होते हुए भी प्रस्तुत दोनों प्रकाशन अपूर्ण थे। इसलिये संशोधन-परिवर्धन के साथ नई कृतियों के संयोजन-पूर्वक उनका हिन्दी अनुवाद सहित विशिष्टपद्धति से प्रकाशन हुआ है। अब '108 बोल, अढार सहसशीलांग रथ, श्रद्धानजल्पकल्पलता, कूपदृष्टान्त, विचारबिन्दु तथा तेरकाठिया'--ये छह कृतियां प्रकाशित होने वाली हैं, तब कुल 24 कृतियां प्रकाशित हो जाएंगी। कार्य चल रहा है। अब प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्बन्ध में आज उपाध्यायजी की स्वकृति के रूप में आठवां प्रकाशन हो रहा है। यशोभारती संस्था की ओर से यह आठवां प्रकाशन उपाध्यायजी की तीन कृतियों से संयुक्त है इसलिये इस पर तीन नाम' छपाये गये हैं। इन तीनों कृतियों का परिचय विद्वद्वर्य, प्रखर साहित्यकार, डॉ० रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने इसी ग्रन्थ में दिया है, वह देख लें। शेष जो कहना रहता है वह कहता हूं। इन तीनों कृतियों का रचना-परिमाण बहुत थोड़ा होने से प्रत्येक की पृथक्पृथक् पुस्तिका को जन्म देना यह जानबूझकर निर्बल * बालकों की जमात को जन्म देने जैसा प्रतीत हो और वह अदर्शनीय बन जाए, इसका कोई महत्त्व न रहे / पुस्तक का कलेवर पुष्ट बने, इस दृष्टि से यह संयुक्त प्रकाशन निश्चित किया गया। आकार बढ़े, इसके लिए 1/16 क्राउन की साइज पसन्द की गई। इससे पुस्तक का आकार बढ़ा / 1. पुस्तकालयों की सूची बनाने वालों को, इस पुस्तक की तीनों कृतियों का उन-उन अक्षर विभागों में पृथक्-पृथक् नामाङ्कन करना चाहिए, जिससे ये शीघ्र प्राप्त हो सकें। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ की दो कृतियां चरित्ररूप हैं। दोनों कृतियाँ काव्यात्मक हैं। ये दोनों काव्य' महाकाव्यों की पंक्ति में खड़े रहें ऐसे हैं। एक का नाम 'आर्षभीय' और दूसरे का नाम है 'विजयोल्लास' / दोनों को कुछ ऐतिहासिक भी कहा जा सकता है। आर्षभीय काव्य अधिकांशरूप में द्वयर्थक काव्य है / अर्थात् एक श्लोक के दो प्रकार के भिन्न-भिन्न अर्थों को व्यक्त करता है। ये दो कृतियां काव्य की हैं। काव्य के विषय पर बहुत-बहुत लिखा जा सकता है। जैन साहित्य-काव्य पर अनेक विद्वानों ने यथोचित लिखा है / इतना होने पर भी मेरे ज्ञान विकास के लिये तथा कतिपय अस्पृष्ट बातों को लक्ष्य में रखकर काव्य के पक्ष में कुछ लिखा जा सकता है। जिसमें-जैनधर्म में काव्यपरम्परा का क्या स्थान था ? इस परम्परा में केवल साधु-समुदाय ही ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र सम्हालते रहे हैं, तो गृहस्थ (आरम्भ के अपवादों को छोड़कर) किस लिये विद्या से अस्पृष्ट रहे और आज हैं ? जैन-अजैन काव्यों के बीच तुलनात्मक समीक्षा / जैनधर्म में स्वतन्त्र प्रतिभा रखने वाले काव्य हैं क्या ? अनुशासक अथवा उपजीव्य कृर्तियां कौन-सी हैं ? स्वतन्त्र एवं उपजीव्य में अधिक मात्रा किसको है ? काव्य में रुचि न हो किन्तु इसका पूर्ण विराम जैनअजैन दोनों में समान बिन्दु पर था अथवा असमान ? इनका पर्यवसान किस रस में होता था और जैनधर्म की इस मूलभूत विशेषता, अन्तिम ध्येय अथवा अन्तिम लक्ष्य की निरन्तरता का कवियों ने किस प्रकार संरक्षण किया ? इसके अतिरिक्त शताब्दी क्रम से काव्य की रचना कौन-कौन सी हुई और उनसे सम्बद्ध आवश्यक वातों की यथाशक्ति-यथामति' रूपरेखा देने की तीव्र इच्छा थी परन्तु आजकल की शारीरिक, मानसिक अथवा मस्तिष्क की प्रतिकूल परिस्थिति और अन्य साधनाक्रम चलता रहने के कारण आज यह सब लिखा जा सके ऐसी स्थिति नहीं हैं, किन्तु इससे इसका दुःख अवश्य है। 1. सर्जन की आश्चर्यपूर्ण धूनी जगाने वाले उपाध्यायजी की सर्जन-समृद्धि ____ और उसके पीछे उनका अप्रमत्तभाव देखते हुए प्रत्येक का सिर झुक जाए जैसा है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) . दुर्भाग्य की बात यह है कि ये दोनों कृतियां' अपूर्ण प्राप्त हुई हैं। प्रथम कृति का 'आर्षभीय' नाम पाठकों को अपरिचित-सा लगेगा। ऐसे नाम की प्रसिद्धि भी कहीं देखने में नहीं आयी है। सामान्य पाठक को विचार आ सकता है कि आषभीय का तात्पर्य क्या होगा? व्याकरण के नियम से 'ऋषभस्य इदं आर्षभीयम्' ऋषभदेव सम्बन्धी जो हो, वह आर्षभीय तथा यह चरित्र है इसलिये ऋषभ का जो चरित वह आर्षभीयचरित कहलाता है / पहले तीर्थङ्कर का उनके माता-पिता द्वारा सान्वर्थक नाम ऋषभ था। ऋषभ ईश्वर बने तब सभी के नाथ-स्वामी बने ऐसा कहा गया, किन्तु उच्चारण की थोड़ी सी असरलता के कारण अथवा किसी अन्य चाहे जिस कारण से ऋषभ नाम के स्थान पर आदि भगवान होने से आदिनाथ-आदीश्वर इस नाम को पर्याप्त प्रसिद्धि मिली है / अजैन ग्रन्थ वेद-पुराणादिक में ऋषभ तथा आदिनाथ दोनों नामों का उल्लेख हुआ है। ऋषभदेव की महिमा जब इस देश में उत्कृष्ट हुई होगी तब अजैन धार्मिक अग्रणियों ने जैनों के प्रथम तीर्थङ्कर को अपने ईश्वरी अवतार में समाविष्ट करने का विचार-निर्णय किया, उस समय उन्होंने चौबीस में से किसी अन्य को न चुनते हुए बुद्धिकौशल का उपयोग करके इन पहले तीर्थङ्कर को चुनकर इन्हें अवतार में स्थापित कर दिया। और उन्होंने अवताररूप नामों में 'ऋषभ' नाम ही पसन्द किया तथा ऋषभ को अवतार के रूप में घोषित कर 1. कृतियाँ अपूर्ण क्यों रही होंगी? यह प्रश्नार्थक ही रहेगा? 2. साधना करनेवाले के लिए तो ऋषभ नाम का उपयोग लाभप्रद है। 3. कल्पसूत्र ग्रन्थ में भगवान् का पांच विशेषणों से परिचय दिया है उसभ, पढमोराया, पढमभिक्खायरे, पढमजिणे तथा पढमतित्थिंकरे / उसभ- ऋषभ, प्रथम राजा, प्रथम भिक्षाचर-साधु, आदि वीतराग एवं आदि तीर्थङ्कर / आज कोई प्रश्न करे कि इस युग के आदि राजा, साधु, पहले वीतराग और आदि तीर्थङ्कर कौन हैं तो उत्तर होगा 'ऋषभदेव'। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7 ) दिया। साथ ही भागवत-पुराण में दिये गये अवतारों के वर्णन में इनका. जीवन-चरित्र भी जोड़ दिया। इस प्रकार बलपूर्वक जैनतीर्थङ्कर ऋषभ२, ऋषभावतार के रूप में अजैन विभाग में मान्य, वन्दनीय एवं पूजनीय बन गये। भाषान्तर के सम्बन्ध में भारतीय संस्कृति की आत्मा प्राकृत भाषा में जोवित है उसी प्रकार आर्यकुल में मानी जाने वाली संस्कृतभाषा में भी जी रही है। यह भाषा हजारों वर्षों से इस देश में सर्वत्र फैली हुई है क्योंकि इस भाषा को नियमबद्ध बनाया गया है यही कारण है कि इसके लिये देश काल की सीमाएँ बाधक नहीं हुई। जबकि दूसरी लोकभाषा-प्राकृत भाषा के लिए 'बारह कोस पर बोली बदल जाती है। ऐसी स्थिति थी। व्यवहार की भाषा व्याकरणशास्त्र से सुसंस्कृत अर्थात् नियमबद्ध होने से संस्कृतभाषा उत्पन्न हुई, इससे इस देश का कोई भी व्यक्ति इसे सीख सके ऐसी परिस्थिति निर्मित हुई। इसीलिए इस भाषा में समस्त दर्शनकारों ने अपने साहित्य की विपुल रचनाएँ की हैं। भारतीय संस्कृति की आत्मा को एकता के सूत्र में, बांधने तथा विविधता में एकता का अनुभव कराने में इस भाषा का योग बहुत अच्छा रहा है। यद्यपि प्रत्येक धर्मशास्त्रकारों ने अपने मूलभूत शास्त्रों के लिए स्वतन्त्र भाषाएँ अपनाई हैं, जैसे कि जैनों ने प्राकृत, वैदिकों ने संस्कृत और बौद्धों ने पाली / इतना होते हुए भी धर्मशास्त्रों को समझाने के लिए जिस भाषा का मुक्त रूप से उपयोग हुआ है वह अधिकांशया संस्कृतभाषा का ही हुआ है। इसे समझाने के लिए निर्मित संस्कृत रचनाएँ सर्वत्र 'टीका' शब्द से पहचानी जाती हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृत की आत्मा भाषा में शब्द-बद्ध होकर ओतप्रोत हो गई / ऐसी व्यापक सर्वत्र समान समादर की पात्र बनी हुई भाषा के प्रति आज शनिदशा लगी हुई है। देवभाषा के नाम से ख्यातिप्राप्त इस भाषा के 1. देखो, भागवतपुराण / 2. ऋषभदेवावतार का चरित्र जैनों से कुछ भिन्न लगता है, जबकि अन्त में कुछ विचित्र विकृतियां देखने में आती हैं। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) प्रति इसकी जन्मदात्री भूमि पर ही अभाव, अप्रीति, तिरस्कार तथा अति उपेक्षा के भाव प्रकट हो रहे हैं। विद्यार्थियों का व्यवहार देखकर किसी भी संस्कृतानुरागी भारतीय को दुःख एवं चिन्ता हुए बिना नहीं रहेगी। __चरित्र इसी भाषा में लिखे गए हैं। अतः जब इस भाषा का अनुवाद हो तभी उसका लाभ अधिक लोग प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए प्रयास किया गया किन्तु भाषान्तर करने वालों का दुष्काल, क्लिष्ट भाषा की रचना को भाषा में समझाने वाले कम हो गए हैं। साधु-श्रमणसंघ में भी संस्कृत-भाषा के प्रति आदर की न्यूनता है, इन समीकरणों से तत्काल भाषान्तर हो सके ऐसा सम्भव न होने से यहां नहीं दिया जा सका है। अतः इस ग्रंथ का उपयोग कितना होगा ? इसकी चिन्ता होते हुए भी, चिन्ता न करते हुए उपाध्यायजी की बहुत-सी अत्यन्त मूल्यवान् कृतियां काल के खप्पर में स्वाहा हो गईं वैसी ही स्थिति नवीन उपलब्ध कृतियों की न हो जाए और वे चिरञ्जीवी बनी रहें, इस उद्देश्य से संस्था प्रकाशन-कार्य कर रही है / अब प्रतियों का परिचय प्राप्त करें। आर्षभीय की प्रति का प्रावश्यक परिचय- ' आर्षभीय-चरित की प्रति की लम्बाई पौने दस इंच एक डोरा, चौड़ाई साढ़े चार इंच दो डोरे है। पहले खाने में 13 तेरह पंक्तियां है। प्रारम्भ के पांच कोष्ठकों में एक इंच में चार-से-पांच तक आजाएँ ऐसे बड़े अक्षर लिखे गए हैं। इसके बाद अक्षर छोटे होते जाते हैं / प्रत्येक पत्र में पंक्तियों की संख्या 14 से 16. तक पहुंचती है और अक्षरों की संख्या एक इंच में बढ़ती जाती है। यह प्रति एक ही हाथ से लिखी गई हो ऐसा नहीं लगता। किन्तु बाद का लेखन स्वयं उपाध्यायजी के अपने अक्षरों में हो, ऐसा ज्ञात होता है। प्रति की स्थिति अच्छी है। इसकी एक ही प्रतिलिपि प्राप्त हुई है / लेखन काली श्याही से हुआ है / एक भक्तजन की प्रार्थना पर उसे सुनाने के लिए यह रचना की गई है ऐसा लेखक ने बताया है। साथ ही अन्तिम पद्य में उन्होंने स्वयं को प्रिय Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) ऐसे श्री' शब्द का प्रयोग किया है। आर्षभीयचरित से सम्बद्ध प्रति के बारे में आलोचना पूर्ण हुई। .. - विजयोल्लास की प्रति आकार-प्रकार में प्रायः आर्षभीय जैसी ही है। शेष लिपि की बनावट और प्रति की स्थिति अच्छी है / - इन दोनों काव्यों की नहीं अपितु महाकाव्यों की रचना देखते हुए एक नैयायिक भी कैसा सफल साहित्यकार बन सकता है यह देख कर 'शिरसा मनसा मत्यराण वदामि' पूर्वक मस्तक झुक जाता है / आर्षभीय तथा विजयोल्लास इन दोनों काव्यों के बारे में मेरा जो कुछ कथनीय था वह यहां कह दिया है, अब 'सिद्धसहस्र' के सम्बन्ध में लिखता हूं यशोदेवसूरि पालीताणा जैन साहित्य मन्दिर आश्विन शु० पूर्णिमा सं० 2035 1. कतिपय प्राचीन ग्रंथकार ग्रंथ के अन्तिम श्लोक में-पूर्णाहुति में अपने व्यक्तित्व का सूचक कोई भी एक सांकेतिक शब्द रखते थे। उपाध्याय जी ने 'श्री' शब्द पर अपना अनुराग प्रकट किया था। 2. इस चरित्र में श्लोक सं० 132 में 'सार्धत्रयोदश सुवर्ण; 13 // साढ़े तेरह करोड़ सोने की मुद्राओं की वृष्टि की बात नयी ही कही गई है / वैसे तो 12 // साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की वृष्टि की बात सर्वत्र आती है / विद्वान् विचार करें। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविघ्नहरणाय श्रीलोढणपार्श्वनाथाय नमः / सिद्धसहस्र की प्रस्तावना सिद्धकोश अथवा सिद्धसहस्रनामप्रकरण इन दोनों नामों से पहचानी जाने वाली इस लघु कृति के बारे में जो कुछ कथयितव्य था वह बहुधा धर्मस्नेही श्रीअमृतलाल भाई ने लिख दिया है और वह इसी ग्रन्थ में मुद्रित करके प्रकट कर दिया है जिसे इसी पुस्तक के पृष्ठ 36 से पढ़ लें, जिससे कृति का विस्तृत परिचय मिल जाएगा। जो शेष मुझे कहना है उसका यहां कथन करता हूं। ___ भारत में सह नामों के द्वारा किसी भी इष्ट देव-देवी के विविध नामों द्वारा गुणोत्कीर्तन नामस्तवन-स्तुति करने की परम्परा' युगों पुरानी है। सबसे पहले अजैनों ने सहनामों द्वारा ऐसी स्तुति रचनाएँ कीं। तदनन्तर बौद्ध-जैनों ने भी की। जैनदर्शन में भी यह परम्परा अर्वाचीन नहीं है, प्राचीन मात्र नहीं, अपितु अतिप्राचीन-पुरानी प्रथा है / उपलब्ध कृति के आधार पर कहें तो जैनसंघ में चौथी शताब्दी से जिनसहईनाम की कृति मिल जाने से 1600 वर्ष पूर्व यह थी ऐसा प्रमाणित 1. ऋग्वेद जितनी प्राचीन तो अवश्य ही है / 2. सहस्र रचना की. अजैनों की सूची अतिदीर्घ होने से उदाहरणस्वरूप में ही कुछ नामों का यहाँ निर्देश करता हूं। १---विष्णुसहस्र, गोपालसहस्र, गणेश, दत्तात्रेय, सूर्यनारायण, पुरुषोत्तम आदि के सह नामों की रचना हुई है / देवियों में लक्ष्मी, रेणुका, पद्मावती के भी सह नाम बने हैं। 3. 'जिन' शब्द का अर्थ - "जीतता है वह जिन है।" इतने से अर्थतृप्ति नहीं होती। अर्थ साकांक्ष रहता है / अतः प्रश्न होता है कि किसे जीते ? तो उत्तर होगा आत्मा के रागद्वेषरूपी शत्रु को। इसे जीत लिया जाए तो आत्मा वीतराग बन जाए। जिन-वीतराग एक ही अर्थ के वाचक हैं। वीतराग हुए अर्थात् सर्वत्र समभाव वाले बन गये तभी सर्वगुणसम्पन्न बने। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 11 ) होता है। किन्तु इससे पूर्व कोई कृति निर्मित हुई होगी क्या ? यह प्रश्न बना रहता है / यह कृति दिगम्बरीय है। ऐसी रचना शुष्क प्रतीत होती है / अतः इस दिशा में अत्यल्प व्यक्तियों ने लेखिनी चलाई है। प्राप्त साधनों से अनुमान किया जा सकता है कि चौथी शताब्दी से दो हजार की शताब्दी तक जैन समाज में सहशनाम से अंकित कृतियां पन्द्रह से अधिक तो नहीं ही होंगी। __ यह विषय ही ऐसा है कि जिसमें केवल नामों की ही रचना होती है। इसमें दूसरा कुछ कथनीय नहीं होता है / यद्यपि नाम-रचना का कार्य भी सरल नहीं है, इनमें भी कार्य-कारणभाव की व्यवस्थित तत्त्वव्यवस्था जिस दर्शन में हो, वहां शब्द निश्चित करने के लिये बहुत ही प्रतिभा और सावधानी की अपेक्षा हो, यह आवश्यक है / तथापि कुल मिला कर अन्य विषयों का जितना विस्तार हुआ है उसकी तुलना में इस दिशा का प्रयास छोटा कहा जा सकता है। यह एक अभिरुचि की-रस की बात है, अनिवार्य आवश्यकता की बात नहीं / तथापि हिन्दू परम्परा अथवा वैदिक क्षेत्र में स्पृष्ट क्षेत्र जैनी क्षेत्र में अस्पृष्ट रहे, इस क्षेत्र में जैनों की देन न हो यह एक स्वतन्त्र संस्कृति रखनेवाले जैनसंघ के लिये समुचित न होने से जैनमुनियों द्वारा किया गया यह प्रयास वस्तुतः जैनसंघ के लिये अत्यावश्यक तथा उपकारक माना जाये वैसा है। ___ जैन साधुओं की देश काल को पहचान कर समय के साथ ताल मिलाने की युगलक्ष्यी उदात्तभावना के परिणामस्वरूप त्याग तथा वैराग्य की नींव पर खड़े हुए जैनधर्म में भी बेजोड़ विपयों पर जैनाचार्यो-मुनियों ने विशाल सर्जन किया है। अनेक विषयों के क्षेत्र सींच दिये और फलस्वरूप जैन समाज को महान् संस्कृति की महान् धरोहर प्राप्त हुई / जिसके कारण आज जैन समाज अपनी इस विशाल ज्ञान-साहित्य-समृद्धि के कारण मस्तक उन्नत करके जीवन जी रहा है और विगत पच्चीस वर्षों में देश-विदेश में भी संशोधन के क्षेत्र में, जैन तत्त्वज्ञान ने और जैनग्रन्यों ने विद्वानों में भारी उत्साह तथा आतुरता जगा दी है। जन-मानस विविध संस्कारों से परिपूर्ण है। अनेक कम्प्यूटरों को लज्जित बना सके ऐसे अगाध, विशाल, व्यापक और विविध दृष्टियों को रखने वाले Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12 ) . मस्तिष्क को छोटे नहीं अपितु विशाल विचार, छोटी कल्पना नहीं अपितु विशाल कल्पनाएँ अधिक आकृष्ट कर सकती हैं। यह अतिज्ञानियों-बुद्धिशालियों के सम्बन्ध में सुपरिचित समझी जा सके ऐसी घटना है। छोटी आकृति की अपेक्षा बड़ी आकृति (नेत्र के स्तर से बड़ी) अधिक ध्यान आकृष्ट करती है। यह मानव चक्षु और मन का सरल गणित है। अल्पता की अपेक्षा (अच्छी बातों की) विशालता किसे. अच्छी नहीं लगती ? . ऐसे मानसिक कारण से एक नाम की अपेक्षा अनेक नामों से, अनेक की अपेक्षा दस नामों से, दस की अपेक्षा अधिक करने से जब अधिक आनन्द का अनुभव किया कि मन आगे बढ़ा / दस में अधिक आनन्द आया तो सौ मैं तो आनन्द की लहरें उछलेंगी, ऐसी किसी पुण्यभावना से शतकों की रचना हुई। तदनन्तर इससे सम्बद्ध लक्ष्मणरेखा लांघ जाने पर जीव सीधी छलांग लगा कर हजार, वास्तविक रूप में तो' 1008 नाम की रचना पर पहुंचा और इस इच्छा को सन्तुष्ट करने के लिये भगवान् को विविध रूप में कल्पित करने लगा / विविध गुणों से अलंकृत करना पड़ा / बुद्धि गहरे कार्य में लगाकर मन्थन किया, येनकेन प्रकारेण अनेक सान्वर्थक नाम बनाकर (छन्द के अनुकूल रहते हुए) सहस्रनाम की भव्य कृति को जन्म दिया अथवा कहिये कि जन्म मिला। ऊपर जो कहा गया है वह 'मानव--स्वभाव को लक्ष्य में रखकर कहा गया है, किन्तु इससे भी अधिक वास्तविक कारण यह ज्ञात होता है कि - 'मन्त्रशास्त्र का एक सर्वसामान्य नियम-परम्परा ऐसी है कि कार्य की सफलता के लिये किसी भी मन्त्र का जप कम-से-कम एक हजार प्रतिदिन होना चाहिए तभी उसकी फलश्रुति के कुछ दर्शन हों, प्रतिदिन एक सहस्र संख्या में जप होता जाए तो दीर्घकाल के पश्चात् जापक को अभूतपूर्व शक्ति का संचार, दर्शन तथा रहस्यों का कुछ अनुभव हुए बिना नहीं रहता / किन्तु इससे भी अधिक वास्त 1. देखिये, शिल्प में क्या हुआ कि भगवान् श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति में पांच-सात अथवा नौ फणों से सन्तोष नहीं हुआ, तब सीधा बढ़कर सहस्रफणा अर्थात् एक हजार सर्पमुख के आवरण वाली मूर्तियों का निर्माण होने लगा। ऐसा भी यहां सोचा जा सकता है / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 13 ) विक यह प्रतीत होता है कि भगवान के शारीरिक लक्षणों की संख्या 1008 है। ऐसे अंक को लक्ष्य में रखकर भगवान् के गुणों से निष्पन्न 1008 नामों के द्वारा स्तुति करने का सम्भवतः विचार बना हो ! __ ऊपर बतलाये गये कारणों को लक्ष्य में रखकर भी ऐसे सहस्र (1008) नामों की कृतियां बनी हों तो यह सुसंगत बात है। ____ यद्यपि परमात्मा के गुण अनन्त हैं / अनन्त गुणों के अनन्त नाम भी बनाये जा सकते हैं, परन्तु मानव-बुद्धि से वह सम्भव नहीं है। अतः जो योग्य, भावोत्पादक, आकर्षक तथा उत्तम हों वैसे ही नामों का निर्माण करने की प्रथा है। इस प्रकार की प्रथा जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों ही संस्कृतियों में थी। ऐसी रचनाएँ मुख्यतया अपने-अपने इष्टदेवों और देवियों को केन्द्र मानकर निर्मित की जाती हैं। स्तव-स्तवन अथवा स्तोत्र चार प्रकार के होते हैं / 1. नाम-स्तव,२ 2. स्थापना स्तव, 3. द्रव्य-स्तव तथा 4. भाव-स्तव / इस स्तवना में सर्वकाल के, सर्वक्षेत्र के तीर्थंकरों-परमात्माओं को आवजित कर लिया जाता है / जिससे किसी भी स्थान के किसी भी क्षेत्र स्थित ईश्वरीय व्यक्ति अस्तुत्य नहीं रह जाएं, तथा उससे परम मङ्गल-- कल्याण की प्राप्ति हो। सहस्रनामों की रचना अरिहन्तों-- अर्हन्तों के अतिरिक्त वर्तमान चौबीसी के किसी भी तीर्थंङ्कर को उद्देश करके की जा सकती है। किंतु इस चौबीसी में सहस्रनाम की रचना की जा सके अथवा प्राप्त हों, ऐसे भगवान् यदि कोई भी हों तो भगवान् पार्श्वनाथ हैं। इसलिए उनके नामों की स्तुति निर्मित हुई है, जिसका नाम 'पार्श्वनाथनाम-सहस्र' है। अरिहन्त से अधिक उच्च स्थान प्राप्त सिद्धात्माओं के सहस्रनाम की रचना उपाध्याय जी के अतिरिक्त किसी अन्य ने की हो ऐसा ज्ञात नहीं है, इसीलिए सहस्रनाम की रचना उपाध्याय जी तक अरिहन्तों को लक्ष्य में रखकर ही की जाती थी यह ध्यान में रखना चाहिये। 1. देखो महा० पु० पर्व 25, श्लोक 66 / 2. इन्हीं के द्वारा निर्मित 'आदिपुराण' के एक अंश-भाग के रूप में यह कृति है, किन्तु स्वतन्त्र रचना नहीं / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) इस प्रथा का आदर श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में हुआ है। इसमें सहस्र की सबसे प्राचीन रचना श्वेताम्बर आचार्य श्रीसिद्धसेन दिवाकर जी की है और उसका समय चौथी शताब्दी का है। उसके पश्चात् प्रायः 500 वर्ष के बाद विद्वान् दिगम्बर आचार्यश्री ने 'जिनसहस्र' नामक स्तोत्र-स्तवन की रचना की। इस रचना का समय नौवीं शताब्दी का है। परन्तु इसमें एक विवेक करना आवश्यक है कि दिवाकरजी की रचना में नाम भले ही एक हजार हों, किन्तु वे गद्यपद्धति से संगृहीत हुए हैं, पद्य श्लोकरूप में नहीं हैं; और शैली का प्रकार भी भिन्न है। अतः वास्तविक रूप से श्लोकबद्ध पद्धति से निर्मित रचना सबसे पहली आचार्य श्री जिनसेन की है। ऐसा प्राप्तसाधनों के देखने से कहा जा सकता है। जिनसेन जी की कृति के पश्चात् प्रायः तीन सौ वर्षों के बाद (वि० सं० 1226 में) कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य जी ऐसी ही कृति हमें प्रदान करते हैं / केवल नाम में कुछ अन्तर करके 'अईन-नाम-सहनसमुच्चय' ऐसा नाम रख देते हैं। यद्यपि इस दृष्टि से अर्हन अथवा जिन एक ही अर्थ के वाचक हैं जबकि इस कृति को 'जिनसहस्र' नाम से भी पहचाना जाता ही है। जिन सहस्रनाम स्तोत्र अथवा अर्हन्नमस्कार स्तोत्र ऐसे नाम वाली अन्तिम मुद्रित कृति सत्रहवीं शताब्दी (सं० 1731) की प्राप्त होती है। जिसके कर्ता उपाध्याय श्रीविनयविजयजी महाराज हैं। जिनसहस्र की रचनाएँ कुल सात प्राप्त हुई हैं, इनमें तीन दिगम्बर की और चार श्वेताम्बर की हैं। दिगम्बर की तीनों कृतियाँ मुद्रित हो गई हैं, जबकि श्वेताम्बर की दो मुद्रित हुई हैं और दो 1. दिगम्बरीय जिनसहस्र के नामों और श्वेताम्बरीय अर्हन समुच्चय के नामों में ग्रन्थगत नौवें शतक की रचना को छोड़ दें तो शेष शतकों के नामों में असाधारण साम्यदृष्टिगोचर होता है / आज इस पद्धति को एक समस्या के रूप में देखने की अपेक्षा साहित्य के क्षेत्र में परस्पर एक-दूसरे के आदान-प्रदान करने की कैसी पद्धति थी, इस रूप में समझना अधिक उपयुक्त होगा। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुद्रित छाणी तथा पूना के भण्डार में हस्तलिखित प्रति के रूप में विद्यमान हैं। __इनमें मुझे दिगम्बरीय आशाधर पण्डित (वि० सं० 1287) विरचित कृति उसकी विशिष्ट क्रमबद्ध योजना तथा नामों में व्यक्त होनेवाली प्रतिभा के कारण रचना की दृष्टि से अति विशिष्ट कृति प्रतीत हुई है। आशाधर को 'कवि कालिदास' के रूप में व्यक्त किया गया है / वे गृहस्थ विद्वान् थे / 1. भारत अनेकविध धर्मों और पन्थों का देश है / ऐसे देश में प्रजाजनों के बीच परस्पर सहिष्णुता का सेतु बना रहे, शान्ति का सूत्र पिरोया रहे, तो जनता विविधता में भी एकता का अनुभव करती रहे, जिससे भ्रातृभाव, प्रेम और मैत्री की भावना दृढ़ होती रहे / इसके लिए जैनाचार्यों ने प्रसङ्गवश साहित्य के क्षेत्र में उदात्त उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इनमें प्राचीनों में सुप्रसिद्ध, महान् आचार्यों में सूरिपुङ्गव श्रीहरिभद्रजी, इनके पश्चात् श्रीहेमचन्द्राचार्यजी, श्री मानतुङ्गसूरिजी और उनके पश्चात् उपाध्यायजी यशोविजयजी आदि को गिनाया जा सकता है। दिगम्बरों में पण्डितप्रवर श्री आशाधरजी को प्रस्तुत किया जा सकता है। आशाधरजी के द्वारा सहस्रनामों के शतकों में अर्थ की दृष्टि से जनदृष्टि को ध्यान में रखकर ब्रह्मशतक, बुद्धशतक आदि की योजनाएँ इस बात के प्रबुद्ध उदाहरण हैं। यह, भगवान महावीर द्वारा इस देश को दी गई सर्वथा नवीन, अद्भुत अनेकान्त दृष्टि की सर्वतोमुखी दृष्टि की आभारी है / भेद में अभेद और अभेद में भेद को स्थापित करके सत्य को जीवित रखना, यह इस दृष्टि की फलश्रुति है। सापेक्षदृष्टि यह अनेकान्त का दूसरा नाम है। समस्त संघर्षों के समाधान के लिए यह एक महान् सिद्धान्त है, और इस अनेकान्त के सिद्धान्त को 'स्याद्'वादशैली के द्वारा जैनाचार्यों ने पर्याप्त विकसित किया उपाध्यायजी ने भी उपर्युक्त परम्परा का आदर यथोचित किया है। इन्हीने शाब्दिक झगड़े से दूर रहने की बात कहते हुए भाषा में रचित 'सिद्धसहस्रनाम वर्णन' की कृति में कहा है कि - इस्या सिद्ध जिननां कह्यां सहस्रनाम, रहो शब्द झगडो कहां लहो शुद्ध धाम / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) 'सहस्र' नाम की सबसे प्रथम रचना (अजैन कृति) विष्णु-सहस्र' नाम की है / तथा इसी दृष्टि से सहस्रनाम-वाङमय में वह सबसे अधिक प्राचीन है। जिनसहस्रनाम के अतिरिक्त व्यक्तिगत तीर्थकर की रचना एक उपलब्ध है जो भगवान् पार्श्वनाथजी की है, और यही कारण है कि उसका नाम 'पावसहस्र नाम' है जो बात ऊपर कही गई है। भगवान् पार्श्वनाथ इस काल के लोकप्रिय रहे हैं और सदैव रहेंगे / 23 में एक ही भगवान् ऐसे हैं कि जो सैंकड़ों नामों से भारत में पहचाने जाते हैं और उनके मन्दिर तथा मूर्तियां भी अधिक हैं / जैनेतरों में शंकर का जो स्थान है वैसा ही स्थान जैनों के लोकहृदय में पार्श्वनाथ प्रभु का है। जैसे शंकर आशुतोष कहलाते हैं उसी प्रकार भगवान् पार्श्व की भक्ति भी शीव्र तोष करने वाली है। इसके अतिरिक्त ग्रहों में देखें तो मुख्य सूर्यग्रह के समान ही श्री पद्मावती आदि देव-देवियों के भी सहस्रनामों की रचना प्राप्त होती है। सहस्रनाम की रचनाएँ संस्कृत से अनभिज्ञ जीवों के लिये भाषा में भी हुई हैं। इनके रचनाकारों के रूप में बनारसीदास, जीवहर्ष तथा उपाध्यायजी तो हैं ही। X अब प्रस्तुत ग्रन्थ के मूल विषय पर आएँ, जिस कृति के कारण उपर्युक्त भूमिका बांधनी पड़ी उस कृति का नाम है 'सिद्धसहस्रकोश' जिसे पहले बता चुका हूं। जिन सहस्रनामों की कृतियां जैन संघ के पास थीं अतः उपाध्यायजी ने एक ही वस्तु में अधिक योग करने की अपेक्षा नया विषय पसन्द करना उचित माना और उनके मन में (जिन अरिहन्त की रचना को छोड़कर) सिद्ध भगवन्तों 1. यह कृति महाभारत के अनुशासन पर्व में हैं। 2. आशु अर्थात् जल्दी, तोष-प्रसन्न हो, सन्तोष प्रदान करे वह / 3. जनेतरों में उन्हें मान्य अम्बिकासहस्र, रेणुकासहस्र-आदि की अनेक देवियों की कृतियां हैं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 17 ) के सहस्रनामों की रचना करने सम्बन्धी अभिनव कल्पना स्फुरित हुई तथा उसे साकार बनाकर हमें 'सिद्धसहस्रनाम' की विशिष्ट भेट दी। यह वस्तुतः उपाध्यायजी की बुद्धि प्रतिभा की आभारी है / जिनसहस्र में जैसी नामों की रचना होती है वैसी तो इसमें कहाँ से हो ? क्योंकि जिन-तीर्थङ्करों की उस समय की गुणावस्था पृथक् है। जिन उस समय सदेही हैं। उपदेश की प्रवृत्ति आदि से तन्तुलित रहते हैं / अघाती चार कर्म भी विद्यमान रहते हैं जबकि सिद्धों को इनमें से कुछ भी नहीं होता / अतः स्वाभाविक रूप से ही सकल कर्म-रहित बने हुए सिद्धों को जो गुण घटते हों उन गुणों का निर्माण करना पड़े और उसी तरह नाम संग्रह किया जाता है / यद्यपि इनमें जिनसंग्रह के नाम मिलेंगे अवश्य परन्तु वे थोड़े ही। 1008 नामों के संग्रह के लिये स्थापित प्रक्रिया के अनुसार शतक का निर्धारण करके दस शतकों का निर्माण किया गया है। इस कृति के लिये सम्पूर्ण रूप से अनुकूल माने जानेवाले अनुष्टुप् छन्द को स्वीकृत किया गया है। प्रत्येक शतक में 100 नामों का उत्तम संग्रह हुआ है किन्तु सौ नामों के लिये विभागों की संख्या समान नहीं है / नाम अल्पाक्षरी हों तब उनके लिये श्लोक भी कम बनाने पड़ते हैं। इससे दस शतकों में 6 से 13 की संख्या तक के श्लोकों की व्यवस्था है / कर्ता ने स्वयं को उपाध्याय नहीं अपितु गणि के रूप में अभिव्यक्त किया है। यह कृति पू० आ० श्री देवसूरिजी के साम्राज्य में निर्मित हुई है। उनके भक्तजनों के श्रवणार्थ रचना की गई है ऐसा उन्होंने शतक के अन्त में बतलाया है / सिद्ध का तात्पर्य क्या है ? जैन जिस देव को मानते हैं उनके दो प्रकार हैं---एक साकार तथा द्वितीय निराकार / एक कर्मसहित हैं और एक कर्मरहित / साकार अर्थात् देहधारी हों वह अवस्था। देहधारी होते हैं तब जन-कल्याण के लिये वे अविरत उपदेश की वर्षा करते हैं और वे ही साकार देहधारी देव अपने मानव देह का आयुष्य पूर्ण होने पर शेष जो चार अघाती कर्म हों उनका Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वथा क्षय करके सर्वात्म प्रदेश से निष्कर्म बनकर, सकल कर्म से मुक्त होने पर आत्मा का स्वयं का शाश्वत जो स्थान मोक्ष अथवा मुक्ति जो कि अरबों अरब मील दूर है वहां आंख की एक पलक में बीतते हुए. असंख्य क्षणों--(समयों) में से केवल एक ही क्षण में पहुंच जाते हैं। वहां अनादि काल से ज्योतिरूप में अनन्तानन्त आत्माएँ विद्यमान हैं। शाश्वत नियम के अनुसार एक आत्मा की ज्योति में अनन्तानन्त आत्माओं की ज्योति समाविष्ट होती ही रहती है। (जैसे . प्रकाश में प्रकाश मिलता रहता है उसी प्रकार) वहां न शरीर है, न घर है, न. खाना-पीना है, कोई वस्तु नहीं, कोई उपाधि नहीं, इसी का नाम मोक्ष है। मोक्ष का दूसरा नाम सिद्ध है, शिव-मुक्ति, निर्वाण आदि हैं। इस मोक्षसिद्ध स्थान में रहने वाले जीव भी सिद्ध ही कहलाते हैं और सर्वकर्म-विमुक्त अत एव सर्व-गुणसम्पन्न, सर्वोच्च कोटि में पहुंचे हुए इन्हीं 'सिद्धान्माओं की उपाध्यायजी ने विविधरूप से स्तुति की है। दूसरी बात यह स्पष्ट करनी आवश्यक है कि जिनसहस्र में प्रयुक्त 'सहस्र' शब्द से पूरे एक हजार नाम ही नहीं समझना चाहिए अपितु एक हजार और आठ समझना है। किन्तु. 'अष्टाधिकजिनसहस्र ऐसा नामकरण उचित नहीं प्रतीत होता, इसलिये ग्रन्थ के नामकरण में सहस्र का पूर्णांक रखा है और वह उचित है। मानव की प्रवृत्ति सदा फलोद्देश्यक होती है। प्रवृत्ति का अच्छा फल मिलेगा ऐसा लगता है तो श्रद्धापूर्वक प्रवृत्ति करता है और नहीं लगता है तो नहीं करता है। कदाचित् करता भी है तो उन्मन होकर / इसलिये प्रश्न उठता है कि नामसहस्र का पाठ करने से क्या लाभ होता है ? इसका उत्तर यह है कि नामावलि के रचयिताओं ने तो नामस्तव करने वाला व्यक्ति, तीर्थंकर नामकर्म 1. उपाध्यायजी ने सिद्धों की गुजराती भाषा में भी स्तुति की है, जिसका नाम 'सिद्ध-सहस्र-नाम-वर्णन-छन्द' रखा है। जो गुर्जर साहित्य संग्रह, भाग एक में मुद्रित हुआ है / यद्यपि उपलब्ध इस कृति में नाम बहुत कम हैं। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) . अर्थात् ईश्वर बनने तक का पुण्य बांध सकता है इतनी सीमा तक की महिमा गाई है। वह प्राप्त हो उसके बीच-मध्यकाल की अवस्थाओं में इन सहस्रनामों का पाठ करने से शुभ की ओर परमशान्ति की प्राप्ति, पापों का नाश, अभीष्टसिद्धि और सर्वदुःखों से मुक्ति आदि लाभ मिलते हैं। उपाध्यायजी महाराज ने भी सिद्धों को नमस्कार करने से गौणफल के रूप में ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति और मुख्य फल के रूप में महोदय-प्राप्ति-मुक्ति की प्राप्ति बताया है। मुक्ति का ही दूसरा नाम महोदय है। उदय शब्द तो संसारवर्ती उन्नति से सम्बन्ध रखता है, किन्तुं महान् उदय (यथार्थस्वरूप में महोदय) सृष्टि पर होता ही नहीं / यह तो मोक्ष में ही पहुंचा जाए तब वहीं उसका अनुभव किया जाता है / यह दिखाया है सिद्धों के प्रणिपात नमस्कार का फल / ' स्मरण का फल क्या है ? तो उपाध्यायजी ने कहा है कि मंगल नहीं अपितु परममंगल / मंगल अर्थात् पाप का-विघ्न का नाश / साथ ही स्वर्ग की प्राप्ति और उसके सर्वोत्तम फल में सिद्ध-स्थान की प्राप्ति / तात्पर्य यह कि यह स्तवन मुक्ति और मुक्तिप्रद है अर्थात् बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के सुखों को देने वाला है। यहां चर्चा के लिये स्थान नहीं है / परन्तु एकांगी, और निश्चय नयवादी धर्माराधन अथवा भक्ति के फल के रूप में केवल मुक्ति को ही बताना चाहिए ऐसा आग्रह रखने वाला व्यक्ति मुक्ति शब्द की ओर दृष्टि डाले / ___ इससे कतिपय वाचकों को ऐसा लगे कि स्तवन का महत्त्व बढ़ाने के लिये ही ऐसे प्रलोभन बताये जाते हों ! ऐसा तो नहीं है न ? 1. स्तुवन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् / (विष्णुसहस्र) -सर्वविघ्नैकहरणं सर्वकामफलप्रदम् / (गणेशसहस्र) -परमं शं प्रशास्महे / (महापुराण 25-66) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) . इसका उत्तर विशेष विवेचन किये बिना ही जैन अजैन विद्वानों ने अपने अनुभव, जो बात-वाणी जो श्लोकों में उतारी है, वे ही श्लोक 'यहां उनके अर्थ सहित उद्धृत करता हूं। जिन्होंने इस सिद्धकोश की रचना की उन्हीं महर्षि की वाणी एक श्लोक में प्रस्तुत करता हूं। भक्तिमार्ग क्या है ? यह बतलाते हुए कहते हैं श्रुताब्धेरवगाहनात् सारासारसमुद्धृतः / भक्तिर्भागवती बीजं परमानन्दसम्पदाम् / / 1 // : ___ अर्थ-आगम शास्त्रों के सागर में डुबकी लगाकर और सार तथा असा र के विवेचन के पश्चात् मैंने यह सार प्राप्त किया है कि- परमानन्द रूप मोक्षस्थान की प्राप्ति करनी हो तो आप सब पवित्र भगवान् की भक्ति का आलम्बन ग्रहण करो। अजैनों में भी इसके समान ही भाव व्यक्त करने वाला श्लोक देखिये आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः / इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः // 1 // - अर्थ-सर्वशास्त्रों का वाचन-मनन किया और तत्पश्चात् उन शास्त्रवचनों पर बार-बार चिन्तन किया, किन्तु कुल मिलाकर मुझे तो यह एक ही सार मिला है कि इस विश्व में परमात्मा ही एक ध्यान के योग्य है अथवा प्राप्त करने योग्य है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो मानव-स्वभाव को सरल और सहज भाग अधिक प्रिय लगता है। भक्ति मार्ग अमीर अथवा गरीब, शिक्षित या 1. आवश्यक सूत्रों में, स्तोत्र, स्तुति और शान्तिपाठों में तो भौतिक लाभों की बातें अपार बताई गई हैं। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशिक्षित, बालक किंवा वृद्ध सब के लिए लाभप्रद होता है। विविध प्रकार के भक्तिमार्ग की शरण दिव्य-प्रकाश देकर अन्त में आत्मसिद्धि प्राप्त कराती है। . अन्य सभी साधना के मार्ग कठिन हैं, दुर्गम हैं, कष्टसाध्य हैं / बुद्धि हो तो समझे जा सके ऐसे हैं और दीर्घ समय की अपेक्षा रखने वाले हैं / सामान्य कोटि के जीवों के लिए वे सुसाध्य नहीं हैं। इसीलिए तो एक अजैन कवि ने सारभूत नवनीत प्रस्तुत करते हुए कहा है - "पुराण को अन्त नहीं, वेदन को अन्त नहीं, वाणी तो अपार कही, कहां चित्त दीजिये; सबन को सार एक, रामनाम रामनाम लीजिए॥" इसलिए सभी ने आबालवृद्धों के लिए राजमार्ग ईश्वर-प्रभु-भगवत-स्मरण ही बताया है / क्योंकि ईश्वरस्मरण हृदय की ग्रंथियों को तोड़ने में बेजोड़ काम करता है। बाह्याभ्यन्तर दुःख, अशान्ति को भगा देता है। अतृप्ति से परिपूर्ण जीवन में परमतृप्ति और दावानल में जलते हुए को परम शान्ति देता है। इन नामों का जप भी किया जा सकता है और इसीलिए इस पुस्तक के अन्त में दिए गए परिशिष्ट में चतुर्थी विभक्ति में सभी नाम देकर अन्त में नमः शब्द जोड़कर सभी नाम दिए हैं। जिससे प्रत्येक पद जप के योग्य बना दिया है। इससे इसके अनुरागियों को रेडीमेड माल मिलने से अवश्य आनन्द होगा ही। अनेक नाम अर्थ की दृष्टि से आनन्द प्रदान करें, ऐसे हैं। इसकी यदि कोई टीका बनाये तो इसके वैशिष्टय का दर्शन ज्ञात हो / ___ अच्छा तो हम सब, सर्वगुण सम्पन्न, पुरुषोत्तम, सर्वोत्तम, सर्वोच्च कोटि की आत्माओं की नामगङ्गा में डुबकी लगाने का संकल्प करके मन, आत्मा और तन के मैल को धोते रहें। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) इन तीनों प्रकाशनों में मतिदोष, दृष्टिदोष और प्रेसदोष से यदि क्षति रह गई हो तो उसके लिए ग्रन्थकार से क्षमा मांगता हूं। आ० यशोदेव सूरि जैन साहित्य मन्दिर पालीताणा, दि० 11-10-76 आश्विन शुक्ला पूर्णिमा 2036 वि० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान श्रीनेमिनाथजीनु स्तवन (सूचना-वि० सं० 1713 में पू० उपाध्याय जी महाराज के द्वारा महेसाणा में चातुर्मास-वास के दिनों में रचित यह स्तवन पहली बार ही यहां प्रकाशित हो रहा है।) -- + + + . सद्गुरुना प्रणमी पाय, थुणसु श्री यदुपति राय ; . उलट अधिके रह्यो थाय, रे ! सामलिग्रा० 1 करजोडी राजूल बोलई, अष्टभवनी प्रीतिज. खोलई; नवमई भवि कां डमडोलई, रे ! सामलिग्रा० 2 पुरवली प्रीति संभारो, तुम दरिसण लागइ प्यारो: किम राखो नेह उधारो, रे ! सामलिग्रा०३ कंत अजाण होइ तेहनी कहींई, नेह कीजई तो निरवहीइ; डर डर एकमडा न रहीई रे ! सामलिग्रा० 4 प्रावी पाव सरति सुख काग, दीसई छइ अतिमनोहार; बापई भी करइ पूकारा, रे ! सामलिग्रा० 5 पंथी सबही घरि पावइ, कदर्प ते अधिक जगावइ; एक निठर नेम न पावइ, .रे ! सामलिग्रा०६ सखि ! श्रावण मास ते आयो, अंगि मुझ मदन जगायो; विरहीनई अति दुःखदायो, रे ! सामलिआ० 7 झिरमिर वरसई छई मेह, तापइ मज दाझइ देह; एणी अति सालई सनेह, रे ! सामलिग्रा०८ पाव्यो ते ग्रासो मास, आवो एणइ ग्रावास ; . पूरोनि मुझ मन आस, रे ! सामलिग्रा० 6 १-इस स्तवन का हस्तलिखित पत्र मिल जाने पर उसकी प्रतिलिपि करके यहां प्रकाशित किया गया है। उपाध्याय जी के स्तवन अभी भी प्रकीर्ण हस्तपत्रों अथवा गुटकों से प्राप्त होने चाहिए। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादवदई भौग म छोरो, अबलासू काम न चोरो; तुम्स साथि किस्यो चालई जोरी, रे ! सामलिग्रा० 10 तुम विण निशि निंद न आवई, मुझ अन्न न भावई; . दोहिला तुझ विण दिन जावई, रे! सामलिया० 11 प्रेमइ पूरी बोलई नारी, योवन कां जाओ हारी; जो हईडई कंथ विचारी, रे ! सामलिग्रा० 12 कुण आगलि दुक्ख कहीजई, योवनरो लाहो लीजई; जिस दुःख सघलां ते छीजइ, रे ! सामलिग्रा 13 सखि ! जाई मनावो एकान्त, वेगि तेडी आवो कंत; जिस विरहनो थाई अंत, रे सामलिया० 14 भावी रूडी ए चित्रशाली, नेहई निज रिजुप्रो निहार; ___ एहवी सेज कां मको सुहाली, रे ! सामलिग्रा०१५ नाहलियो वेगि मनावो, जोरई हाथ ग्रही झाली लावो; धण मंकी निरधार कां जावो, रे ! सामलिग्रा० 16 एहवा राजुल वचन बोलंती, प्रिउनुं ते ध्यान धरती; गिरनारी चढी विलवंती, रे ! सामलिग्रा० 17 सामी मुझ सुणि एक बात, एसो छई तुमारी घात (?) - मानी वचन शिवादेवी जात, रे ! सामलिग्रा० 18 नेम हाथि संयम लेई, अविहड तब प्रीति करेई; शिवपुर पिउपहिली पुहचेई, रे ! सामलिग्रा० 16 नेम थुणिो मन उल्लास, महीसाणई रहीअ चउमास; - पुगी छइ मूझ मनि पास, रे ! सामलिआ० 20 संवत सतर तेर वरसि, कार्तिक सुदि पंचमी दिविसि ; __ तवन करिउं मन हरखि, रे ! सामलिग्रा० 21 पंडित श्रीनयविजय ईश, श्रीजस विजय तेहनो सीस; सीस तत्वदिई आसीस, रे ! सामलिग्रा० 22 श्रीने मिजिनस्तवनं सम्पूर्णम् / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन यह परम हर्ष का विषय है कि न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय पूज्य श्रीमद् 'यशोविजयजी' महाराज द्वारा प्रणीत दो महाकाव्यों-(१) 'पार्षभीय-चरितमहाकाव्यम्' तथा (2) विजयोल्लास-महाकाव्यम्' के उपलब्ध अशों का सबसे पहली बार इस संग्रह में प्रकाशन हुआ है और साथ ही (3) 'सिद्धसहस्रनामकोश' ("प्रणवादि-नमोऽन्तनामावलो” सहित ) भी इस संङ्कलन में प्रकाशित है / ये तीनों ग्रन्थ प्रायः पाण्डुलिपि के रूप में यत्र-तत्र विकीर्ण थे इन्हें प्राप्त करके बड़े ही परिश्रम एवं लगन के साथ संकलित कर मुद्रण के योग्य रूप देते हुए संशोधन और सम्पादन करने वाले प्रधान सम्पादक साहित्य-कलारत्न पज्य प्राचार्य श्री यशोदेव सरिजी महाराज ने अपनी प्रतिव्यस्तता के कारण सम्पादन और मुद्रापण का आदेश देने के साथ ही अपने प्रमुख सम्पादकीय विचारों को भी इसी 'प्राक्कथन' में समाविष्ट करने तथा विस्तत-चिन्तन प्रस्तुत करने की मझे अनुमति दी। तदनुसार ही इन ग्रन्थों के बारे में आवश्यक बातों का निर्देश करते हुए समीक्षात्मक दृष्टि से यह 'प्राक्कथन' लिख रहा हूँ। आधुनिक पद्धति के अनुसार-'कृति और उसके पूर्वाङ्गउत्तराङ्ग का विवेचन करने से पाठकों को मूल-रचना के महत्त्व का सर्वांश में परिचय हो सकता है।' इस विश्वास से प्रस्तुत प्राक्कथन में तीनों कृतियों का तीन भागों में विवेचन करने का प्रयास किया जा रहा है तथा प्रारम्भ में "कवि-काव्यकार, कविशक्ति एवं प्रेरणा, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) कविपरिणति के लिये आवश्यक तत्त्व, कवि-सष्टि और उसके अनेक रूप, संस्कृत भाषा के महाकाव्य, काव्य के लक्षण तथा महाकाव्यपरम्परा और जैनाचार्य" जैसे शीर्षकों में पहले 'पूर्वपीठिका' भी प्रस्तुत की गई है, जो इस प्रकार हैकवि-काव्यकार___महाकाव्यादि का निर्माता कवि काव्य-संसार में एक प्रजापति के रूप में प्रतिष्ठित हुआ' और उसकी रसानुगुण शब्दार्थ-चिन्तां के स्वरूपस्पर्श से प्रतिभा चहक उठी, त्रैलोक्यवर्ती भावों का साक्षात्कार' करता हया वह कवि' शब्दार्थों के विन्यास-विशेष से जगत को सम्मोहित करने में सफल हो गया। अंत: समस्त विश्व ऐसे काव्यकार के प्रति अपना मस्तक झुकाये तो उसमें आश्चर्य ही क्या ? कविशक्ति एवं प्रेरणा कवि की शक्ति के दो मूल स्रोत-(१) अलौकिक-बाह्य तथा (2) आन्तरिक स्वभावजन्य प्रसिद्ध हैं। इन्हीं को आचार्य हेमचन्द्र ने 'उत्पाद्या' तथा 'औपाधिको' नामों से अभिहित कर प्रतिभा के दो भेदों में बतलाया है। राजशेखर ने प्रतिभा के भावयित्री (भावक की) और कारयित्री (कवि की) ऐसे दो रूपों का निरूपण करके द्वितीय कारयित्री प्रतिभा को कवि की प्रतिभा कहा है। यह 1. अपारे काव्य-संसारे कविरे कः प्रजापतिः / यथाऽस्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते / आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक 2. रसानुगुणशब्दार्थ-चिन्तास्तिमितचेतसः / क्षणं स्वरूपस्पर्शोत्था प्रज्ञ व प्रतिभा कवेः / / सा हि चक्षर्भगवतस्ततीयमिति गीयते।। येन साक्षात्करोत्येष भावांस्त्र लोक्यवतिनः / / 3. यानेव शब्दान वयमालपामो, यानेव चार्थान् वयमुल्लिखामः / तैरेव विन्यास विशेषभव्यैः सम्मोहयन्ते कवयो जगन्ति / / कश्चित् Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) प्रतिभा साहित्यशास्त्रीय प्राचीन विश्वास के आधार पर किसी देवता के प्रसाद से अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर पहुंचती है। वामन ने 'कवित्वबीजं प्रतिभानम्' कहकर इसकी व्याख्या की है तो अभिनव गुप्त इसके कारण ही 'अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमता' का उल्लेख करते हैं / यह चाहे 'सहजा' हो अथवा 'उत्पाद्या'; किन्तु इसका यह गुण राजशेखर ने ठीक ही परखा है कि-'या शब्दग्राममर्थसार्थमलङ्कारतन्त्रमुक्तिमार्गमन्यदपि तथाविधमधिहृदयं प्रतिभासयति सा प्रतिभा / अप्रतिभस्य पदार्थसार्थः परोक्ष एव / प्रतिभावतः पुनरप्रत्यक्षतोऽपि प्रत्यक्ष एव / इत्यादि / इसी प्रतिभा के प्रसाद से कवि मस्तिष्क की प्रच्छन्न क्रियाशीलता से सष्टि-व्यापार को प्रत्यक्ष करता है, आत्मसात् करता है तथा उससे प्रेरणा प्राप्त करके प्राकृतिक अवयवों को तोड़-मरोड़ कर अथवा गला-पिघलाकर एक नवीन सष्टि का निर्माण करता है। इस सृष्टि-समुन्मीलन में सभी जीवन-तत्त्व-'सयाग-वियोग, सघषसमन्वय, अन्तर्वाह्य, स्थिर-अस्थिर, नवोन-प्राचोन, परािचतअपरिचित, * साधारण-असाधारण, हृदय-मस्तिष्क, चेतन-अवचेतन, भूत, वर्तमान, भविष्य, व्यक्ति, जाति, भिन्न आकार-प्रकार के शब्द और उनकी विभिन्न ध्वनियां, स्वच्छन्दता और नियन्त्रण आदि''समाविष्ट रहते हैं। कवि-परिणति के लिए आवश्यकतत्त्व राजशेखर 'कवि' शब्द की व्युत्पति ‘कवृ-वर्णने' धातु से मानकर कवि की 'वर्णना' शक्ति को मुख्यता प्रदान करते हैं / भट्ट 1. 'कवि' शब्द की व्युत्पत्ति और परिभाषा के सम्बन्ध में हमने श्रीयशोविजय जी उपाध्याय रचित. टीका वाले 'काव्यप्रकाश' की भूमिका में विस्तार से विचार किया है / कृपया वहां भी देखें / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) . गोपाल-'कौति शब्दायते विमति रसभावानिति' कहकर कवि की भावुकता एवं सहज गाननिपुणता को प्रथम स्थान देते हैं। जबकि मम्मट 'लोकोत्तरवर्णनानिपुणं कविकर्म' कहकर 'वास्तविक वस्तु का पालौकिक रूप मूर्तिमान करना कविकर्म बतलाते हैं / और भट्टतौत भी अपने 'काव्यानुशासन' में “स तत्त्वदर्शनादेव शास्त्रेष पठितः कविः / ... . दर्शनाद वर्णनाच्चाथ रूढा लोके कविश्रुतिः // तथा हि दर्शने स्वच्छ नित्येऽप्यादिकवेमनेः / नोदिता कविता लोके यावज्जाता न वर्णना॥" इस प्रकार कहकर कवि के लिए 'दर्शन' और 'वर्णन' की आवश्यकता पर बल देते हैं और दर्शन एवं वर्णन दोनों ही एक दसरे के पूरक तत्त्व हैं। इनके बिना आदि कवि बाल्मीकि भी अपनी रचना में सफल नहीं हो सकते थे, यह भी कहा है। - वैसे इन दोनों के साथ श्रवण को भी जोड़ना अनेक विद्वानों को अभीष्ट है। 'श्रुतं च बहु निर्मलम्' (दण्डी) इसी का प्रतीक है। इन तीनों की त्रिवेणी में सुस्नात कवि साहित्यकार ही पूर्ण सफल होकर जगती में आदर और प्रसिद्धि का भाजन बनना है / अतः १-हमने भी इस सम्बन्ध में एक पद्य इस प्रकार लिखा है - श्रुतं बुधेभ्यः पठितं गुरुभ्य: समीक्षितं नेत्रयुगेन येन / स्नातं त्रिवेण्यामथ भक्तिभावः साहित्यकार: प्रथते स भूमौ / / -रुद्रदेव त्रिपाठी 2. पूरा पद्य इस प्रकार है नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतञ्च बहुनिर्मलम् / अमन्दश्चाभियोगश्च कारणं काव्यसम्पदः / / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि के लिए १-दर्शन, -वर्णन और ३-श्रवण पूर्ण आवश्यक है। श्रवण वृद्ध-सांनिध्य से पुष्ट होता है इसीलिए कहा गया है कि प्रथयति पुरः प्रज्ञाज्योतियथार्थ-परिग्रहे, तदनु जनयत्यहापोहक्रिया-विशदं मनः / अभिनिविशते तस्मात्तत्त्वं तदेकमुखोदयं, सह परिचयो 'विद्यावृद्ध :' क्रमादमृतायते // कवि-सष्टि और उसके अनेक रूप ___ कवि की सप्टि अनठी है; प्रकृति-सप्टि पीतल के समान है जिसे कवि स्वर्णरूप में परिवर्तित करता है। उसका प्रत्यक्ष-बोध कल्पना के पंख पाकर अनन्त आकाश की सैर करता है और अनुभूत भावों को शब्दार्थ के रूप में प्रतिष्ठित करके पाठकों को मानन्दमन्दाकिनी में अवगाहन करने का अवसर प्रदान करना है। काव्य में प्रयुक्त भाषा का अर्थ-(१) शब्द का मुख्यार्थ, (2) वक्ता अथवा लेखक का मनोभाव, (3) उनकी स्वरभंगिमा जिससे वह श्रोता के प्रति स्वसम्बन्ध का निर्देश करता है तथा (4) लेखक का तात्पर्य, जो केवल व्यञ्जना द्वारा लक्षित होता है-इन चार अंगों से भावोत्प्रेरक तथा कवि और पाठक के बीच तादात्म्य-सम्बन्ध का स्थापक होता है। यह सष्टि अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती रहती है। इसके स्वरूपो का एक सिंहावलोकन निम्नलिखित तालिका से किया जा सकता है जिसमें गद्य, पद्य और मिश्र के रूप में शास्त्रकारों द्वारा निर्धारित कतिपय रूप परिलक्षित होते हैं 1. काव्यमीमांसा 2. विद्वानों ने इन रूपों की कई प्रकार से तालिकाएं प्रस्तुत की हैं जिनमें कुछ नामान्तर भी हुए हैं, किन्तु यहां विस्तारभय से अधिक चर्चा नहीं की गई है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य गया . मिश्र पद्य कथा आख्यायिका श्रव्य दृश्य 1. पाख्यान, 2. निदर्शन, 3. प्रवह्निका रूपक उपरूपक 4. मतल्लिका, 5. मणिकुल्या, (10) (18) चम्पू विरुद करभ 6. परिकथा, 7. खण्डकथा, . ... सकलकथा, 6. उपकथा . .10. बृहत्कथा ! , पौराणिक ऐतिहासि अनिबद्ध या मुक्त निबद्ध, बन्ध या प्रबन्ध अथवा सन्दर्भ / स्फुट सङ्कलित सङ्कलित / कोश' सङ्घात. संहिता मुक्तक युग्मक सन्दानितक कलापक कुलक महाकाव्य खण्डकाव्य मुक्तक रसतत्पर कलातत्पर हसतस्पर कथातत्पर पौराणिक ऐतिहासिक वनात्मक प्रस्तिनूलक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतभाषा के महाकाव्य अन्तःकरण के उद्वेलित भावों को अभिव्यक्ति देने के लिये १इङ्गित, २-चित्र एवं ३-अक्षरदेह-रूप तीन उपाय प्रमुख हैं। इनमें तृतीय उपाय, मानव के मस्तिष्क की मौलिक उपज के साथ निरन्तर गतिमान होता रहा और पाविष्कार से परिष्कार तक की परिधि में आते-पाते अपने अनेक रूपों में निखरता रहा / आज उसके अनेक स्वरूप हैं जिनमें 'महाकाव्य' भी एक है। काव्य के स्वरूप-निर्धारण के ऊहापोह में 'दृश्य' एवं 'श्रव्य' नामक दो धाराएं पथक हईं। प्रथम को नाट्यमलक तथा द्वितीय को काव्यमूलक' कहा गया / काव्य जब अपने वैभव से जन-मन को उल्लसित कर पूर्णकलाओं से खिलने लगा तो उसका सर्वाङ्ग-सुन्दर स्वरूप 'महाकाव्य' कहलाया। 'काव्य' शब्द के साथ 'महा' शब्द के संयोजन का ध्येय लक्षणकारों की दष्टि में यह था कि 'इसमें जीवन के सर्वाङ्गीण वर्णन को प्रार्वाजत कर अनेकानेक उपादेय तत्त्वों का एक अनूठा सामञ्जस्य प्रस्तुत किया जाता है। और इसी कारण अन्य सड कुचित परिधिवाले काव्यों को खण्डकाव्य तथा मूक्तकों की कोटि में स्थान मिला। ... 'महाकाव्य' अपनी गरिमा के अनुरूप किसी परिवेष में बंधकर नहीं रहा / इसमें सर्गों का विस्तार शताधिक संख्या तक व्याप्त रहा और कहीं-कहीं पांच-सात की संख्या में भी निबद्ध हया / गद्य और पद्य दोनों ही इसके कलेवर को सजाने में व्यस्त रहे और अनुष्टुप से स्रग्धरा तक के छन्द भी इसकी रचना के आधार बने / वर्ण्य विषय के अनुरूप महाकाव्य का वाग्विलास रस, ध्वनि, रीति गुण और 1. दृश्यश्रव्यत्व भेदेन पूनः काव्यं द्विधा मतम् / साहित्यदर्पण, पद्य-३२३ / इसके दो स्थूलरूप (अ) कथनात्मक और (प्रा) गीतात्मक है / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) अलंकारों के सहयोग से आकर्षण का केन्द्र माना गया तथा 'यश, द्रव्य, व्यवहार एवं शिवे तरक्षति' के साथ ही सद्यः परनिर्वृति' का माध्यम होते हए भी ‘कान्तासम्मितोपदेश' का भी साधन बन गया। महाकाव्य के लक्षण . लक्षण-शास्त्रकारों की परम्परा में सर्वप्राचीन आचार्य भरत ने महाकाव्य का कोई स्वतन्त्र लक्षण नहीं दिया है, किन्तु उत्तरकालिक सभी प्राचार्यों का मत हैं कि उन्होंने 'मदूललितपदार्थ गूढशब्दार्थहीनं, बुधजनसुखयोग्य' इत्यादि जो नाटक का लक्षण दिया है वह काव्य के लिए भी ग्राह्य है। भामह' और दण्डी ने इस दिशा में जो लक्षण दिये हैं वे पर्याप्त विकसित हैं। रुद्रट ने इन लक्षणों में कुछ और आवश्यक तत्त्व जोड़ते हुए एक परिनिष्ठत रूप देने का प्रयास किया। जिसमें क्रमशः-१-उत्पाद्य अथवा अनुत्पाद्य लम्बी पद्यबद्ध कथा, २-अवान्तर कथाएं, ,३-सर्गबद्धता, ४-नाटकीयतत्त्व संयोजन, ५-जीवन को समग्रता का चित्रण, ६-नायक की उच्चता, ७-प्रतिनायक वर्णन, ८-नायक की अन्त में विजय, ह-महान् उद्देश्य और चतुर्वर्ग फलप्राप्ति, १०-रसात्मकता, ११-नगर एवं प्रकृति के वर्णन एवं १२-अलौकिक तथा अतिप्राकृतिक तत्त्वों का समावेश निदिष्ट है। विश्वनाथ सभी पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षणों का समाहार करते हुए-१-नायक की विशिष्टता, २-शृंगार, वीर अथवा शान्तरस की सीमितता, 1. तुलना कीजिये काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये / सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे // काव्यप्रकाश 1/1/1 2. नाट्यशास्त्र 17/126 / 3. काव्यालङ्कार 1, 19-21 / 4. कार्योदर्श प्र. परि. 14-16) 5. काव्यालङ्कार म० 16. 10.2-16 / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . (6). ३-संर्गसंख्या-निर्धारण, 4. सर्गों के वर्ण्य विषयों की व्यवस्था और ५-वस्तु-व्यापारों की संख्या का विस्तार' भी स्पष्ट करते हैं। जैनाचार्यों में वाग्भट (प्रथम) ने - साधुशब्दार्थसन्दर्भ-गुणालङ्कार-भूषितम् / स्फुटरीति-रसोपेत, काव्यं कुर्वीत कोर्तये / कहा और प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने ___ 'अदोषौ सगुणौ सालङ्कारौ च शब्दार्थो काव्यम्' कहकर काव्य में निवश्य तत्त्वों की पुष्टि की। प्राचार्य अजितसेन ने महाकाव्य के वर्ण्य-विषयों का विस्तार से वर्णन करने के पूर्व एक पद्य में मकेत किया है कि-- शब्दार्थालङ्कृतीद्ध नवरसकलितं रोतिभावाभिरामं, व्यङ्ग्याद्ययं विदोषं गुणगणकलितं नेतृसवर्णनाढयम् / लोकद्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमग्रय सुखार्थो, नानाशास्त्रप्रवीणः कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरु हेतुम् // .. यह लक्षण सर्वसामान्य महाकाव्यों को अपनी परिधि में आवजित कर लेता है / वैसे कवि के मतिवैभव से निर्मित रचना पहले मूर्तरूप लेती है और लक्षणकार लक्ष्यानुसारीणि लक्षणानि भवन्ति' इस उक्ति के अनुसार ही लक्षण-निर्धारण करते हैं अत: उन लक्षणों में परिवर्तनपरिवर्धन एव परिकार हों, यह स्वाभाविक ही है। महाकाव्य-पराम्परा और जैनाचार्य-- संस्कृत भाषा में महाकाव्य-निर्माण की परम्परा अति प्राचीन है। वैदिक, जैन और बौद्ध मान्यताओं के अनुसार सभी ने अपने-अपने प्राद्य ग्रन्थ-वेद, आगम और पिटकों को इसका उद्गम तथा प्रेरणा 1. साहित्य दर्पण–परि० 6 पद्य 315 से 328 / 2. वाग्भटालङ्कार. 1/2 / 3. काव्यानुशासन पृ. 16 / 4. अलङ्कार-चिन्तामणि / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) स्थल बतलाया है। उपलब्ध महाकाव्यों . में भी सर्वप्रथम किसकी रचना हई यह कहना कठिन है तथापि कालिदास को प्रथम मानने वाले उसके रघवंश और अश्वघोष को पूर्ववर्ती मानने वाले उसके महाकाव्य बद्धचरित को 'प्रथम महाकाव्य' सिद्ध करते हैं। जैनाचार्यों में इस परम्परा का प्रारम्भ पहले प्राकृत में (छठी शती) 'पउमचरिउ' महाकाव्य से हो चका था जिसे संस्कृत में लाने का श्रेय दिगम्बर जैनसाध श्रीरविषेण (सातवीं शती का उत्तरार्ध) को दिया जाता है। यद्यपि यह 'पद्मपुराण' काव्य रसतत्पर तो पूर्णरूप से नहीं बन पाया और पौराणिक पद्धति का ही इसमें अधिक निर्वाह हुआ तथापि अंकुरण की दष्टि से यह मार्गदर्शक अवश्य बना। इसके पश्चात तो चरित्रात्मक कामों की बाढ प्रा गई और रीतिपरिष्कार भी होता रहा। अनेक पौराणिक और जिनचरित्रमूलक काव्यों की सृष्टि हुई। . . जैन-महाकाव्यों की मलभमि 'द्वादशाङ्ग-वाणी' है तथा प्रायः सभी- “सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक-चारित्र्य के द्वारा कोई भी मानव चरमसुख को प्राप्त कर सकता है" इस सन्देश को प्रसारित करते रहे हैं। इन काव्यों में जिनागमानुमोदित - 'साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप' चतुर्विध संघ को ही समाज मानकर वर्णन किया गया है। काव्यों के नायक तीर्थंकर, भूपति, श्रेष्ठी, सार्थवाह तथा शूरवीर आदि रहे हैं। ऐसे जैन महाकाव्यों का कालक्रम से पर्यालोचन करने पर प्रतीत होता है कि-आठवीं शताब्दी में उत्पन्न श्री जटासिंह नन्दि का 'बराङ्गचरित' महाकाव्य संस्कृत का 'प्रथम जैन महाकाव्य' है / इसमें राजा वराङ्ग का 31 सर्गों में जीवन-चरित्र निबद्ध किया गया है। इसका नायक धीरोदात्त गुणों से समन्वित है तथा 'नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीडा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक, युद्ध, विजय आदि सभी विषयों का यथावश्यक रूप में समावेश हुआ है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) ११वीं शती में वीरनन्दि ने 'चन्द्रप्रभचरित' की 15 सर्गों में रचना की और धनंजय ने 'राघवपाण्डवीय' श्लिष्ट महाकाव्य की। १२वीं शती में वाग्भट ने नेमिनिर्वाण तथा हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित' और कुमारपालचरित (द्वयाश्रय) की रचना की। __महाकवि हरिचन्द 1206 ई० का 'धर्मशर्माभ्युदय' इस परम्परा का एक प्रौढ महाकाव्य है जो 61 सर्गों में धर्मनाथ स्वामी के जीवनचरित को अलंकृत शैली में प्रस्तुत करता है / इसमें चित्रकाव्य' को भी स्थान मिला है। यही महाकवि ‘जीवन्घर-चम्पू' का भी रचयिता है जिसने जैन-परम्परा में चम्पूकाव्यशैली का भी सूत्रपात किया। अमरचन्दसूरि (1217 ई.) का 'पद्मानन्द-महाकाव्य' अथवा 'जिनेन्द्र-चरित' पौराणिकता के परिवेश में रहते हए भी शुद्ध ललित महाकाव्यों की धारा को आगे बढ़ाने में सक्षम हुआ। यह काव्य जैन-सम्प्रदाय की पौराणिक तथा ललित महाकाव्यों की श्रृंखला की योजक कड़ी के रूप में माना जा सकता है। .. एक परिपक्व पद्धति का परिपालन करते हुए तथा उसमें अपने• अपने अनुभव एवं प्रतिभा के योग से नावीन्य लाते हुए उक्त महाकाव्यों के अनन्तर निरन्तर प्रगतिपूर्ण महाकाव्यों की रचना हुई। इतना ही नहीं इस दिशा में १-द्वयाश्रयादि सन्धान काव्य २-विज्ञप्तिपत्रादिरूप काव्य, ३-एकाश्रयी काव्यादि की नवीन विधा के द्वारा कई प्रतिमान भी स्थापित हुए / 1. चित्रकाव्यमूलक हरिचन्द का एक पद्य इस प्रकार है प्राततिहरस्तपद्यमणि-सद्भरिप्रभाजिदवसद्रष्टव्यं हृदि चिह्नरत्नमसमं शौचं च पीनोन्नते। देहे धत्त हितं त्वमन्दमहदि क्षद्र ऽप्यतो दर्शने, वल्गुर्भद्रमहस्य रम्यमपरं क्षीणव्यपायं पदम् // 101 // Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) उनमें 1. अनेकार्थी काव्य, 2. यमकाद्यलंकारगर्भ काव्य, 3. चित्रालंकारमय काव्यादि आकार में लघु होने पर भी महत्त्वपूर्ण बने हैं तो 4. समस्यापूर्तिरूप और 5. अनुकरणरूप काव्यों की भी इसमें न्यनता नहीं रही और आज भी इस परम्परा का यथाक्रम निर्वाह हो रहा है, यह पूर्णसन्तोष का विषय है / सामूहिक निष्कर्ष . इस संक्षिप्त पर्या लोचन से यह कहना असङ्गत नहीं होगा कि भारतीय संस्कृत-साहित्य को श्रीवृद्धि में जैन सम्प्रदाय का महाकाव्यो की दृष्टि से अत्यन्त उपादेय योगदान रहा है। जैसे-जैसे काव्यसृष्टि की प्रकियात्रों में परिष्कार होता गया और जनमानस का झकाव साहित्यिक सौष्ठव की पार बढ़ता गया उसी क्रम से सर्जनात्मक परिवेष भी अपनी परिधि को सजाने-संवारने में पीछे नहीं रहा। __ अन्तरङ्ग की भावोमियों का निश्छल एवं निरर्गल उच्छलन कवित्व का निखरा हुआ रूप प्रत्येक काव्यकार की कृति में न्यूनाधिक रूप में परिलक्षित होता ही है, किन्तु परीक्षकों की पैनी पहँच उसे और भी प्रास्वाद्य बनाने में सहायक होती है। अत: इस पोर तटस्थतापूर्वक परिशीलन की अपेक्षा निरन्तर आदरणीय है। ऐसी हो पूर्ववर्ती परम्परा को प्राप्त करके महान् नैयायिक होते हुए भी परम श्रद्धेय 'श्रीयशोविजयजी उपाध्याय' महाराज ने अपनी अलौकिक प्रतिभा का सदुपयोग करते हए दो महाकाव्यों तथा अनेक स्तोत्रकाव्यों की रचना की थी जिनमें से दोनों महाकाव्यों के उपलब्धांश जो इस ग्रन्थ-संग्रह में प्रकाशित किये गये हैं उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रथम कृति] पार्षभीय-चरित-महाकाव्य प्रस्तुत 'पार्षभीय-चरित-महाकाव्य' पूज्य उपाध्यायजी की प्रौढः कृति है। दुर्भाग्य से इस महाकाव्य का पूरा अंश प्राप्त नहीं हुआ है। केवल चौथे सग के 66 वें पद्य तक ही यह काव्य उपलब्ध है। यह भी कहना कठिन है कि श्री उपाध्याय जी महाराज ने इस महाकाव्य की रचना यहीं तक को थी अथवा आगे भी इसका निर्माण हुआ था ? साधजीवन की व्यस्तता एवं अनेकविध ग्रन्थ-प्रणयन की प्रवत्ति के कारण प्रायः देखा गया है कि रचनाकार अपने मन के उच्छल विचारों को शब्ददेह देने के लिए व्यग्र तो रहता है किन्तु उन्हें परिस्थितिवश कभी-कभी समग्ररूप नहीं भी दे पाता है। इसमें कुछ अंशों में दैव भी कारण बनता है। सम्भव है ऐसे ही किसी कारणविशेष से यह महाकाव्यं भी पूर्ण नहीं हो पाया हो ? प्रस्तुत महाकाव्य और उसकी कथावस्तु __महाकाव्य के लक्षण-विवेचन से ज्ञात होता है कि 'किसी महाकाव्य में जीवन के सर्वाङ्ग का चित्रण करते हुए नायक के उदात्त आदर्शों का उपस्थापन होना चाहिये' तदनुसार ही यहां आद्य तीर्थंकर श्रीऋषभदेव के चरित्र को कथावस्तु का आधार बनाया है। अनेक प्रौढकाव्यों के समान ही इस काव्य में भी उत्तम ध्वनिकाव्य के तत्त्व समाविष्ट हैं, साथ ही शिलप्ट-पद-प्रयोग, गूढशास्त्रीय तत्त्वभित वाक्यविन्यास, अलङ्कार-मसण पदावली एवं कल्पना-प्रचुर रससिक्त वर्ण्यवत्तान्तों के कारण यह महाकाव्यों की माला में सुमेरु के समान श्लाघनीय बन गया है। इसमें वर्णित कथा का सर्गानुसारी परिचय इस प्रकार है Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) प्रथम-सर्ग-इस सर्ग में श्रीनाभिनन्दन के स्मरणरूप आशीर्वादात्मक मङ्गल से प्रारम्भ करके उनकी महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए- 'वही एक देव है, जिसकी भिन्न-भिन्न नामों से उपासना की जाती है। जिसके आगम-समुद्र का जल प्राप्त करके अन्य लोग बादलों के समान गरजते हैं / उस जल की वृष्टि से ही विचित्र धान्य की सष्टि होती है और उनके द्वारा प्रवर्तित 'धर्मविधि' ही सर्वत्र प्रवत्त है, इत्यादि कहा है। इसके पश्चात् आद्यतीर्थङ्कर के रूप में प्रजाहित के लिए उनका उत्पन्न होना बतलाया है और विनीता नगरी के शासक के रूप में उनकी शासन-सुव्यवस्था एवं कालान्तर में संसार त्याग की भावना से अपने सौ पुत्रों में राज्य का विभाजन करके चतुष्टिलोचपूर्वक दीक्षा लेकर चीत राग स्थिति में तप में रत होने का वर्णन किया है। . तपस्या के प्रसंग से प्रभु का वनभ्रमण और वहां की वन्यश्री का सौन्दर्य-निरूपण कवि ने अपने आन्तरिक प्रकृत्यनुराग की साक्षी में बडा ही मनोरम दिया है। भगवान ऋषभदेव के तपस्वीजीवन का चित्रण करते हुए उनकी क्षुधा-तृषा सहिष्णुता, परीषहसहन आदि का वर्णन करके 'गजपुर' स्थित सोमयश के यहां इक्षरस से पारणा करने का भी अच्छा चित्रण किया है। वहीं प्रभ का उपदेश, श्रेयाँस के मस्तक पर पूष्पवष्टि और घर में साढ़े तेरह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं की वर्षा होती है और तदनन्त र प्रभु अन्यत्र विहार के लिये निकल जाते हैं। इस प्रकार दीक्षा के दिन से एक हजार शरद के बीत जाने पर भगवान को कैवल्य प्राप्ति तथा समस्त विश्व में उनके यश का विस्तार आदि वर्णन करके यह पूर्ग पूर्ण किया है / द्वितीय सर्ग-इस सर्ग में भरत महाराजा के द्वारा भारतवर्ष में शासन करने का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दिए गये दान, उनके अतुल पराक्रम, सैन्य-सम्पत्ति और शारीरिक सौन्दर्य प्रादि का Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 15 ) विस्तृत वर्णन किया है वहीं उनके राज्याभिषेक का प्रसंग उपस्थित किया है। इस महत्त्वपूर्ण अवसर पर अनेक राजा-महाराजाओं की उपस्थिति स्वाभाविक थी, किन्तु स्वयं भरत के 18 सहोदरों की अनुपस्थिति को जानकर महाराज ऋद्ध हो जाते हैं और दूतों के द्वारा भाइयों को सन्देश देते हैं कि-"इस राज्याभिषेक-महोत्सव में तुम्हारे उपस्थित न होने का क्या कारण है ? इस अनुपस्थिति से तुम्हारी स्थिति संशयापन्न बन गई है। यदि मेरा तेज असह्य होने के कारण ईर्ष्या हो तो कहीं अन्यत्र जाकर रहो और यदि युद्ध की इच्छा हो तो मुझ से युद्ध करो।' इस सन्देश को पाकर उनके भाई प्रत्युत्तर देते हैं कि-"पाप के अधीनस्थ राजाओं के द्वारा आपका राज्याभिषेक हो, यह ठीक है। परन्तु जो बन्धु-प्रिय है वह उसे अपने बन्धुओं में विभक्त किये बिना प्रसन्न नहीं होता / हमें अपने पिता के द्वारा प्रदत्त सम्पत्ति के प्रति कोई मोह नहीं है। फिर हमें आपकी उपासना से क्या मिलेगा? आप यमराज से नहीं बचा सकते, ललाट पर लिखी रेखाए मिटा नहीं सकते, वार्धक्य को तरुणावस्था में बदल नहीं सकते, वासनाओं से मुक्त नहीं कर सकते और न ही इन्द्रियों को वश में करके परब्रह्म में निमग्न कर सकते हैं ? रही बात युद्ध की तो हमारे शस्त्र भी कुण्ठित नहीं हैं ? किन्तु हम बन्धुद्रोह नहीं चाहते / फिर भी यदि युद्ध करना चाहते हैं तो हम तेयार हैं पर पिताजी की आज्ञा के बिना हम भाइयों में युद्ध नहीं होने दगे।" यह प्रतिसन्देश देकर वे 68 भाई अप्टापद पर्वत पर-जहाँ भगवान् तपस्या में लीन हैं वहां पहुंचते हैं और सारी घटना सुनाते हैं। ऐसी स्थिति मे भगवान् उन्हें अपने उपदेशामृत से शान्त करके युद्ध से विरस' करते हैं और लक्ष्मी के दुर्गुण, संसार की असारता, संयम जप, अध्यात्म, रति, धृति, उद्यम, तुष्टि, क्षमा, कृपा आदि से Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुराग करके महशत्रु के साथ युद्ध करने की बात कहते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे सभी भाई प्रबोध प्राप्त करके संयम ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार यह द्वितीय सर्ग अनेक महत्त्वपूर्ण प्रसंगों, उपदेशों और रमणीय वर्णनों से परिपूर्ण है। तृतीय सर्ग- इस सर्ग में अठानवे राजपुत्रों का प्रतिसन्देश एव अष्टापद पर्वत पर जाकर प्रभ के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की घटना से महाराजा भरत के दूतों के मन में कुछ ग्लानि उत्पन्न होती है। वे मन में सोचते हैं कि 'ऐसे साहसी और उत्तम चरित्रशाली उन राजपुत्रों को हमने अपने स्वामी के अग्नि जैसे उष्ण वचनों को सुनाकर बहुत दुःख पहुंचाया है, अत: इसका प्रायश्चित्त यही है कि हम भरत महाराजा के समक्ष अब उनकी प्रशंसा करें / ' यह सोचकर वे 'विनीता' नगरी में पहचते हैं और महाराजा के समक्ष उन राजपुत्रों के प्रतिसन्देश को सुनाते हैं। साथ ही उनके आश्चर्यकारी चरित्र, समस्त पैतृकसम्पत्ति के प्रति अधिकार त्याग, मक्तसंग होकर योगरंग में रंगना, युद्धरस को शान्तरस में परिवर्तित कर देने आदि का प्रशंसनीय वर्णन करके उनके द्वारा अपने समस्त कुल को पवित्र कर देने की बात कहते हैं। इससे महाराजा भरत भ्रात-वियोग से कछ खिन्न होते हैं तथापि मोहवश भाइयों के राज्यों को अपने अधिकार में ले लेते हैं। तब सभी तत्कालीन राजा-महाराजा उनके अधीन हो जाते हैं, सर्वत्र उन्हीं का साम्राज्य होता है किन्तु मानसिक शान्ति नहीं होती। इसी से उद्विग्न भरत एक योगी के समान विचार करते हैं कि-- "सभी राजा मेरे चरणों में विनत हैं, मेरी आज्ञा को पुष्पमाला के समान वे शिरोधार्य मानते हैं, विश्व की सर्वविध सम्पत्ति एवं सिन्ध देश से प्राप्त नवनिधि मेरे खजाने में स्थित है, उत्तम रथ, गज, तुरग मेरे पास हैं फिर भी 'चक्र' आयुध मेरी आयुधशाला में क्यों नहीं प्रविष्ट होता? यह मेरे अन्तःकरण में कांटे की तरह चुभता है।" Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( 17.) इस प्रकार चक्रि-पद की अभिलाषा से खिन्न महाराजा को देखकर मन्त्री उन्हें धैर्य बँधाते हए कहता है कि-'पापका छोटा भाई वह बलवान् 'बाहुबली' आपकी आज्ञा को नहीं मानता है। वह अपनी चण्ड भुजाओं से शत्रुओं को अस्त करके 'विश्ववीर' बना हुआ है / उसकी मुष्टि वज्र के समान कठोर है। वह नीति, धर्म, वाक्कौशल, युद्ध क्रीडा आदि में निपुण है / उसके पास अपूर्व लब्धियां हैं / अतः जब तक उसे आप परास्त नहीं करेंगे तब तक 'चक्रिपद' की रक्षा असम्भव है और साथ ही यह भी कहता है कि-"पहल आप उसक पास दूत भेजिए। यदि वह आपकी प्राज्ञा मान ले तो आपकी इष्टसिद्धि हो जाएगी और यदि न माने तो उसे युद्ध में दण्डित कीजिए।" मन्त्री के इन वाक्यों से भरत महाराजा क्रुद्ध हो जाते हैं और एक ओर भ्रातमोह तथा दूसरी ओर चक्रिपद की अभिलाषा के कारण सन्देह-दोला में पड़े सोचते हैं कि क्या करूं ? यहीं बड़े विस्तार से विवेकपूर्ण विचार, तर्क, वितर्क, युक्ति प्रादि प्रस्तुत करते हुए श्रीमद् उपाध्यायजी ने उचितानुचित का विवेचन किया है महाराजा के मुख से तृष्णा की निन्दा करवाई है और ऐमी स्थिति दिखला कर पुन: मन्त्री के द्वारा कहलाया है कि"हे महाराज ! राजा के लिए उसके प्राणों से भी अधिक मूल्यवान् उसका तेज है तथा उसकी रक्षा के लिए अविनीतों को विनीत बनाना अत्यावश्यक है। एतदर्थ किये गये प्रयासों से राजा का यश बढ़ता है / अत: पाप राजनीति का आश्रय लेकर अपने पौरुष को स्फूरित करें।" सचिव के ऐसे वाक्यों से महाराजा भरत का क्रोध भड़क उठता है और वे पुन: अपने भाइयों के पास दूत भेजते हैं / चतुर्थ सर्ग-इस सर्ग में कवि ने सर्वप्रथम 'सुवेग' नामक दूत के प्रस्थान के समय होने वाले अपशकुनों का वर्णन किया है तथा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18 ) भावी आशंकाओं की अभिव्यक्ति की है। श्रीउपाध्यायजी ने शकुनशास्त्र के आधार पर इस प्रसंग को विविध परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है जिसमें उनकी एतदशास्त्रीय प्रज्ञा का परिपाक प्रस्फुट हुआ है। सोलह पद्यों में अपशकुनों का वर्णन करके दूत की कर्तव्यपरायणता का आख्यान किया है और वह जब स्वामिकार्य के लिये आगे बढ़ता है तो मार्ग में वनाली दृष्टिगत होती है। प्रकृति का मनोरम चित्रणजिसे सम्भवत: जैनसाधु होने के नाते पाद-विहार करते हुए कवि ने भयोभूयः आत्मसात किया था—अभिव्यक्त हया है। इसके साथ ही ग्राम-सस्कृति का वर्णन भी अपने ढंग का अनठा है। कषकों के द्वारा खेतों में धान्य-चयन, पशुपालन, जल-सेचन-क्रिया आदि का वर्णन बहुत ही रोचक है और साथ ही उन-उन क्रियाओं का दार्शनिकदृष्टि से साम्यस्थापन भी प्रशंसनीय है। वहां के निवासियों के आवास एवं जिनालयों को शोभा को काव्यमयी छटा में प्रस्तुत करते हुए कविवर श्रीमद्यशोविजयजी महाराज, ने उनमें भी भरत की तष्णा को निन्दनीय बतलाया है। _जब दूत बाहुबली की राजधानी 'तक्षशिला' के निकट पहुचता है तो ग्रामवधूटियाँ उसे पूछती हैं कि तुम कौन हो? और इसका उत्तर 'मैं भरत महाराजा का दूत हूँ' यह सुनकर वे मूल अर्थ को जानकर भी अन्य विषयों की कल्पना करके उनकी विविध प्रकार से निन्दा करती हैं। यहाँ कृषि के उपकरणों का प्रायुधरूप में वर्णन तथा सुनन्दा-नन्दन के अतिरिक्त किसी को भी महाराजा न मानने की बात से दूत बहुत लज्जित होता है। वहाँ से आगे चलकर दूत 'तक्षशिला' पहुंचता है जिसका वर्णन कुछ पद्यों में हुआ है किन्तु पश्चात् काव्य अपूर्ण ही है। कथा-सूत्र की यह गहनता एवं मञ्जलता प्रस्तुत महाकाव्य के भव्य-भवन की वेदी मात्र आज उपलब्ध है, यह खेद का विषय है ! Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) साहित्य-समीक्षा उपलब्ध काव्यांश में वर्ण्य विषय की व्यापकता के अनुसार ही प्रथम सर्ग में 1 से 130 तक वंशस्थवृत्त का प्रयोग हुआ है तदनन्तर 3 वसन्ततिलका, 1 पुष्पिताग्रा, 2 स्वागता और हरिणी छन्द का प्रयोग करके सर्ग पूर्ण किया है। द्वितीय सर्ग में 1 से 132 तक वियोगिनी वृत्त का प्रयोग है तथा अन्त में 4 शार्दूलविक्रीडित छन्द निबद्ध हैं। ततीय सर्ग में 1 से 117 तक उपजाति वत्त का प्रयोग है तथा अन्त में 4 मालिनी वृत्तों का प्रयोग करके सर्ग पूर्ण किया गया है। चतुर्थ सर्ग के 1-66 पद्य स्वागता वृत्त में निबद्ध है। इस प्रकार छन्दों के चयन में पूर्व महाकवियों की परिपाटी का समन्वय करते हए श्रीमदयशोविजयजी गणि ने भाव और भाषा का तादात्म्य स्थापित करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। वीर एवं शान्तरस के साथ ही यहाँ 'प्रोज' प्रसाद एवं माधुर्य गुणों में माधर्य गुण को अधिक आश्रय मिला है तो रोति की दष्टि से गौडी (समासभयिष्ठ पदावली में) तथा स्फूट पदों के प्रयोग में भी अर्थगाम्भीर्य श्लेष आदि की विशेष स्थिति के कारण पाञ्चाली रीति अधिक प्रयुक्त हुई है। ... अलंकारों में वर्णमैत्रीगत शब्दालंकारों का प्रयोग साहजिक होते हुए भी द्वितीय-चतुर्थ पादान्तानुप्रास (1-38, 3-83)' वृत्त्यनुप्रास (1-48) और यमक के विरल प्रयोगों से मन को मोह लेता है। प्रर्थालंकारों में श्लेष का प्रयोग सर्वाधिक है जिसके कारण अनेक पद्य दो-दो अर्थों को व्यक्त करते हैं तथा उन्हीं के आधार पर ध्वनि के मुख्य १-अलङ्कार से वस्तु, २-वस्तु से अलकार, ३-वस्तु से वस्तु, ४-अलंकार से अलंकार तथा ५-भावध्वनिरूप पांचों भेदों का बहुधा समावेश परिलक्षित होता है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20 ) प्रथम पद्य-श्रुतस्थितैर्यः कमलालयो यशः (1-1) इत्यादि में नाभिनन्दन को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समन्वित रूप में व्यक्त करने के लिए प्रत्येक के विशिष्ट गुण को श्री ऋषभदेव में दिखलाया है जो श्लेषालंकार से ही बोध्य है। . अर्थान्तरन्यास के प्रयोग प्रस्तुत काव्य में बहुधा हुए हैं। यथान शार्वरध्वान्तहरं विना रवेरवेक्ष्यते (1-4), न चिन्तनीयं चरितं महात्मनाम् (1-5) विवादभाजोः करभामृताशिनोर्न क्लप्तयुक्तिः कलहं व्यपोहति (1-101), शलभो लभते कियद यशस्तरणौ क्लप्तरणः ऋधारुणः (2-36) नभस्यलुप्त्वा ग्रहमात्रदीप्ति ग्रहाधिपख्यातिमुपैति नार्कः (3-72) इत्यादि। . उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अपह्न ति (1-67), परिवृत्ति (1-85), समासोक्ति (1-84), विरोधाभास (3-62) आदि अलंकारों की छटा सर्वत्र अपनी सुषमा बिखेर रही है। यहां कवि ने अपने मुनिजीवन के अनुभव, संसार की असारता, लक्ष्मी की चञ्चलता और मतिविभ्रमकारिता आदि के वर्णनों के साथ ही शास्त्रीय विषयों का समावेश करने में भी प्रवीणता दिखलाई है / यथा क्षुधा के बारे में कहे गये ये पद्यपुरं प्रविश्याक्षकपाटपाटना-पुरस्सरं लुण्ठितसारसम्पदः / करोति यः क्षुत्कटकस्य निग्रह, तमन्नदेवं समुपास्महे वयम् // 1-43 // तथा कुठारिकामानकपाटपाटने, विलज्जता नाट्यनटीपटीयसी / विचित्रवंशस्थितिचित्रलुम्पने, मषीसखीयं जठरोद्भवा व्यथा // 1-4 // क्षुधा की भीषणता को जहां व्यक्त करते हैं वहीं अन्नदान के महत्त्व को भी उन्होंने बड़ा महत्त्व दिया है और कहा है कि Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( 21 ) ददाति यो नावसरेऽन्नथिने, प्रदाह्य चिन्तासु परं प्ररोदयन् / स्वयं चितायां ज्वलतः स्वरोदकात्, स बध्वमुष्टिर्म तकाद् विशिष्यते // 1-44 // इसी प्रकार कृपणों को 'कृपाणतुल्य' (1-46) कहकर उनकी निन्दा भी की है। लक्ष्मी के बारे में उसकी कुटिलता, अस्थिरता, विषभगिनीत्व एवं सूकृतछेत्तता (2-88 से 15 तक) के वर्णन के साथ ही एक स्थान पर स्त्री के बारे में भी कवि ने कहा है कि कुटिला हसितेन फेनिला, सलिलावर्त-विवत नाभिभूत् / प्रमुना विहिताङ्गनानदी, नरके पातयति प्रमादिनः // 2-103 // यह प्रमादियों को नरक में गिराती है / उपनिषद् वाक्यों से साम्य दिखलाने वाले (1-66 और 2-48) पद्य हैं जिनमें 'मात्मा वारे द्रष्टव्यः' तथा 'केवलाघो भवति केवलादी' इन वाक्यों का पोषण हुआ है। न्यायशास्त्र के तत्त्वों का समावेश-न सिद्धय सिद्धयोः स्फुटनिग्रहस्थलाम् (1-66), कपालनाशात् कलशक्षये यथा (1-114) तत्सङ्कटव्याघ्रतटीयमेतत (3-84), में और इसी प्रकार वहीं द्वैतअद्वैत (3-100), ज्योतिष (3.85), * शकूनशास्त्र (4-1 से 17 तक) तथा वैद्यक (3-61) आदि का भी परिज्ञान कवि ने करवाया है और राजनीति के उपदेश भी इसमें मार्मिक हैं। इस प्रकार संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि यद्यपि इस महाकाव्य का यह उपलब्धांश अपनी भव्य आयोजना की भूमिका ही प्रस्तुत कर पाया हैं तथापि "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" इस लोकोक्ति के अनुसार यह अवश्य ही अपनो परम्परा का एक अनूठा एवं बेजोड़ महाकाव्य रहा होगा। प्रतीक्षा है इसके अन्य अवशिष्ट अंश के अवलोकन की........... Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द्वितीय-कृति] विजयोल्लास-महाकाव्य द्वितीय सर्ग के ६५वें पद्य तक उपलब्ध 'विजयोल्लास-महाकाव्य' का यह अंश संक्षिप्त होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है। इसकी रचना में श्रीयशोविजयजी महाराज ने 'सकलभट्टारकशिरोमणि भट्टारक श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुरु' की स्तुति को प्रमुखता देते हुए अपने विजय की कामना को प्रमुखता दी है। जो कि-'सूरीश्वरं श्रीविजयादिसिंह स्तोतु प्रवत्त विजयाभिकांक्षी' इस पद्यांश से स्पष्ट है। इन दो सर्गों में निम्नरूप से काव्यांश प्रस्तुत हुआ है प्रथम सर्ग-श्रीशङ्केश्वर पार्श्वनाथ; सरस्वतीदेवी एवं गुरुस्मरणरूप मङ्गलाचरणों से सर्गारम्भ हुआ है। कथावस्तु को प्रस्तुत करते हुए यहां सात पद्यों के कुलक से काव्य-निर्माण-प्रवृत्ति का संकेत देकर सर्वप्रथम 'मंडोवरापार्श्वनाथ' की भूमि का वर्णन किया है / तदनन्तर फलवधि-फलोधि चैत्य और नगर का वर्णन, वहां 'अनघमल्ल' नामक श्रेष्ठी का निवास, उसके विभिन्न गुण, शारीरिक सौन्दर्य, विद्या, बुद्धि, वैभव आदि का वर्णन नायकदेवी का उसपर मुग्ध होना और उसी के साथ विवाह होना वर्णित है। - द्वितीय-सर्ग-अनघमल्ल और नायकदेवी के विवाह से सुधीजनों को अत्यन्त आनन्द होता है। इन दोनों के सौन्दर्य और यौवन के वर्णन के साथ ही 'नायकदेवी' के अङ्गलावण्य, केशकलाप, मुखमण्डल, भ्रयुगल, नेत्र, नासिका, अधर, दन्तपंक्ति तथा वदन-सौन्दर्य की छटा अंकित करने में ही यह सर्ग अपूर्ण रह गया है / उपर्युक्त वर्णन Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) में बडी उदारता से कल्पनाओं का प्राश्रय एवं अलंकारों का आलम्बन लेकर विस्तार हआ है। इसी से यह अनुमान किया जाता है कवि विषय को सुदूर तक ले जाने की भावना से शून्य नहीं था। ___साहित्य-समीक्षा-पूर्ववणित काव्य के समान ही इस काव्य में भी रचना में पूरा सौष्ठव प्रस्तुत हुआ है / प्रथम सर्ग में 1 से 14 तक एवं 67 वे पद्य में उपजाति वृत्त का प्रयोग है / तथा रथोद्धता, पुष्पिताग्रा, मालिनी, वसन्ततिलका और शार्दूलविकीडित में भी दो-दो और एक-एक पद्य हैं। इस प्रकार यह सर्ग 102 पद्यों में पूर्ण हुआ है। द्वितीय सर्ग के सभी 65 पद्य वियोगिनी छन्द में हैं। प्रारम्भिक वर्णन में गुरुभक्ति के साथ ही कवि का साहित्यिक अन्तरंग परिस्फुट होने लगता है / शब्दों के चयन में एक प्रकार का मार्दव तो है ही, साथ ही नादगत सौन्दर्य को भी पूरा प्रश्रय मिला है। अनङ्गसङ्ग कथमङ्गतीति (1-6) कुकाल-पातालतलावमज्जद् (1-6), नाम्नैव धाम्नामनुरूपरूपं (1-10) मेरुन मेरुर्जगदीश्वरेण (1-66), सहस्रजिह्वोऽपि सहस्रजिह्वः (1-73), रक्तोत्पलपल्लवाभ्यां प्रतिक्षणात् क्षीणविपल्लवाभ्याम् 1.86) प्रथिता किल सा तिलोत्तमा कथमस्याः पुरतस्तिलोत्तमा (2-6), रतिरेतु रति रतिरेवान्तरिता (2-10), सकला कचपाशचुम्बिनी न कलापेऽनुकलापिनः कला। सकलाकलितार्द्ध चन्द्रको मुखचन्द्रोपरि संञ्चरः परः (2-11), रजनीकरकष्टमष्टमीरजनीमण्डनखण्डन तपः (2-16), श्रगणान्दोलनलोललीलया (2-21) और अधरे निधुना सुधारसः (2-65) जैसी मसण पदावलियों के प्रयोग से अनुप्रास और यमक अलंकार की प्रयोग चातुरी सहज ही परिलक्षित होती है / 1. प्रचू चुरच्चामरभासमस्य केशोच्च यश्चामरभासमस्य / ___ वने निवासं चमरी च लेभे विपर्ययं किन्न गतिश्चलेभे / / (2-76) यहां भी पादान्तयमक दर्शनीय है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 24 ) इसी प्रकार अर्थालंकारों के प्रयोग में भी अपना नैपुण्य व्यक्त करते हुए-उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अपह नुति, भ्रान्तिमान्, परिसंख्या, निश्चय, श्लेष, विरोधाभास, अर्थान्तरन्यास आदि का समुचित प्रयोग किया है / उत्प्रेक्षाओं में पर्याप्त नवीनता है तो रूपक में दीर्घसमास वाले पद प्रयुक्त हैं। अपह्न ति के लिए वास्तविक को अवास्तविक में व्यक्त करने का प्रयास उत्तम है / जैसे- यत्रानिशं स्फाटिकजनसद्म (1-26) इत्यादि पद्य में जैन मन्दिरों की स्फटिकसमधवलिमा से प्रहत अन्धकार में नवयौवनाओं के कुचों में कस्तूरिका के रूप में अमावस्या का शयन वणित' है। अन्यत्र (पद्य 1-53 के) वर्णन में अनघमल्ल के दान से अपने दान को न्यून मानकर बलि का पाताल में छिपना भी प्रभावपूर्ण है / व्याकरण, न्याय. संगीत आदि शास्त्रों का पाण्डित्य भी यत्र-तत्र पद्यों में विशेष रूप से समाविष्ट है जिससे शास्त्रकाव्य की झलक सहसा प्राप्त होती है। वर्णन में महाकवि कालिदास, हर्ष और पण्डितराज जगन्नाथ के पद्यों की छाया क्रमशः प्रथमसर्ग 'में 47, 51, 67 और 86 में देखी जा सकती है। जिससे कवि की स्वाध्यायशीलता का आभास मिलता है। "नैषधीयचरित" के समान ही यहाँ सर्गान्त में एक पद्य कविवर्णन और उसके आदिमसर्ग समाप्ति का सूचक है। साधुजीवन में रहते हुए भी कवि के दायित्व को पूर्ण करने के लिए गणिजी ने कहीं संकोच नहीं किया है। प्रायः देखा जाता है कि कुछ विरक्त कवि शृङ्गाररस के वर्णन में उदासीन हो जाते हैं अथवा अवसर पाकर शृङ्गारिकता की निन्दा करने में भी नहीं चूकते / किन्तु उपाध्यायजी इसमें अपवाद प्रतीत होते है। प्रस्तुत काव्य के द्वितीय सर्ग में नायकदेवी का सौन्दर्य-वर्णन इसका प्रमाण है। __ क्या ही अच्छा होता ! यदि यह काव्य पूरा उपलब्ध होता ! ? 1. प्रस्तुत काव्य की पाण्डुलिपि बहुत समय के पश्चात् प्राप्त हुई है। इसी कारण श्री कापड़िया जी द्वारा लिखित 'यशोदोहन' नामक गुजराती ग्रन्थ में इसका उल्लेख भी नहीं हुआ है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तृतीय कृति] सिद्धसहस्रनाम-कोश सहस्रनाम : : परम्परा और प्रकार-- संस्कृत स्तुति-साहित्य में 'सहस्रनाम'-स्तोत्रों की परम्परा भी अति प्राचीन है। उपासना के क्षेत्र में जिस प्रकार मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, पूजा, स्तोत्र आदि एक दूसरे के पूरक अंग माने गये हैं उसी प्रकार 'सहस्रनाम' भी एक पूरक अंग कहा गया है / प्रत्येक देवता की उपासना में जिन पांच अंगों का निर्देश तन्त्रों में किया गया है उनमें भी 'सहस्रनाम' की एक अंग के रूप में गणना है। इन्हीं सब दष्टियों से सभी धामिक सम्प्रदायों में अपने-अपने इष्टदेवों की स्तुति में सहस्रनामात्मक स्तोत्र बने हुए प्राप्त होते हैं / ___ कोई भी भक्त जब अपने इष्ट देव के गुणों का आख्यान करना चाहता है तो उसके सामने नाम, कर्म, गुणादि का एक विशाल स्रोत छलकता हरा दिखाई देता है। मानव' सान्त है प्रभु अनन्त है। अनन्त के नाम-कर्म-गुणादि भी अनन्त हैं। इनमें से वह अपने लिए किन को चने और किन को छोड़ दे ? यह प्रश्न उपस्थित होता है। महाभारत में युधिष्ठिर ने अपनी ऐसी ही किंकर्तव्य-विमूढावस्था में भीष्म से पूछा था१. गीता सहस्रनामानि स्तवः कवचमेव च / हृदयं चेति पञ्चैतत् पञ्चाङ्ग प्रोच्यते बुधः // 2. ऐसे अनेक सहस्रनाम स्तोत्रों की विशद विवेचना के लिये देखिए हमारे द्वारा रचित 'स्तोत्र शक्ति' में सहस्रनाम सम्वन्धी विचार / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) किमेक देवतं लोके किं वाऽप्येकं परायणम् / स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् / / 24 // को धर्मः सर्वधर्माणां भगतः परमो मतः / इत्यादि / और इन पांचों प्रश्नों का उत्तर देते हुए भीष्म ने कहा था कि- . स्तुवन्नामसहस्रण पुरुषः सततोत्थितः / इत्यादि / ___ इस प्रकार अन्यान्य भगवत्प्राप्ति के उपायों में सहस्रनाम-स्मरण भी महत्त्वपूर्ण है / वहीं आगे 'विष्णोर्नामसहस्र मे शृणु पापभयापहम्' इत्यादि कहकर सहस्रनाम-स्मरण से प्राप्य अनेक फलों का और भी विस्तार से वर्णन किया है। वेदों में 'सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् / ' इत्यादि मन्त्र से सहस्र के उपलक्षण से अनन्त शीर्षादि का संकेत स्पष्ट ही है। तथा रुद्राष्टाध्यायी में शिव की उपासना हेतु निर्दिष्ट 'शतरुद्रिय' के मन्त्र भी इसके सूचक हैं / तान्त्रिक उपासना में प्रातः, मध्याह्न, सायं, तुरीया और भासारूप जो पाञ्चकालिक साधना होती है उसमें भासाकाल में प्रत्येक देव का ध्यान विराड्रूपात्मक होता है, जिसमें सहस्र-अनन्त का संकेत स्पष्ट है / यौगिक दष्टि से शारीरिक चक्रों में सहस्रार में सहस्रदल की कल्पना और प्रत्येक दल में मातका के बीस आवर्तनों में प्रत्येक वर्ण की स्थापना भी सहस्र' की संकेतिका ही है। सूर्य को सहस्र किरणों वाला, इन्द्र को हजार नेत्रवाला. शेषनाग को हजार फणोंवाला, भगवती को हजार भुजाओं वाली, गरुड़, शरभ, नृसिंह आदि देवों को हजार दाढ़ों वाला, कार्तवीर्यार्जुन और बाण को हजार भुजाओं वाला कहना भी 'सहस्रनाम' की प्रेरणा का स्रोत रहा है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक सम्प्रदाय में शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि सभी देवों के 'सहस्रनाम स्तोत्र' प्राप्त होते हैं इतना ही नहीं अपितु तन्त्रभेद, ध्यानभेद और कालभेद के आधार पर प्रत्येक के एकाधिक सहस्रनाम भी सुलभ हैं। इनकी रचना में कैलाश शिखरासीन भगवान् वक्ता के रूप में और भगवती पार्वती जिज्ञासु के रूप में विशेषरूप से प्रसिद्ध हैं तथापि यत्र-तत्र नन्दिकेश्वर' एवं अन्य ऋषिवर्ग' भी द्रष्टा के रूप में स्मृत हैं। तन्त्रशास्त्र में 'सहस्रनाम-स्तोत्र'-१. अर्चना और 2. जप के बाद ततीयक्रम में अथवा पूर्वोक्त दोनों कर्मों के अभाव में उनका पूरक एवं आवश्यक था, यह-दिव्यनामावली, रहस्यनामावली का स्वरूप लेकर व्यक्त हुआ है। इसके निर्माण में स्वयं देव और देवियों ने हाथ बटाया और स्वयं स्तोतव्य देवता ने अपने वरदान द्वारा महत्त्वपूर्ण सिद्ध कर सर्वकार्यसाधन के लिए इसे उपयोगी बताया गया। धीरे-धीरे इन स्तोत्रों में संगहीत नाम सामान्य नाम न होकर भाष्य और व्याख्यानों के द्वारा मन्त्रमय सिद्ध हुए। विभिन्न काम्य-प्रयोगों के ये साधन बने और रक्षाकवच के रूप में धारण का मार्ग भी प्रशस्त हो गया / ' शाक्तसम्प्रदाय में सुप्रसिद्ध 'ललितासहस्रनाम' की फलश्रुति में तो यहां तक कहा गया है कि 1, . भैरव के छह प्रकार के सहस्रनाम, तथा गोपाल के राधातन्त्र और सम्मो हन-तन्त्र प्रोक्त सहस्रनाम इसके उदाहरण हैं / 2. भवानीसहस्रनाम में नन्दिकेश्वर ने पूछा है / 3. ललितासहस्रनाम के द्रष्टा अगस्त्य ऋषि हैं / 4. ललितासहस्रनाम पद्य 27-28 में वशिन्यादि वाग्देवी इसकी प्रणेत्री हैं / 5. इन सहस्रनामों को लिखकर भुजा, सिर, पताका मादि में धारण कियो जाने का निर्देश है / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 28 ) . यस्त्यक्त्वा नामसाहस्रं पापहानिमभीप्सति / स हि शोतनिवृत्त्यर्थ हिमशैल निषेवते // 250 // तथा-कलौ पापैकबहुले धर्मानुष्ठानजिते / नामानुकीर्तनं मुक्त्वा नृणां नान्यत् परायणम् // 301 // अर्थात् सहस्रनाम-स्मरण को छोड़कर जो पापहानि चाहता है, वह शीत की निवृत्ति के लिये हिमालय का आश्रय लेता है, ऐसा समझना चाहिये। तथा कलियुग में पाप की अधिकता एवं धर्मानुष्ठान की न्यूनता होने के कारण सहस्रनाम-स्मरण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं है। यहीं सहस्रनाम के बारे में अन्यान्य माहात्म्य प्रदर्शित कर लौकिक वचनों की अपेक्षा नामस्मरण की विशेषता तथा उपास्यदेव के अनन्त नामों में से संगहीत. एक हजार नामों के स्मरण की विशिष्टता भी बतलाई है। ऐसे हजार नामों में भी जो रहस्यनाम हों उनका महत्त्व और भी विशिष्ट होता है। उदाहरणार्थ वहां कहा गया है कि देवीनाम सहस्राणि कोटिशः सन्ति कुम्भज // तेषु मुख्यं दशविधं नामसाहस्रमुच्यते // रहस्यनामसाहस्रमिदं शस्तं दशस्नपि // 303-4 // इसके अनुसार करोड़ों सहस्रनामों में दस प्रकार के सहस्रनाम' मुख्य हैं और उनमें भी रहस्यनामसहस्र प्रमुख है / इत्यादि / 1. ये दस प्रकार के सहस्रनाम 'सौभाग्य-भास्कर' भाष्य में भी भास्करराय मखी ने 'गङ्गाश्यालकाबालरासभाः' इस गुप्ताक्षर पद्धति से व्यक्त करके निम्न पद्य दिया है गङ्गा भवानी गायत्री काली लक्ष्मीः सरस्वती। राजराजेश्वरी वाला श्यामला ललिता दश / / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) यही स्थिति समस्त उपास्यदेवों के नामों की है / अतः पूर्वाचार्यों द्वारा संगहीत एवं स्वानुभव द्वारा विशिष्टरूपेण भगवतकृपाप्राप्ति के साधनभूत नामों का स्मरण अत्यावश्यक समझना चाहिये / ऐसे ही दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर श्रद्धेय श्रीमद् यशोविजयजी गणि ने भी 'सिद्धसहस्रनाम' की रचना की है, जिसका विवरण और प्रारम्भ में उपलब्ध पूर्ववर्ती जैन सहस्रनामस्तोत्रों का संक्षिप्त परिचय पहले यहां दिया जा रहा है। जैन स्तुतिसाहित्य में सहस्रनाम स्तोत्र__पूर्वोक्त परम्परा एवं प्रवृत्ति के अनुरूप ही जैन स्तुति साहित्य में भी सहस्रनाम स्तोत्रों का विधान प्राचीनकाल से प्रचलित है। तथा सहस्रफणा पाश्र्वनाथ, सहस्रदल कमल-निवासिनी पद्मावती, जैन तीर्थंकरों के देह का 1008 लक्षणों से समन्वित होना आदि इसके प्रेरक तत्त्व कहे जा सकते हैं। जैनों के श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में जिनसहस्रनाम' जैसी कृतियां मिलती हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर (चौथी शती.) और दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचार्य जिनसेन (नौवीं शती) दोनों ने सम्भवत: इस प्रकार की रचना का प्रारम्भ किया है। इनके पश्चात् पाँच-सात कृतियां और बनी हैं जिनका क्रमिक परिचय इस प्रकार हैं 1. जिन सहस्रनाम-स्तोत्र-सिद्धसेन दिवाकर (चौथी शती का . अन्तिम भाग) ____ इसी कृति के 1. सिद्धश्रेयःसमुदय और 2. शक्रस्तव नाम भी प्रसिद्ध हैं। इसका निर्माण प्रमुखरूप से गद्य मे ही हुआ है। इसमें 'ॐ नमो' इत्यादि से प्रारम्भ होने वाला भाग स्वतन्त्र है। यहां ग्यारह मन्त्र हैं जिनमें प्रथम और द्वितीय मन्त्रों के कतिपय प्रारम्भिक भाग के कुछ विशेषण इसी क्रम से 'वीतराग स्तोत्र' के Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) प्रथम प्रकाश में प्राप्त होते हैं। तीसरा मन्त्र 'नम् त्थ णं' स्तोत्र के संस्कृत अनुवाद जैसा है और इसी के साथ चौथे मन्त्र में तीर्थङ्कर के लिए प्रयुक्त विशेषण 'योगशास्त्र' (प्र.१, श्लो०२) की स्वोपज्ञ व्याख्या पत्र २,अ.३, श्लो. 16-35) में दिखाई देते हैं / ११वां मन्त्र योगशास्त्र के प्रकाश 8, श्लोक 46 की स्वोपज्ञ व्याख्या में प्रायः अक्षरशः 'मिलता है। इससे यह ज्ञात होता है कि- इस स्तोत्र का उपयोग श्रीहेमचन्द्राचार्य ने पर्याप्त रूप में किया है / इसमें 16 नाम परमतनिरसन के सूचक भी हैं। 11 वे मन्त्र के अन्त में 5 पद्य हैं और तदनन्तर 'वर्धमान जिनमन्त्र' के रूप में इसका उल्लेख हुआ है / 'जिनरत्नकोष' (वि. 1, प. 366) के अनुसार इस स्तोत्र की श्रीप्रद्युम्नसूरि ने 'वृत्ति' भी बनाई है जिसकी पाण्डुलिपि सूरत के एक भण्डार में है। इसका सम्पादन श्री हीरालाल रसिकदास कापडिया ने किया है तथा 'भक्तामर-स्तोत्रत्रय' की प्रावत्ति (पृ.२४२२४५) में पाठान्तर सहित इसका मुद्रण हुआ है / यही कृति 'अनेकान्त' (वर्ष 1, किरण 8-10) में वि० सं० 1986 में भी छपा है। वहां इसका नाम 'सिद्धिश्रेयः समुदय' दिया है। 2. जिनसहस्रनाम-स्तोत्र- जिनसेनाचार्य (नौवीं शती) - यह दिगम्बर जैनाचार्य जिनसेन के 'प्रादिपुराण' के 25 वें पर्व के श्लोक सं० 100 से 217 तक के अंश का संकलन है। इसका प्रारम्भ 'श्रीमान स्वयम्भव षभः' से और पूर्ति 'धर्मसाम्राज्यनायकः' से होती है। इनके पश्चात अन्य नौ पद्यों में स्तोत्र की महिमा आदि 'का वर्णन है / दस शतकों में यह स्तोत्र पूर्ण हुआ है। इसका प्रकाशन 'जैन ग्रन्थरत्न कार्यालय' से ई० सं० 1626 मे तथा मूलचन्द किसनदास कापड़िया की ओर से ई० सं० 1652 में सूरत से हुआ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( 31 ) है जिनमें प्राशाधर कृत.'जिनसहस्रनाम स्तोत्र' तथा 'भाषासहस्रनामस्तोत्र' (बनारसीदास रचित) भी मुद्रित हैं। 3. अर्हन्नामसहस्रसमुच्चय- श्रीहेमचन्द्राचार्य (१२वीं शती) इसका अपरनाम 'जिनसहस्रनामस्तोत्र' भी है। इसके प्रथम शतप्रकाश, द्वितीय शतप्रकाश क रूप में दस प्रकाश हैं। प्रथम शतक के द्वितीय पद्य में तथा दसवें शतक के तेरहवें पद्य में अरिहंत के 1008 नामों का उल्लेख है जबकि दसवें प्रकाश के 14 वें श्लोक में 'जिननामसहस्रक' ऐसा कहा गया है / दसवें प्रकाश के ही 14-16 तक के पद्यों में इस स्तोत्र के श्रवण, पठन और जप के फलों का निर्देश है। ___ इसका प्रकाशन 'जैनस्तोत्रसन्दोह' (भाग 8, पृ० 13) में कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि के नाम से हुआ है। . 4. जिनसहस्रनामस्तोत्र - दि०. पं० प्राशाधर (१३वीं शती) सल्लक्षण के पुत्र एवं कलिकालिदासोपनामक पं० पाशाधर की इस कृति में दस शतक हैं और इस पर स्वयं कवि ने स्वोपज्ञ वत्ति की रचना भी की है। __ आदि पुराण के समान ही इसमें दस शतक हैं जिनके नाम क्रमशः 1. गर्भ, 2. जन्म, 3. दीक्षा, 4. ज्ञान, 5. नाथ, 6. योगि, 7. निर्वाण, 8. ब्रह्म, 6. बुद्ध और 10. अन्तकृद्-शतक हैं। सभी नामों की रचनाशैली क्रमबद्ध है कोई भी नाम पुनरुक्त भी नहीं है। केवल एक नाम 'अमत' दो बार आया है जिसे लिङ्ग-भेद और अर्थभेद से अपुनरुक्त कहा है / - दि० श्रुतसागर तथा अन्य किसी अज्ञात विद्वान् ने भी इसकी टीकाएं बनाई हैं। यह जिनसेन के जिनसहस्रनाम के साथ प्रकाशित हुआ है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) 5. जिनसहस्रनाम-स्तोत्र- दि० सकलकीति (१५वीं शती ई०) यह स्तोत्र 138 पदों में निर्मित है। रचनाशैली पूर्ववत् है। . 6. जिनसहस्रनाम-स्तोत्र- देवविजयगण (१७वीं शती ई०. पूर्वाध) - इस स्तोत्र के नाम 'अहन्नाम (सहस्र) समच्चय अथवा 'अर्हतसहस्रनाम' भी हैं। कर्ता के गुरु कल्याणविजय गणि हैं। कर्ता ने ही इस पर स्वोपज्ञ टीका की रचना की है। इसकी पाण्डुलिपि छाणी (गु०) के भण्डार में सुरक्षित है। ,.. 7. जिनसहस्रनामस्तोत्र- विनयविजयगरिण- (17 वीं शती उत्तरार्ध ई०) वाचक कीतिविजय के शिष्य द्वारा रचित यह स्तोत्र 'अर्हन्नमस्कार स्तोत्र' नाम से भी प्रसिद्ध है। इसमें 146 पद्य हैं। १४७वें पद्य में अरिहंतों को एक हजार नमस्कार करने का उल्लेख है। जिनरत्नकोश (वि० 1, पृ० 16) में अर्हन्नमस्कारस्तोत्र और वहीं अन्य पृ० 138 में जिनसहस्रनामस्तोत्र नाम से इसका सूचन है किन्तु ये दोनों कृतियां एक ही हैं इसका कोई निर्देश नहीं है। रचना-विधान की दष्टि से इसमें 1 से 144 तक के पद्य भजंगप्रयात छन्द में रचित हैं। प्रत्येक का चतुर्थ चरण 'नमस्ते नमस्ते. नमस्ते, नमस्ते' समान है और पूरे पद में सात-सात बार नमस्ते पद की योजना है। २१वें पद्य से ११७वें पद्य तक तीर्थंकरों के बारे में गर्भवास से लेकर उनके निर्वाण तक के प्रसंगों में जो विशिष्ट प्रसंग गणनायोग्य कर्ता को प्रतीत हुए उनका क्रमश: सूचन है। यहां एक विशेष बात यह है कि सभी तीर्थंकरों की समान भूमिका का चित्रण' इसमें प्रस्तुत हुआ है। इसके पश्चात् दस क्षेत्रों के तीनों काल की Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 33 ) चौबीसियों के तीर्थङ्करों तथा बीस विहरमाण तीर्थङ्करों को नमस्कार किया गया है। यह वीरसमाज अहमदाबाद से छपा था और बाद में जैन धर्म प्रसारक सभा ने भी छपाया है। 8. जिनसहस्रनाम-स्तोत्र-प्रज्ञातनामा (?) इस कृति का प्रारम्भ 'स्वयम्भुवे नमस्कृत्य' से होता है / 160 पद्यों में स्तोत्र पूर्ण हया है। इसकी पाण्ड लिपि भाण्डारकर प्रातातिदया संस्थान-पूना में है। इस स्तोत्र पर दि० अमरकीर्ति, दि० विश्वसेन, दि० श्रतसागर तथा एक अन्य अज्ञात लेखक ने टीकात्रों की रचना की है। 6. पावसहस्रनाम स्तोत्र - कल्याणसागरसूरि (अज्ञात) अंचल गच्छ के धर्ममूर्ति के शिष्य की यह रचना है / 'जिनरत्नकोश' (बि० 1, प०२४७) में पाश्र्वनाथ-अष्टोत्तर शतनाम नामक कृति का श्रीकल्याणसागरगणि के नाम से उल्लेख है। इसकी एक पाण्ड लिपि छाणी के भण्डार में है।। * 10. पद्मावती सहस्रनाम स्तोत्र ( ? अज्ञात ) पार्श्वनाथ के तीर्थ की शासनदेवी 'पद्मावती के 1000 नामों को प्रस्तुत करने वाली यह कृति 'जिनरत्नकोश' (वि० 1, पृ० 235) में निर्दिष्ट है। .......... 11. सूर्यसहस्रनामस्तोत्र- भानुचन्द्र गरिण :१७वीं शती प्रा० ई०) - यह कृति मूलत: गद्यात्मक है / इसके प्रारम्भ में एक तथा अन्त में चार पद्य हैं। इस पर लेखक की स्वोपज्ञ. वृत्ति भी बनी हुई है। इसका प्रकाशन वापी जैन युवकमण्डल' की ओर से वि० सं० 1968 में हरा है। . . 12. सिद्धसहस्रनामकोश- श्रीयशोविजयजी उपाध्याय . (ई० स० 1682) इस प्रकार की ग्यारह कृतियों की परम्परा में श्रद्धेय श्रीयशोविजय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) जी उपाध्याय ने 'सिद्धसहस्रनामकोश' की रचना करके एक नई कड़ी जोड़ी है। इसमें भी 'दस शतक' प्रकाश हैं / इस कृति की उपलब्धि और प्रति का आकार-प्रकार सम्बन्धी विवरण इस ग्रन्थ के सम्पादक एवं संशोधक मुनिराज श्री यशोविजय जी महाराज (वर्तमान समय में आचार्य श्री यशोदेवसूरिजी) ने स्वयं और पं० अमतलाल मोहनलाल भोजक के द्वारा लिखित विचारों में पर्याप्त प्रकाश डाला है / जिन्हें यहां उनके निर्देशानुसार यथावत् प्रस्तुत किया जा रहा है- . कोश की प्रति के सम्बन्ध में श्रवणीय तथा स्मरणीय घटना -ले० प्राचार्य श्री यशोदेव सूरि 'सिद्धसहस्रनाम कोश' की हस्तलिखित प्रति मुझे सं० 2015 में प्राप्त हुई थी, जिसका संक्षिप्त इतिहास नीचे लिखे अनुसार है-- ___ [वि० सं० 2014 में बम्बई-बांटुगा में चातुर्मास पूर्ण हो जाने के बाद श्रत के परम अभ्यासी, विविध विषयों के श्रेष्ठ ग्रन्थों को प्रकाशित करने वाले, धर्मात्मा, श्रीमान् तथा धीमान् की ऋद्धि को प्राप्त और मेरे प्रति बहुत ही सहानुभूति दिखाने वाले, श्रेष्ठिवर्य श्री अमृत लाल कालीदास दोशी जो कि कुछ समय पूर्व ही स्वर्गवासी हुए हैं, उन्होंने अपने चल रहे संशोधन में उपस्थित कठिनाइयों पर विचार करने के लिये अधेरी-पारला पाने का मुझे प्रामन्त्रण दिया। __ इतिहास-महोदधि स्व० पूज्य प्राचार्य श्रीविजयेन्द्र सूरिजी जोकि अन्धेरी में विराजमान थे, उन्होंने भी मिलने की इच्छा से मुझे प्रामन्त्रण दिया था / प्रतः मैं पारला गया और दोशी सेठ के यहीं रहा / एक दिन मैं धर्मश्रद्धालु श्रेोष्ठिवर्य श्री भोगीलाल लहेरचन्द के बंगले के एक भाग में विराजमान प्राचार्य श्री इन्द्र सूरिजी के दर्शनार्थ गया। कदाचित् यह मेरा पहला ही मिलन था। सूरिजी को देखते ही मैंने नमस्कार किया। मुझ से मिलने के Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) लिए उत्सुक होने के कारण उन्होंने खड़े होकर मुझे बहुत ही प्रेमभाव से मादर दिया और मुझसे कहा कि-"स्व० श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय के लिये सत्र की जो प्रायोजना की, उससे मैं बहुत प्रभावित हुमा था। तब से ही तुझे भेट देने के लिए एक वस्तु सम्हाल कर रखी है, वह तुझे पाज खास तौर पर देनी है।" और शीघ्र ही एक व्यक्ति को आदेश देकर प्रति मंगवाई। प्रति निकाल कर देने से पूर्व पुनः पूर्वोक्त प्रायोजन की प्रशंसा करते हुए कहा कि-'उपाध्यायजी के लिये तूने जो ज्ञानसत्र का आयोजन किया वह प्रयास वस्तुतः पहला ही हुआ है। समस्त जनता को परिचित कराते हुए तूने जो प्रयास किया, उपाध्याय जी का संघ पर जो ऋग है उसे किञ्चित् उतारने का जो प्रयत्न हुमा उससे मैं नाच उठा हू / ' मैं तो 'उपा ध्यायजी अर्थात् भगवान् महावीर के ज्ञान की झांकी कराने वाली विभूति पौर उसकी प्रसन्नता के प्रतीक के रूप में “सिद्धसहस्त्रनामकोश" की यह मुद्रित प्रति तुझे देता हूं। मैं खड़ा हुआ / प्राचार्य श्री के प्रति आभार रूप भाव व्यक्त करते हुए कृति को नमन किया तथा दोनों हाथ फैलाने पर वह कृति उन्होंने मेरे हाथों में रखी और जयनाद के साथ मैंने उसका अभिनन्दन किया। ___ यह है प्राप्त (अपूर्ण) उक्त प्रति की छोटी सी श्रवणीय एवं स्मरणीय घटना / ] इसी प्रकार अहमदाबाद के 'एल. डी. विद्यामन्दिर' द्वारा प्रकाशित होने वाले सम्बोधि' नामक मासिक पत्र में यह कृति मुद्रित हुई थी, तब इस कृति को लक्ष्य में रखकर मेरे विद्वान् धर्मस्नेही पं० श्री अमृतलाल भाई ने जो निवेदन प्रकट किया था वह सभी प्रकार से पूर्ण तथा कथनक्षम होने से (तथा उसमें नवीन जोड़ने की आवश्यकता नहीं होने से) उसे भी यहां यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है-.. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) ... न्यायविशारद, महोपाध्याय, श्रीमद्यशोविजयजीगणि विरचित सिद्धनामकोश सम्पादक-पं० अमतलाल मोहमलाल भोजक महोपाध्याय श्रीयशोविजयकृत अनेक ग्रन्थ अप्राप्त हैं उनमें यह सिद्धनामकोश' उपलब्ध हुमा है तथा उसे यहां दो प्रतियों के आधार पर सर्वप्रथम सम्पादित किया है / 1. जं० संज्ञक प्रति—'आर्य श्री जम्बूस्वामी जैन मुक्ताबाई अागममन्दिरसत्क पू० प्राचार्य श्री विजय रैवतसूरि.संगृहीत पूज्यपाद प्राचार्य श्री जम्बूसूरि हस्तलिखित “चिद्रञ्जन कोश डभोई (गुजरात)" में प्रस्तुत सिद्धनामकोश की प्रति सुरक्षित है, इसकी पत्र संख्या 6 है। प्रत्येक पृष्ठि में 15 पंक्तियां हैं . छठे पत्र की पहली पृष्ठि की आठवीं पंक्ति में सिद्धनामकोश पूर्ण होता है। प्रत्येक पष्ठि की छठी से दसवीं पंक्ति से मध्यभाग में लेखक ने अक्षर लिखे बिना खाली भाग रखकर शोभन (रिक्ताक्षर शोभन) बनाया है जो कि इस प्रकार है-छठी से दसवीं पंक्ति के मध्यभाग में क्रमशः 3-6-6-6-3 अक्षरों जितना रिक्त भाग है। प्रत्येक पत्र की द्वितीय पष्ठि के दाहिने अश में दिये गये हांसिये के नीचे वाले भाग में उस-उस पत्र का क्रमांक लिखा है। पौर बायीं ओर के हांसिये के ऊपरी भाग में 'सिद्धनाम' लिखकर इस कृति का नाम सूचित किया है तथा उसके नीचे उस-उस पत्र का क्रमांक लिखा है। प्रत्येक पृष्ठ पर नीचे का आधा इंच भाग रिक्त रखा और पार्श्वभागों में एक इंच भाग रिक्त है अर्थात् प्रत्येक पृष्ठ में 93431 इंच लम्बाई, चौड़ाई में यह लिखा हुआ है / __ प्रत्येक पृष्ठि की पंक्ति के प्रारम्भ और अन्त को प्रावृत करके खड़ी दो लाल रेखाएं खींची हैं / लम्बाई-चौड़ाई 634 41 इंच प्रमाण है / अन्त में"लिखितं राजनगरे सं० 1736 वर्षे इति श्रेयः” इस प्रकार संक्षिप्त पुष्पिका है। कर्ता के स्थितिकाल में यह प्रति लिखी हुई है / "सिद्धनाम कोश" की Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( 37 ) साधन्त सम्पूर्ण वाचना इस प्रति से ही उपलब्ध है इस दृष्टि से इस प्रति का महत्त्व अत्यधिक है। 2. य० संज्ञक प्रति --यहां ऊपर बताई गई प्रति मिलने का ज्ञान मैंने प० पू० 50 श्रीयशोविजयजी महाराज (बम्बई) को दी और 'सिद्धनामकोश' सम्पादित करके 'सम्बोधि' नामक त्रैमासिक में प्रकाशित कर रहा हूं यह भी बतलाया। महाराज श्री यशोविजय जी ने तत्काल ही उनको प्राप्त 'सिद्धनामकोश' की प्रति का मुझे परिचय दिया / और यह भी बतलाया कि उन्हें जो प्रति प्राप्त हुई है उसमें प्रथम पत्र नहीं है / इतना होने पर भी उन्हें जितना भाग नहीं मिला है उतना भाग छोड़कर भी वे उसका सम्पादन प्रकाशन करने की तैयारी में थे, ऐसे समय पर मैंने उनको सम्पूर्ण प्रति प्राप्त होने की जानकारी दी तथा उनके पास वाली प्रति का उपयोग करने के लिए प्रार्थना की। इससे अत्यन्त प्रसन्न भाव से उन्होंने अपने पास वाली प्रति की फोटो स्टेट कॉपी निकलवाकर मुझे भिजवायी। उस फोटो कॉपी को देखते ही मंने अन्तःप्रमोद पूर्वक धन्यता का अनुभव किया / यह प्रति पूज्यपाद महोपाध्याय श्रीयशो विजय जी महाराज के स्वहस्त से लिखित है / श्रीयशोविजय जी महाराज ने अपनी अनक रचनाएं अपने हाथ से लिखी हैं और अन्त में लेखक के रूप में अपने नाम का उल्लेख प्रायः नहीं करते हैं / इस प्रकार प्रस्तुत "सिद्धनामकोश' के अन्त में भी उन्होंने लेखक के रूप में अपना नाम नहीं लिखा है। इतना होने पर भी स्वहस्ताक्षर के रूप में जहां अपना नाम लिखा है ऐसी प्रतियों के आधार पर पूज्यपाद मागम प्रभाकर मुनिवर्य श्री पुण्यविजय जी महाराज ने उनके द्वारा स्वहस्त से लिखी हुई तथा लेखक के नामोल्लेख से रहित अनेक प्रतियों का निर्णय किया है। ऐसी कुछ प्रतियां लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर' में सुरक्षित मुनि श्री पुण्यविजय जी के संग्रह में विद्यमान हैं। इनके अतिरिक्त 'डहेलाना उपाश्रय' (महमदाबाद) के ज्ञान भण्डार में भी वैराग्यरति ग्रन्थ है। पू० पा० उ० श्रीयशोविजय जी महाराज के हस्ताक्षरों के परीक्षण-प्रसंगों में पागम प्रभाकर जी के पास बैठकर देखने-सीखने का सौभाग्य मुझे अनेक बार प्राप्त हुआ है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) . इसी से प्रस्तुत य० संज्ञक प्रति की फोटो कॉपी देखकर मुझे पाह्लाद हुआ। एतदतिरिक्त विशेष स्पष्टता के लिए ला० द० विद्यामन्दिर वाले यहां बतलाये गये संग्रह की पू० पा० उपाध्यायजी के द्वारा स्वहस्त से लिखित प्रतियों के साथ प्रस्तुत फोटो कापी के अक्षरों को मिलाने पर सविशेष विश्वास हुमा कि यह य० संज्ञक प्रति कर्ता द्वारा स्वयं ही लिखी हुई है / कुल पाँच पत्रों में लिखित इस प्रति का प्रथम पत्र नष्ट हो गया है। इसलिए प्रारम्भ से द्वितीय शतक के तेरहवें श्लोक के उत्तरार्ध के प्रथम अक्षर तक के पाठ का मिलान नहीं किया जा सका है। पाचवें पत्र की द्वितीय पृष्ठ की आठवीं पंक्ति में यह कोश पूर्ण होता है। प्रत्येक पष्ठि में 15 पंक्तियां हैं / प्रत्येक पंक्ति में कम से कम 41 तथा अधिक से अधिक 56 प्रक्षर हैं। ऊपर बतलाई गई दो प्रतियों के आधार पर 'सिद्धकोश' का सम्पादन किया है। कतिपय स्थानों में पाठभेद हैं / उनमें मुख्यरूप से 'य०' प्रति के पाठ मूल में दिए गए हैं। तथापि किसी-किसी स्थान पर 'ज' प्रति के पाठों को भी प्राधान्य दिया गया है / उ० श्रीयशोविजय जी ने स्वहस्त से लिखित 'वैराग्यरति' की प्रति में एक ही स्थान के विकल्प रूप में स्वयं योजित पाठभेद अनेक स्थानों में लिखे हैं। इससे 'जं.' प्रति में आने वाले पाठभेद कदाचित सुगमता के लिए स्वयं ही लिखे हों ऐसी प्रति के प्राधार पर यह 'ज०' प्रति लिखी गई हो यह सम्भव है / 'ज०' प्रतिकर्ता के स्थितिकाल में ही लिखी गई होने के कारण इसमें अन्यकृत पाठभेद होने की शक्यता कम सम्भव है यह भी स्वाभाविक है। ___ 'जं.' प्रति सम्पूर्ण होने से यह प्रस्तुत कोश की पूरी वाचना देती है। 'य.' प्रति कर्ता द्वारा लिखित है तथा 'जं०' प्रति में आने वाले किसी प्रशुद्ध स्थान पर शुद्ध पाठ देती है / इस प्रकार दोनों प्रतियों का बहुत महत्त्व है। प्रस्तुत सम्पादन में प्रत्येक शब्द के बाद जो क्रमांक दिए गए हैं वे दोनों प्रतियों में हैं. उसी रूप में हैं / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धनामकोश' अति प्राचीन काल प्रत्येक सम्प्रदभार में अपने अपने प्राराध्यदेवदेवियों की स्तुति के रूप में अनेक स्तुति-स्तोत्रों की रचना हुई है। स्तुतिस्तोत्रों का एकाग्रभाव से पाठ करने वाले को लौकिक-अलौकिक लाभ निश्चय ही प्राप्त होते हैं / इस दृष्टि से प्राचीनतम काल से अर्वाचीन समय तक विबिध स्तुति-स्तोत्रों की रचना और उनका पाठ करने की परम्परा चली पा रही है। अनेकविध वस्तुनिरूपण के रूप में रचित स्तुति-स्तोत्रों में पाराध्य देवदेवियों के नामोत्कीर्तन के रूप में विरचित स्तोत्र भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं, उन्हीं में अष्टोत्तर शतनामस्तोत्र तथा सहस्रनाम स्तोत्र भी निर्मित हैं / श्रमण प्रौर बाह्मण परम्परा में विविध सहस्रनामस्तोत्र निमित हुए हैं। श्रमण परम्परा में प्राचार्य श्री जिनसेन कृत-'जिन सहस्रनामस्तोत्र' प्राचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिकृत 'अर्हन्नामसहस्रसमुच्चय', पं० पाशाधर कृत 'जिनसहस्रनाम स्तोत्र', जीबहर्षगणिविरचित 'जिनसहस्रनामस्तोत्र' प्रसिद्ध हैं / ब्राह्मण-परम्परा में भी 'शिवसहस्रनामस्तोत्र' गणेशसहस्रनामस्तोत्र, पम्बिकासहस्रनामस्तोत्र, विष्णुसहस्रनामस्तोत्र आदि अनेक सहस्रनामस्तोत्र रचित हैं। .. महापुरुषों का योगबल ही ऐसा होता है कि उनके हाथों से खींची गई रेखाएँ भी मनुष्य के लिये सिद्धिदायक यन्त्र का कार्य करती हैं तथा उनके अन्तर की ऊमि से रचित स्तोत्र उनके पाठक को इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति प्रदान करते हैं। प्रस्तुत 'सिद्धसहस्रनामकोश' ऐसी ही कोटि की रचना है, यह बात कर्ता ने भी उपन्यास श्लोक में कही है। प्रस्तुत.सिद्धनामकोश को दस प्रकाशों में विभक्त करके ग्रन्थकार ने इसके दस विभाग दिखलाए हैं। एक से नौ तक के प्रत्येक प्रकाश में सिद्ध' शब्द के पर्यायरूप सौ शब्दों को तथा अन्तिम दसवें प्रकाश में एक सौ पाठ शब्दों को Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) संग्रहीत किया है। इस प्रकार यह कोश 'सिद्ध' शब्द के 100 शब्दों का संग्रह है। जिस प्रकार सुप्रसिद्ध प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने महाराजा कुमार पाल देव के लिए निर्मित वीतरागस्तोत्र के प्रत्येक विभाग के अन्त में 'श्रीकुमारपालभूपालसुश्र षिते' लिखा है उसी प्रकार प्रस्तुत 'सिद्ध नामकोश' के प्रत्येक विभागप्रकाश के अन्त में दी गई पुष्पिका के भी “सा" पनजीसुश्रूषिते' लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि प्रस्तुत सिद्धनामकोश' की रचना राजनगर (अहमदाबाद) वास्तव्य संघमुख्य रतनशाह के पुत्र संघमुख्य पनजी शाह के लिए हुई है। प्रत्येक प्रकाश के अन्त में दी गई पुष्पिका में इस कोश का सिद्धनामकोश' के नाम से ही उल्लेख किया है अतः मैंने भी इसी नाम से सम्बोधित किया है और इसी को मुख्य माना है। परन्तु . 'य०' प्रति में दसवे शतक की पुष्पिका के पश्चात् समग्र रचना के अन्त को सूचित करने वाली 'सम्पूर्णमिदं सिद्धसहस्रनामप्रकरणम्' इस पुष्पिका के आधार पर इस कोश का दूसरा नाम "सिद्धसहस्रनामप्रकरण' भी ग्रन्थकार को अभिमत है / ग्रन्थकार का नाम जिसमें उल्लिखित है उस शार्दूलविक्रीडित छन्द के अतिरिक्त समग्र रचना अनुष्टुप् छन्द में है। प्रथम प्रकाश के तीसरे पद्य से दसवें शतक के बारहवें पद्य तक सिद्ध के 1008 नाम हैं, प्रथम पद्य में "जिसके प्रणिधान से इन्द्र सम्बन्धी श्री की प्राप्ति" यह तो आनुषङ्गिक फल है किन्तु मुख्य फल तो महोदय-सिद्धि की प्राप्ति है ऐसे सिद्ध का हम ध्यान करते हैं, ऐसा बतलाया है। तथा द्वितीय पद्य में "सिद्ध के 1008 नाम का स्मरण, यह सज्जनों के लिये शरणरूप है तथा सर्व मङ्गलों में श्रेष्ठ मङ्गल रूप है" यह कहा है / 1. द्रष्टव्य-प्रत्येक के अन्त में दी गई पुष्पिका पनजी शाह के पिता के नाम का उल्लेख दसवें प्रकाश की अन्तिम पुष्पिका में है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) . दसवें शतक के बारहवें श्लोक के बाद वाले श्लोक में "जो प्रातः काल में जागरूक भाव से इस एक हजार पाठ सिद्धनाम का पाठ करते हैं वे वारंवार स्वर्ग के सुख भोगकर सिद्धि-मोक्ष को प्राप्त होते हैं, इसमें सशय नहीं है', ऐसा कहकर सिद्धनामकोश के पाठ का माहात्म्य सूचित किया है / तथा अन्तिम शार्दूलविक्रीडित छन्द में कर्ता ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है-- 'गणों के समूह से स्वच्छ तथा सामर्थ्य के धामरूप श्रीविजयदेवसूरि सुगुरु के गच्छ में श्रेष्ठ सामर्थ्य को प्राप्त जीतविजय नामक प्राज्ञ पुरुष हैं, उनके गुरु-भाई तथा ज्ञानियों में श्रेष्ठ ऐसे जयविजयजी के बालक =शिष्ययशोविजय नामक मुनि ने यह [सिद्ध नामकोशरूप] किञ्चित् तत्त्व कहा है / महोपाध्याय श्री यशोविजयजी जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में आज से 288 वर्ष पूर्व, भारत के मूर्धन्य विद्वान् तथा सन्तों की प्रथम पंक्ति में सम्मानित 'न्यायविशारद महामहोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयजी' महाराज के जन्मसंवत् के बारे में भिन्नभिन्न विधान हुए है जबकि उनका निर्वाण संवत् 1743 है, इसमें मतभेद नहीं है / निर्वाण संवत् के सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान् प्रो० श्री हीरालाल र. कापड़िया ने वि० सं० 1745 को प्राधान्य दिया है वह श्री उ० श्रीयशोविजय जी कृत 'प्रतिक्रमणहेतुगर्भ सज्झाय' के रचना संवत् 'युग-युग मुनिविधु' पाठ का अर्थ वि० सं० 1744 मानकर / किन्तु प्रो० कापड़िया के विधान के बाद वाले वर्षों में पूज्यपाद मागम प्रभाकर मुनिवर्य श्रीपुण्यविजयजी महाराज को 'प्रतिक्रमण हेतु गर्भसज्झाय' की वि० सं० 1743 मे लिखी हुई प्रति मिली। जिसके आधार पर अब प्रस्तुत निर्वाण संवत् 1743 मानने में आपत्ति नहीं है।' उ० श्रीयशोविजयजी के जीवन और कवन का परिचय अनेक विद्वानों द्वारा विस्तार से दिया गया होने के कारण यहां इस सम्बन्ध में प्रो० 1. अन्य उपलब्ध संवत् प्रादि की सामग्री की प्रालोचना के बाद 1743 संवत् की बात में मेरी भी सम्मति हैं। -प्रधान सम्पादक Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (42) कापड़िया रचित 'यशोदोहन' ग्रन्थ तथा 50 पूज्य. पं. श्री यशोविजयजी महाराज द्वारा सम्पादित तथा उनकी प्रेरणा से सम्पादित उ० श्रीयशोबिजयजी रचित ग्रन्थों को देखने का सुझाव देता है। ये ग्रन्थ 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति' द्वारा प्रकाशित हुए हैं / उच्चारण आदि के कारण जिन्हें संस्कृत भाषा कठिन लगती हो ऐसे धर्माभिमुख वर्ग की दृष्टि से सर्वसाधारण लोकभाषा में सिद्ध सहस्रनाम वर्णन छन्द' की रचना भी उ० श्रीयशोविजयजी ने की है / इस छन्द की सम्पूर्ण प्रति उपलब्ध नहीं हुई है। किन्तु जो भाग उपलब्ध है उसका प्रथम प्रकाशन 'श्रीमद् यशोविजयोपाध्यायविरचित गूर्जर साहित्य संग्रह' नामक ग्रन्थ में हुआ है। इसी के आधार पर जैनधर्म प्रसारक सभा (भावनगर) द्वारा प्रकाशित 'अर्हन्नामसहस्र-समुच्चय' नामक पुस्तिका में छपे हुए विविध स्तोत्रों के साथ इस सिद्धसहस्रनामवर्णन छन्द' को पुनः मुद्रित किया है। इस पूनम द्रण में प्रस्तुत छन्द के कर्ता उ० श्रीयशोविजयजी होंगे अथवा नहीं? ऐसी शङ्का की गई है। इसके विपरीत-प्रत्युत्तर' में 'यशोदोहन' ग्रन्थ में प्रो० कापडिया ने 'प्रस्तुत छन्द के कर्ता उ० श्री यशोविजयजी क्यों नहीं हो सकते ? यह बतलाया है। कापड़िया के इस विधान की प्रस्तुत 'सिद्धनामकोश' पुष्टि करता है। प्रकाशित 'सिद्धसहस्रनामवर्णन छन्द' में एक हजार नाम नहीं हैं यह ठीक है' किन्तु उसके प्रारम्भ में मङ्गलाचरण नहीं है, इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि "सिद्धनामकोश, के समान ही 'सिद्धसहस्रनाम वर्णन छन्द' में भी एक सौ अथवा उनसे अधिक शब्दों के समुच्चयरूप में विभाग किये हों......... / ' इस प्रकार यह कृति कितनी महत्त्वपूर्ण है, यह पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं / जब 'सहस्रनाम-स्तोत्र' की रचना हुई है तो उसके प्रयोग भी 1. द्रष्टव्य-इसका १३३वां पृष्ठ, प्रकाशक बाबचन्द गोपालजी बम्बई / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) होने ही चाहिये। इसी दृष्टि से मूल-स्तोत्र के अन्त में “प्रोंकारादि नमोऽन्त" पद युक्त प्रत्येक नाम के साथ चतुर्थी विभक्ति का एकवचन लगाकर नामावली को भी प्रकाशित कर दिया है / ऐसे स्तोत्र और नामावली के पुरश्चरण का भी विधान अन्य ग्रन्थों में निर्दिष्ट है तथा विभिन्न प्रकार की पाठ-प्रक्रियाएं भी वहां सूचित हैं। इनके बारे में हमने 'श्रीमदापदुद्धारकबटक भैरवस्तोत्रम् ग्रन्थ-की भूमिका में विस्तार से लिखा है, पाठकगण वहीं देखें। इस नामावली में संग्रहीत नामों का पाठ भी स्तोत्र के समान ही किया जा सकता है और पूजा के समय प्रतिमा पर अथवा यन्त्र पर प्रत्येक नाम के साथ पूष्प, फल आदि चढाने का भी विधान है। वैदिक सम्प्रदाय में केशर, कुंकूम, बिल्वपत्र, पुष्प, फल (गीले और सूखे). दक्षिणा अादि चढ़ाये जाते हैं। काम्य-कर्मों की सिद्धि के लिए परमात्मा की कृपा प्राप्त करने में प्रत्येक नाम के साथ बीज मन्त्र, मन्त्र एवं अन्त में 'अमुकं कायं साधय-साधय' ऐसे पद भी जोड़े जाते हैं / साधना के इच्छुक अपनी-अपनी परम्परा और गुरूपदेश के अनुसार प्रयोग करके लाभ उठाएं, यही कामना है। प्रात्म-निवेदन--विगत कुछ वर्षों से मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि मैं अपनी अन्यान्य प्रवत्तियों के साथ ही न्यायविशारद, न्यायाचाय, महोपाध्याय श्रीमदयशोविजयजी महाराज की कृतियों के प्रकाशन में पूज्य आचार्य श्रीयशोदेव सूरिजी महाराज की सत्प्रेरणा से सहयोगी बना और इसी के परिणाम स्वरूप स्तोत्रावली (हिन्दी अनुवाद सहित) तथा (दो उल्लासों पर श्रीयशोविजयजी महाराज द्वारा रचित टीका और उसके हिन्दी अनुवाद सहित) 'काव्यप्रकाश' का प्रकाशन हो चुका है / अब अन्य कुछ ग्रन्थों का प्रकाशन भी शीघ्र हो रहा है / 1. इसका प्रथम संस्करण समाप्त है। द्वितीय संस्करण रंजन पब्लिकेशन्स, दरीवाँ, दिल्ली-६, से छप रहा है / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) पूर्वोक्त ग्रन्थों में प्रधान सम्पादक के रूप में प्राचार्य श्रीयशोदेवसूरि जी महाराज ने विस्तार-पूर्वक भूमिकाएं लिखी हैं और मुझे भी साथ ही उपोद्धात लिखने में पूरा मार्ग निर्देशन किया है। ऐसी अपूर्व तन्मयता, शास्त्रनिष्ठा एव श्री उपाध्याय जी महाराज की समग्र कृतियों को प्रकाश में लाने की उत्कृष्ट अभिलाषा रखकर उसके लिए निरन्तर संलग्न रहने वाले पूज्य आचार्य श्री यशोदेवसूरि जी महाराज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारा पाठक-समुदाय भी परिचित होकर प्रेरणा प्राप्त करे इस दृष्टि से उनका संक्षिप्त जीवन चरित्र भी यहां देना मैं आवश्यक समझता हूँ / जो कि इस प्रकार है प्रधान सम्पादक आचार्य श्री यशोदेवसूरि जी महाराज जन्म एवं परिवार गजरात की प्राचीन दर्भावती नगरी प्राज 'डभोई' नाम से प्रसिद्ध है। इस ऐतिहासिक नगरी में वि. सं. 1672 की पौष शुक्ला द्वितीया के दिन बीसा श्रीमाली जाति के धर्म-परायण सुश्रावक 'श्री नाथालाल वीरचन्दशाह' के यहां पुण्यबती राधिका बहिन' की कोखं से आपका जन्म हुमा / मापका नाम . 'जीवनलाल' रखा गया। आपके तीन बड़े भाई और दो. बड़ी बहिनें थीं। आपके जन्म से पूर्व ही पिता परलोकवासी हो गए थे। पाँच वर्ष की आयु में माता का भी स्वर्गवास हो गथा / इस प्रकार बाल्यावस्था में मातापिता की छत्रछाया उठ गई थी, किन्तु ज्येष्ठबन्धु नगीन भाई ने बड़ी ही ममता से आपका लालन-पालन किया, अतः माता-पिता के प्रभाव का अनुभव नहीं हुआ। विद्याभ्यास तथा प्रतिभा-विकास आप पांच वर्ष की आयु में विद्यालय में प्रविष्ट हुए और धार्मिक पाठशाला में जाने लगे। नौ-दस वर्ष की वय में संगीत-कला के प्रति मुख्यरूपेण आकर्षण होने के Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 45 ) कारण सरकारी शाला और जैनसंघ की ओर से चल रही संगीत-शाला में प्रविष्ट हुए तथा प्रायः 6-7 वर्ष तक संगीत की अनवरत शिक्षा प्राप्त करके संगीत विद्या में प्रवीण बने / आपकी ग्रहण-धारण शक्ति उत्तम होने से दोनों प्रकार के अभ्यास में प्रापने प्रगति की। सुप्रसिद्ध भारतरत्न फैयाजखान के भानेज श्री गुलाम रसूल आपके संगीत-गुरु थे। आपका कण्ठ बहुत ही मधुर था और गाने की पद्धति बहुत अच्छी थी, अतः आपने संगीत गुरु का अपूर्व प्रेम सम्पादित किया था। जैनधर्म में पूजामों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इन पूजामों में सित्तर भेदी पूजा उसके विभिन्न. 35 राग-रागिनियों के ज्ञान के साथ आपने कण्ठस्थ कर ली तथा प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समस्त पूजामों की गान-पद्धति भी सुन्दर रागरागिनी तथा देशी-पद्धतियों में सीख ली और साथ ही साथ गाने की उत्तम प्रक्रिया भी सम्पादित की। विशेषतः नत्यकला के प्रति भी आपका उतना ही आकर्षण था, अतः उसका ज्ञान भी प्राप्त किया और समय-समय पर विशाल सभात्रों में उसके दर्शन भी कराए। इस प्रकार व्यावहारिक तथा धार्मिक शिक्षण, संगीत एवं नृत्यकला के उत्तम संयोग से अापके जीवन का निर्माण उत्तम रूप से हुआ और आप उज्ज्वल भविष्य की झाँकी प्रस्तुत करने लगे। परन्तु इसी बीच ज्ञानी सद्गुरु का योग प्राप्त हो जाने से आपके अन्तर में संयम-चरित्र की भावना जगी और आपके जीवन का प्रवाह बदल गया, इस में भी प्रकृति का कोई गढ़ संकेत तो होगा ही? भागवती दीक्षा और शास्त्राभ्यास . वि. सं. 1987 की अक्षय तृतीया के मङ्गल दिन कदम्ब गिरि की पवित्र छाया में परमपूज्य आचार्य श्री विजय मोहन सूरीश्वर जी के प्रशिष्य श्री धर्मविजयजी महाराज (वर्तमान प्राचार्य श्री विजय धर्म सूरीश्वर जी महाराज) ने पापको भागवती दीक्षा देकर मुनि श्री यशोविजयजी के नाम से अपने शिष्य के रूप में घोषित किया / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 46 ) ___इस प्रकार केवल 16 वर्ष की अवस्था में आपने संसार के सभी प्रलोभनों का परित्याग करके साधु अवस्था-श्रमण जीवन को स्वीकार किया। तदनन्तर पूज्य गुरुदेव की छाया में रहकर आप शास्त्राभ्यास करने लगे, जिसमें प्रकरण ग्रन्थ, कर्मग्रन्थ, काव्य, कोष, व्याकरण तथा आगमादि ग्रन्थ का उत्तम पद्धति से अध्ययन किया और अपनी विरल प्रतिभा के कारण थोड़े समय में ही जैन धर्म के एक उच्चकोटि के विद्वान् के रूप में स्थान प्राप्त किया। . बहुमुखी व्यक्तित्व आपकी सर्जन-शक्ति साहित्य को प्रदीप्त करने लगी और कुछ वर्षों में तो आपने इस क्षेत्र में चिरस्मरणीय रहे ऐसे मंगल चिह्न अकित कर दिए जिसका संक्षिप्त परिचय इस ग्रन्थ के अन्त में दिया गया है। आप जैन साहित्य के अतिरिक्त शिल्प, ज्योतिष, स्थापत्य, इतिहास तथा मन्त्रशास्त्र के भी अच्छे ज्ञाता हैं, अतः मापकी विद्वत्ता सर्वतोमुखी बन गई है तथा अनेक जैन-जनेतर विद्वान्, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रथम श्रेणी के राजकीय अधिकारी और नेतृवर्ग को उसने प्राकृष्ट किया है। आप अच्छे लेखक, प्रियवक्ता एवं उत्तम अवधान कार भी हैं। उदात्त कार्यकलाप जीवन के विविध क्षेत्रों में विकास-प्राप्त व्यक्तियों के विस्तृत परिचय के कारण आपकी ज्ञानधारा अधिक विशद बनी है, आपके विचारों में पर्याप्त उदात्तता पाई है तथा पाप धर्म के साथ ही समाज और राष्ट्र-कल्याण की दृष्टि को भी सम्मुख रखते रहे हैं / धार्मिक अनुष्ठानादि में भी आपकी प्रतिभा झलकती रही है तथा उसके फलस्वरूप उपधान-उद्यापन, उत्सब-महोत्सव आदि में जनता की अभिरुचि बढे ऐसे अनेक नवीन अभिगम मापने दिए हैं / जैन-जनेतर हजारों स्त्री-पुरुष प्राप से प्रेरणा प्राप्त करके प्राध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त कर पाए हैं। प्रष्टग्रहयूति के समय 'विश्वशान्ति जैन पाराधना सन' की योजना आपके मन में स्फुरित हुई और पूज्य गुरुदेवों की सम्मति मिलने पर बम्बई महानगरी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) में उसका दस दिन तक अभूतपूर्व प्रायोजन हुमा। उस समय निकाले गए चलसमारोह में प्रायः एक लाख मनुष्यों ने भाग लिया था। __इसके पश्चात् राष्ट्र के लिए सुवर्ण की आवश्यकता होने पर आप की ही प्रेरणा से 'राष्ट्रीय जैन सलाहकार समिति' की रचना की गई और उस समय के गृहमन्त्री श्री गुलजारीलाल नन्दा को बुलाकर उन के माध्यम से 17 लाख का सुवर्ण गोल्डबॉण्ड के रूप में अर्पित किया गया। अनन्य साहित्यस्रष्टा तथा कलाप्रेमी मुनिजी की विशिष्ट प्रतिभा से साहित्य और कला के क्षेत्र में उपयोगी संस्थानों की स्थापना हुई है। आपके मार्गदर्शन में ही 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति' तथा जैन संस्कृति कलाकेन्द्र' उत्तम सेवा कार्य कर रहे हैं और इसके अन्तर्गत चित्रकला निदर्शन' नामक संस्था भी प्रगति के पथ पर पदार्पण कर रही है। आपकी साहित्य तथा कला के क्षेत्र में की गई सेवा को लक्ष्य में रखकर जैन समाज ने आपको ‘साहित्य-कला-रत्न' की सम्मानित पदवी से विभूषित किया है। ___ भगवान् श्री महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव के निमित्त राष्ट्रीय समिति की जो रचना की गई उसमें प्रापकी विशिष्ट योग्यता को ध्यान में रखकर आपको 'प्रतिथि-विशेष' के रूप में लिया गया और इस समिति ने आपकी साहित्य-प्रतिभा, कल्पना दृष्टि, शास्त्रीय ज्ञान एवं गम्भीर सूझ-बूझ का यथासमय लाभ लिया / इसी अवसर पर प्रापने भगवान् महावीर के समस्त जीवन का सचित्र दर्शन कराने वाला 'तीर्थंकर भगवान् श्रीमहावीर' नामक ग्रन्थ तैयार करके प्रकाशित किया / लोककल्याण की कामना पूज्य श्री साहित्य के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट योगदान करने की भावना तो रखते ही हैं, साथ ही मुख्य रूप से वर्तमान पीढ़ी के लाभ के लिए तथा जैनसंघ के गौरव की अभिवृद्धि के लिए जैन संघ का सर्वांगीण सहयोग प्राप्त होता रहा तो चित्रकला और शिल्पकला के क्षेत्र में अनेक अभिनव सर्जन करने तथा कुछ न कुछ नई देन देने की भी भावना रखते हैं। जैनसमाज, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) जैन संस्कृति और जैन साहित्य का विदेश में भी गौरव बढे, जैनधर्म का प्रचार एवं पर्याप्त विस्तार हो और आने वाली पीढ़ी जैन धर्म में रस लेती रहे, इसके लिए पाप सतत चिन्तनशील हैं और तदनुकल नये-नये मार्ग भी प्रशस्त करते रहते हैं। पू० मनिजी के इस सर्वतोमखी विकास में आपके दादागुरु प० पू० प्राचार्य देव श्री विजय प्रतापसरीश्वरजी महाराज तथा आपके गरुवयं प०पू० प्राचार्यदेव श्रीधर्मसूरीश्वरजी महाराज की कृपादृष्टि ने बहुत ही महत्वपूर्ण योग दिया है। फलतः आपके वैदुष्य, धर्म-कर्म के प्रति अनन्य निष्ठा एवं उत्तम साधनासम्पन्नता से प्रभावित होकर पूज्य प्रा. श्रीविजय प्रतापसरीश्वर जी महाराज के आदेश तथा अनेक जैनसंघों की विनति को स्वीकार करके वि. सं. 2035 की मार्गशीर्ष शुक्ला 5 दि. 4-12-78 को भारत के प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई, गजरात के मुख्यमंत्री श्री बाबुभाई पटेल आदि अनेक विशिष्ट व्यक्तियों की उपस्थिति में प्राचार्य पदंवी प्रदान की गई तथा स्वयं प्रधानमंत्रीजी ने हजारों जनसमुदाय के बीच खड़े होकर आपके नामकरण को विधि सम्पन्न करते हुए आपका नाम 'श्रीयशोदेवसूरि' घोषित किया / ___ इस प्रकार प्राचार्य श्रीयशोदेवसूरिजी महाराज अपनी बहुमुखी साधनामों के द्वारा समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं। . प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन के समय भी उन्हीं के द्वारा भूमिका लिखने के लिए मैंने महाराज श्री से आग्रह किया था, किन्तु उनकी विभिन्न धार्मिक एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों में व्यस्तता के कारण उन्होंने मझे निर्देश दिया कि यह कार्य मैं ही सम्पन्न करूं / तदनुसार ही इस प्राक्कथन में उपयोग करने के लिए पर्याप्त सामग्री एवं मौखिक सुझाव भी प्रदान किये। एतदर्थ मैं आचार्य श्रीयशोदेवसरि जी का पूर्ण प्राभार मानता हूं। हमारा समाज इन अपूर्व रचनाओं के सौष्ठव से अपने जीवन को सन्मार्ग की अोर निरन्तर अग्रसर कर रहे, इस शुभकामना के साथ यह ग्रन्थ पाठकों के कर कमलों में प्रस्तुत है। -डा. रुद्रदेव त्रिपाठी 16-5-76 नई दिल्ली, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरितमहाकाव्यम् स्व० महोपाध्याय-श्रीमद्यशोविजयजीमहाराजाः Page #131 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्यायश्रीमद्यशोविजयगणिवर्य विरचितम् आर्षभीयचरित-महाकाव्यम् [ प्रथमतीर्थकर-श्रीऋषभदेवस्य चरित्रम् / ] -: प्रथमः सर्गः: (1) श्रुतस्थितेर्यः कमलालयो यशः, पुपोष विश्वे वृषभासनोचितः। तमःप्रमाथी पुरुषोत्तमः शुचि : महेश्वरः पातु स नाभिनन्दनः // . (2) स एव देवः किल भिन्ननामभि विविच्य लोकैस्समुपास्यते सदा / पृथक्पृथक्तस्य फलार्पणे पुनः, सहायतामञ्चति वासनाभिदा // पा-१ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् (3) तदागमाब्धेरुपजीव्य जीवां, परेऽपि गर्जन्ति घनाघना इव / तदीयवृष्टेरपि भूमिभेदतो, विचित्रशस्योदयसम्पदोक्ष्यते // 3 // .(4) जगत्यशेषस्तदुपज्ञमज्ञता,, निरासकृद्धर्मविधिः प्रवर्तते / न शार्वरध्वान्तहरं विना रवे रवेक्ष्यतेऽन्यस्य महोमहोदयम् // . (5) मरुत्प्रियो रुद्धमरुत्पथोऽपि स, क्षमाधनोऽपि प्रथितोऽपरिग्रहः / घनाघनाशोऽपि जलाशयोज्झितो, . न चिन्तनीयं चरितं महात्मनाम् // . (6) अधः सुधाकुण्डगणं सुरापगां, यदूर्ध्वमन्वेति च तिर्यगम्बुधीन् / वितृष्णभावोदितमप्यदो यशः, .. सतृष्णमत्यद्भुतमातनोति तत् // Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः (7) न जातु कोपात्कुटिलीकृते भ्र वौ, शरासने नैव शिरो न्यधीयत / स्वशक्तिमोघीकृतशेषसाधनः, प्रताप एवास्य ततान दिग्जयम् // (8) ग्रहेषु भास्वानिव कान्तिसम्पदा, ___ सदाशयो युग्मिषु सर्वतोऽधिकः / प्रजाहितार्थ कृतसारसङ्ग्रहो, बभूव भूमान् भरते स आदिमः // (6) सदा सुपर्वोल्लसितां घनाप्सरो विलासपूर्णाममरावतीमिव / जनैविनीतैः कृतसूनृवाह्वयां, पुरी विनीतामयमन्वशाद् विभुः // (10) धनस्य पूतौ धनदः प्रदत्तदृक्, सदाऽस्य दास्य-स्थिर एव वासवः / दिशामभूवन्नधिपाश्च रक्षका, न लक्षकार्येष्वपि ये प्रमद्वराः // Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्ष नीय-चरित-महाकाव्यम् (11) असङ्ख्यशक्तेस्त्रिजगद्विभोः कियत्, त्रिशक्तियुक्तत्वमुखेन वर्णनम् / गुणैरनन्तैः सहितस्य तस्य च, स्तुतिन शाड्गुण्यमुदीर्य पूर्यते // (12) अबाधयानेन तथा परस्परं, त्रिवर्गसेवा विधिवद् व्यधीयत / यथाऽस्य सार्वत्रिकवैरवारिणः, स्वतोऽपवर्गोऽप्यनुकूलतां ययौ // (13) यथा यथा नीतिमति करोत्यसौ, भवत्यनीतिः पृथिवी तथा तथा / द्वयोविरोधः परिणामतश्च नेत्यपूर्वमेतत्प्रभुराज्यकौशलम् // (14) प्रसिद्धजीवाभयदातृतागुणात्, ततो न भेजे धुसदां गुरुर्भयम् / कुतोऽन्यथा याति तदीयवाग्मिता- . गुणाभिभूतः स न कान्दिशीकताम् // Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयमः सर्गः (15) स्वकीयगाम्भीर्यहृतः पयोनिधिः, समुच्छलन् वीचिकशान्तताडनम् / अमुष्य सख्यं सृजतो मुखस्य कि, विधोः स्वसूनोर्न तनोति रोषणः // (16) वदान्यभावादमुना विनिजितो, धुसन्मणिः स्वर्गिमहीरहैः समम् / तथा व्यथामाप समुद्धृतां नतै र्यतो न दुःखं किल पञ्चभिः सह // ( 17) असङ्ख्यकालाजितदातृतायशो, हतं क्षणात्तेन वदान्यमौलिना। न सङ्ख्ययव व्यथयाऽपि पञ्चतामजीगणन् स्वामिति कल्पभूरुहाः // (18) न वेदना मे जनटङ्कदारणा दिति प्रभौ दातरि रोहणोऽहृषत् / विभज्य दद्यादयमथिने न मा मिति स्वतः स्वर्णगिरिस्त्वकम्पत // Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित्र-महाकाव्यम् (1) हरिः कणेहत्य निपीत-तद्वचः, सुधां तृणायापि न मन्यते बुधः / अतः कथं तत्र सुधा सुधावता, - रसेन साम्यं ननु सङ्गतं भवेत् // (20) व्रतं जिघृक्षु (क्षो)-र्भरतादिभूभुजां, कलाः पराः सादित-साधुचन्द्रमाः / ददाति या मूनि पदं भवस्य सा, कला किलकाभिमतास्य योगिनः // . (21)' शते सुतानां चिरकालमुद्धृतो, . विभज्य दत्तोऽप्यमुना क्षमाभरः / वते ततो नापचकर्ष स क्षणं, महाद्भुतं प्रत्युत वृद्धिमाप्तवान् / ( 22 ) कचच्छलाद् मुष्टिचतुष्टयाद्भवान्, विलुञ्चतु द्राक् चतुरः ऋधादिकान् / न पञ्चमी मुष्टिरतिप्रयोजने ऽत्यरक्षदिन्द्रार्थनया नया सताम् // Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ( 23 ) व्रतत्रपा मूनि न केवलं निजा, महात्मभिर्भक्तकृपाऽपि धार्यते / सुरोपरोधादिति रक्षितालका, जगाविदं मुष्टिसमस्यया विभुः // (24) प्रभूत्तमाङ्गस्थितिपावना स्म मा, पतन्निमे भूरजसीति भावयन् / धृतान् स्ववस्त्रे निदधौ पयोम्बुधौ, शचीपतिस्तेन विलुञ्चितान् कचान् // ___( 25) असौ धृतध्यानसुखस्थिरासनो, जटावलीमण्डनमण्डितो बुधैः / अलक्ष्यताध्यात्मगुणः फलैंग्रहि- लतान्वितः कोऽपि तपोमहीरुहः // __ (26) अभूदसावुन्नतधर्ममेघभाग, | व्रतग्रहादादित एव कि विभुः / अटाटयमानामिति मूनि तज्जटा मुदीक्ष्य साक्षादुदनायि योगिभिः // Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित्र-महाकाव्यम् ( 27 ) वृषाङ्कमेकं किल जाह्नवी श्रिता, श्रुतेति वार्ता सकलेऽपि मण्डले / वृषाङ्कमेनं किमु तज्जिगीषया, कलिन्दकन्याऽपि जटात्मनाऽभजत् / / . ( 28 ) समाधिसारैः समताकरग्रहे, __ न देहगेहे धवलीकृते किम् / तदंसयोरुल्लसिता कचावलिः, परिस्फुरत्तोरणतामुपाययो / __ . ( 26 ) व्रतोत्सवे कुन्तलसन्ततिविभोः, शिरःस्थिता कज्जलमञ्जुलप्रभा। स्वयं समुत्तीर्णनवोदधेः क्वचिद्विलग्नसेवाललता श्रियं दधौ // (30) द्विषां दृशोरुग्रविषं शुभस्पृशां, शरीरिणामणमदाञ्जनं धनम् / जटाऽस्य रेजे बहुधूमधोरणी,. तपः कृशानोर्दुरितद्रुधूमरी॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ( 31 ) बभूव रत्नत्रययोगतो व्रते, प्रभुर्घरत्नाच्चतुरश्चतुर्गुणः / नृपः सहस्र रिति युक्तमुत्तमैश्चतुर्गुणैरंशुभिरन्वगम्यत // ( 32 ) अमी हि कच्छप्रमुखाः सुखासिका मविस्मरन्तः प्रथमं प्रसादजाम् / अथापि नः स्तात् प्रभुतुल्यशीलतालताफलप्राप्तिरिति व्रतं ललुः // ( 33 ) अमी चतुर्मुष्टिकलोचमीशितः, पितुः प्रजानामनुचक्रिरे सुखम् / परीषहाहेर्जठरैक-जन्मनो; विनिग्रहे नो गरुडायितं पुनः // ( 34 ) रथाश्वकन्येभधनादिभिर्जन न दीयमानरुपयुक्तमीशितः / सुरद्रुवदुर्लभदर्शनेऽत्र तै न च प्रतीता सुलभान्नपात्रता // पा-२ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 35 ) अनेन में वार्षिकदानवर्षिणा, न वास्तु वस्तुं भुवि किञ्चिर्पितम् / इतीव भिक्षोपननाम नाम न, प्रभुं श्रितं भिक्षुदशां समत्सरा // . ( 36 ) अहो परब्रह्मनिरुध्यमानसा, विनाशवृत्ति स तदाऽन्वभूद् विभुः / इतीव कच्छप्रमुखास्ततः पृथग, बभूवुरध्वति सतीर्थ्यतां गताः // .. ( 37 ) द्विधाऽप्यभक्तः प्रभुसङ्गवञ्चितै बुभुक्षितैस्तैर्वतमेव भक्षितम् / जनावनं मुक्तिपथं विहाय ते, वनं भवाध्वानमिव प्रपेदिरे // (38) व्यचिन्तयंश्चेदमहो तनोधनो पवासवासीभिरजस्रतक्षणम् / . यथा मुनीनां व्रतरक्षणं तथा, 'न दुष्करं चित्तनिरोधलक्षणम् // Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ( 36 ) विलीयते हन्त कदाचिदागता, परा विपत्तौष्टिक-शान्तिकादिभिः / सदापतत्क्षुद्विपदो निवारणं, न मूलमन्त्रादिकमस्ति किञ्चन // (40 ) गुणा विवेकप्रमुखाः कुकर्मणा, बलीयसौदर्यहुताशने हुताः / कुकोत्तिमूर्तीर्दधतेऽत्र भस्मसाद्भविष्णवः कस्य न सञ्चरिष्णवः // ( 41 ) सुवृत्तसङ्गीतमदान्धमानिनी, प्रणीतचेतोविकृतिक्षुदुद्भवाः। क्रमाद् बलाढ्यास्तदयं कलाभृतः, कलावृतौ दर्शयतीव दर्शताम् // ( 42 ) जगद्धितार्थ जलराशिसम्भवं, व्यधायि कण्ठे गरलं स्मरद्विषा / ___.. न कोऽपि देवः स कृपालुरस्ति यः, समुद्धरेत् क्षुद्विषमङ्ग सङ्गतम् // Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 43 ) पुरं प्रविश्याक्षकपाटपाटना . पुरस्सरं लुण्टितसारसम्पदः / करोति यः क्षुत्कटकस्य निग्रहं, ____ तमन्नदेवं समुपास्महे वयम् // ( 44 ) ददाति यो नावसरेऽन्नमथिने, प्रदाह्य चिन्तासु परं प्ररोदयन् / / स्वयं चितायां ज्वलतः स्वरोदकात्, - स बद्धमुष्टिम॒तकाद् विशिष्यते॥ . ( 45 ) वनीपकानां भृतया यदाशया, यशः प्रसूते समयेऽन्नदायकः / समागतादेव गुणान्निदानतो, भवेत्तदाशाभरणकलोलुपम् // भवेन्न तुङ्गानतमूर्धनामिनी, व्यथोदरव्यन्तरनिर्मिता यदि। . किमर्थमर्थ्यन्त इमेऽतिभीषणाः, कृपाणतुल्याः कृपणास्तदा जनः / / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ( 47 ) अपि प्रबुद्धरुदरार्थमथिभिः, समं धनान्धः क्रियते दुरोदरम् / न हार्यमाणं छलपाशपातनाद्, वृथा सुवर्ण निजवृत्तमीक्ष्यते // (48) कुठारिकामानकपाटपाटने, विलज्जता नाट्यनटीपटीयसी। विचित्रवंशस्थितिचित्रलुम्पने, . मषीसखीयं जठरोद्भवा व्यथा // ( 46 ) इमां जगद्भक्षणराक्षसी सुधां, निरोद्ध मेको भगवान् प्रगल्भते / अलाभलाभाजितदैन्यविस्मयव्यपेतचेताः स हि योगिपुङ्गवः // (50) यथा करिष्यत्ययमेष नः प्रभु . स्तथा करिष्याम इति स्वनिश्चयम् / वयं तु हित्वा न परं जगद्गुरोः, स्वचेतसोऽपि प्रब्रलं त्रपामहे // . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् (51) वसुव्ययादाददतेऽप्यसुव्ययाद्, .. यदाश्रवस्थर्ययशोमनीषिणः / तदेव चेदात्मकरागतं हृतं, / तदा किमस्थाप्यत नो बुभुक्षया // (52) पुरा न पृष्टो नियमस्थिति प्रभु ते तु पृष्टोऽपि स नाह किञ्चन / करोति किं लक्षणया न साम्प्रतं, - गृहे गतानां भरतो व्रतोत्सवम् // . ( 53 ) ततो विनीतास्त्वटवीयमेव नः, कुटुम्बिनोऽमी तरवो नवोदयाः / मृगाश्च मित्राणि मृगारिदारितद्विपेन्द्रचर्माणि च वस्त्रसञ्चयाः // ( 54 ) निकुञ्जगुञ्जन्मधुपालिलालित द्विजस्वररस्त्विह तूरपूरणम् / . प्रभातसम्पादितमङ्गलारवाः, शृगाल-बालाश्च भवन्तु बन्दिनः // Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः (55) प्रदर्शयन्तामिह नृत्यपात्रता, सुमोदिताः पल्लवसङ्गता लताः / कुतुहलाच्छेलतटीमुपेयुषां, * मध च मत्तद्विरदा रदारादि / ( 56 ) सृजत्वसौ बालमरालकूजितः, ...... करक्वणत्कङ्कणनादसादरम् / स्ववीचिभिर्वीजितचारुचामरा, . ... सुरापगा वारविलासिनीरसम् // ( 57 ) त्रिलोकभापि हि या स्वयं धृता, जटैव निश्छत्रधिया धिनोतु सा। तदेकदा सत्त्वयशः शिरःस्थितं, कथं नु नैतां विशदीकरिष्यति // ( 58 ) प्रयातु पाटीर[र]जोवजोचिती मिहाङ्गसंगि सदैव भस्म नः / 'प्रदत्तसङ्कल्पसुखाय कल्पता, निशीथतल्पाय शिला किलाश्मनः॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 56 ) अमी इति स्वान्तसमीरचापल. प्रयुक्तयोगप्रभुताहतातयः। भवच्च कं योगमतेऽपि योग्यतां, जिनावधानेन तपोभूतो दधुः // (60) चिरान्निबद्धोरुजविनिर्मित प्रवालमूलाम्बुफलादिवृत्तिभिः / वियोगिभिस्तरुपगङ्गमीदृशैः, स्थितं सरङ्गरिव जङ्गमर्दुमैः // . ( 61 ) विनाऽपि तैविश्वविभुस्तु केवलः, सुरद्रुमः शेषमहीरुहैरिव / विदिद्युते सौरभमुगिरन् यशस्त्रिलोककुक्षिम्भरिपुण्यपुष्पितः // ( 62 ) ततान धूमायितमादिमस्तनौ, - यदाकुलत्वात्त विभोः परीषहः / फलोदये ध्यापुरसालभूरुह स्तदा ययौ दोहदधूपधूमताम् // Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 17 ( 63 ) तनुं कृशीकृत्य हृताणुसञ्चया, कया दिशा क्षुत्कृतमन्तुरीशितुः / यतस्तदा तैरणुभिः परिस्कृ (कृ) तं, बभूव पुण्याङ्गममुष्य मेदुरम् // ( 64 ) शशाक नैव क्षुदमुष्य बाधितुं, दिगम्बराशासहकृत्वरी धियम् / इमां विबाधेत हि मोहवासना, ___ प्रभोर्बबाधे प्रतिसङ्ख्ययैव सा // ( 65 ) छलादुरीर्थ (दीर्य) क्षुधमान्तरद्विषां, प्रति त्रिलोकोपतिमस्त्रमोचनम् / अधीरतापर्यवसायि नाभवन, _ मनीषितस्फूत्तिमदात्मकीर्तये // (66 ) प्रभोस्तितिक्षामुपवीक्ष्य तादृशीं, क्षुधाऽपि सम्यक्त्वमिवाध्यगम्यत / अरक्षि साक्षीकृतविश्वचक्षुषा, क्षुधोऽनुबन्धः परतो न वत्सरात् // Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्षभीय चरित-महाकाव्यम् ( 67 ) अथ प्रभुः पारमहंस्य-वासना. . विशीर्णनिःशेषविकारसारधीः / भ्रमन्ननेकेषु कुलेष्वसम्भ्रमा दनाप्तभक्षप्रसरत्तपोबलः // . ( 68 ) विशिष्ट पात्रप्रतिलम्भतो नृणा, प्रमोदबाष्पैर्दुतलोचनं पुरा। गृहाद् विनिर्यन्नकृतप्रतिग्रह स्ततश्च शोकाश्रुभिरिष्टवञ्चनात् / / - (66) प्रतिग्रहेणानुगृहाण मेदिनी, परोपकाराद् विमुखोऽत्र मा स्म भूः / जनस्य भक्त्या ललितालकच्छलादितीव कर्णान्तमुपेत्य शिक्षितः॥ (70) दिदृक्षुरीर्यासमितिच्छलाद् रसा तले प्रविष्टानपि कर्मवैरिणः / / तपोचिषा भानुरिवातिदुस्सहो, जगद् दगासेचनः (तः) सुधांशुवत् // Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 16 (71) दधत् परं सर्वसहिष्णुतागुणं, वसुन्धरातोऽपि वसुन्धरागुरुः / महानिलादप्रतिबन्धसन्धया, विशेषवान् नित्यवशीकृतानलः // ( 72 ) विशारदः शारदवारिदृप्तता निवारिणीमाकलयन् प्रसन्नताम् / अनन्तपद्मः परिबिभ्रदुच्चकरलेपत्तां पद्मदलातिशायिनीम् // (73 ) अभीष्टभूयः सुमनोरसो व्रजन्, पुरात् पुरं भृङ्ग इवाब्जमब्जतः / पुरन्दरद्रङ्गमदोग्रताहरं, . पुरं गजैकोपपदं व्यभूषयन् // ( 74 ) स तत्र गत्वा रुचिरं गृहे गृहे, प्रदीयमानं द्रविणाद्यनाददत् / अकालकोलाहलसकुलं नभो, न लाति ने[ते]ति जनैरकारयत् // Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 75 ) विभोः सः हेलोद्दलिताघपर्वत व्रजोच्छलत्पुण्यमहापयोनिधेः / प्रवृद्धवेलोजितगजितभ्रमं, ततान संक्षोभितपौरयादसः॥ (76) प्रवर्धमानं विनिरुद्ध दिग्गणं, गुणं गुणित्वेन नभो बभार तम् / कथञ्चिदेवोपहितत्वमस्पृशन्, .. ममौ न स श्रोत्रशते तु देहिनाम् // (77) यशोनिधिः सोमयशःसुतोऽथ तं, निशम्य कर्णेन स कर्णपुङ्गवः / किमेतदित्याहितसम्भ्रमो निजं, नभोलिहं सौधगवाक्षमागतः॥ (78 ) बुभुत्सुरेतस्य निदानमादितो, विनिक्षिपन्नक्षि विदिक्षु दिक्षु च / भ्रमन्तमन्तःकरणः सहाङ्गिनां, सम्भाग्यवन्तं भगवन्तमक्षत // Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ( 76 ) विना न हर्षाश्रुभिरक्षिवञ्चितं, __मुखाम्बुजं नापि विकासमन्तरा / वर्णविना नो पुलकावगुण्ठनं, कराद् ऋ(वृ)ते नाञ्जलिबन्धसन्धया // ( 80 ) पदोः प्रमादोऽभिगतो न निर्ममे, न च त्वयि स्वादुगिरोऽपि निर्ममे / धृता स लक्षम्या न निजा न तत्यजे, . न ते नमोऽकारि न दुष्कृतत्यजे // ( 81 ) अयं जनस्त्वां न च नोपतिष्ठते, स्वशक्तितो भानुमिवार्धपूजया। कथं तुदेन्नानुचितं च कण्टक. स्तथाप्ययं ते भृतकाननुग्रहः // (82) गहाङ्गणं नो निजपादपङ्कज- . स्त्वयाऽर्चयित्वा यदि नीतमय॑ताम् / अशौचसम्भावनया प्रतिग्रहात्, तदा पुनस्तर्कमलम्भि चर्च्यताम् // Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 83 ) अथापि पश्याभिमुखं मुखेन्दुना, दिवापि विश्राणित-कौमुदीमहः / अनाद्यप्रज्ञेषु निवेदिताशयो, भृशं भवास्मासु कृपापयोनिधिः // (84) ' मनस्विनाऽजो यदि बोध्यते जनो, निजाशयं न क्षतिमेति तावता। कृपालता प्रत्युत तस्य पीनता, . फलद्वयेनैकपदेऽधिगच्छति // (85) गृहेषु सर्वोत्तममस्तु वस्तु नः, कृतार्थमंद्वियसेवनात् तव / गिरोत्तमणेन सुधां प्रदाय नस्त्वयाधमर्णत्वमपि व्युदस्यताम् // ( 86 ) इति ब्रु वाणैर्मनुजैरितस्ततो, वतं विनीतैरभिनीतिभक्तिभिः / मतङ्गजां मत्तमिवाभिसान्त्वने, सगर्वगन्धर्वकलाविलासिभिः // . (कुलकम्) 1- वंक्रयादयश्च (उ० सं०) इत्यनेन साधुः। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः (87) निरीक्ष्य तं चेतसि स व्यचिन्तयत्, किमेष भास्वान् न स यत्प्रतप्तभाः / निशाकरः किं न स यत्कलङ्कवान्, . सुरप्रभुः किं न स भूरिरन्ध्रदृग् // (88) स्मरः किमङ्गी न स भस्मयद्भव धग्निजं तत्किमयं सुरद्रुमः / न सोऽपि यस्माद् मितकामितप्रदः, प्रदत्तविश्वामितमुद्गरस्त्वयम् // (86 ) किमेष विष्णुर्न स यज्जनार्दना भिधो हरः किं न स यन्महानटः / किमेष वेधा न हि सोऽपि यज्जगद्विनिर्मिती व्याकुलधीः कुलालवत् / / (10) किमेष मेरुन यतोऽतिकोमलो, __ महाद्विपः किं न यतो मदोज्झितः / तदेष चिन्तामणिरस्तु वस्तु स___ न चिन्तया यद्रहितो ह्ययं मणिः // विाना Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् (61) बहिर्मह[:] किञ्चिदगोचरो गिरा, पटावृतस्येव महामणेरहो। अमुद्रितं स्फूर्जति मुद्रमास्य यत्, तदंशतः स्युः शतमहिमालिनः // ( 62 ) विचार्यते स्वोपमिति स्थलं यथा, कथा समाये (ने)षु विशीर्यते तथा / वजन्ति बन्धं विशरारुधर्मकाः, करे गृहीताः सिकताः कियच्चिरम् // ( 63 ) अमुष्य संशुद्धगुणाब्धिमक्षमो, 'विगाहितुं चित्तविचारणोडुपः / कलङ्कमुक्तं यदुशन्ति निष्कलं, तदेव धामेदमुदीतमादिमम् // (64) बहिः प्लवन्तामिह भूरिकल्पनाः, स्पृशन्ति ता नास्य गुणं मनागपि / अनेकमायाजलचक्रचुम्बनाद, रसो न गृह्यते हि तात्त्विकाम्बुनः // 1- वंक्रयादयश्च [उ० सं०] इत्यनेन साधुः / ह्रःद्यः उभयत्र तिवानयं शब्दः / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ___ 25 25 (65) अलक्षिताभ्यन्तरलक्षणः प्रभुः बहिर्गुणैरेष तु तैर्न नूयते / पुरप्रतोलीपरिखादि वर्णने, न वर्णितः स्यात् खलु तत्त्वतो नृपः // (66 ) अदस्तुलाभृत्परदेवगर्हणा प्यनर्हणामञ्चति काव्यशिल्पिना / विचारकृद् व्याहतिमीक्षतेऽत्र कि, न सिद्धचसिद्धयोः स्फुटनिग्रहस्थलाम् // ( 67 ) तपोनिधिः सत्यविधिश्चिदर्यमा, .. चरित्रचूडामणिरेष शाश्वतः / इति प्रतीतिर्यदि योग्यतां व्रजे. दमुत्र वित्रासितभावशात्रवे // (68) अमूदृशं रूपमनुत्तरं पुरा, - मया दृगातिथ्यमनायि तायिनः / अमू समूढामृतपानलालसे, कुतोऽन्यथादृष्ट इवात्र धावतः // Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 66) अचिन्त्यशक्तिः कुरुते क्षणान्नवं, पुरातनं प्रेम दगेव देवता। विनैव गोचकृतां व्यवस्थितं [ति], मनोरथं वाहयति स्वसम्मुखम्॥ ___(100 ) विलोकनादेव गरीयसां गुरो बभूव मे क्षीरसमुद्रमज्जनम् / अमुद्रमुद्वयजितसंस्तवस्मृते रथास्तु पीयूषपयोधिमग्नता // . ( 101 ) अपोहमूहं च किलास्य तन्वतो, . गतस्य सम्मोहमिति क्षणं हृदा। स्ववासनानुद्भवयामिनीव्यये, बभूव जातिस्मरणारुणोदयः // ( 102 ) स तेन पूर्व जगदीशसंस्तवं, मुमुक्षुमार्ग च यथास्थितं विदन् / इदं हृदन्तनिदधे नृपात्मभू विचित्रतत्कार्यचरित्रविस्मितः॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः __ ( 103 ) अवर्षि वर्ष विषमैः परीषहै ___ रमोघधाराधरतुल्यकर्मणा / न बिन्दुरेकोऽप्यलगच्चयैरलं, समाधिसच्छत्रमिदं विभो स्तुमः // (104 ) न संविदानोऽपि परीषहद्विषां, चमू जिगीषुविधिमाह भैक्षगम् / उदात्तशान्तत्वमिदं जगत्पतेः, समाधिहारेऽञ्चति नायकश्रियम् // ( 105 ) स्वयं तपोभिः प्रबलः प्रतप्यते, तनोति तापापहति च मादृशाम् / अयं गुणः किं जगृहे भवच्छिदा, __ सविद्युतः शान्तदवात् पयोमुचः // ( 106 ) मदर्थसंरक्षितदानकौशल प्रजापरं कौशलमध्यजीगपत् / न संनिधौ वा व्यवधौ निजं जनं, विभुविभक्तव्यमपेक्ष्य वञ्चयेत् // Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 107 ) अलक्षितस्वार्थगतिः प्रयत्नवा निहागतोऽसौ मम बोधिसिद्धये / रवीन्दुमेघोपमया महात्मनां, परोपकाराय विनिर्मितं जनुः // . . ( 108 ) अमी जनाः स्वामिसुखाय नेशते,. . - यदन्नकाले द्रविणादिदायिनः। विवेकनेत्रावरणत्वमीयुषी, ततः क्वचिद्भद्रकलाऽपि दोषभाग् // ( 106 ) गुणान्वये भद्रकतातिशोभना, तमन्तरेणानुकरोत्यशोभना / सुधांशुयोगे रजनीं स्फुटोदयां, समुद्धतध्वान्तमयों तदत्यये // ( 110 ) फलं विना यामधिकार्पणादपि, स्थले जलं स्वादु यथा न लेभिरे / अमी समीहाविषयां सृजन्तु तां, सुपात्रदानकविधेरभिज्ञताम् // Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ( 111 ) अलं परासङ्गतिचुम्बिचेतसा, कथं मयीदं घटतामिहागते / अभूयत स्वप्नमहीरुहैस्त्रिभियंदुद्गता स्वप्नमहीरुहाङ्कुरैः॥ ( 112 ) ध्र वोपकार्येऽप्युपकारिता विभोः,' प्रदर्शिता स्वप्नगणेन या मयि / क्व भेददृष्टौ घटतां विपर्ययादभेदसृष्टावपि सा द्वयागतेः॥ ( 113 ) प्रभुप्रभावादथवा न दुर्घट, किमप्यदो भक्त्युचितप्रदो हि सः। न नाम तद्दानकलास्वधोतिनो, मरुद्गवीकामघटामरद्रुमाः // ( 114 ) कपालनाशात्कलशक्षये यथा, . पुरातनन्यायमताभिमानिनाम् / विभोरथ स्वाङ्गणभूषणे तथा, क्षणं विलम्बोऽपि न मे प्ररोचते // Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 115 ) असाविदं ध्यायति यावदात्मना, जगद्विभुस्तावदभूषयद् गृहम् / विनीतभृत्या नवमागतं घटेस्तदैव तत्रेक्षुरसं डुढौकिरे // ( 116 :) प्रदेयचित्तस्वमनोविशुद्धता, तदा त्रिवेणीमिलनोपमा विदन् / प्रकर्षिहर्षाश्र भरप्लुतेक्षणो, . जगत्प्रभुं भूपतिसूनुरूचिवान् // .( 117 ) गृहाण भिक्षां गतदूषणामिमां, विमानवासिप्रणतांहिपङ्कजः। तवास्त्विदानी प्रसरत्करप्रभाभरैरिदं कुङ्कुमपङ्किलं नमः॥ ( 118 ) . इतीरिते भूमिभुजस्तनूभुवा, जगद्विभुर्दक्षिणहस्तमूचिवान् / त्वया यथा दानकलोपदशिता, प्रदर्शनीया ग्रहणेऽपि सा तथा // Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ( 191 ) परोपकारार्थमधःस्थितिः करा ___ न्न दातुरेतहि मनस्विहिता। अधःस्थितैरेव फणाभृतां फर्ण. वसुन्धरा भूरिधराधराधृता // . ( 120 ) विधाय वामं प्रति वाम्यवासनां, त्वया न हेयावसरौचिती निजा। रणे जयं ह्यष ददौ भवान् मुखं, चकार दानादुपशान्तनिःस्वताम् // .. ( 121 ) गुणग्रहात् प्रेम मिथः समुल्लसे न्न दोषदृष्टिस्तु सुखाय कस्यचित् / विवादभाजोः करभामंताशिनोन क्लुप्तयुक्तिः कलहं व्यपोहति // ( 122 ) इमां स शिक्षामुपलब्धवान् गुरोः, __ करोऽथ सद्यः प्रससार दक्षिणः। पयः पयोदः सरसीव धारया, . ववर्ष तत्रेक्षुरसं नृपात्मभूः / / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 132 ) . क्रमोच्चभूर्दातृमनो गिरेरिव, स्फुटव तत्पुण्यपटी गृहच्छटा / शिखेव तत्कौशलवारिधेः पृथू, रराज धारक्षुरसी विभोः करे / .( 124 ) समुत्थितांहः पुरुषोत्तमस्य खात्, सरित् पपाते त्युचितार्थवित्तदा / विभोः करोत्थेक्षुरसापगा ययौ, प्रवृद्धपूरेण किमूर्ध्वमम्बरम् // ( 125 ) विभोः करस्थेक्षुरसं नभोलिहं, * प्रकारकोदधिशङ्कया विधुः।। स्वतातबुद्धे रविष्यदञ्जसा, तदैव नामस्यत चेद् घटोद्भवम् / ( 126 ) विधोः सुधायां मधुरो रसः किया निति स्वमाधुर्यगुणेन गवितः / विभोः करस्थेक्षुरसः शिखामिषात्, ' कुतूहली कि गगनं स्म गाहते // Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 3 ( 127 ) मुदोचितं दास्यति यस्तपस्विने, क्रमप्रवर्धिष्णुफलं स लप्स्यते / इतीव तादृक् शिखया समन्विता, प्रभोः करस्थेक्षुरसः स्म भाषते // ( 128 ) जिनेश्वरस्तेन रसेन पारणं, जगद्विपद्वारणमाद्यमातनोत् / समुल्ललासास्य तनुस्ततः प्लुताः, पयोधरेणाभिनवेन भूरिव // ( 126 ) अभूद् विभोः शान्तरसः प्रसृत्वर स्ततो रसाद्भक्तिरसस्तु दायिनः / तथा परेषां हृदि विस्मयाभिधो, रसो रसेनेति मृषा न लोकगीः // ( 130 ) आघ्नन्तो दाग दुन्दुभीन् देवसङ्घा __ श्चेलोत्क्षेपं चापि गन्धाम्बुवर्षम् / श्रेयांसस्य व्यञ्जयामासुरुच्च रातन्वाना वेश्मनि स्वीयहर्षम् / / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 131 ) उज्जागरप्रशमसागरनाथदत्त सम्यक् कचं द्रवति किं शुचिधिष्ण्यसृष्टिः / आनन्दमेदुरसुरैविहिता तदानीं, श्रेयांसमूनि निपपात च पुष्पवृष्टिः // . ( 132 ) सार्धत्रयोदश-सुवर्ण-सुवर्णकोटीः, . कोटीरहीररुचिरं जितदिग्गणास्ते / श्रेयांसधाम्नि ववृषुः प्रभुभक्तिशैलक्रीडातटीप्रतिभटीकृतसन्निवेशाः // ( 133 ) ऐक्षवं.रसमिनाय ददानो, लब्धवान् यदसि काञ्चनसिद्धिम् / तत्त्वमेष विबुधो विबुधत्वं, नाम कोशनिहितार्थकथं नः // ( 134 ) साधुदानविधिवेधसि जाते येन भूरियमशोभि यशोभिः / तोषितेन विभुना परितुष्टा,. तुष्टुवुस्तमिति देवनिकायाः॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ( 135 ) विश्वेश्वरोऽपि विहरंस्तदुपज्ञज्ञान धर्मज्ञलोककृतसंयमगात्रयात्रः / दीक्षादिनाद्विगलिते शरदां सहस्रो, घातिक्षयाद् विमलकेवलमाससाद // ( 136 ) भविककमलोल्लासं कुर्वन्निरस्ततमोभरः, प्रसृमरदृशां मार्गामार्गप्रदर्शनतत्परः। अकलिततपस्तेजोराशिदिनेश इवोदितो, भुवनविजयस्फीतां भेजे ततः स यशःश्रियम् / इति न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयगणि - विरचिते "आर्षभीयचरिते महाकाव्ये" . . प्रथमः सर्गः। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयः सर्गः ( 1 ) अथ साधुरिव स्वमानसं, भरतो भारतवर्षमन्वशात् / विभुकेवलसम्भवक्षणो___ऽवनमच्चक्रबलाज्जितक्षितिः // . ( 2 ) युधि योधयशःपयोव्रतो विलसत्कोशगहाद् विनिर्गतः / प्रविशंश्च पुरं परस्य यत्करवालोऽजनि योगसिद्धिमान् // ( 3 ) गजकुम्भभवास्त्रपायिनः, परतेजोवडवाग्निशोषिणः। . अगमन् यदसेर्यथा भयं, जलराशेर्न तथारिभूभुजः॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ( 4 ) यदसिभ्रमतोऽतिमूच्छिताः, पवनोद्धान्तलता[तां]वने द्विषाम् / उपवीक्ष्य तरङ्गमङ्गना, जलधौ खड्गिविषाणमद्रिषु // (5) भुवि जाग्रति चिन्तितार्पणा चतुरे यस्य करे ग्रहोदरे। सुरभूमिरुहाः स्म शेरते, गतचिन्ताः सुरशैलकन्दरे // तरलान् युधि वारियाचका नपि कुर्वन्नहितान् सुधापिबान् / मनुजाधिपतिर्न चिन्तिताधिकदः कर्मनुजैरचिन्ति यः // (7) अभिधावति यस्य चातुरी, विनतायास्तनये महानये। अलभन्त न पन्नगाः पदं, भुवि पाटच्चरपारदारिकाः // Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् करवाल-करालताधरो, मुखमाधुर्यवशीकृतावनिः / द्विषतां सुहृदां च योऽभवद्, विषपीयूषपयोमहोदधिः / / . (8) अभवत् तपना'शुसंज्वर क्षुच्च'...भय शोक विह्वला। यदरिप्रमदावियोगिनी, धृतपञ्चाग्नितपोव्रता वने // (10) अहरन् रजतादि यद्विषां, सदनेषु प्रकटं वनेचराः। न तु गौञ्जगणभ्रमान्महा- . __ मणिवातायनमौक्तिकस्रजः // ( 11 ) असुहृत्प्रमदापारिभि ववधे यस्य यशोलतोचितम् / यददीप्यत तैर्महोऽनलः, प्रबलस्तत्तु चमक्रियास्पदम् // 1. अत्र कश्चन पाठः खण्डितः। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 39 ( 12 ) अधिकं स्म विदन्ति नारयो, . ज्वलनं यत्प्रबल-प्रतापतः / दवह्निघने ततो भिया, प्रविशेयुः कथमन्यथा वने // - ( 13 ) लघुतलवदिन्दुमण्डलं, ___यशसो यस्य पुरः प्रतीयते / इति युक्तिमदम्बराङ्गणभ्रमणं तस्य मरुत्प्रचारतः // (14 ) विधुरङ्गति पीनफेनतां, प्रचलद्वारिकणन्ति तारकाः / तरणिस्तरुणोऽपि यद्यशोजलधौ विद्रुमंकन्दवृन्दति // ( 15 ) गलितैनिजदृग्गलन्तिका सलिलस्तापवतो वियोगतः / यदरिव्रजसुभ्र वामभूत्, . कुचशम्भोः स्नपनं निरन्तरम् // 1. 'प्रयोगतः इति स्वयाठान्तरम् / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 16 ) यदिनिजदानवारिणा, सतता सिक्तकरैः सुलक्षणः / क्षितिभन्महिमासहिष्णुभि... विधृता किं न निजानुकारिता // . ( 17 ) अमिता वयमत्र सप्त ते, / गगना दिति संहतक्रमः / / रविसप्तिजयादुदासित... स्तुरगैर्यस्य दिशो ललङ्घिरे // ( 18 ) तरसा न महारथस्य कि, : .. . विजयन्ते स्म मनोरथान् रथाः / सुकृतकमुखेक्षिणः फले, .. सुकृतेनैव पुरस्कृताः स्वयम् // ( 16 ) युधि यस्य पदातयो भटा, .... - व्यलसन् वर्मपयोदवेष्टिताः / कुलिशाक्षतशौर्यनिर्जर क्षितिभृज्जङ्गमङ्गसन्निभाः / / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ( 20 ) मदनो निजरूपसम्पदा, विजितो येन यथावपत्रपाम् / भजते स्म स इत्यदृश्यतां, अपमानो[णो]ऽपि निजेन चेतसा // ( 21 ) अजनिष्ट महान् पराभवो, हठतश्छत्रममुञ्चतोऽप्यहो। युधि यद्धनबाणवर्षणे, नृपतेश्छत्रमुचस्तु नो भयम् // ( 22 ) अयमुद्धतसेनया रया- ......... ज्जितषटखण्डसमग्रमण्डलः / निजभाल-ललामरत्नतामनयच्चक्रिपदं महोजितम् // ( 23 ) अथ तस्य रुचाभिमन्त्रितै बहुसिद्धौषधिमूलमिश्रितः / कलसर्जलसम्भृतैर्मूदा, सविकासैरिव मङ्गलाननः // Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम ( 24 ) मुकुटांशुभिर्ध्वमुच्छित दिवमुत्कण्ठयितुं समुद्यतः / बलकम्पित-भूतलच्छला दपि संज्ञापितनागनागरैः // __ . ( 25 ) कनकाभरणप्रभाभरै विदधान वमीक्षणोन्मुखीम् / / अभिषेकविधिः प्रचक्रमे, निखिलदिशवाषिको नृपः // .., [त्रिभिः कुलकम्] (26)' गजवाजिरथैः पदातिभिः, समभूत् तन्नगरं तदाकुलम् / जगदादिमसर्गसम्मुखं, दरविस्तारिविधेरिवोदरम् // . ( 27 ) शयितं किमु शेषदिक्पुरः, ____कृतकोलाहलशान्तिसर्वतः / लघु तत्र समागतैर्जन जनसम्मर्दपरिश्रमोज्झितः॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 43 ( 28 ) ध्वजिनी बहुभूभृतां ध्वजै ननु मायेव गुणैरभिद्यत / न तु तेष्वविशेषमान्तरं, किमपि ज्योतिरगाद्विभिन्नताम् // ( 26 ) अतिघनतो महीभृतां, बहुकोलाहलगजितोजितः / च्युतहारमणिवजैरभन्ननु रत्नाकर एव तत्पथः // ( 30 ) तिलमात्रमपि स्थिता न भूः, पृथिवीशेष्वभियत्सु सर्वतः। प्रभुताप्तिसुखानि सोऽन्वभूत्, प्रथमं यः प्रभुवीक्षणं व्यधात् // ( 31 ) रतिहासविलासशालिभि___ बहुशो भूमिभुजां गतागतः / अभवत् प्रतिनायकं भुवः / कुलवध्वा न कटाक्षलक्षणा // Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 32') किमपश्यदमुद्रितेक्षणा, ... न तमिस्रापि विसंयुतार (?)रिः / निजमध्यदिशा गतागत... स्त्वरमाणोत्तरखण्डराजकम् // . 1 33) निजवेश्मनि कोऽप्यवस्थितो, . ... न च वृद्धो न शिशुर्युवाऽपि न / नपवंशभवस्तदा मदालससम्राट् दगुपासनोत्सुकः // ( 34 ) अधिगत्य तदाऽप्यनागतान्, प्रभुरष्टानवति सहोदरान् / प्रजिघाय स दूतमन्वमून, पृथगेकैकममर्षणः क्षणात् // ( 35 ) अथ तान् प्रतिधूमधोरणी• रकिरन्नाकुलताकरीगिरः / स्वमुखादिति दूतमन्त्रिणो, भरताकूतकृशानुकुण्डतः // Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः अभिषेकमहे महीश्वरा, भरतेशं कति नोपतस्थिरे। भवदुर्गविलङ्घनक्षणे, . चरणं चारुतरा गुणा इव // ( 37 ) अनुपस्थितिरत्र वः पुन . न हिमानीमहिमाम्बुजस्य किम् / फलशालिरसाललालिते, मथुराज्ये पिकपक्षिणामिव / ( 38 ) इयतैव निजावनिस्थितिः, सदसत्संशयगोचरीकृता। अधुनाऽपि भजध्वमाशु तं, जनिमाजीवितसंस्थितिस्तथा // ( 36 ) अधिकेऽत्र न तेजसा बलं, .... किमपि स्फोरयितुं च युज्यते / शलभो लभते कियद्यश- ......... स्तरणौ क्लृप्तरणः ऋधारुणः // Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 40 ) . अनुजादनुजारितेजसो, ___यदि तस्याश्रयणाद् बहिर्मुखाः / परदुर्ग्रहदुर्गसंनिभं, व्रतमादत्त तदा मदापहम् // ( 41) अथ पक्षयुगेऽपि वो रुचि न नयार्थद्वितये मनेरिव / निजखड्गलतोपलाल्यता, ___ तदनेकान्तकथेव सङ्गरे // ..(42 ) यदि नर्तयितुं समुत्सुका, रणरङ्गेऽसिनटी पटीयसीम् / यदुपज्ञमदः कलाऽखिला, भरतस्तत्र स कि स्खलिष्यति ? // ( 43 ) अमुनाऽपि जयोद्भवं भवा _ध्यवसायेन यशस्तमेष्यति / जलदाम्बुपयोनिधाविव, प्रपतत्तत्खलु पूर्णपूरकम् / / Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः :47 ( 44 ) इदमस्त्वथ पक्षमेककं, त्रिषु सम्यग् विनिगन्तुमर्हथ / प्रभवे खलु विज्ञपय्य यं, विमलं दौत्यफलं लभामहे // ( 45 ) इति तेष वितीर्य वाचिकं, स्वविभोरुत्तरलाभकामिषु। व्यसृजन भरतानुजा गिरं, मुखपद्मान्मकरन्दसन्निभान् // ( 46 ) उचितं भरतेश्वरो नृपै भूतिपात्रैरभिषिच्यतेऽखिलैः न तु भागभुजः स्वबन्धवः, क्षतिमेष्यन्त्यनुपस्थिता अपि // ( 47 ) निजबन्धुषु बन्धुसम्पदा, प्रमदो यस्तमुदन्तमन्ततः / .. उदये हृदयेन विस्फुरत् कुमुदं वक्ष्यति कौमुदीपतेः // Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् उदरम्भरिरेव केवलं, - परिभुङ्क्ते स्वयमजितां श्रियम् / न कदाचन तां स्वबन्धुषु, / प्रियबन्धुस्त्वविभज्य रज्यति // ... ' ( 46) कृतमस्य निजाजितश्रियः, . प्रविभागनिजबन्धुसम्पदः / वडवाग्निरिवाम्बुधेरपः, - पितृदत्ता अपि यो जिघत्सति // (50) स्वपरैकमतिवित्ति चेद, गुरुतृष्णागरलं निजे गले / पितृवेश्मगतो महेश्वरः, कनकेनैव तदेष माधतु // (51) न वयं तु भजामहे धर्म, धृतिभाजः पितृदत्तसम्पदा / नियतत्वविशेषदर्शिनो, न पतामः क्वचनापि संशये // Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ( 52 ) धृतिरेव हि नः परं प्रति, प्रतिबध्नाति बलप्रवर्तनम् / विभृयात्कतमस्तु तेजसा, ननु पञ्चाननसूनुरूनताम् // अधिकं समुपासितश्च किं, भरतो ब्रूत फलं ददाति [नः] / किमु रक्षति यातुधानतो, मरणान्निःशरणान् भयातुरान् // ( 54 ) स्वमतान् मनुजान वितन्वती, पलितालीखटिकाक्षराङ्किताम् / किमु वा परिपातिनी जरी, . यमदूतों स निवारयिष्यति // ( 55 ) यदि वा तरसा रसायनं, सकलातङ्कविनाशि दास्यति / रबिधाम निशीव यबलाद्, गलितं यौवनमेति वार्धके / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .50 पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 56 ) अथवाऽश्लथवासनाशत प्रबलद्वन्द्वमपाकरिष्यति / वपुषि प्रसरेत् प्रियाप्रियप्रभवा विह्वलता न यद्वशात् // * ( 57 ) यदि वा न दिवा न वा निशि, स्थिरतामेति यदन्तरिन्द्रियम् / प्रविधाप्य वशं तदेव नः, - परमब्रह्मणि मज्जयिष्यति // .. . (58) विदधाति खमेव पुष्पितं, यदि युष्मत्प्रभुरेभिरङ्कुरैः। कुरुतां क इवास्य सेवनां, तदही तुल्यनुभावभावितः // ( 56) चरणाश्रयणं तु तेन न श्चरणोच्चारकृतोपदिश्यताम् / अननुष्ठितधर्मदेशके, गुरुता गच्छति नामशेषताम् // Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 51 ( 60 ) शयिताः स्वसुखे वयं मदा दभिभूता भरतेन भोगिनः / अधुना तदतीव भीषणामसिदंष्ट्रामुपदर्शयामहे // ( 61 ) अनुजा यदि याचिता रणं, ___ भरतेन स्फुटमग्रजन्मना / तदमी वितरीतुमुत्सुका, . न कृपाणः कृपणोऽत्र कोशभृत् // ( 62 ) विलसेद् बलवत्युपस्थिते, न कला हन्त कलागुरोरपि / द्विजनायकदर्शनं हर-. निह सिंहीतनयो निदर्शनम् // उदितास्मदुपक्रमादितो, विमला पङ्ककलङ्कशङ्कया। समराम्बुनिधेर्जयेन्दिरा, न च बन्धुदूहमेनमेष्यति // Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम (64 ) . यशसा भरणं भृतस्य च, प्रथमेन व्यभिचारमञ्चति / असिसौष्ठवपक्षपाति त न्न तु कस्यापि गृहे नियन्त्रितम् // . . (65) अयमेतु वयं समुद्यताः, क्षुभिताभ्भोधितरङ्गसन्निभाः / जनकानुमति विना परं, प्रणयामो न सगोत्रसङ्गरम् // (66 ) इति तानभिधाय सत्वरं, ययुरष्टापदमद्रिशेखरम् / प्रभुपादरजोविभूषितं, मदभाजो नृपगन्धसिन्धुराः॥ ( 67 ) जलदैरपि यो गुरुकृतो, विपुलं शिक्षितुमुन्नतिक्रमम् / समुपास्तिपरैः प्रकल्पित प्रसरनिर्भरहारदक्षिणः॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः C . . . ( 68 ) दधदातपवारणं घनं, विपुलं योऽजनि मध्यभागतः / शिखरेषु च तीवमातपं, *विधुरिच्छामतिवृत्य वृद्धिमान् // कुसुमस्मितयालसद्वय___ स्तरुणालिङ्गितया कया स्फुटम् / / भ्रमरोचितशोभया न यद्वनराज्यानुकृता पणाङ्गना // ( 70 ) . स्फटिकोरुशिलानुबिम्बितं, स्वमवेक्ष्य प्रतिपन्थिशङ्कया। रदघातपरिश्रमं मदात्, . कुरुते यत्र सुरेन्द्रकुञ्जरः॥ ( 71 ) रतिकेलिरहस्यसाक्षिणी, हृदयग्राहिणि किन्नरीगणः / स्फटिकाश्मदरीपरीक्षिता, . . बुबुधे यत्र सखीव निर्मला // *विधिवाञ्छा। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 72 ) (क ? ) शबरीधृतसारसौरभं, सरसि स्नातमतिस्खलद्गतिम् / पवमानमुपेत्य यत्र का, धृतमत्तप्रियधीन पिप्रिये // .( 73 ) स्वरपूरणया प्रतिध्वनैः, स्फुरितर्यत्र शिखण्डिताण्डवैः / मुदितः कृतकण्डघोलनं, मधुरं गायति किन्नरोगणः॥ . ( 74 ). घनगजितजप्रतिध्वने विबुधा यं घनमेव जानते / सुकृतात् क्षितितर्पणोद्भवादददातस्थिरतामुपागतम् / / ( 75 ) उपनीय विकल्प्यदृश्ययो नियतारोपवशादभिन्नताम् / व्यवहारकरः स्वलक्षणे, भजते यः सुगतप्रमाणताम् // Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ( 76 ) खचरीषु समागतास्वहो, कुरुते कि यदधित्यकाऽपि न / उपगृह्य हृदा सखीविधि, स्ववनीपुष्पफलोपचारतः // ( 77 ) स्वकुलोपकृताधमर्णतां, नियतं योऽपनिनीषुरुन्नतः। वनगुच्छजलाशयच्छलाज्जलॊध कुम्भभुवो विनिह नुते // ( 78 ) सकला स्वजलाशयोदक च्छलतो येन हृता दिवः सुधा / तदघक्षतये मरुत्पथे- . ऽनुशयानेन कृता विधुप्रपा // ( 76 ) प्रथमानरसप्रवाहिनो, कठिनानामपि हृद्विभेदिनी। समतामयते विनिर्गता, कविवक्त्राच्च यतः सरस्वती / / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् (80 ) विवदन्त इवान्तराकृत द्विजराजोत्तमस (ख्य)भ्यशोभिताः / शिखरेषु समच्छविच्छटा, निशि यन्नौषधयश्च तारकाः // * (.81 ) गुणवान् रहसि प्रकाशयेत्, . स्वगुणं न ध्वनयेत्तु डिण्डिमम् / इति यत्र रहस्यवेदिभि निशि दीपायितमौषधिवजः।। . ( 82 ) स्मनादमनागताहत ध्वनिपूर्णामृतपायिनो हृदः / शिखराणि तपोगिरेलयं, मुनयो यच्छिखरेषु तन्वते // (83) अमलायतदृष्टयश्च्युतः, फलमूलविहितस्ववृत्तयः। दधते चकिता यदाश्रिता, मुनयः केऽपि मृगाश्च तुल्यताम् / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः (84) स्मरति स्वतनुच्छवि न य च्छिरसीन्दुर्मणिचक्रचुम्बितः। कुपिताद्रिसुतांहिताडन प्रसृतालक्तकशम्भुभालजाम् // - ( 85 ) सकलौषधिसारसम्भृतं, नगराजत्वधिया वृषध्वजः / यमपावयदादिमः प्रभुः, स्वयमङ्गोकृतसर्वमङ्गलः // ( 86 ) वहति क्षितिभृत्सु राजतां, __ विहितस्वर्णकिरीटविभ्रमम् / भरताभिभवं व्यजिज्ञपम्, . भगवन्तं प्रणिपत्र तत्र ते // (87 ) भगवानपि तन्मनोगिरि, __ ज्वलितं प्रेक्ष्य कषायवह्निना। नवमेघ इव प्रचक्रमे, .. . परिनिर्वापयितुं वचोऽमृतः // Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 88 ) किमियं विमनस्कतोदिता, बलवत् सा भवतां श्रियः कृते / न कृतेऽपि नियन्त्रणाशते, कुटिलेयं स्ववशाऽवतिष्ठते // .. . ( 86 ) चलतां लहरीभ्य एव या, वडवाग्नेः परितापकारिताम् / अधिसागरमध्यगोष्ट तां, श्रियमिष्टां गणयेत् कथं बुधः // (60) विषवत् कमला विषस्वसा, परितापाय भवेन्न संशयः / शिरसा धुनदीमुवाह यद्, गिरिशोऽशेत हरिश्च वारिधौ / (61 ) सुकृतं स्वपतेश्छिनत्यहो, कमला स्वाश्रितवृक्षमूलवत् / . भवितास्मि कथं निराश्रये त्यपि नो वेद जडाशयोद्भवा / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः . 5 ( 62 ) . भवतीह सगोत्रजो यतः, ___ कलहः क्षोणिभुजां शुनामिव / प्रतिवान्तमिव प्रशान्तहृद्, विरसं राज्यमदः क ईहते॥ ( 63 ) हृदये मलिनेक्ष्यते कला, ननु राज्ञोऽकरुणाकलङ्किता / बहिरेव तु सा प्रगल्भते, हरहारस्मितकुन्दहारिणी // गुरुवारिदवाक्यबिन्दवो, नृपतेश्छत्रभृतो जगन्ति न / चलितेव हि चामरानिलात्, सुमतिस्तिष्ठति नान्तिके क्षणम् // ( 65 ) करवाल इव स्थितिः कृता, हृदि निस्त्रिशतयाऽवनीपतेः / द्वयमेकगुणं न तत्कृपा.. कुरमुद्यन्तमपि च्छिनत्ति किम् // Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् (66) . अतितुच्छनृपत्वशर्मणे, कुलवैरादिह यो यशःक्षयः / भवतां बत भस्मनः कृते, तदिदं चन्दनदाहसाहसम् // ( 67 ) , बलिनो यदि योद्धमुद्यता, रणकण्डूलभुजा भुजाभुजि / सहजेन न मोहवैरिणा, तहदो सम्प्रति योद्धमहथ // ( 68 ) स हि चित्तमहाटवीपतिः, प्रगुणीकृत्य कषाय-यामिकान् / अपि चक्रिपुरन्दरादिकान, निजबन्दीकुरुते निरन्तरम् // ( 66 ) तनयोऽस्य च रागकेसरी, सहजद्वेषगजेन्द्रसङ्गतः / कुरुते स्ववशंवदान् बलात्, ... प्रशमश्रेणिशिरःस्थितानपि॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 1 ( 100 ) तदवारितपारिपन्थिक विषयः स्वार्थनितान्तजागरैः / ममतागहनात् समुत्थिते- मुषितो मुक्तिपथैन को जनः / / ( 101 ) कुपितं समुदीक्ष्य तत्कृता श्रवसेनान्यमनन्यसन्निभम् / चरणस्खलनैव जायते, व्रतभाजामपि धीरमानिनाम् // ( 102 ) पतितं युधि पञ्चसायकं, तदतिश्रेष्ठभद्रं सहेत कः / त्रिभिरेव जगत्त्रयीं जयन्, विफलां वेत्ति शरद्वयों हि यः // . ( 103 ) कुटिला हसितेन फेनिला, सलिलावर्तविवर्तनाभिभूत् / अमुना विहिताङ्गनानदी, नरके पातयति प्रमादिनः // Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-वरित-महाकाव्यम् ( 104 ) ददती स्वगणे परभ्रम, स्वति स्वैरिषु चात्मवैरिषु / अमुनैव विनिर्मिता सतामपि माया नयने विलुम्पति // . ( 105 ) जनसंवननाय कामिनी कनकेत्यक्षरषटकंबीजया / अपराजितयाऽस्य विद्यया, स्फुरितं कुत्र न पाठसिद्धया // ( 106 ) विनिपात्य गुरुत्वगह्वरे, सुखतृष्णां करिणी प्रदर्शयन् / विपरीतकथासृणिक्षतदमयत्यत्येष विवेककुञ्जरम् // ( 107 ) तुरगानुरगारिजिज्जवान्, प्रबलानस्य विकल्पसंज्ञकान् / गगनेऽप्यपरिस्खलद्गतीन, . समरे प्रेक्ष्य न कः प्रकम्पते // Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः . ( 108 ) अजितेन जितं किमप्यहो, विजितेऽस्मिन् भुवनत्रयं जिनम् / इति तद्विजयाय संयमक्षितिपालः स्ववशो विधीयताम् // ( 106 ) चतुरङ्गचमूवृतः स हि, प्रभवेन्मोहजयाय नापरः / कठिनः शरभं विनाऽस्तु कः, शठकण्ठीरवदर्पलोठने // ( 110 ) रदनानिव शक्रदन्तिन चतुरस्तस्य गुणान् क्षमादिकान् / दधते किमु कान्दिशीकतां, न समुद्वीक्ष्य कषाययामिकाः // ( 111 ) तनयावनयावतंसितो, जयति द्वावपि मोहभूपतः। तनुजोऽस्य शमोऽनुपाधिको, गरुडः पन्नगवृश्चिकाविव // Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 112 ) दमनामभटः पदे पदे, कृतसौराज्यमहेऽस्य मण्डले।। विषयाः क्व हरन्तु ते धनं, यदपायानि धृतानि गुप्तिषु // ( 113 ) अतिदुःसहतांमसंवृते, कलयत्वाश्रवभूभृदोजसा। मुखमेव ददाति. सम्मुखे, ___ न तु सेनाधिकृतेऽस्य संवरे // . . ( 114 ) मदनो वदनोरुकालिमा, . भवति ब्रह्मभटेऽस्य जाग्रति / न हि पञ्चशरेण जीयते, . समरेऽसौ नवगुप्तिशक्तिभृत् // ( 115 ) भवसिन्धुमपि स्वसेवकान्, गतपारं स सुखेन तारयेत् / सुदती कियती तदग्रतः, कृशमध्या शुचिगोत्रया नदी // Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ( 116 ) घटयत्यमुना कृतापटु, हृदि दृग दृश्यपृथक्त्वधारणा / निहतं परशक्तिमायया, न विशल्येव किमाशु लक्षणम् // ( 117 ) विदधाति कुविद्यया यया, विवशं मोहनृपो जगज्जनम् / प्रतिहन्ति नौव' तामसी, प्रियबीजान्तरयुक्तिलाघवः // ( 118 ) समुपैति विवेकवारण श्छलयाशेऽपि परेण पाप्मिनः / स्वयमेव तदीयमण्डलं, सहसा संस्मृतबोधजन्मभूः // ( 116 ) सुविकल्पतुरङ्गमाः सुखं, कुविकल्पानसुहृत्तुरङ्गमान् / दलयन्ति किलास्य दुर्मदान्, __. मृगनागानिव भद्रदन्तिनः // .. 1. अत्र निषेधार्थक 'नग्' इत्यस्य तृतीया। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माः, .. प्रार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 120.) इति मोहनृपस्मयक्षय. क्षममाश्रित्य चरित्रभूपतिम् / .. कृततद्विजया भजन्तु भोः, सुखमध्यात्मपुरप्रभुत्वजम् // . ( 121 ) लभते यदमय॑नायको, ... मणिसिंहासनमाश्रितो दिवि। . अपि शर्म वने तृणस्थितो, मुनिरध्यात्मरतिस्ततोऽधिकम् // - ( 122 ) मुनये वितरन्ति यां मुवं, सहजाध्यात्मरसस्य विपुषः / लहरी न चरीकरीति तामपि पीयूषसमुद्रसम्भवा / / ( 123 ) धनिनामभिमानमात्रज, __ सुखमध्यात्मविदां तु तात्त्विकम् / अनयोरियदन्तरं पुन भवपल्ली शबरन लक्ष्यते // Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ( 124 ) जननी धृतिरुद्यमः पिता, भगिनी सत्यरतिः सदा हिता / सहजः सविधे च बन्धवः, स्थिरता तुष्टि-कृपा-क्षमादयः // ( 125 ) मुदिता जननी स्वसा सुतो, - व्रतरङ्गः समता च गेहिनी / अनतिक्रमवृत्तिता स्नुषा, ____ भववरस्य विभावना सुता // (126 ) भगिनीपतिराहतागमो, ___रुचिरौ तत्तनयौ यशोवृषौ / अपि यस्य समाधिरात्मजारमणस्तत्तनया. तटस्थता // (127 ) गुणसंस्तव एव मातुलः, सुतपुत्राः सुनया महारथाः / उचिता नियतिः पितृष्वसा, गुणसन्दर्भितनामदायिनी // 1. क्षमाधवः इति पाठान्तरम् / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभोय-चरित-महाकाव्यम् ( 128 ) ऋजुसूत्रविचारचञ्चुरः, समयस्तातसहोदरः परः। सुविशुद्धपथानुसारिता, प्रथिता तद्गृहिणी गृहं श्रियः॥ * ( 126 ) मणिचारिमभाजि-वारणा, स्थितिवातायनलम्बितैः पदैः / / विधिपक्षवलक्षट्टिमे, . सुतपः स्तम्भनिवृत्तिभित्तिके / . ( 130) शिखरस्थितनिश्चयेक्षणा, विलसत्काञ्चनकुम्भभूषिते / स्थितिर तयोगमन्दिरे, जडतातापविकारजिते॥ ( 131 ) सुकुटुम्बगृहस्थता स्थिति ___ मुनिराजस्य हि तस्य तात्त्विकी। अपरे तु भवाटवीमृगा, गुहभाजो भ्रमणे रताः सदा // Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः .. 68 ( 132 ) * सुखिनो विषयज्वरातुरा, न हि चक्रित्रिदशाधिपा अपि / उपशान्तमदस्मरज्वरो, मुनिरेको भुवनत्रये सुखी // - ( 133 ) अब्धिर्वारिगणैरिवानल इव ज्वालाकरालस्तृण नींचः सज्जनदूषणैरिव कणैः कालः कलानामिव / आकाशं भगणैरिव प्रहरणैः शौर्य भटानामिव, स्वान्ते संयमजितेन विषयाकाङ्क्षा नृणां पूर्यते // (134 ) वधिष्णुत्रिदद्धिगौरवगतिस्पधिष्णुमुक्ताफल___ श्रेणीशालिनि यद्विमानतिलके सर्वार्थसिद्धाह्वये / भुक्तं शर्म तदाशु विस्मृतमहो युष्माभिरानीयतां, वत्साः सम्प्रति संस्मृतेविषयतामाश्चर्यचिन्तामणिः॥ ( 135 ) या दिव्यैर्न सुखैय॑षेधि विषयाकाङ्क्षा समुत्सपिणी, भोगैर्यास्यति तानवं कथमहो सा मानवीयैरिमः / पारावारतडागकूपतटिनीतोयैर्न या शोषिता, तामङ्गारकृतस्तृणं क्व दलयेदर्भाग्रजाग्रत्पयः // Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 136 ) तानत्युन्नतगर्वपर्वतभिदादम्भोलिभिर्भाषितै रित्थं विश्वविभुविबोध्य निखिलानग्राहयत् संयमम् / दिग्दन्तावलदं तदेव तटिनीमन्दारहारप्रभां, शौण्डीर्येण ततो यशःश्रियमिमे विश्वाद्भुतां लेभिरे॥ इति न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयगणि विरचिते “पार्षभीयचरिते महाकाव्ये" द्वितीयः सर्गः। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयः सर्गः उदीक्ष्य तादात्विकमेतदेषां, चारित्रमाश्चर्यरसेऽवधूतैः / शिरोभिरुत्सारितदौत्यभारै यचिन्ति चित्ते भरतस्य दूतैः // अहो महासाहसमेतदेषां, लीकोत्तरं श्री भरतानुजानाम् / ये सेव्यतामेव ययुः प्रपन्न___स्वतातमार्गा न तु सेवकत्वम् // ( 3 ) येषां प्रवृत्तौ न रसो रणार्थ ____मन्वग्रजन्मानमकोत्तिभीत्या / * निवर्तमानोऽपि बभूव मोघो, भावारिघातं प्रतिपर्यवस्यन् / / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 पार्षभीय-चरित-महांकात्यम अभूदृशाः केऽपि कठोरवीर्याः, __ कण्ठीरवाः शुश्रुविरे न करें। अष्टापदे ये पदमाशु दत्त्वा, प्रतापमायुदिनरत्नजैत्रम् // न क्रोधवर्यदमी रसेन्द्रा, विचक्रिरे तातनिदेशवश्याः / नष्टापदष्टापदसिद्धियोग्या स्तेनैव युक्तं सहसा बभूवः // युक्तं त्रिलोकोपकृताममीषां, क्रोधोऽपि बोधोन्मुखता जगाम / उद्योतकत्पाटलिमऽहिमाशोः, प्रभातजातः किमुतालुलोके // आदाय तातानुमतिप्रतीक्षा, संस्तम्भनीमौषधिमग्निशक्तेः / स्वात्मैव नामीभिरकर्षि गोत्र क्लेशानलानान्तु सहोदरोऽपि // Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः . स्वान्ते चिराद् दत्तपदः कथञ्चिद्, विसंवदन्नेकफले स्वभावात् / अलम्भि न भ्रातरि किं प्रबुद्धः, . क्रोधः खलस्नेहसमत्वमेभिः // . (6) अष्टापदाद्रावधिरुह्य योग श्रेणी शिवाभ्यर्णमुपेयिवांसः / मूर्धानमते नियतं सुमेरो रप्युन्नतं बिभ्रति भूभृदाः // तीक्ष्णाग्रभाजा भरतोक्तिसूच्या, वेधेनं सजातगुणप्रवेशः / एभिस्त्रिलोकीविभुवंशजातैः, सम्भूय मुक्ताभिरलम्भि शोभा // ... (11) भाग्यं दृशोर्दोत्यमिषादमीषा मस्माकमाकस्मिकमाप पाकम् / .. आकण्ठमग्नेर्यदमू सुधायां, बभुवतुर्वृत्तविलोकनेन // म-१० Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् .. , तु- (12 ) सन्तापिताः स्वामिवचोऽनलोष्ण. मेते यदस्माभिरुदीरयद्भिः। संशोधयामस्तमिमं तु मन्तुमकृत्रिमैतद् गुणसंस्तवौघः॥ ( 13 ) न वेत्ति वक्तुं खलु नीचजिह्वा, ब्र ते न सम्यग्गुणिनां गुणं या। तत्प्रत्यवायोपनताच्च साध्य मुत्पातवातान्मुखरत्वमस्याः // - (14 ) गुणग्रहेणैव विचिन्त्य वाचा माचारपूताः फलवज्जनित्वम् / भवन्ति सन्तः किल सिद्धशुद्धसारस्वताः केचन तत्प्रपञ्चे // ( 15 ) अल्पो हि जल्पोऽन्यगुणे गुणित्वं, सन्देहतल्पोपगतं तनोति / . भू यो गुणानामुचितं तदेषा-. मानन्दिबन्दिव्रतधारणं नः॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ( 16 ) इदं विमृश्य द्र तमेत्य दूताः, पुरी विनीतां भरतं प्रणम्य / बभाषिरे चित्रकरं चरित्रं, तेषामशेषाद्भुतभाग्यभाजाम् // ( 17 ) तथाहिनत्यर्थनायामनतिप्रतिज्ञा, रणेऽथिते ये चरणं प्रपन्नाः / वर्णाधिकं सर्वमकार्षुरुक्तं, वर्णाधिकादेव तवानुजास्ते // . ( 18 ) . एतैरिदानी पितुरात्तदीक्ष स्त्यक्तः समग्रोऽपि रमाधिकारः। सम्प्राप्तरत्नरिव रोहणानेनिःस्वैः स्वमूर्धापितकाष्ठभारः॥ ( 16 ) तैस्त्यक्तसङ्ग तयोगरङ्गः, __* कृतप्रसङ्गः स्वगुणाधिकारे / विमुक्तशुक्लेतरपक्षचन्द्र निस्तन्द्रतागर्वहरैर्बभूवे // Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 20 ) सम्भावितं युद्धरसं ामीभिः, संहृत्य शान्तं हृदि दर्शयद्भिः। लब्ध्वा पुरःस्फूत्तिकमर्थमन्यं, ___ काव्ये कवीन्द्र रिव मोहिताः स्मः // ( 21:) प्राचीनमार्गे स्वरसे न यात, रम्यावदातैर्गतपङ्कजातः / तुङ्ग स्तरङ्गरिव जाह्नवीयैस्तवानुजस्त्वं सकुलोऽसि पूतः // ( 22 ) मिथ्यात्ववैताढयगुहां तमिस्रा ग्रन्थि प्रयत्नादुद्भिद्य सद्यः // प्रियाप्रियोन्मग्ननिमग्ननीरनदीद्वये निर्मितसेतुबन्धाः // ( 23 ) उत्पातवृष्टौ प्रसभं कृतायां, ___भावाहितायातकिरातदेवैः / रत्ने क्रियाज्ञानपवित्रचर्म च्छत्रे वितत्य श्रितसत्यसन्धाः / / 1. अत्र वृत्तभङ्गः सञ्जातः Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 तृतीयः सर्गः . ( 24 ) अन्तःप्रकाशायततातपत्र दण्डे स्वमध्यात्तर्माण नियोज्य / वेश्मापि रत्नद्वयमध्यगाना, विस्मारयन्तो गुणनागराणाम् // ( 25 ) उप्तः प्रभाते परिपाकभाग्भिः, सायं च वैराग्यगृहाधिपेन / सम्पूर्यमादिनकृत्यशस्यैनिर्वाहयन्तः शुचिलोकवृत्तम् // ( 26 ) जित्वा क्षणेनोत्तरखण्डनिष्ठान्, म्लेच्छानशेषानपि मोहमुख्यान् / शत्रुर्न नः कोऽपि जगत्त्रयेऽस्तोत्यन्तलिखित्वर्षभकूटशैले // ( 27 ) लब्ध्वा निधानानि नवापि तत्त्वा न्याप्तोत्तमाज्ञासुरसिन्धुदेशे। जयन्ति सर्वे वशिताऽखिलाशाः, ___ सहोदरास्ते त्वमिव त्वदीयाः // 1. रत्नद्वयसम्पुटेऽस्मिन्-इति ग्रन्थकृत्पाठान्तरम् / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम ( 28 ) तव प्रभुत्वे प्रविशन्त्विदानी, . बाह्यानि राज्यानि नरेन्द्र तेषाम् / चन्द्रोडुतेजांसि रवेरिवाशु, राशौ दिनादावुदये समे ते // * ( 26) श्रुत्वैताततॊऽनुजविप्रयोगात्, तद्राज्यलाभाच्च मुदं दधानः / सङ्कीर्णरूपो भरतेश्वरोऽभू च्छायातपाभ्यामिव भाद्रघस्रः // . (30) स जनसे तानि ततोऽनुजाना, राज्यानि लोलाजितराजराजः / आजन्मभोगप्रदमस्तकर्म, न च्छत्रमन्यं सहते धरित्र्याम् // ( 31 ) तथापि चक्रन कुतोऽपि हेतो विवेश तस्यायुधवेश्म चक्रम् / दृष्टव्यलोकं धृतनीतिसार महो रहो धाम यथा सुमित्रम् // Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 तृतीयः सर्गः . ( 32 ) पूर्णप्रयत्ने विहितेऽपि चक्र, बहिश्चरेऽपायनिपातशङ्की / अलब्धसिद्धिर्महतीं तदानीं, योगीव चिन्तां विततान चक्री // ( 33 ) न रञ्जितौ कैश्चरणौ मदीयौ, स्वकीयकोटीरमणिप्रभाभिः / कैर्वा नरेन्द्रविहिता न मौलौ, पुष्पस्रजाज्ञा मम सद्वितीया // ( 34 ) कि नाम रत्नं रुचिरं धरित्र्यां, मदीयकोशे न शयालु जातम् / काः सम्पदः पद्ममिवालिमाला, न मामहम्पूविकया समीयुः // / ( 35) न के मदोत्क्षिप्तकराः करीन्द्रा, गर्जन्ति मे तजितहस्तिमालाः / अमूल्यतां बिभ्रति बिभ्रतः के, न वाजिनो देवमणि विगाले। 1. 'प्रपन्नाः' इति ग्रन्थकृत्पाठान्तरम् / 2. कण्ठे। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 36 ) एकातपत्रीकृतसर्वभूमे- रित्येषमत्यद्भुतसम्पदोऽपि / न वश्यतां यन्मम चक्रमेति, दुनोति तच्छल्यमिवोनमन्तः॥ . ( 37 ) कृतौ स्फुटं लाघवमीक्षमाणे. या नेष्यते न्यायबुधैरिवानीम् / न शाब्दिकानामिव कर्तरीयं, मयि क्षमाऽऽख्यातपदप्रवृत्तिः / / - ( 38 ) स्थानेन यावस्थितिमेति चक्र, स्थानस्थितं स्यान्न मनोऽपि तावत् / द्वयोस्तदुच्छृङ्खलयोः खलोक्तिनियन्त्रणायां मम कोऽप्युपायः // / 36 ) संशोधिते चक्रिपदस्य हेतो, द्राक् कण्टकोद्धारविधिप्रयोगात् / वादोव चक्र विमुखीभविष्णु,. कं दोषमुत्पश्यति मेऽवशिष्टम् // . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ( 40 ) संशेरते चेन्मम योग्यतायां, __ चक्रामराश्चक्रिपदस्य शश्वत् / तदर्शयन्ते किममी प्रमीला, लीलाकृतः सङ्गररङ्गनाटयम् // ( 41 ) इत्यादिचिन्तातटिनीनिमग्नं, भूपालभालस्थलरत्नमेनम् / समुद्दिधीर्घः प्रकटीचकार, मन्त्री गिरं नावमिवानवद्याम् // अवैमि राजेन्द्र ! चरैस्तवाज्ञां, न मन्यते बाहुबली बलोयान् / भ्राता कनीयानधुनाऽपि चण्डदोर्दण्डवित्रासितविश्व वीर / / ( 43 ) पृथ्व्यां प्रसिद्धाः कठिना गिरीन्द्रा स्तद्दारि तेभ्यः कठिनं च वजम् तच्चूर्णने जाग्रदखर्वगर्वा, ततोऽपि कामं कठिनास्य मुष्टिः // .. प्रा० 11 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 44 ) अवैति शत्रुक्षितिपान् समग्रान्, ... युक्तं मृगानेव स राजसिंहः। .. मुखे तृणं ग्राहयिता रणे तानरण्यवासं भयकम्प्रतां च // .. .( 45 ) स्वरं भनक्त्यप्रतिरुद्धदो, महाबलोऽसावसुहृद्रुमौघान् / संक्षोभयत्येव मनःसमुद्र, महीयसामप्युपजातकोपः // . ( 46 ) अमुष्य सच्चामरधारिणीव, प्रदर्शयन्ती शुचिपक्षपातम् / कदापि सेवाक्षणरङ्गभङ्गभीत्येव नीतिन जहाति पार्श्वम् // ( 47 ) अस्याननं लोचनलक्ष्मयुग्म, __ चन्द्रो द्विपक्षी विशदं यशश्च / . भालं विशालं च तदर्धमत्र, द्वासप्ततिस्तेन कला घंटन्ते // Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः 53 ( 48 ) सूत्रार्थभिन्ना नवतत्त्वविद्या श्चतुर्दशान्याश्च मयि स्फुरन्ति / उदन्तमन्तःस्थितदन्तरेखा, दम्भादिदं सूचयतीदमास्यम् // ( 46 ) अमानतद्दानजलप्रवाहे, खलेत्यलं तस्य यशोमरालः / प्रथिभूपालयशःप्रशस्त मुक्तागणग्रासवितीर्णकालः // भवत्यहीन्द्राननवाडवाग्नि दिग्दन्तिदन्ताक्रमणात् त्रिलोक्याम् / सतीव्रतं तीव्रतरं तदीय___ कीर्तेः परस्पर्शनिषेधशुद्धचा // ( 51 ) रविनिशायां जलधौ निपत्य, करोति मन्त्रं वडवानलेन / तेजोऽस्य जेतुं न दिने तु किञ्चित्, स्मरत्यसौ छिद्रघटाभबुद्धिः // Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 52 ) मित्रं तदास्यस्य रवेश्च पद्म, . मिथो महामत्सरवारणाय / ददाति कि गुञ्जदलिच्छलेन, तदोजसस्तस्य च सन्धिजल्पम् // * ( 53 ) गुणास्तदीयाः शरदिन्दुशुभ्रा __ श्चेतो जनानामिह रञ्जयन्ति / सा चातुरी काचन धातुरीहा मन्वेतु नो वस्तुगति तु जातु // . (54) उद्वासयन्त्यन्यगुणांश्चिरस्थान, मनो जनानां प्रसभं हरन्ति / तुदन्ति रोमोद्गमकण्टकस्तानुच्छृङ्खलाः केऽपि गुणास्तदीयाः // ( 55 ) तद्रूपसौन्दर्यनिरूपणेन, कन्दर्पदर्पस्तनुतामुपैति / स्पर्धानुबन्धं हृदयेन धत्तो, नूनं विनेयाविव चाश्विनेयौ // Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः 85 ( 56 ) प्रत्यक्षतां गच्छति विश्ववृत्तं, वातायनस्तस्य महाशयस्य / दिग्देशकालव्यवधानवन्ध्यं, धर्मप्रभावैरिव योगभाजः॥ ( 57 ) एष्यद्विनिर्यद्बहुदिक् क्व चारु निःशेषलेखोल्लिखिर्द्धिवृद्धिः / सहस्रनेत्रैः सचरैर्भविष्णुः,. स्पर्धी विधत्ते सहवासवेन // ( 58 ) तदीयकोशे विलसत्यपूर्वा, लब्धिः किलाक्षीणमहानसीया / दत्ता परस्मै यदनन्तलक्ष्मीः, __ स्वयं च भुक्ताऽपि न निष्ठिता स्यात् // ( 56 ) अन्तःपुरं तस्य रतेनं काय व्यूहश्रियं कि श्रयतेऽत्युदारम् / विश्वत्रयोत्कृष्टविनोदशालि समानशीलस्मररङ्गलीलम् // Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्य ( 60 ) वाक्कौशलाद् वा पतिमीहते स, प्रोद्दामधीजेंतुमिहानु तं यत् / लक्ष्मच्छलोद्ग्राहनिगोर्णवर्णमालम्बितं पत्रमिवेदमिन्दुः // . ( 61 ) सुधीभिरक्षुद्रविमुद्रितार्थ विस्तारिसारस्वतसारकोशः / सकर्णकर्णामृतयानतृप्तिः, सजायते तस्य महासभायाम् // ... ( 62 )' कविबंधश्चाभ्युदयं लभेते, ‘सदा यदभ्यर्णगति श्रयन्तौ / स कोऽपि भास्वान् गणकैरदृष्टस्वभावधामा बहलोशनामा // ( 63 ) अपारिजातोऽपि स पारिजातः, सम्पूरयन्नथिगणे हितानि / अमन्दरागोऽपि च मन्दरागः, स्थैर्येण कि भक्तजनन दृष्टः // Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः 87 ( 64 ) अमान्तमन्तःकरणेऽस्य शौर्य रसं किमादाय कृता विधात्रा। सुत्रामजैत्राद्भुतगात्रवीर्याः, सहस्रशस्तस्य जयन्ति पुत्राः // ( 65 ) एकोऽपि तेषां यदि युद्ध रङ्ग च्छेको रणेऽभ्यापति प्रकोपात् / भेकोपमानाः क्षितिपास्तदानीं, पलायनस्यैव कलां स्मरन्ति / चित्रं न यच्छत्ययमथिनेऽर्थ, कराग्रजाग्रच्छतकोटि पद्मः / यत्यक्तकोशो द्विषतां ददाति, - खड्गेऽस्य दिव्यश्रियमद्भुतं तत् // ( 67 ) तस्य प्रतापानलधूम एव, चकास्ति साक्षादसितः कृपाणः / . . विपक्षभूभृन्मशकव्रजोऽस्मा न्नो चेत् पलायेत कथं विषण्णः // Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् (68) अश्वव्रजोत्खातधरारजोभि नग्नो युधि प्रौढनिशान्धकारे / खड्गोऽस्य जैत्रं जपतीव मन्त्रं, कृत्वाऽरितेजःकणवीरहोमम् // * ( 66 ) स्वोयच्छविच्छन्नविपक्षलक्ष प्रतापकीर्त्यर्कविधुप्रकाशम् / धाराधरं प्रेक्ष्य तदीयखड्गं, पलायिताः केऽत्र न राजहंसाः // - ( 70 ) आनन्दनश्चन्दनवत्प्रजानां, कृतान्तवगीतिकरो रिपूणाम् / व्यामोहनो मान्त्रिकवच्छठानां, स राजते राजकुलावतंसः // (71) अस्मिन् दृढीभूतजनानुरागे, विवृद्धकोशे प्रसृतप्रतापे। . बलोजिते कः कुरुते जयाशा, प्राच्यं यशः संशयितें चिकीर्षुः / / Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ( 72 ) त्वया त्वमुष्मिन्नजिते न शक्य स्त्रातुं निजश्चक्रिपदप्रवादः / नभस्यलुप्त्वा ग्रहमात्रदीप्ति, ... ग्रहाधिपख्यातिमुपैति नार्कः // कियज्जितं जाग्रति तत्र शत्रौ, . क्षेत्रं त्वयेदं भरताभिधानम् / ग्रन्थावभिन्ने सति मोहनीयकर्मेव मोक्षार्थमुपस्थितेन // (74 ) समग्रशास्त्रेऽपि कृतप्रवेशा, | मोमुह्यते ब्रह्मणि दृग्यथोच्चैः / तथा तवास्मिन् जगदेकसारे, प्रणीतषट्खण्डजयाऽपि सेना // ( 75 ) चक्र सहस्रेण सुरैरवेति, वृत्तान्तमेनं द्विसहस्रनेत्रम् / प्रतिश्रुतं सर्वजये प्रवेशं, . कथं करोत्यायुधवेश्मनीदम् // . प्रा०-१२ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 76 ) न वक्रभावस्तदिहास्ति कश्चि. च्चक्रस्य भूशक्रसमागमाय / तवानुजस्यैव तु सत्त्वयास्मिन्नारोप्यते विभ्रमशक्तिभाजा॥ ( 77 ) तदस्य पूर्व प्रहितेन वक्त्र च्छायव दूतेन विलोकनीया। ॐकारमग्रेसरयत्यतश्चे दाज्ञा श्रुतौ तन्महतोष्टसिद्धिः // ... ( 78 )' प्रमादसुप्तो यदि नागतोऽसौ, तद् द्रागमुं जागरयिष्यतीयम् / त्वद्वामभानोरुदयाभिधात्री, दूतीयवाणी कृकुवाकुकाकुः॥ ( 76 ) अन्येष्विव त्वय्यपि दोर्मदं स, प्रदर्शयिष्यन्नथ नागतश्चेत् / त्वदूतवाचः श्रवणात्तदानीं, मानी प्रतिज्ञास्यति सम्परायम् / / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः 61 ( 80 ) स त्वामगत्वा शरणं रणं चेत्, करोति तत्सर्वबलेन दण्ड्यः / स्वीयोऽपि विद्धो विषकण्टकेन, कथं क्रमस्यावयवः सुरक्ष्यः // ( 81) क्षमाभृतः शत्रुषु सक्षमा ये, ते मुक्तिकामा न तु भुक्तिकामाः / तेन त्वयाज्ञामवमन्यमाने, .. नास्मिन्नुपेक्षाऽवरजे विधेया // ( 82 ) इमां समुद्दीपितनीतिसारा मुदीर्य वाचं विरराम मन्त्री। दवादितः शैल इवाब्दसिक्तः, - ऋद्धोऽवबुद्धो निजगाद चक्री // ( 83 ) जागत्ति नाज्ञां मम मन्यतेऽसा वित्येष चित्ते मम मन्युहेतुः / ज्येष्ठः कनिष्ठाविनयासहिष्णु रित्येष तं हन्ति कुकोत्तिकेतुः // Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 84 ) एकत्र भीत्य नृपधर्मभङ्गो, हठे शठानामविलोठयमाने।। अन्यत्र सौभ्रातहतिः पपात, तत्सङ्कटं 'व्याघ्रतटीयमेतत् // . ( 85 ) ललुः पुराष्टाव (?)तिश्चरित्रं, स्थातुं न दत्तेऽनुजमप्यमुं यत् / सम्पश्यति भ्रातृगृहं न वक्रक्र रग्रहः किं मम चऋदम्भात् / / (86) लोभान्न शोभां सहतेऽनुजानां, ___ स्वरं च वैरं कुरुते कुलेऽसौ / इत्युच्छलन्तीमपवादधारामुपक्रमेऽस्मिन् मम को रुणद्धि / / ( 87 ) एकेन चक्रण रथं यथार्कः, सौभ्रात्रमेकेन तथाऽनुजेन / . येनाहमद्याध्वनि वाहयामि, ते पातयन्नाशु कथं पतामि / / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ( 88 ) शक्रं चिकीर्षुर्ननु चक्रबन्धु ____ोत्रच्छिदे मां तरलीकरोति / इयत्प्रभुत्वादहमस्मि तुष्टो, बिभेमि' तस्या इति किं न वेत्ति // स्वयं न गोत्रे प्रभविष्णु चक्र, प्रवर्तयत्याशु तदाहवे माम् / अनोतिकृत्येन विरोधबोधः, किमीतिमध्ये पठितस्य तस्य // (60 ) जगज्जयात्यन्तहितस्य यद्वा, चक्रस्य दोषो न मया विचिन्त्यः / समग्रसाद्गुण्यविधौ विधातु_मुख्यमेवेदमुंदोरणीयम् // (61) भ्रातृवजप्रव्रजनोत्थतापो, नैकः प्रशान्तो हृदये मदीये। पराभवेऽमुष्य पुर्नाद्वतीयः, . सोढुं क्व शक्यो विषमज्वराभः // - 1. स्तस्या बिभेमीति न किं स वेत्ति / इति ग्रन्थकृत्पाठान्तरम् / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 62 ) आशीविषीविजिता किलाशा, - ममानुजास्ते जगतोऽपि वन्द्याः / पतन्नमदग्व्यसनेष्विदानीमहं तु हन्तास्मि हतस्तयैव // / 63 ). दुःखैकखानि दुरितद्रुवल्ली मशेषदोषव्रजजन्मभूमिम् / आशां निराशीकुरुते जनो यः, सुखी स एवेह न कश्चिदन्यः // (64) जीर्णे न जीर्णा न कृशे कृशा या, नैगिकी सा न जने धनाशा / उत्पातजातिः परमुल्बणैषा, तस्यां च सत्यां सुखिता कुतस्त्या // ( 65 ) ‘यां स्नेहपीयूषघनेऽप्यकस्मा दङ्गारधारां प्रकटीकरोति / . आशाभिधाना किल सा दवाग्नि ज्वाला न लोकावगतस्वभावा // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ( 66 ) विधाय वक्षो बलिभिः सहारं, ___ सपुष्पमालं पलितः शिरश्च / पुंसामतृप्ता धृतिमेष्यतीयं, प्रदाय कि मण्डनमन्यदाशा // (67 ) आलम्ब्य लोका व्यसनार्णवे यां, पतन्ति हित्वा च तमुत्तरन्ति / आश्चर्यमेषा विपरोतरीतिराशातरी कि न चरीकरीति // (68) न यत्र चन्द्रार्कमरीचिवीचिः, प्रयाति नो वा पवनः प्रचण्डः / हित्वा विचारं पुरुषस्य तत्राप्याशापिशाची कुरुते प्रचारम् // (66) अस्या वशीभूय कथं न भूय स्त्रपेऽकृपो भ्रातृवधाय धावन् / कथं च कुर्यामभिषेकनीरा - निधौतचक्राननपङ्कमाष्टिम् // 1. 'तुष्टा' इति ग्रन्थकृत्पाठान्तरम् / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 100 ) इत्युद्धतद्वैतविचारदोला लोलायमाने भरतस्य चित्ते / उदाहरन्न्यायविवेकशद्धमद्वैतपक्षं सचिवो निजेष्टम् // .( 101 ) राज्ञामसुभ्योऽप्यधिकं हि तेजो युक्तस्ततस्तच्छिदिमन्युरेव / निजः परो वा स विनीयमानो, नीत्या निषेधान्न यशो निहन्ति // .. ( 102 ) अल्पो हि सह्योऽविनयोऽनुजस्य, गृहोचितोऽस्मादितरस्त्वसह्यः / उद्गृह्णति ह्यध्ययने च वादे, __ भिन्ना गुरोर्व्याहृतयो न शिष्ये // ( 103 ) ज्येष्ठस्य नाज्ञां दलयेत्कनीया निति क्षितौ नीतिरनादिरूढा / लुम्पन्नसौ तां यदि नो कुकीर्ते बिभेति तत्का भवतस्ततो भीः // Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्गः 67 ( 104 ) सौभ्रात्रभङ्गस्त्वगतिः स्वनीति प्रतीतिसिद्धावनुषङ्गजन्मा / व्ययो धनयेव धनार्जनायां, भवन्ननुद्देश्यतया न दोषः // ( 105 ) स्फुटीकरोत्येव च राजनीति ईयोस्तुलेयं लघुतागुरुत्वे / तथापि दिग्मोहसमः समत्व भ्रमों भवन् केन निवारणीयः // न दोषमात्रेण च राजनीति स्त्वया महाराज! मनस्युपेक्ष्या / दृष्टं श्रुतं वा भुवने विना किं, __ दोषोद्भवं स्फूर्जति राजतेजः // ( 107 ) चक्रेण सौभ्रात्रममुञ्चतस्ते, परेण तत्सुस्थितमस्तु भावा / . शेते सुखं यज्जनितप्रताप कीत्येककोणे निखिलत्रिलोकी // पा-१३ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 108 ) हित्वाऽनुतापद्रवतां तदन्तः, . .. कठोरतां चक्रवदाद्रियस्व / .. धृतिर्न बाढं हृदि संशयानं, न राज्यलीला तु शयानमेति // ( 106 ) सुदुःसहं किंचन नास्ति ,राज्ञा माज्ञाविलोपादपरं हि दुःखम् / तद्दातरि भ्रातरि सौहृदं चे ज्जातिस्तदा कारिपदाभिधेया / . ( 110 ) नम्र मृदुत्वं च शठे हठित्वं, भत्ये प्रसादश्च नरेन्द्रचिह्नम् / न केवलं चामरधारणं तु, मौलौ धृतं तत्पशुनाऽपि पश्चात् // ( 111 ) नम्रस्य देयोन्नतिरित्त्युदात्त, नत्वोन्नमच्चामरमाह राज्ञे। . अत्युन्नतो यः स तु नामनीय, इत्यस्य वक्ति व्यतिरेक भङ्गी // Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्गः &R ( 112 ) आशानिराशीकरणादिसूक्तं, पीयूषसिक्तं स्वदते यतीनाम् / नीत्यूजितं शौवरसं ददाति, पृथ्वोपतीनां तु शुभायतीनाम् // ( 113 ) प्रभुत्वमन्त्री प्रवितत्य पक्षा वुत्साहमाशाविनतातनूजम् / राज्ञोऽरिनागा विनिरीक्ष्य दूराद्, भ्रमन्तमन्तः सभया भवन्ति / ( 114 ) स किं नृपो यस्य भवेन्न चित्त, परोन्नतिध्वंसविधौ सदाशा / अत्युन्नताम्भोदघटाऽसहिष्णोलघुः स वायोरपि कि न लोके // ( 115 ) स्नात्वा जयाशा परकुम्भिकुम्भ कीलालजालस्तव शुद्धिमेति / नान्यैर्जलौघेरिति मा मुहस्त्वं, .. निजद्रुहः स्नेहमहेन्द्रजालैः // Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 116 ) सिद्धा जिगीषा निखिला तवेश, क्लेशः कियान् भ्रातृजये विधेये / स्वं पौरुषं स्फोरय मुञ्च दैन्यं, न शत्रुजिष्णु क्व तवास्ति सैन्यम् // .( 117 ) दूतं ततो भूपुरुहूत हूति कलाकुहूतन्द्रितभूपचन्द्रम् / निस्तन्द्रधीः प्रेषय पुण्यपूतं, कार्य तदाकूतमवेत्य कुर्याः // ( 118 ) इति सचिववचोभिर्बाढमुच्चाटितायां, __कलितविविधतन्त्रैः स्निग्धतायां सपत्न्याम् / अनुजमनु धनुारोपकोपं वितेने, भरतहृदि पदं द्रागाददाना जिगीषा // ( 116 ) सकलभरतभत्तानसं सूर्यरत्नं, . ___सचिवतरणिवाक्याभीशुयोगेन वह्निम् / यमुदगिरदमर्ष तेन दग्धं तदानीं, . चिरपरिचयजातं सोदरस्नेहखण्डम् // Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्गः 10 ( 120 ) गुणकमलहिमानी स्नेहपानीयपङ्को, व्यसनविपुलखानी राजसीराजधानी / अहह विषयतृष्णा सर्वतोऽप्युग्रवीर्या, यदजनि जिननाथज्येष्ठपुत्रोऽनुजारिः॥ ( 121 ) विधुविशदयशःश्रीः स्वामिभक्तं सुवृत्तं, नयनिपुणमदम्भं निर्भयं सत्यवाचम् / द्रुतमनुबहलीशं प्रेषयामा सराजा, विजितपवनवेगः सोऽथ दूतं सुवेगम् / / इति न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयगणिविरचिते “प्रार्षभीयचरिते महाकाव्ये" तृतीयः सर्गः। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थः सर्गः ऐन्द्रस्तोमनताया प्रत्यूहव्यूनहाशिने / नमः श्रीपार्श्वनाथाय, श्रीशलेश्वरमौलये // प्रस्थितं प्रभुगिरागतपक्ष, वेगतः शकुनमेव सुवेगम् / भाविभावगतिवीक्षणदक्षा, तं न्यवारयदथाऽशकुनाली // तस्य दैवमतिसौहृदपात्रे, वैरिदौत्यवहनादिव सद्यः / शंसितुं विपदि यत्परिणाम, स्पन्दते स्म नयनं पथि वामम् // Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 103 आदितः स्ववशमप्यवशः स न्नब्जयोनिरचनानुचरत्वात् / गन्धसिन्धुरमवेक्षितुकामः, . स क्रमेलकममेलयदक्ष्णा // ( 4 ) चाषमीक्षितुमनाः स शुभार्थी, वायसं कटु रटन्तमपश्यत् / रोहणेऽपि मणिमाशु जिघृक्षुः, काचखण्डमिव भाग्यविहीनः // ( 5 ) पापकेतुततपुच्छमिवोन, जङ्गमं भयतरोरिव पादम्। अर्गलामिव समीहितसिद्धदन्दशूकमयमैक्षत मार्गे // ( 6 ) सन्ततं दहनमण्डलमध्यात्, तस्य रोगवियुजो रविनाडी। - तापकारणमिमं व्यवसायं, सर्वतोऽपि हि विवक्षुरुवाह // Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 7 ) व्यात्तमास्यमिव विघ्नमृगारेः, कुप्रवृत्तितटिनीतटगस्य / रिक्तकुम्भमयमैक्षत सद्यो, .. मस्तके विधवया धृतमुच्चैः // ... (8) भूरिबन्धवृतमावृतिहीनं, प्रार्थनाविषयमप्युपनम्रम् / काष्ठभारमकरोदयमक्षणोः, कष्टभारमतिथि किमु मूर्तम् // (6) मित्रवन्नवदवानलमुक्त ज्वालजालजटिलं प्रतियान्तम् / मंक्षु तं क्षुतमपि प्रतिषेध्य, - प्रस्थितेरसकृदाप न दोषम् // ( 10 ) शिक्षिताश्ववरसारथियुक्तो. ऽप्यस्खलत्पथि रथश्च तदीयः / निश्चितामनुहन्निव चेष्टां, तन्मनोरथपरिस्खलनस्य // Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः चस्कले रसनयाऽस्य तदानीं, जल्पकल्पकतयापि किलोक्तौ / लक्षयक्षनततक्षशिलेशक्लेशवारकपराहतयेव // ( 12 ) वारितोऽपि पथि सादिसमूहै स्तस्य वामदिशि दक्षिणहस्तात् / सारमेयतरुणः परिसर्पन्, सारमेयगतमेव मवादीत् // ( 13 ) वाममेव हरिणा हरिणाशु प्रेरिता: परिययुः पथि तस्य / स्वीयजातिमृगभिद्गृहवाम्यं, दर्शयन्त इव स्वोत्प्लुतिदम्भात् // ( 14 ) पापयोरपथदर्शनदोषा न्नेत्रयोः प्रविकिरन् बहुधूलीम् / तं न्यवर्तयदिव प्रतिकूलो, मारुतोऽप्यधिकृतव्यवसायात् // 1. 'मीदग' इति ग्रन्यकृत्पाठान्तरम् / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम ( 15 ) अग्रतः कटु रराट निविष्टः, शुष्ककण्टकितरौ करटोऽस्य / लक्षयन् स्फुटममङ्गलबाणाघर्षिशाणघनघर्घरघोषम् // * ( 16 ) स्थाष्णु[स्नु] रस्य पथि दक्षिणहस्ते, रासभोऽपि विरसं रसति स्म / सत्वरोद्भवदुपद्रवनाट्येऽदत्तभोजनमृदङ्गसमानः॥ . ( 17) तादृशेरशकुनैरपि जान __ न्नात्यजत् प्रचलनव्यवसायम् / नाधिकं प्रभुनिदेशविलम्बात्, ___स स्म वेद बलवन्तमपायम् // ( 18 ) त्यक्तसौवविषयावधिरेष, प्राप बाहुबलिमण्डलमिद्धम् / शर्मणाऽतिशयिना परिपूर्ण, द्राग्महोदयमिवोत्तमसाधुः // Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 107 ( 16 ) तन्न तेन वनमैक्ष्यत यस्मिन्, यन्न चारुतरराजिविराजि / सा च काचिदपि नैव शुकर्या, न स्तुतर्षभयशोभिरशोभि // ( 20 ) घोषितर्षभगुणा उपरिस्था, यद्वनीतरुषु तद्वदधःस्थाः / सारिकाः स किल गोपगणानां, दारिकाश्च परिवीक्ष्य जहर्ष // ( 21 ) यद्वनद्रुमगणे सुरवृक्ष __ निर्गतैः क्वचन कालनियोगात् / साक्षिभूतमुखरभ्रमरौधे, न्यस्तमेव सरसं हृदि मेने // ( 22 ) भृङ्गसङ्गतलताकरताली, दानरङ्गरसिका शशिशुभ्रः। .तेन यत्र कुसुमैः सुरवाटी, हासकृन्न कलिता नवनाली // Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '108 पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 23 ) यत्र वृक्षतलसुप्तमगुप्त- स्वर्णभूषणगणं पथिकौघम् / ... निश्चिकाय परिवीक्ष्य स गोमु मिकाममभिराममगुप्तम् // . ( 24 ) यत्र तेन ददृशे कणहन्त व्यन्तरव्रजपलायनलीला। क्षेत्रपालपरिदर्शितमन्युत्रासितोत्प्लुतविसङ्गमदम्भात् / / ( 25 ) तस्य यत्र गगनोपगताना, ग्रामधामनिचिताः कणपुजाः। पर्वता इव करालकुकालव्यालमूनि पतिताः प्रतिभाताः // (26) क्षेत्रमैक्षत स यत्र पवित्रं, मण्डितं बहुभिरक्षवदण्डैः। . उच्छ्रितः प्रतिपदं धृतगर्व ग्रन्थिभिनवसुधारसजैत्रः // Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 106 ( 27 ) वेधसः स्फुटमबुद्ध स यत्र, स्वर्णरत्नरजताकरदी। मेरुरोहणहराचलकोटी, सर्गयोग्यदललाभसुभिक्षम् // ( 28 ) यत्र भर्तरि स रागमगुप्त, सुभ्रवः स्म न भुवः किमवैति / सर्वतः प्रकटरत्नखनीभ्यः, .. पाटलांशुपटलैः प्रसरभिः॥ ( 26 ) कि तरक्षुहरिचित्रकचक्र, मंक्षु दृप्तमपि यत्र जनेन / वीक्ष्य बाहुबलिपौरुषगानात, खञ्जितं च मदकारि न तेन // यत्र जितपराः स्वविषाणो त्खातसिन्धुतटपातितगर्ताः / चक्रिरे परिणताभ्रमकान्त स्पद्धिनोऽस्य वृषभा हृदि मोदम् // Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 31 ) कपकुक्षिमपभिद्य घटीभि र्जीवनान्यपि हठेन हरन्तः / तस्य चित्तमहरन्न रघट्टा, यत्र पूत्कृतिकृतः शठभट्टाः // ( 32 ) दुष्ट दूत इति यत्र विलोलः, षट्पदैर्धकुटिभङ्गकरालम् / पल्वलर्मुकुलितामलपद्म छद्मलोचनशतैः स निरैक्षि // . ( 33 ) त्यक्तगोवधघटोद्भवभीत क्षीरसागरपयः कलशोध्न्यः / कि विभज्य जगृहुर्जनगव्यो, वीक्ष्य ता इति स यत्र शशङ्क // ( 34 ) धान्यमैक्षि कृषिकः सकृदुप्तं, ___ लूनमप्यसकृदुद्गतरोहम्। तेन यत्र पृथुधीभिरधीता ध्यापितं मनसि शास्त्रमिवोच्चैः // Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 111 छायया कवलिताध्वसु यस्मिन्, भूयसी क्षितिरुहामतिकान्ता / सञ्चरद्रथमणिद्युतिदम्भात्, तेन सौररुगचिन्त्यत वान्ता // ( 36 ) ग्रामराजिषु कृतान्तरमान स्ताम्रचूडतरुणोड्डयनेन / सन्तुतोष न तु यत्र स सीम्नां, क्षेत्रपङ्क्तिभिरनन्तरवेदी // ( 37 ) स प्रपाः यथि विनिर्मितगङ्गा पत्रपाः परिपपौ जलपूर्णाः / यत्र च प्रतिपदं कणहट्टान्, लोचनेन जनदैन्यघरट्टान् // ( 38 ) यत्र काम्यवरणाय पुरेषु, स्थूललक्षपटहे ध्वनति द्राग् / स व्यचिन्तयदगादिषु लोनां, ___. दीनतां प्रति रवे न रुदित्वा // Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 36 ) यत्र वल्गनपरैविदर्धाद्भः, शास्त्रविद्भिरितरेतरमूहम् / सोऽन्वमन्यत गिरो भगवत्याः, ___ कौतुकाय गजयुद्धमुदोतम् // ( 40 ) यत्र शाब्दिकमठेषु गुरूणा मुल्लिलेख स कराभिनयेन। तर्जनाममरशिष्यसमूहव्याकुलैकगुरुकधुसभायाः // ( 41 ) , अङ्कसङ्कलनया खटिकानां, __ खण्डनं कलयतां गणकानाम् / यत्र तेन भगणोद्भवलोपव्यग्रधातृसमता प्रतिपेदे // ( 42 ) कापिलीयमिव बुद्धचविलेपाद गौणभोगमखिलेषु पुरेषु / तत्र सौवकरणः स परार्थ रात्मसिद्धिपरमैक्षत लोकम् // Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 113 ( 43 ) पूर्णतावदगजध्वजतर्का, यत्र वैभवमहालयविद्याः। स व्यलोकयदलौकिकपद्मावाप्तविभ्रमरसा नगरेषु // ( 44 ) वासरान्न तिमिरेण विभक्तं, ग्रामकर्बटपुरादिषु नक्तम् / यत्र तेन ददृशे हसितेषु, स्फाटिकार्हतगृहांशुसमूहैः // ( 45 ) तं स्म सस्मयवशा इव चैत्य स्तम्भलग्नवपुषः सुखयन्ति / पुत्रिकाः कलितलक्षकटाक्षा, यत्र सेय॑मितरेतरपश्याः // ( 46 ) इन्द्रनीलमणिकुट्टिमहेम स्तम्भशालिजिनराजगृहेषु / यत्र सोऽर्णवविलोलनलोल स्वर्णशैलशतविभ्रममूहे // Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '114 पार्षभीय-चरित-महाकाव्यम् (47 ) यज्जिनेन्द्रगृहदण्डनिविष्ट, _ लाम्बनालिभृति पार्वणचन्द्रे / विस्मयाकुलमनास्ततनालव्योमपङ्कजधिया स बभूव // * ( 48 ) तत्र कस्त्वमिति पृच्छति लोके, शंसिते भरतदूत इतीमम् / मौलमर्थमनवेत्य निनिन्दुः, कल्पितान्यविषयाः पथि वध्वः // . (46) बुध्यते न भरतः किमु नेते त्याक्षिपन्तममुमुत्करतालम् / ता जगुर्न परमेनमवेमः, कञ्चुकीयरचनकविशेषात् // ( 50 ) पूजितो जयति स क्षितिपालैः, सार्वभौम इति जल्पति तस्मिन् / तज्जना जगुरसौ न सुनन्दा नन्दनात् किल परोऽस्ति पृथिव्याम् // Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 115 (51 ) स ह्यनन्तबल इत्यभिजल्प त्यत्र तत्र जगदुः कृषिकाराः / अन्तमेति ननु तबलमस्मदेशपेशलहलैनिपतद्भिः // ( 52 ) उत्थितः क्षितितृणादिखनद्धि त्रिपाणिभिरभण्यत वाणी / तद्भटायुधयशःशितदात्र, श्रेणिरेव पिबति प्रसभं नः // ( 53 ') तं प्रतिप्रबलगर्वभूतैर्वा, तत्र मञ्जरथकृद्धिरभाणि / ईश्महे विभुबले तव द्वातुं, छिन्नकाष्ठनिचयैरपि कष्टम् // ( 54 ) पशुपाणिभिरपि स्वमुखेन्दोः, कीलितः सकलया किल वाचा / किं न नः करशयालुकुठारा स्त्वत्प्रभोर्बलगदप्रतिकाराः // Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् ( 55 ) गा इव त्वदधिपस्य भटान् द्राग, __चण्डदण्डहतिभिर्वशयामः / .. आदिशेत् सपदि बाहुबली चेद्, __गोदुहोऽपि गिरमाहुरितीमाम् // * ( 56 ) एवमेष विनिरीक्ष्य सुनन्दा-, नन्दनान्यनृपनाम्न्यसहिष्णून् / तज्जनान् व्यचरदाहितमुद्रो, वाचि साचिवदनस्फुटलज्जः // .. ( 57 )' पालितांसुबहुलवितभूमि भूमिपालविधुना क्रमतोऽसौ / नेत्रयोwधित तक्षशिला तां, चन्द्रिकां कुवलये कृतहर्षाम् / / ( 58 ) चित्रिते रतिमनाप्य रथाङ्गे यद्गृहोच्चशिखरस्थितिभाजि / विह्वला त्रिदशसिन्धुरथाङ्गी, _ न स्म विश्वसिति[...] रथाङ्ग // Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 117 ( 56 ) रत्नराशिषु हृतेषु ययोच्चै नंन्वभूज्जलनिधिर्जलशेषः / यां रुरोध किमु तद्ग्रहणार्थ, तेन नैष परिखाऽपरवेषः // . ( 60 ) सान्द्रविद्रुमघनो घुसृणौघैः, फेनिलः प्रसृतचन्द्रपरागैः। आश्रितो मृगमदैमलिनाभ्र रध्वनत् पटुवदापणवाद्धिः / सम्पुटीकृतनभोऽन्तरिता द्यो स्तिष्ठति स्म विजितेव ययोच्चैः / पृष्ठतस्तदभिधा वनभीत्या, रन्ध्रदत्तचलतारकनेत्रा // ( 62 ) यत्र नीलशितिशुभ्रमणोना मंशुभिर्नूपगृहोल्लसितानाम् / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 आर्षभीय-चरित-महाकाव्यम् स त्रिवेणिपयसि प्रतिवेलं, मज्जति स्म मिलति द्विजराजः // यद्गृहोन्नतगवाक्षसलीलं, भामिनीवदनलक्षमुदीक्ष्य / यातु शत्रुगणसङ्कटमग्नों, ___ भीतभीत इव शीतमरीचिः॥ . ( 64 ), विस्तृतस्फटिकवेश्मविभायां, पूर्णिमातिथिरुपेत्य न यस्याम् / कामिनीवदनपूर्णविधोः स्म, प्रेमबन्धपरवत्यपयाति // ( 65 ) उन्मिषत्पुरदरास्य कुलीने, - मज्जिता ननु पुरन्दरयुक्ता। इन्दुबिन्दुविषयच्युतकात् कि, द्यौर्ययेदमुदभाणि मदन / / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 113 ( 66 ) याऽपरोक्षपदसम्भववृत्ति ___ व्याप्यताविदलितभ्रममूला। ब्रह्मवत्सकलसारचरित्रा, .. शुद्धबुद्धिभिरभूत् स्पृहणीया // [अपूर्णमिदं महाकाव्यम् / इतो ऽग्रे न लभ्यते पाठः / ] एतच्चरित्रं परमपूज्याचार्यश्रीमद्विजयधर्मसूरीश्वरशिष्यमुनिश्रीयशोविजयेन संशोधितं सम्पादिसं च / वि० सं० 2027 / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यम् स्व० महोपाध्याय-श्रीमद्यशोविजयजीमहाराजाः Page #253 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलभट्टारकशिरोमरिणभट्टारकधी 5 श्रीविजयदेवसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः // न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयगणिवर्य विरचितं विजयोल्लास-महाकाव्यम् -: प्रथमः सर्गः : ( 1 ) ऐङ्कारसारस्मृति-सम्प्रवृत्तै__वृत्तः सुवृत्तः पटुगीतकीतिः / मदन्तरायव्ययसावधानः, . श्रियेऽस्तु शखेश्वरपार्श्वनाथः // ऐन्द्र प्रकाशं कुरुतां ममोद्य - महारयादेव सरस्वतीयम् / ... सदा हितानां तनुते हितं या, पुंसां पवित्रा सकलाधिकारम् // Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 विजयोल्लास-महाकाव्यम् ऐङ्कारमाराधयतां जनानां, येषां प्रसादः परमोपकारी। तेषां गुरूणां चरणारविन्दरजः परां सम्पदमातनोतु // * ( 4 ) न्यूनाधिकाभ्यां शशिभानुमद्धयां, याभ्यामुभाभ्यां किल कुण्डलाभ्याम् / शोभानुरूपेत्यपरं जगत्य, योग्यं महः कुण्डलमर्पयन्तम् // . ( 5 ) सुधांशुनाम्नव मुधा जनोऽयं, कलङ्किनं कञ्चन बह्वमस्त / इतीव मत्वा तमपलुवान धों द्योतयन्तं विशदैर्यशोभिः // निदर्शनत्वं बहुरूपभाजा मनङ्गसङ्ग कथमङ्गतीति / रूपप्रकर्षप्रथितं जनानां, . भाग्येन भूमीमनुकम्पयन्तम् / / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 123 (7) लावण्यलक्ष्मीपरिभोगलुभ्य त्पुलोमजानेत्रचकोरपेयाः। मादृगजनध्यानसमुद्रवृद्धि क्षमा दधानं वदनेन्दुभासः // तारामिषात्सङ्गलगण्यमाने, - रेखाभिराभिः खटिकामयीभिः / पूर्ण गुणौघरधुनापि धात्रा, लाभादविभ्रान्तवतैव सीम्नः // (6 ) कुकाल-पातालतलावमज्जद वसुन्धरोद्धारधुराधुरीणम् / सूरीश्वरश्रीविजयादिदेवपट्टैकपूर्वाचलभानुमन्तम् // (10 ) नाम्नैव धाम्नामनुरूपरूपं, सङ्क्रान्तमन्तर्गुणमावहन्तम् / सूरीश्वरं श्रीविजयादिसिंह, स्तोतुं प्रवर्ते विजयाभिकाङ्क्षी // (सप्तभिः कुलकम्) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 11 ) भूपो भुनक्ति स्म विशालधामाऽ यं मारुदेविमरुदेवनामा / तस्यैव नाम्ना प्रथितः पृथिव्यां, . सद्धर्मकर्मव्यसनी स नीवृत् // . ( 12.) यं वीक्ष्य साक्षान्नवदुर्गमुच्च निर्वेदतो मैष मयि व्यरंसीत् / इतीव शम्भोर्भयतो भवानी, नव्यार्थकं तं नवशब्दमाह // ( 13 ), दुर्गेरुदनर्नवभिः परीतं निपीय यं किन्नरगीयमानम् / एकेन दुर्गेण सुमेरुणेन्द्रः, स्वर्गेऽपि गर्वोद्धरतां जहातु // ( 14 ) फलं ददुा समरावबुद्ध युध्यद्भटच्छिन्ननिजद्विपात्रः। सम्पूजिता यत्र नवापि दुर्गाः, . सिन्दूरपूरैः परपार्थिवानाम् // Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः . ( 15 ) अधःकृतामेव दिशं स्वलक्ष्म्या, स्वयं विजेतुं पुनरप्युदास्ते / इत्युच्छ्रितैर्यो नवदुर्गहस्तै दिशो नवाह्राय जिगीषतीव // ( 16 ) नीतिनवीनेयमनीतिभाव____ मपि स्फुटं यं व्यतिवृत्य वृत्ता। इदं न कस्य प्रणिगद्यमानं, विपश्चितश्चेतसि विस्मयाय // (17 ) स्तुतिः क्षपाणामपि यत्र युक्त्या, पान्थप्रमोदात् पथि दूरदीर्घ / निलीय मेरौ वसतां तु निन्दा, कल्पद्रुमाणामुदरम्भरीणाम् // ( 18 ) यो यत्र दोषः प्रतिभाति कश्चि निदर्शनत्वं किल निर्जलानाम् / सरस्वतोशालिजनाननेभ्यः, . स्तुत्येव विप्रस्तु गुणं तमेव // Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 नोमान-सहाव्या ( 16 ) पचेलिमं पक्षिगणाः समन्तात्, क्षणं कणं ये निपुणं चणन्ति / यत्क्षेत्रसंरक्षकगोलवृष्टिकोलाहलाते पुनरुत्प्लवन्ते // ..( 20 ) चौर्य परस्वेषु न नाम कामं, सौराज्यभाजि क्वचनापि यत्र / यद्ध र्यचौर्यात् सुदृशां निलीन श्चित्ते भियाऽनङ्गभटोऽपि सूक्ष्मे // . ( 21 )' यद्यत्र भास्वान् प्रवलाप्रतापो, . जागति मण्डोवरपार्श्वदेवः / उल्लस्यते तत्सुमनोभिरेभिस्तमोनिरासात्तपगच्छभाग्भिः // ( 22 ) यद्भूर्भुवःस्वः प्रभुताभृताऽपि, स्वयं निवासाद भृशमन्वकम्पि / स्बर्गेण यस्यास्तु कथं तदेक विभक्तिसारूप्यमुचकशेषः // ... Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 127 ( 32 ) विधेविधेयेष्वरुचिप्रयुक्तं, ___ वैषम्यमालोक्य बहुष्ववश्यम्। धर्मस्य सृष्टि तपगच्छराजसाम्राज्यहेतोर्यमनुस्मरामः // ( 24 ) फलार्थिनः श्रीफलद्धि चैत्यं, यत्र श्रयन्तः फलसेविनो यत् / जना नवत्वं प्रथयन्ति यस्य, च्छायाभर म्राजितया तदुच्चः॥ ( 25 ) मात्राधिकस्यापि कृतौ गुणश्चेद्, द्वर्णाधिकस्याधिकतोचितैव / धातुर्विधातुर्जगतोऽपि यत्र, मान्धातुरेवेत्यधिकः प्रयत्नः // ( 26 ) आभ्यन्तरं यन्मणिवेश्मवृन्द ज्योतिर्मयं ब्रह्म विदन्ति सन्तः / .ततो विना वास्तविकस्वरूपं स्वर्जायते यस्य विवर्त एव // Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ___ विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 27 ) . .. युद्ध च लक्ष्मीः किल येन वप्र- वर्मावृताङ्गन विलुण्टिता द्योः / इतीव यत्पूर्भयभङ्गलिङ्ग, शक्राख्यया ख्यातिमुपैति तस्याः // . . ( 28 ) यच्चत्यवातायनमौक्तिकेष, स्वकान्तिविद्योतितदिङ्मुखेषु / इन्दिन्दिरौघाः परितो भ्रमन्तो, जपासुमभ्रान्तिभृतः पतन्ति // ( 26 ) यत्रानिशं स्फाटिकजनसम प्रभाप्रभावप्रहतान्धकारे। मृगीदृशामेव कुचेषु शेते, कस्तूरिका नाम कुहूनिलीय // ( 30 ) सदालिषु प्रीतिभरं दिशन्तो, दानेन संसपिकराभिरामाः / . स्फुरद्गतिप्रीणितविश्ववित्ता, यत्र श्रिताः कुम्भिसमत्वमिभ्याः / / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 126 ( 31 ) यत्रापणश्रेणिषु शुभ्रभासो, मुक्ताफलानां प्रकराः स्फुरन्ति / श्रियः परीभोग (वशे)न जाताः, . स्वेदोदलेशा इव तद्विभूनाम् // ( 32 ) निजश्रियं येन हतामवेत्य, दुखादियं द्यौः किमु मूच्छितैव / येनोपचीर्णा जिनवेश्मकेतु चेलाञ्चलं प्रेरितशोतवातैः // यस्मिन्, सभास्तारसभासमक्षं प्रासाददण्डोपरिचन्द्रबिम्बम् / जिगीषया द्यां प्रति दीर्घवंश- विन्यस्तपत्रश्रियमादधाति // (34 ) यद्वेश्मनों च त्रिदिवौकसो च, . द्वयोविवादो ववृते चिराय / अथानयोभङ्गजयो तु भाव्यौ, विमानताख्या ध्वजधारणाभ्याम् / / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 35 ) . . फणाभिरुच्चैः कपिशीर्षदम्भ यत्पाति शेषः किल वप्रवेशः / भोगावली विभ्रमतो नितान्तं, भोगीन्द्रलीलानिभृताद्भुतश्रि // . . ( 36 ) आलस्यभङ्ग सुरतान्ततान्त नारीकुचप्रच्युतदाममुक्ताः / विभान्ति यत्राभ्युदयाय नूनं, पुष्पेषुपूजाविधये विमुक्ताः // - ( 37 ) श्रेणीभवत्सन्ततभूरिलोक सङ्घट्टतो यत्र चतुष्पथेषु / मुखेन्द्रकान्त्या पुनरात्मजन्मकुचच्युतं दाम न वेद मुग्धा // ( 38 ) क्रान्तो वणिग्भिः सुमनोभिरेभि दध्वान यो दुन्दुभिनादधीरम् / राजे श्रियं यत्र स एव सूते, चतुष्पथोऽब्धिः पुरुषोत्तमाय // Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 131 ( 36 ) ' औचित्यभाजो द्रुपदात्मजावत् स्वस्वैरिणीभावकलङ्कमार्जी / भुवोऽनुरागः प्रतिभर्तृ यत्र, विभाति कश्मीरजपण्यवीथी // ( 40 ) पोनीभविष्णोः पणितुः पुरस्ता न्यस्तेन्द्रनीलद्युतिसङ्गतोऽपि / यत्रापणेष्वेणमदस्य मन्ये, मालिन्यमेवास्तु न गौरवाय // ( 41 ) सदाच्युतश्रीसहितस्य कामं, कर्पूरपूरोज्ज्वलफेनराशेः / सज्जीवनस्येह यदापणस्य, रत्नाकरत्वं भजमानमेव // ( 42 ) यदापणन्यस्तसमस्त-वस्तु विक्रीयमाणं वणिजा व लोक्य / वृथा कथासु प्रथिता कुलश्री * न कुत्रिका कैरपि बलमानि // Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 43 ) . योन्दुकान्तालयधोरणीभि बुवातकज्योतिरुपासिताभिः / उच्चस्तराभिर्भवभावभाग्भिः, सनिझरागीयत शैलमाला // (44) वप्रेषु यस्मिन् विषमेषुवैरि ___ जयाय पीनव्यवसायभाजः। शशाङ्कमौलेवलयायितोद्यद भुजङ्गभूषा परिखा विभाति // - ( 45 ), लङ्कामिवावेत्य पयोधिरेष, निषेवते यत्परिक्षकवेषः / इदं तु चित्रं परवाहिनीनां, ___ कदापि दत्त न किल प्रवेशम् / / यद्वप्रपालीपरिखा विशेषा दध्यक्षसंवित्त्रिपुटी किलैषायुक्तं तदेतत्परतो ग्रहस्य, मीमांसकारुच्यपथा कथाऽपि / / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 133 ___ . ( 47 ) __ यत्रोल्लसत्स्फाटिक-सद्मकान्ति दुग्धोदधिश्चन्द्रमसोऽर्भकस्य / पङ्क रजःक्रीडनकं किमङ्क, - निःशेषमङ्गात् परिमाष्टि भूयः॥ .. ( 48 ) उन्मज्जदाविर्भवदात्मदोषो, . यद्विम्बचुम्बी परिखाजलेषु / मुधा यदाभाहरणापवादजिहासया दीव्यति दिव्यलोकः // (46) बभूव भूवल्लभतानिदान र्गुणैर्गरिष्ठः सुकृतकनिष्ठः / तत्रैव मान्धातृपुरीपरायें, __ श्रीमान् महेभ्योऽनघमल्लनामा / / ( 50 ) गुणैनिजैटिंग्जय-सूचनार्थ ममुष्य गौरीस्तनतुङ्गशैले। कस्तूरिकापत्रलतावितानः, . कीतिप्रशस्ति व्यलिखद्विधाता // . .. का Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 विजयोल्लास-महाकाव्यम् एतद्गुणैश्चन्द्रमरीचिगौर र्यशःपटं यं कवयो वयन्ति / तेनावृताङ्गो भवतादिदानी, सुद्यौद्गाक्षी मलिनाम्बरत्वक् // ( 52 ) अनेन सम्पूरयता जनाना ___ माशां यशो यद्विशदं प्रसूतम् / अपूपुरत् कां न भृशं तदाशां, गुणो हि हेतोनिजकार्यगामी // . ( 53 ), श्वभ्रं बलिः प्रेष्यत विष्णुनेति, प्राचां न वाचामनुमोदना नः / ह्रियैव तद्दानगुजितः सन्नधो जगामेति तु नव्यतर्कः // (54). वनीपकानामिदमीयदान नीरस्रवन्त्या परिवाहितो यः। और्वानलस्य च्छलतः किलाब्धौ, दारिद्रयवह्निवलति स्फुटोऽयम् // 1. श्वभ्र बलिः कंसजिता धृतेत्यपपाठोऽपि क्वचिल्लभ्यते / Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 135 ( 55 ) अपारिजातोऽपि वनोपकाना मपूपुरत् कामितमर्थमेषः। सपारिजातस्तु विलज्जयातो, लोनालिनीलाननतां प्रपन्नः // ( 56 ) गुणेन दानस्य तुलामयासीद्-, वथाऽस्य कि कामगवी पशुः सा / एतद्विशेषश्रवणेन शश्वन्नोचेद्धियोत्तानमुखी कथं वा // ( 57 ) अहो भवस्यैव महान् व्ययोऽभूत्, सुपात्रपोषाद्विभवव्ययेन / भावे पुनस्तस्य विवर्धमाने, वरीवृधीति स्म विभाव एव / ( 58 ) ततः कृतार्था विबुधा अपीमे, ... कल्पद्रुमस्यापि न याचितारः। तदात्तदातृत्वगुणस्य तस्य, कष्टत्वमात्र किल संविदानाः // Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .विजयोल्लास-महाकाव्यम् वेगप्रकर्षादतिलच्य विश्वं, पदं प्रसतु न ददे पुरो यत् / मन्तोस्ततस्तद्वचसाऽपि तेने, ... सप्ताम्बुधीनामपि कण्ठरोधः // .. ( 60 ) प्रकामवन्ध्याचल-साधुसेवा हेवाकिभावादवदातकोत्तः / अनेकपस्यास्य न कस्य शस्या__ निरर्गलं दानजलप्रवृत्तिः / / श्रीदः श्रिया निजित एव तेन, महेश्वरश्चेश्वरतागुणेन / अतस्तयोस्तज्जयकांक्षिणोः किं, . मिथः सुहृद्भाव-रसामन्तः / / पुरन्दरो गोत्रभिदेव देवः, श्रीदोऽपि नाम्ना स कुबेर एव। नाभ्यामनेनेव तु निष्कलङ्क,. लब्ध्वापि लक्ष्मीश्चिरमन्वशीलि // Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 137 ( 63 ) अस्थैर्य मौज्झच्चिरमस्य लक्ष्मी रेतद्गुणोघर्घन-यन्त्रितेव / दान्ता महद्धिर्नहि नाम काम मुच्छृङ्खलाश्चापलमाचरन्ति // . ( 64 ) विमानलक्ष्मीपरिभोगतोऽस्य, समानता चेन्न पुरन्दरस्य / तदेतदौपम्यकथा प्रथाया मभेद एवास्तु परं निदानम् // . ( 65 ) विद्याभिरेतस्य जितोऽधितस्थौ, पुनः कविर्यल्लघुलेखशालाम् / ततस्तदीयाध्ययनार्थपूर्वा भ्यासाय ताराः खटिकात्वमीयुः // . दयैव तेनान्तरधारि जीवे, यतो भयं भेजुषि भूरिधाम्ना / तदीयविद्याविभवस्य नाभूत् कला तु षोडश्यपि जातु काव्ये // Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 विजयोल्लास-महाकाव्यम् विद्या गुरोरेव हठाद् गृहीता- श्चतुर्दशाऽप्यस्य मुखे विलेसुः / अतो लघूभूत इवैष चित्रं, व्योमाङ्गणे. स प्रतिबम्भ्रमीति // ' ( 68 ) 'अनाश्रितेऽस्मिन्न महत्त्वभाजां, वाचामहम्पूर्विकयेति बुद्धया / एनं श्रिताभ्यां सुदृढं किमाभ्यां, श्रीभारतीभ्यां मुमुचे विरोधः // प्रकम्प्यमानो जगदे स्वयं यो, 'मेरुर्नमेजगदीश्वरेण / धीरस्तु तेनास्तु कथं सुर्वर्णाचलस्य मुख्यस्य तुलाऽप्यमुष्य // ( 70 ) मुख्यो महेन्द्रो व्यलसत्किलायं, __ शक्रः पुनस्तत्प्रतिबिम्बमात्रम् / इदं विशिष्यापरिचीय तत्त्वं, विपर्ययभ्रान्तिरही जनानाम् // 1. अनाश्रितोऽस्मिन्न महत्त्वभाजा वाचामिति पाठोऽपि दृश्यते / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 136 नि ( 71 ) इतः समुद्रादुदपद्यतोच्चै र्यशः शशी यत्किल निष्कलङ्कः / सरस्वतीशालिनि तत्र जाते, निष्कम्पभावस्य विजृम्भितं तत् // ( 72 ) स्वरूपलक्ष्म्यैव हि भस्मभूय मनेन नेतुं सुशकः स कामः / अतोऽस्य मन्ये भवमन्युवह्निदाहंप्रयासः किल फल्गुरेव // ( 73 ) द्रष्टुं किमासीन्मघवाऽस्य रूपं, विस्फारितस्फारसहस्रनेत्रः / गातुं गुणानेव किमेतदीयान्, सहस्रजिह्वोऽपि सहस्रजिह्वः // . (74) सतीव्रतोच्छेदभियानुदीत रोमाञ्चराजिः कथमद्य गौरी / ... श्रुत्वा सचिन्तोऽस्य न कीर्तिकान्ती, प्रमोदमङ्ग विवरीतुमीशः // Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 विजयोल्लास-महाकाव्यम् __( 75 ) कस्तूरिकापङ्किलसूर्यचन्द्र.. तुङ्गस्तनी कि रिपुदुर्यशोभिः / अशोभि नैतस्य यशोभरद्यौः, कर्पूरपूरेण करम्बिताङ्गी // यद्धास्वताऽनेन तमः समस्तं, निरस्यते स्मानुदिनोदितेन / कथं न तेनास्तु सतां सुवर्त्म गतेनिदानं विजयप्रकाशः // .. . ( 77 ) सन्त्यज्य जाड्यं बहु चापलञ्च, ___ यच्छशवं तेन न बह्वमानि / इतीव तद्यौवनसीम्नि भक्ते, 'रोमोद्गमो रोषवशाज्जगाम / ( 78 ) व्यशीशिषद्रूपमथास्य लास्यं, वयः स्मयस्मेरतरस्मरस्य / बाल्यात्परं नाम तथा यथोच्च र्भानुप्रभा सौरभमम्बुजस्य / / 1. रोमोद्गमै रोषवशाज्जगामेत्यपि पाठो दृश्यते / / Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः . प्रथमः सर्ग: . 141 (76 ) अचूचुरच्चामरभासमस्य, केशोच्चयश्चामरभासमस्य / वने निवासं चमरी च लेभे, विपर्ययं किन्न गतिश्चलेभे // ( 80 ) . भवं समासेव्य किलैतदास्य सायुज्यभाजं द्विजराजमापुः / तदानुचर्योचित-कर्मयोगाद्, द्विजा अपीमे ननु किन्न मुक्ताः॥ ( 81 ) पुरो मुखस्यास्य वृथैव भूत मसौ कलङ्कीति यदावधत्ते / धत्ते तदा नाम विधौ स वेधा, सन्तक्षणी दारुणराहुदंष्ट्राम् // ( 82 ) जेतुं जगद्यस्य दृशैव शक्यं, . मुखस्य तस्यास्तु न कि विशेषः / इदं जडात्मा सहसाऽविचिन्त्य, वृथा विधुः स्पर्धति दुविनीतः // Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 142 विजयोल्लास-महाकाव्यम् स्वकान्तिमित्रस्य स एव शश्वत् .. सङ्क्रम्यमाणां गुणसङ्क्रमेण / सुवर्णशैलस्य गतां शिलासु, विशालतां नो वपुषाऽपुषत्किम् ? // . . ( 84 ) अस्य द्विषद्गोत्रविखण्डनेन, ... भेजे भुजाभ्यां पविना जयश्रीः। तेनैव दर्पश्चिरमेतयोः कि, विस्तारयुग्मांसलतां ततान // ... ( 85 ) स मांसलांसद्वितये करीन्द्रः, स केसरी चाजनि मध्यदेशे। अहो तमासाद्य कुतोऽपि हेतोविरोधिनोरप्यगलद्विरोधः // ( 86 ) निर्वेदतः किं तपसे सिषेवे, - वनं न रक्तोत्पलपल्लवाभ्याम् / तदीयपादद्वयनिजिताभ्यां, प्रतिक्षणात्क्षीणविपल्लवाभ्याम् // Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम: सर्गः . 143 ( 87 ) सीमा किमस्मिन्निजकौशलस्य, सम्भूय भूयः स्मरयौवनाभ्याम् / समापि लावण्यविधाविधानात्, . कुतोऽन्यथा हीदृशरूपसृष्टिः // . ( 88 ) गलन्निमेषञ्च निरन्तरञ्च, तदर्शनादर्शनतृप्त्यतृप्ती। स्वर्जन्मनः काभिरहो सुरीभि निन्दास्तुती कारयतः स्म नोच्चैः // ... ( 86 ) . कथन्न चक्षुःश्रवसां वधूनां, शुश्रूषया चास्य दिदृक्षया च / सम्पूर्यतामेकतरोपयोगव्यग्रासमनाक्षमिथः प्रवृत्त्या // (60 ) क्व योग्यताऽस्मासु किलास्य योगे, कृतार्थता वा नयनोपभोगे / इत्थं न काभिर्मनुजाङ्गनाभि विसिस्मिये वा हृदि सिस्मिये वा // Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यम् (61) तन्त्रात् प्रयोगात् किल किन्नरीणां, सङ्गीततानाहिततद्गुणानाम् / प्रियः शशाङ्क रसपेशलिम्ना, न मूर्च्छनानामजमूछेनेति / / .( 62 ) सर्वाङ्गत्यप्रणयि प्रकाम, ____ गन्धर्वगानं मधुरा सुधेति / पुलोमजालोमनि शस्य हृष्यत्' शक्राय तं किन्न विनिह्न ते स्म / / . (63 ) उद्वेलमुत्सर्पति यौवनाब्धी, प्रद्युम्नराजाभ्युदयेन तस्य / मानैर्मनोभिन्नु मानिनीनां, मद्भिरुत्फ्लुत्य गति न तेने / ( 64 ) जगन्ति जेताऽपि मनस्विनीनां, चेतश्चलं लक्ष्यमवेक्ष्य कामः / अमोघशक्ति किल तं युवान- . मासाद्यमाद्यत्तममानसोऽभूत् / / 1. हृष्यच्छकाय, हृष्यच्छकाय वा पठनीयम्। . Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 145 ( 65 ) तं युवानमनुवीक्ष्य पुरन्ध्री, दुःखमज्जितमनावृति-कृत्ये / आशयाऽपि कृशयौवनिकाऽभूत्, - तां विहाय किल नायकदेवीम् // ( 66 ) अथ कथमपि योग्यतावमर्श व्यतिकर-संशयपारगस्य धातुः / मनसि पदमियं भृशं कृशाङ्गी, समधृत नायकदेव्यपीह कार्ये // (67 ) इमां कथञ्चित्परमाणुमध्यां, मनो विधेर्यत्परमाणु दधे। तत्कल्पनीयः किल कोऽपि तस्यां, संयोगयोग्यप्रतियोगिभावः // ( 68 ) श्रियमिव हरिणा हरेण गौरी, .. सुरपतिनेव पुलोमजां प्रगल्भः / वि-१४ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 विजयोल्लास-महाकाव्यम् अथ महति महे महेभ्यपुत्री, ध्रुवममुना सहनां स संयुयोज // ( 48 ) विहितसदृशयोगख्यातकीतिविरञ्चिः, : किमपि कपिसरूपं चापलं चापलप्य / शुचिरजनि स योग्यायोग्ययोगप्रयुक्तं, निजमखिलकलङ्कमार्जयन्नार्जवेन // __ ( 100 ) उद्गतेन तमसोऽवधीरणाद, .. यौवनोदय-समृद्धिशेवधिः / विश्वविश्वजननेत्रकौमुदी, सा व्यराजत कलावताऽमुना // ( 101 ) भानोः प्रभेव सविधं परिशीलयन्ती, तस्य प्रकाशवदना पुरुषार्थमाजः / सा दिद्युते प्रतिदिनं समुदित्वरश्री विश्वत्रयीमृगदृशां विजयावदाता // Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 147 ( 102 ) गच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः, प्रौढप्रौढिमधाम्नि जोतविजय-प्राज्ञाः परामैयरुः / तत्सातीर्थ्यभृतां नयादिविजय-प्राज्ञोत्तमानां कृतौ, शिष्यस्यादिमसर्ग एष विजयोल्लासे रसोल्लासभूः // इति न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयगणिविरचिते "श्रीविजयोल्लासे विजयाङ्कमहाकाव्ये" . . प्रथमः सर्गः। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयः सर्गः युवनेत्रविलासि यौवनं, शुचिवंशोचितशीलशालिता। चिरमेतदभूदिहोभयं, सुधियः कस्य न विस्मयावहम् // . ( 2 ).. अतनोरनुमीयते कृति न तु सामान्यविविधेरियम् / न विशेषविधिविधीयते, . किमु सामान्यविधि विधूय वा // (3) पुरुषोत्तममेनमाश्रितां, शुचि-शृङ्गारसुधार्णवोद्भवाम् / नयने विनिवेशितामिमां, न विदुः के भुवि काञ्चनश्रियम् // Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 146 .. ( 4 ) अनया विजिताः सुराङ्गना, भृशदुःखादिव रूपसम्पदा / अनिमीलितनेत्रसम्पुटा, नियतं निश्यपि नैव शेरते // परिणामसहायनामभाक्, 'तरुणी (सा) तरुरेव निश्चिता / जडतां दधती हियापितां, ननु रम्भाऽपि तदीक्षणाजिताम् // प्रथिता किल सा तिलोत्तमा, कथमस्याः पुरतस्तिलोत्तमा / अनया हि समानताऽप्यहो, . स्वविशिष्टां मुमुचेऽनुवीक्ष्य यत् // रतिरेतु रतिं न कहिचित्, कथमस्यास्त्वियता विजिष्णुता। उचितं कलयामि तज्जिता, रतिरेवान्तरिता तदेव नु॥ 1. “रतिरेवानुरतिरेतदेव नु” इत्यपपाठः / Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यम भयतो महतस्तया जिता, दयितार्द्धाङ्गसयुग्भवान्यभूत् / द्विजराजकरावमर्शनैः, सतताश्वासनभाजनीकृता // य इमां भुवनातिशायिनी मकरोदेष करो हि दक्षिणः / इतरास्तु करोति यः पुनननु वामः स विविलक्षणः // ( 10 ) , चिकुरैः सह सख्यमातनोद, ध्र वमस्याः सुकृताय चामरम् / पदवी न दवीयसी कथं, नृपमान्या पशुजन्मनोऽन्यथा // ' ( 11 ) सकला कचपाशचुम्बिनी, न कलापेऽनु कलापिनः कला। ... सकलाकलितार्द्ध चन्द्रको, मुखचन्द्रोपरि सञ्चरः परः॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 151 ( 12 ) अवधाय विविधेयता मिह चण्डीशजयार्थमात्मनः / कुसुमानि शरान्न्यधत्त तत्.. कबरीमण्डलसन्निधौ स्मरः॥ . ( 13 ) अनया मदनो भवं जयन्, . स्वजिघांसु कृतवैरशोधनः / तदयं जयसूचनाय तत् कबरी सत्कुसुमैरपूजयत् // __ . ( 14 ) . इदमाननराजराज्यतः, कचरूपं स निबध्यते तमः / तदमुख्यविमुक्तियुक्तिमानथ मल्लः करदानमहंतु // ( 15 ) चिकुरालिमयों नु तामसी, .. पथि सीमन्तमये स्थितः स्मरः / जनमोहकृते समस्मरत्, - तसिन्दूरसमर्चनाविधिः // Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 16 ) कविभिः क्रियतां विशालत द्विलसद्भालविभानिभालनात् / रजनीकरकष्टमष्टमी रजनीमण्डनखण्डनं तपः // .. / 17 ) मदनस्य चतुर्भुजात्मनो, ___ धनुरोशः स मुधा द्विधाऽकरोत् / जनयन् स हि तत्तु तद्धृवी, युगपत् तो निजघान दम्पती॥ ( 18 ) त्रिजगज्जयसावधानता प्रधनौद्धत्यविलम्बितत्यजः। मदनस्य धनुहि तद्धृवी, . नियतं न श्रवणान्तिकत्यजौ // ( 16 ) इदमीयदृशौ हि पक्ष्मले, __मदनोन्मादविधूणिते इव / ' रवि-बोधित-चारुकेसर प्रथिताम्भोज-विडम्बिडम्बरे // Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः समः 153 ( 20 ) श्रुतिगामितदीयनेत्रयो न बुधो विप्रतिपद्यते स्मरः / वदनास्थितरकुसङ्ग्रहा.. न्ननु राज्ञोऽपि कलङ्कितोचिता // ( 21 ) इदमीयदृशा बलस्य त च्छवणान्दोलनलोललीलया। नियतं सहचारिणो मधो मधुमित्रस्य हि तद्विजृम्भितम् // - ( 22 ) श्रयतां शशिनस्तदानना. सहनं तद्वदनश्रिया जितः / अधुना तु धुनातु नातुरो, हरिणः पतयाजितायशः // - ( 23 ) भजते हरिणो द्विजाधिपो, _.. न तु देवञ्च विधि सरोरुहम् / इदमीयदृशा हृतश्रियो नहि निर्भीकतयानयोः स्थितिः // Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यम् 154 ( 24 ) मृगखञ्जनपङ्कजान्यहो, - वनमेतानि सुखं विषेहिरे / स्फुरदायततद्दशोः पुरो, न पुनः स्थातुमिमैरसह्यत / / ... ( 25 ) कुसुमानि शराः स्मरस्य ते, हरकोपाग्निहुतास्तथोचितम् / इयमेव जगज्जयाय यनिशितान् दृष्टिशरान् व्यतीतरत् / / (26 ) विजितं किल पङ्कजं तया, ___ चकित प्रत्युत तद्विलोचने / तदिहात्र विदाञ्चकार को, न बुधः स्यादभिदामिदं तयोः / ( 27 ) मदनस्य तदीयनासिका ___ ततवंशोपरि भालपट्टके / त्रिजगज्जन-मोहदायिनः, सततं नृत्यविधिळजृम्भत / / Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 द्वितीयः सर्गः ( 28 ) अमृतस्य विधोस्तदाननी भवतः साधु पदं किलाधरौ / उदजीव्यत तौ विधापय. द्भवनेत्राग्नि हुतोऽपि मन्मथः // . ( 26 ) उचितं मदनाय तत्प्रिया धरबिम्बीफलढौकनं मधोः / कृसुमप्रसरच्छरध्यये, हरगौयौं फलतो जिघांसते // ( 30 ) सुषमासु परीक्षणक्षणे, विधिना कल्पिततोलनाविधौ / अधरे किल तत्र गौरवं, . न तु बालोद्गतविक्रमे श्रिया // ( 31 ) ___ इदमीयमनातपाशया, हरकोपानलहेतितापवान् / अधरं समशिश्रियत् स्मरः, स बहुव्रीहिधियेव विक्रमम् // Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 32 ) उचितः किल विद्रुमेऽधरे, . प्रथितोऽस्याः स्मरतापनातपः / ननु चित्रमितः समेधते, ___ न तु शृङ्गाररसः प्रशुष्यति // ( 33 ) नितमामिदमीयपाटला- ' धरबिम्बन शुचिस्मितस्पृशा / अपि कोकनदं व्यडम्बि तत्, कलितं बालमराललीलया // स्मितविस्मित-केतकीदल रिदमीयाधर-बिम्बचुम्बिभिः / मदनस्य जगज्जिगीषतोऽप्युचिता पुष्पफलोपनम्रता // ( 35 ) कथमेतदिदं शुभाधरा मृतनिस्यन्दविलास्यपि स्मितम् / युवभिनिजनेत्रपधिनी दलपीतं हृदयान्यममुहत् // Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 157 ( 36 ) वयसा शिशुतोत्तरेण य त्तदधिष्ठातृकनिष्ठया स्थितम् / मदनः सदनोदयाय तस्मितदुग्धस्तदसिच्यतोचितम् // ( 37 ) शुचितस्मितनिर्भरापगा सलिलस्नानविलासिनो द्विजाः / द्विजराजतदास्यसङ्गतो, . विषमुक्ताः शुचयो विरेजिरे // . . ( 38 ) व्यलसन् दशनास्तदानने, द्वयधिकास्त्रिशदहो महोज्ज्वलाः / शशिनो द्विगुणां श्रियं निजां, किमु संसूचयितुं धृताः कलाः // .. ( 36 ) किमु तद्वदनस्य नो विधौ, पुरतोऽयुज्यत भस्मगोलता / गलनालबिलात् किलाचिरात्, तमसां रूक्षतयाऽशितोज्झिते // ... Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 विजयोल्लास-महाकाव्यम (40 ) द्रुहिणेन तदास्यसृष्टये, ... हृतसर्वस्वतया सुधाम्बुधौ / उदभूदिह पङ्कसङ्करः, शशिनि श्यामललाञ्छनच्छलात् // ( 41 ) अदसीयमुखं विधित्सुना, ' विधुतः सारमर्षि वेधसा / लधुभूत इवेति सोऽन्वहं, भ्रमति व्योम्नि चिराय तूलवत् // ( 42 ) द्विजराजकलङ्किनो जया ___ दकलङ्कन तदाननेन ते / उचितैव न खेदवेदना, स्थितिरेषा हि पुरातनी श्रुता // ( 43 ) विधुरङ्कमृजाकृतेऽन्वहं, किमु तक्ष्णोति तनमहो निजाम् / न तदाननतुल्यताऽस्य ही, भविताऽदर्शनमेवमाश्यता // Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 156 ( 44 ) इदमीयमुखं हि वस्तुतो, द्विजराजो विधुरेष चेतरः / तदमुष्य हठेन तच्छियं, हरतः स्तन्यकृतं हि नायशः // . . ( 45 ) य इहाश्रययोः परस्परा मसमावेशनिदेशपेशलः / व्यगलत् स कलिस्तदाननं, विधुमासाद्य सरस्वतीश्रियोः // सकलोऽपि स पाप एव त वनस्पर्धनलोलुपो विधः / इति साधु विमृश्यते बुधैवितथानुग्रहविद् व्यवस्थितिः // ( 47 ) स विधिः शुचिपूर्वपक्षता भ्रमतः पूरयति स्म कि विधुम् / किमयं न समाप्स्यति स्वयं, स्मृतसिद्धान्ततदाननाद् गलन् / Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 48 ) . मदनस्य तनोस्तदा श्रियं, भवभालाग्निहुतेः पलं विदन् / इदमास्यपदाय चन्द्रमा, रविवह्नावजुहोत् तनू निजाम् // . ( 46 ), इदमास्यमवेक्ष्य वेधसा, शशभृद्यत्र विलुप्यते क्रुधा / शुचि पक्षमुपैति तं न हाऽ शुचिमन्यञ्च विशेष दर्शनः // ( 50 ) नलिनं मलिनं किलालिना, रजनीशोऽपि कलङ्कपङ्किलः / इदमीयमुखे निषेदुषी, सुषमाऽऽस्ते कथमेतयोस्ततः // ( 51 ) इदमास्यतुलाभिलाषिता तम एव द्विजराजि लाञ्छनम् / भवमौलिसरापगाजले निरयाद्यज्जलधेस्तु कर्दमः॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ( 52 ) अंतिकान्तमिदं मुखं सृजन्, किमु दृग्दोषमजाकृते विधिः / बलियोग्यकरम्भपिण्डकं, विधुरूपं स वियत्युदक्षिपत् // ( 53 ) विधुमेव सुरापगाम्बुजं, चितमन्त तलाञ्छनालि सत् / इदमाननचन्द्रज्जितं, कलयामः किल हीनकान्तिकम् // . ( 54 ) पुरतो न तदाननस्य कि, __विधुरिङ्गाल इवावलोक्यते / उचितं त्विदमन्यथा कुतो, मितकान्तिस्तमसस्तमश्नतः // .. ( 55 ) इदमीयमुखाम्बुजोल्लसत्, . सुषमाडम्बरपश्यतोहरः / विधिना विधुरेष ही कुहू. मुखदंष्ट्रामयचक्रचूर्णितः // Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 56 ) किमगोचरितः कुहूनिशि, प्रयतो मन्त्रमसावपोपठत् / यदवाप तदाननोपमां, विधुरुच्चैरिह तत्प्रसादतः // ___ . ( 57 ) त्रिजगद्रुचिरातिशायि तद्, विधुनावापि तदाननं पदम् / सुकृताय तमोमदाङ्कुर क्रकचच्छिन्नतनुर्ममार यत् // ( 58 ) शुचितद्वदनात्तवैभवो, द्विजराजोऽपि स हीनवैभवः / उचितां ननु कान्तिभिक्षुकः, किमटन माधुकरीमचीचरत् // ( 56 ) धुरि कान्तिमतां तदाननं, विदितं क्वानुकरोतु चन्द्रमाः / मिहिरादिह जातदीधितिः, .. __स कुहूपर्वणि भक्षदायिनः // Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः .. . ( 60 ) यत. इदमाननपुष्टये विधिः, कणशं कान्तिमयं पचेलिमम् / स लुलाव विधुं पृथक्कृतप्रपतच्छीर्णकणोरुतारकम् // ( 61 ) इदमानन कान्तिचौर्यत स्त्रपमानेव जनापवादतः। जननीव विधु सुरेन्द्रदिग्, रविभित्त्यैव जनाय निगुते // ( 62 ) द्विजराज इवैतदाननात्, ___ सुषमाद्वैतरुचोऽध्यगीषत / उचितं विधुपङ्कजादय स्त्रिजगल्लोचनशोकमाजिनः // ( 63 ) इदमाननकारिणं करं, ... विधुना प्रोञ्छति यत्स्म पद्मभूः / इति तत्रं रुचीरपप्रथत्, सविशेषोऽपि तदंशशेषजः // .. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 विजयोल्लास-महाकाव्यम् ( 64 ) नयनाम्बुरुहे तदानना च्चकिते सुप्रथिते ततोऽपि किम् / विधुता विधुता पुरातनी, यदनेनेह कलङ्कपङ्किला // * ( 65 ) अधरे विधुना सुधारसः, , . श्वसिते सौरभमम्बुजन्मना / निजसारहितं तदानने, किमु सख्यप्रथनाय नाहितम् // .. --अपूर्णमिदं महाकाव्यम् एतन्महाकाव्यं परमपूज्याचार्य-श्रीमद्विजयधर्मसूरीश्वरशिष्यमुनिवर-श्रीयशोविजयेन सम्पादितं संशोधितं च / वि० सं० 2027 . Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशः स्व० महोपाध्याय-श्रीमद्यशोविजयजीमहाराजाः Page #299 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / घाटकोपरस्थितश्रीसर्वोदयपार्श्वनाथाय नमः / / न्यायविशारद-महोपाध्यायश्रीमद्-यशोविजयगणिवर्य समुच्चितः सिद्धसहस्रनामकोशः -0 ऐन्द्री श्रीः प्रणिधानस्य फलं यस्यानुषङ्गिकम् / मुख्यं. महोदयप्राप्तिस्तं सिद्धं प्रणिदध्महे // 1 // . तस्याष्टसहस्राख्यास्मरणं शरणं सताम् / मङ्गलानां च सर्वेषां परमं मङ्गलं स्मृतम् // 2 // १-अस्य कोशस्य-लेखनकालः वि० सं० 1736 इति मूलप्रताङ्कितमस्ति / Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 सिद्धसहस्रनामकाशः अथ प्रथमशतकप्रकाश: - अनादिशुद्धः' शुद्धात्मा' स्वयंज्योतिः' स्वयम्प्रभुः / केवलः केवली' ज्ञानी' केवलात्मा कलोज्झितः // 3 / / सार्द्धसत्त्रिकलातीतो ऽन्यूनाधिक-कलानिधिः"। अनन्तदृग"नन्तात्मा"ऽनन्तप्राप्ति"रनन्तजित्" // 4 // परमेष्ठी५ परब्रह्म परमात्मा" सनातनः" / सदाशिवः परंज्योति" धुवः२२ सिद्धो निरञ्जनः / / 5 / / अनन्तरूपोऽनन्ताख्य स्तथारूप"स्तथागतः। .. यथारूपो" यथाजातो" यथाख्यातो" यथास्थितः // 6 / / लोकाग्रमौलिग्र्लोकेशो" लोकालोक-विलोककः५ / लोकेड्यो" लोकपो" लोकत्राता" लोकाग्रशेखरः // 7 // विश्वदृग् विश्वतश्चक्षु"विश्वतः पाणि रात्मभूः। स्वयम्भू"विश्वतोबाहु विश्वात्मा" विश्वतोमुखः" / / 8 / / विश्वकृद् विश्वरूपश्च" विश्वव्यापी विधु" विधिः / विश्वशीर्षो' नमद्विश्वो" विश्वाधारश्च" विश्वसूः" / / 6 / / विश्वम्भर [:]" शिवो" विश्वावतारो" विश्वदर्पण:"। विश्वख्यातो" जयो" मृत्युञ्जयो" मृत्युनिवारणः // 10 // Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशः 167 सर्वादिः५ सर्वगः६ सर्वजनीनः सर्वदर्शनः / सुश्रुत:" सुस्थितः सुस्थः पुराणः" प्राक्तनो" विभुः // 11 // विधिशेषो विधेः सारः परो विधि-निषेधतः / प्रशान्तवाह्य निर्वाच्यो" दिसभागपरिक्षयी (?) " // 12 // अपदो ऽनक्षरोऽनिच्छो" ह्यतयावृत्तिलक्षणः / ब्रह्मचर्यफलीभूतो ब्रह्मा ब्रह्मपदस्थितः // 13 // प्रात्मवान्“ वेदवान् विष्णु ब्रह्मवान्" ब्रह्मसम्भवः'। सूक्ष्मः परात्परो" जेता" जयी सर्वमलोज्झितः / / 14 / / उपासनानां फलद" उपास्यत्वेन देशितः" / सर्वाविप्रतिपन्नश्च कृषीष्ट कुशलानि नः / / 15 / / // इति महोपाध्याय 'श्रीयशोविजयगणि"-समुच्चिते राजनगरवास्तव्यसङ्घमुख्य-साह ‘पनजी' सुश्रूषिते 'सिद्धनामकाशे' प्रथमशतकप्रकाशः // 1 // अदितीयशतकप्रकाशः --- धर्मवि'द्धर्मकृ'द्धर्मी' धर्मात्मा' धर्मदेशकः / . सुधर्मा' . धर्मदो' धर्मनायको धर्मसारथिः // 1 // दशधर्माऽनन्तधर्मा" धर्मसार:१२ स्वधर्मगः" / परधर्मविनिर्मुक्तो" धर्मप्रापी'५ विधर्मभृत् // 2 // Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 - सिद्धसहस्रनामकोशः धर्मचक्री" महाधर्मा' धर्ममूर्तिः" सुधर्मदृग्" / धर्माङ्गो" धर्मसन्न्यासीर धर्माधर्मविजितः // 3 // धर्मोत्तरो" धर्मकीति"धर्ममुद् धर्ममण्डलः / धर्मानोघा८ धर्ममौलि"धर्माग्रो धर्मशासनः" / / 4 / / . धर्मक्षमीर धर्ममृदु धर्मर्जु धर्मसंयमः / धर्मसत्यो" धर्मतपा" धर्मब्रह्मा- शुचिस्तत [:]" // 5 // धर्मत्यागी धर्ममुक्ति धर्मस्थो धर्मशाश्वतः / धर्मलभ्यो" धर्मसेव्यो , धर्मश्रद्धावसंवदः / / 6 / / धर्मधातुः क्षमाधातुः८ श्रद्धाधातु रधातुभाग् / श्रीपातश्च५१ निपातश्च२ ह्रीपात: पातकक्षयी" // 7 // श्रेष्ठ:५५ स्थविष्ठः५६ स्थविरो" ज्येष्ठ:५८ प्रेष्ठः पुरोहितः / गरिष्ठधी ररिष्टच्छिद्६२ बहिष्ठो निष्ठ एव च // 8 // व्योममूर्ति"रमूर्तिश्चान्तरिक्षात्मा" नभोमयः / गगनात्मा" महाकाश"श्चाम्बरात्मा" निरम्बर: / / 6 / / सुयज्वा यज्ञपुरुषो" यज्ञाङ्ग ममृतं हविः / धर्मयज्ञो" महावीरों" यजमानो नियाजभाग्" // 10 // Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशः 166 मन्त्रमूर्ति मन्त्रबीज मन्त्रन्यासश्च मन्त्रराट् / महामन्त्री मन्त्रपति “ध (4) र्मस्थानं सुमन्त्रभूः // 11 // चिन्मन्त्रो मन्त्रसंस्थानो" मन्त्रेडयो 2 मन्त्रपूजितः / मन्त्रमात्रः" स्फुरन्मन्त्रो" मन्त्रदेवश्च मान्त्रिक: // 12 // पञ्चमङ्गलमन्त्रश्च" सर्वमन्त्रावतारवान्" / 'मन्त्रे प्रत्यक्षरूपो०० यस्तस्मै भगवते नमः // 13 // // इति महोपाध्याय "श्रीयशोविजयगणि" समुच्चिते राजनगरवास्तव्यसङ्घमुख्य साह– 'पनजी' सुश्रूषिते सिद्धनामकोशे द्वितीयशतकप्रकाशः // 2 // 2 अथ तृतीयशतकप्रकाशः - जगन्नाथो' जगज्ज्येष्ठो' जगत्स्वामी' जगत्पिता। जगन्नेता जगद्भर्ता जगद्वन्धुर्जगद्गुरुः // 1 // जगत्त्राता जगत्पाता जगद्रक्षो जगत्सख:१२ / जगदीशो" जगत्स्रष्टा" जगद्वन्द्यो५ जगद्धितः१६ // 2 // 1. य० संज्ञकप्रतेः प्रथमं पत्र विनष्टम्, अतो द्वितीयपत्रस्य प्रथमपृष्ठे प्रारम्भः “त्रप्रत्यक्षरूपो" इत्यतो विद्यते / . 2. नमः // 13 // द्वितीयशतकप्रकाशः // 2 // जं० / 3. गत्सुहन् य० / . Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 सिद्धसहस्रनामकोशः जगत्पति जगन्मान्यो जगच्छास्ता" जगन्मुखम् / जगच्चक्षुर्जगन्मित्र जगद्दीपोर 'जगत्सुहृत् // 3 // जगत्पूज्यो५ जगद्धये यो५ ५जगद्विज्जगदर्यमा / जगन्माता जगद्माता जगद्भानु जगन्मणिः // 4 // 'जगद?" जगच्चिन्त्यो जगत्काम्यो जगत्प्रियः / जगद्धेतु"जगत्केतु जगत्सीमा", जगन्निधिः / / 5 / / जगद्वैद्यो" जगज्ज्योति जगत्पोषी* जगद्वषः" / जगत्पूषा" "जगदुर्यो जगद्वीज जगत्तरुः // 6 // जगत्सारो जगन्मूलं५० ८सिद्धार्थ:५९ सिद्धशासन:५२ / सिद्धस्थान:५२ सुसिद्धान्तः सिद्धगी:५५ सिद्धधी: सुधीः / / 7 / / भवाब्ध्यगस्तिर्भवहृद्५९ भवच्छि"दपुनर्भवः / कालातीतो भवातीतो भयातीतः कलातिगः // 8 // गुणातीतो६ रजोऽतीतः६७ कल्यातीतः८ कुलातिगः / वर्णातीतः पदातीतो मार्गातीतोऽक्षरातिगः // 9 // वाक्यातीतः स्मयातीतो" वाचोऽतीतो नयातिगः / वृत्त्यतीतः स्पृहातीतो" न्यासातीतो जनातिगः // 10 // 4. जगद्गुरुः य। . 5. जगद्वि जगद जं०। 6. दो य० / 7. जगदुर्यो जं०। 8. सिद्धार्तः य / Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशः 171 छन्दोऽतीतो जनातीतो लोकातीतो लयातिगः / योगातीत“स्तपोऽतीतो व्रतातीतो" यमातिगः // 11 // ध्यानातीतो. मनोऽतीत"श्चिन्तातीतश्चयातिगः / लेपातीतो" गदातीतो५ कामातीत स्तमोऽतिगः / / 12 // वेदातीतो वयोऽतीतः९ सर्वातीतश्च यः प्रभुः / कर्मेन्धनानि दह्यन्ते तस्य घनाग्निना क्षणात् // 13 // // इति महोपाध्याय "श्रीयशोविजयगणि" समुच्चिते राजनगरवास्तव्य-सङ्घमुख्य-साह 'पनजी' सुश्रूषिते श्रीसिद्धनामकोशे तृतीयशतकप्रकाशः // 3 // प्रथ चतुर्थशतकप्रकाशः . . अमृतात्मा'ऽमृतोद्भूतोऽमृतस्रष्टा'ऽमृतोद्भवः / अमृतौघोऽमृताधारोऽमृताङ्गोऽमृतसंस्थितिः // 1 // कृतज्ञः कृतकृत्यश्च कृतधर्माः कृतऋतु:१२ / कृतवेद:१३ कृतात्मा च" संस्कृताप्ति"रसंस्कृतः१६ / / 2 / / भावः स्वभावो“ निर्व!" मुख्यवर्गो ऽपवर्गभाग्" / सत्तार पदार्थः२३ पूर्णार्थो लक्षणार्थ स्त्रिलक्षणः६ / / 3 / / 1. 'त् // 13 // श्रीसिद्धनाम जं० / Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशः पद्मशः पद्मसम्भूति:२८ पद्मभूः पद्मविष्टरः / हृत्पद्मस्थो" महापद्मः२ पद्मः३. पद्मासनोदयः" // 4 // हिरण्यगर्भ:३५ श्रीगर्भो विरञ्चि" द्रुहिणश्च" कः / वेदगर्भः शतानन्दः पुराणज्ञः२. पुराणगः / / 5 / / विश्वरेता" 'हंसगति महाहंसश्च" हंसराट् / प्रजापति:४८ प्रजानाथो" हिरण्येशो" हिरण्मयः / / 6 / / हृषीकेशोर नभःकेशः स्थास्नु जिष्णु:५५ पितामहः५६ / भिषग्वरोऽगदङ कारो५८ वैद्यो" ध्वस्तगदो गद:६१ // 7 // वरदः६२ पारदः६२ श्रीदः सिद्धिद:६५ सर्वशर्मदः६६ / / वर्षीयान् वृषभो वर्षो वृषकेतु वृषध्वजः // 8 // महाबोधि वर्द्धमानो महद्धि"वृद्धिलक्षणः / अहानि-वृद्धि स्तुल्यात्मा त्रिलिङ्गो ऽतिस्त्रिलिङ्गकः / / 6 / / निरक्षः कृतभूरक्षो" रक्षोहन्ता 2 स्वरक्षित: / आत्मेक्षणः" क्षणमयः" शुभंयुः पुष्कलेक्षणः // 10 // त्रयीमय"स्त्रयीकेतुर्धारावाही त्रयीतेजोमय"स्त्रेता त्रयीधरः / दशपारमितेश्वरः // 11 // 1. गति धर्महंस जं० / 2. प्रात्येक्षणः / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धसहस्रनामकोशः 173 त्रयीतनू स्त्रयीगीत:९६ पिटकत्रयदेशितः / त्रिस्थ स्त्रिकरणोन्मुक्त"स्त्रिब्रह्मप्रकृतिः४०० ४श्रिये // 12 // ॥इति महोपाध्याय 'श्रीयशोविजयगणि" समुच्चिते राजनगरवास्तव्यसङ्घमुख्य-साह पनजी'सुश्रूषिते श्रीसिद्धनामकोशे चतुर्थशतकप्रकाशः // 4 // प्रथ पञ्चमशतकप्रकाशः ... शक्तो' निरेजः' कूटस्थः शीलेशः' शीलनायकः / - शैलेशः प्राप्तशैलेशिनिश्चयी व्यवहारमुक् / / 1 / / अनुपाधि"रुपाधिच्छित् सर्वोपाधिविशुद्धिमान्" / अनाचार्यो"ऽनुपाध्यायो"गुरु गुरुशिरोमणिः // 2 // स्वयम्बुद्धो" विबुद्धश्च" सम्बुद्धो" बुद्धजागर: / तुरीयावस्थित"स्तुर्यः सिद्ध जागरिकात्रयः२३ // 3 // अशस्त्रः" शस्त्रमुक्" शस्त्रोज्झितः शस्त्रविवर्जितः / अशस्त्री . परमाशस्त्रोऽशस्त्रभी रकुतोभयः // 4 // 3. पितृक य०। 4. श्रिये // 12 // श्रीसिद्धनामकोशे चतुर्थप्रकाशः // 4 // जं० / Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 सिद्धसहस्रनामकोशः दयासिन्धु दयापालो 2 दयानेता", दयानिधिः / दयालुः६ स्वदयाचिह्नो दयाश्रेष्ठो” दयोदय:३९ / / 5 / / दयास्थायी दयास्थानं सर्वशुद्धदयामयः / दयापात्रं दयामात्रो" दयाव्यासो दयोन्नतिः / / 6 / / आत्माराम"श्चिदाराम श्चिद्रामो" रामसत्तमः / श्रीरामः५१ केवलारामो२ दयारामो५३ विरामवान् // 7 // अजन्मरामोऽति (ती) रामो६ महारामो मनोरमः५८ / स्वतोरामः५९ स्वयंरामः केवलो राम" एव च / / 8 / / महेन्द्राऽर्यो" महेन्द्रडयो" महेन्द्रो"ऽतीन्द्रियार्थदृक् / अनिन्द्रियोऽहमिन्द्रार्योऽतीन्द्रोऽतीन्द्रियद्द स्वद्दक् // 6 // भतात्मा भतभृद७२ भूतरक्षी प्रभवो५ विभवो भूताधारो भूताभयङ्करः / भूतानुपग्रहः / / 10 / / अस्तप्राणो" महाप्राणः प्राणद: प्राणितेश्वरः / प्राणेशः प्राणदयित: प्राणाग्यः५ प्राणवल्लभ:८६ / / 11 // प्राणोत्तरः प्राणगति “रप्राण: प्राणिनामिनः अग्राह्यो" गहनं गूह्य प्रणवः प्रणवोत्सवः // 12 // 1. केवलराम जं. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशः .. प्राणायामप्रकटितः९६ प्राणमन्त्रो७ जपञ्जपः / द्रष्टा" कलङ्कलीभावः५०० सिद्धः सिद्धि ददातु नः / / 13 / / ॥इति महोपाध्याय "श्रीयशोविजयगणि" समुच्चिते राजनगरवास्तव्य-स / मुख्य-साह-पनजो'सुश्रूषिते श्रीसिद्धनामकोशे पञ्चमशतकप्रकाश: // 5 // प्रथ षष्ठशतकप्रकाशः महाशिवो' महाज्योतिर्महासिद्धो. महाध्रुवः / महादृष्टि महाप्राप्ति महारूपो" महायशाः // 1 // महात्राता महाचक्षु महाधारो" महाविधिः / महाविभुमहासारो". महावेदो" महागमः // 2 // महोपास्यो" महाध्येयो महाव्यापी" महामहः / महानाथो" महाज्येष्ठोर महास्वामी महासुहृत् / / 3 / / महास्रष्टा" महावन्द्यो महामान्यो" महामुनिः। महापूज्यो" महाभ्राता महाकाम्यो" महाप्रियः / / 4 / / महाहेतु"महासीमा" महावैद्यो" महौषधः / महामार्गो" महान्यासो८ महापूषा३९ महाचलः // 5 // 1. नः // 13 // // श्रीसिद्धनामकोशे पञ्चमशतकः प्रं जं० / Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 'सिद्धसहस्रनामकोश. महामूर्ति"महाचक्री महाराजो" महानयः / महाकीति"महास्फूर्ति महासत्यो" महातपाः // 6 // महामुक्ति "महात्यागी'. महाब्रह्मा" महाशुचि:५२ / महाधातु"महाप्रष्ठो महायज्वा महाहविः // 7 // महाव्योम महाबीज़८ महामात्रो" महाधृतिः / 'महाकृतो" महाभावोर महावर्गो महाधरः // 8 // महासनो" महाभूति महेशश्च महावृषः / महाशिष्टि महादेशो" महाज्ञश्च" महाव्रतः // 6 / / महागति महास्थास्नु"महावृद्धि महाक्षणः" / महागुरु महाणुश्च महावेश्मा महावशी // 10 // महाशको महाशीलो महाचार्यो महागुणः / महादयो५ महापात्रो महाव्याप्तिमहोन्नतिः // 11 // महार्णवो" महामेरु महाशाखो" महाधनः / महावसु"महावेदो" महापोतो" महागृहम् / / 12 / / महादित्यो" महासोमो: महाप्रज्ञाङ्कुर"स्तथा / महातर्कावतारश्च श्रेयांसि वितनोतु नः // 13 / / 1. महाकृति 61 महा० य० // 2. नः // 13 // श्रीसिद्ध नामकोशे षष्ठशतप्र० 0 / Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 177 सिद्धसहस्रनामकोशः पथ सप्तमशतकप्रकाश: विजयो' वैजयन्तश्च' जयन्त श्चापराजितः / सर्वार्थसिद्ध स्तीर्थार्च:६ स्वयम्भूरमणो" जयः // 1 // सदातनः सदाज्ञानः सदासत्यः११ सदाश्रयः१२ / . सदासुहृत् सदासौख्यः सदाविद्यः१५ सदोदयः // 2 // सदायोगः सदाभोगः१८ सदातृप्तः१९ सदानघः / सदास्नातः सदालेप:२२ सदोद्योतः२२ सदास्थितिः // 3 // अतुल्यो५ ऽसदशो ऽकल्यो ऽसमानो सवया" नगः / अगो' नगाधिराजश्च२ स्थावरो३ जङ्गमाश्रयः / / 4 / / प्रक्षीणबन्धः५ कामारि:३६ 1 प्रमाणपरिधिः प्रधी:३८ / कृतानन्द:३९ कृतामोदः कृतशर्मा' कृतोदयः / / 5 / / कृतान्तसृट कृतान्तच्छित् कृतान्तज्ञः कृतान्तहृत् / समयः समयातीतो विषमो" विषमास्त्रजित् / / 6 / / जितारि"रजितो'२ धर्म मेधो ऽमोघश्च शम्भवः / सुप्रतिष्ठो 6 दृढरथो विश्वसेनो८ महारथ:५९ / / 7 / / चिन्तामणिः० सुरमणिः१ कामकुम्भ:६२ सुरद्र मः / रोहणो" दक्षिणावर्तः६५ कामधेनुरकश्मल:६० // 8 // चितार्धिप्रद ३चैत्य९ श्चिरच्छायश्चिरस्थिति: / जैवातृकोऽनभिज्ञानो" विस्पर्श: स्पर्शगोचरः / / 6 / सम्मोहाप्य" . उन्नयः पुरुहूतोऽवतारमुक्" / दशलाक्षणिको° देशोऽनुद्दे शो ऽनुपचारभूः // 10 // 1. प्रमाणापरिधिः जं० // 2. 'म्मोहाख्य 76 जं० // Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 सिद्धसहस्रनामकोश. बन्धुरो रुचिर"श्चारु बन्धू रुप्यश्च शोभनः" / शतशाखः शतःश्च" शततारः२ शताध्वगः / / 11 / / शतोपायः४ शताख्यानः५ शतकीतिः६ शताह्वयः" / शतगृह्यः" शतोद्गीथः शतवृत्तिः श्रियेऽस्तु नः // 12 / / // इति महोपाध्याय-श्रीयशोविजयगणि-समुच्चिते राजनगरवास्तव्यसवमुख्य-साह पनजी'सुश्रूषिते श्रीसिद्धनामकोशे सप्तमशतकप्रकाशः // 7 // प्रथाष्टमशतकप्रकाश: धीशो' धियःपति/न्द्रो' धिषणः शेमुषीधरः / धीगणो धीसमूहश्च' गीष्पतिश्च गिराम्पतिः // 1 // वाचस्पति वचःस्रष्टा" बृहदात्मा२ बृहस्पतिः / बृहदारण्यको [द् ] द्योती४. मनीषीशो५ मनीषितः / / 2 / / नयोत्क्रान्तो" नयोद्भेदी ज्ञानगर्भ:' प्रभास्वरः / रत्नगर्भो' दयागर्भ:२२ पुण्यगर्भः 'स्वगर्भगः / / 3 / / लक्ष्मीश:२५ कमलानाथो निमन्तु"मन्तुमोचनः / आशामोचन" उद्दाम" अाशाविश्रामभाजनम् // 4 // 1. "स्तु वः // 12 // श्री सिध्दनाम जं०॥ . 2. मनीषीष्टो 15 जं०॥ 3. स्वगर्भजः 24 जं० // Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 सिद्धसहस्रनामकोशः धर्मयूपो 2 . धर्मगणो धर्मनेमि"रकर्मठ:३५ / धर्मचक्रायुधो६ धर्मघोषणो" धर्मपोषण:२८ // 5 // स्पृहामुक्तः स्पृहात्यागी स्पृहापशु:४१ स्पृहोज्झितः" / दूरस्थो" दूरदृग्" दूरपथ स्तथ्यः स्थितिप्रणी: // 6 // अध्यात्मगम्यो "ध्यात्माङ्गोऽध्यात्माप्योsध्यात्मलोचनः / अध्यात्माधित्यको ध्यात्मकैलाशोऽध्यात्म शासनः // 7 // अध्यात्मवासोऽध्यात्मा!ऽध्यात्मार्कोऽध्यात्मभास्करः / अध्यात्मांशु र्घनाध्यात्मः स्वाध्यात्मोऽध्यात्म'सङ्ग्रहः // 8 // अध्यात्मकोटि रध्यात्मसारोऽध्यात्मपरिग्रहः / अध्यात्मसृष्टि "रध्यात्मपवित्रोऽध्यात्मपारगः // 6 // अध्यात्मपूर्णोऽध्यात्मेष्टोऽध्यात्माढयोऽध्यात्मसंश्रयः७२ / अध्यात्मयज्ञोऽध्यात्मेन्द्रो ऽध्यात्मेनोऽध्यात्मवासितः / / 10 / / 'अध्यात्मभाव्योऽध्यात्मेद्धोऽध्यात्माध्वा ऽध्यात्मसङ्गतः / अध्यात्मरङ्गोऽध्यात्मार्थोऽध्यात्माभोऽध्यात्ममन्दिरम // 11 // अध्यात्मपूतोऽध्यात्मास्थोऽध्यात्माज्ञोऽध्यात्मसंवरः / अध्यात्मस्थोऽध्यात्मधनो ऽध्यात्मज्ञो' ऽध्यात्मविष्टर:।।१२॥ 1. स्पृहाधनः 42 जं० // 2. त्मसङ ग्रहः 54 जं० // 3. 'त्मशासनः 62 0 // 4. 'भावो 77 जं. // 5. ध्यात्माग्रो (? ङ्गो) 82 0 65 जं० // Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 180 सिद्धसहस्रनामकोशः अध्यात्मपीठो-१ऽध्यात्मेलो"ऽध्यात्मेतोऽध्यात्मसन्ततः / २प्राध्यात्मोऽध्यात्मसन्तानोऽध्यात्माख्योऽध्यात्मविन् 00 ॥इति महोपाध्याय-श्रीयशोविजयामामुद // 13 // राजनगरवास्तव्यसङ्घमुख्य-साह पनजी'सुश्रूषिते श्रीसिद्धनामकोशे अष्टमशत [क] प्रकाशः // 8 // प्रथ नवमशतकप्रकाशः अभो'ऽनदो'ऽरवो'ऽनादो स्वरो'ऽस्वानोऽस्वनो ऽध्वनिः / अवृद्धि रगुणो" बिन्दु"रविसर्गोऽलुग"क्रमः" / / 1 / / अहसो'मातृको प्रत्याहारो'घोषोऽनुपाहितः / अनामा प्रातिपदिको* ऽसमासो ऽविग्रहो" ऽग्रहः / / 2 / / अनाख्यातो"ऽकृदन्त श्चातद्धितो" नणु (? नाप्यु)णादिकः / "अयोगो" रूढि" रस्तोभो" ऽच्छन्दाश्चाप्यनलङ्कृतिः // 3 // अपातो" लम्बनोऽक्रान्तिरराशि"रनहर्गणः। अनतोऽनुन्नतोऽलग्नो" ऽनुच्चो नीचो" ऽदिगन्तरः // 4 // अनर्को "ऽनाटकोऽनाट्यो ऽविभवोऽतनुभावकः / स्थायी रसोऽश्लथोऽनाथो काव्योऽगीति५५ रपिङ्गलः५६ / / 5 / / 1. 'ध्यात्मेजो 64 ध्यात्मेजो (?डयो) 2. प्राध्याप्यो 67 य० / / 3. °न्मुदे // 13 // श्री सिद्धकोशोऽष्टमं जं० // 4. अयोजो 26 ऽभूमि 30 रस्ताभो 31 जं० // 5. "कायो य० // Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशः 181 अनिघण्टु५७.१ रनध्यायो“संहितोऽवैद्यको"ऽव्यथः / अग्रामोऽमूर्च्छनो" वाद्यो" नेपथ्योऽनिङ्गितो"लयः // 6 // पश्यत्यात्माऽघनो ऽभाषो ह्यवैखरि"रमध्यमः / अश्वेतो"पाटलोऽश्यामोऽनीलो" बभ्रु"रपीतिमा" / / 7 / / अतिक्तोऽमधुरो नम्लोऽकषायोऽलवणो कटुः / असौगन्ध्योऽपदौर्गन्ध्योऽनुष्णोऽशीतोऽखरो ऽमृदुः० . // 8 // अस्निग्धो" गौरवोऽलूक्षो" संस्थानो"लघु"रस्मयः / " अवेदो वेदसङ्गीतः श्रीयुक्तः श्रीपतिः०० श्रिये // 6 // / / इति महोपाध्याय-श्रीयशोविजयगणि-समुच्चिते राजनगरवास्तव्यसङ घमुख्य-साह पनजी'सुश्रूषिते श्रीसिद्धनामकोशे नवम शतकप्रकाशः // 6 // प्रय दशमशतकप्रकाशः आदिदेवो' युगादीशो'. युगेशो' 'युगपो' युगः / उपज्ञा समयोपज्ञ मप्रत्यूहो महाबलः' // 1 // शिवताति"महाशान्ति"निर्वृतः संवृतोऽवृतः" / अरहा५ अरुहोऽरोह" आद्यध्येयः८ पदोत्तरः // 2 // 1. रनध्येयो 58 जं० / / 2. 'य: 66 / अना 67 ऽस्त्र्य९८ ऽनपुषा संज्ञः 66 श्रिये सिद्धान्त देवता 100 // 6 / / य०॥ 3. // श्रीसिद्धनाम जं० / / 4. 'शतप्र य० // Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 सिद्धसहस्रनामकोशः आत्मरक्षा"ऽऽत्मकवच मात्मत्राता"ऽऽत्मपञ्जरम्" / अकुण्ठ" स्त्र्यम्बक: सार्वः शर्वः सर्वेश्वरो" मृड: / / 3 / / प्राद्येड्य” प्राद्यचारित्र'माद्यमन्त्र'२ ऋगादिमः / आद्यवा गाद्यभूराद्यनेता ऽद्यर्षि वृषादिमः // 4 // . . प्राद्यमेघः प्रधानाधः क्षमाद्यो" नाद्यो निराक्रियः / नन्द्यो" नादीनवो नन्द्यावर्तोऽहः स्वस्तिकोऽस्तिकः / / 5 / / प्रोढो"ऽनूढो" मन्त्रशिखो दीप्तोऽरिघ्नो" निरन्तर:५५ / भद्रो ऽनीदृगनित्यंस्थो ऽयुतसिद्धः" सुसंयुतः // 6 // अलोकस्पृग" लोकमध्यो" लोकमान्यो" विसंशयः / जागरूक: सदोन्निद्रो" निस्तन्द्रो निःप्रमीलदृग / / 7 / / अनिमेषो" निमेषेन्द्र:०० प्रमाकर्ता प्रमाप्यकः / प्रमाणं च" प्रमासम्प्रदान" शुद्धप्रमाश्रयः / / 8 / / प्रमापादान: सम्बन्धी प्रमायाः स्वप्रमोद्गतः / 2 मार्गो मार्गप्रभु मर्गिस्वामी मार्गविशोधकः / / 6 / / 1. / / 9 / / श्री सिद्धनाम जं०। २-"मार्गों"मार्गेश -सन्मार्गो मार्गदग" मार्गशोषक:'८२ इति प्रतौ / Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध सहस्रनामकोशः 183 एकधी रेकपू“रेकवेश्म "कस्थिति रेकभः / एकोद्भव"श्चैकमार्ग एकधामै कशासनः" / / 10 / / एकातपत्र६ एकाज्ञ३ एकाग्र"श्चैकमन्दिरः५ / गः स्ति स्तरणि स्तार:९८ सविता" ध्वान्तनाशनः 10 // 11 // चतुष्कभागष्टगुणो' दीनपो' भक्तवत्सलः / कृपालुः स्फीतकरुणो धीर: श्रीरमण: श्रिये // 12 // 1 // इति महोपाध्याय-श्रीयशोविजयगणि-समुच्चिते [राजनगर वास्तव्य] सङ्घमुख्य-सा-'रतन'सुत-सा-'पनजी' सुषिते श्रीसिद्धनामकोशे दशमशतकप्रकाश: // 10 // [ / सम्पूर्णमिदं श्रीसिद्धसहस्रनामप्रकरणम् // ] फलश्र तिः अष्टोत्तरं नामसहस्रमेतत् पठन्ति ये प्रातरपप्रमीलाः / : ते स्वर्गलीलामनुभूय भूयः सिद्धालयं यान्ति न संशयोऽत्र // 1 // प्रशस्तिः गच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः, प्रोढिं प्रौढिमधाम्नि जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः / 1. एतच्चिद्वयान्तर्गतः पाठो जं० संज्ञकप्रतो नास्ति / / 2. उपेन्द्र वज्राछन्दः // 3. शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः / उपेन्द्रवज्रा शार्दूलविक्रीडितच्छन्दसी विहाय शेषरचनाऽनुष्ट छन्दोमयी ज्ञया / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशः तत्सातीर्थ्यभृतां नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशु स्तत्त्वं किञ्चिदिदं यशोविजय इत्याख्याभृदाख्यातवान् / / 2 / / इति श्रीसिद्धनामानि // - [पू० प्रा० श्रीमद्विजयधर्मसूरीश्वरशिष्यमुनिश्रीयशोविजयेन वि०सं० 2032 तमे मुम्बानगर्यां संशोधितं सम्पादितं च / ] 1. 'इति श्रीसिद्धनामानि' इति य० प्रतौ नास्ति / 2. नि // लिखितं राजनगरे सं० 1636 वर्षे इति श्रेयः / इति जं० प्रती लेखकलिखिता पुष्पिकाऽस्ति / / 3. मेरे धर्मस्नेही मित्र श्री अमृतलाल मो० पण्डित द्वारा किये गये संशोधनों के आधार पर पाठान्तर आदि की यह टिप्पणी दी गई है। (सम्पादक) Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध सहस्रनामावलीपाठः Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामावली . धार्मिक ग्रन्थों में नाम-स्मरण की महिमा अत्यधिक वर्णित है। 'कलियुग केवल नाम अधारा / सुमिरि-सुमिरि नर उतरहिं पारा। इस उक्ति के अनुसार वर्तमान युग में नाम स्मरण का ही महत्त्व माना जाता है। इष्टदेव के नाम अनन्त होते हैं क्योंकि उसके गुण, कर्म, प्रभावातिशय सभी तो अनन्त ही हैं। तन्त्र-ग्रन्थों में किसी भी इष्टदेव की कृपाप्राप्ति के लिए जो विधान दिये गये हैं उनमें पटल, पद्धति, कवच, हृदय, स्तोत्र, शतक आदि के साथ 'सहस्रनाम' का भी पाठ आवश्यक बताया है। पूज्यश्री उपाध्याय जी ने इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर प्रस्तुत 'सिद्धसहस्रनामावली की रचना की है। इसमें 1008 नामों का सङ्कलन क्रमशः अनुष्टप् छन्दों में किया गया है / आस्तिक जनों में इस प्रकार के सहस्रनामों को पृथक-पृथक रूप में प्रत्येक नाम के साथ आदि में 'ॐ' तथा अन्त में 'नमः' लगाकर पाठ और पूजन-जप का विधान प्रचलित है और आवश्यकता एवं कर्म को ध्यान में रखकर अन्य बीजमन्त्र लगा कर भी पाठ किये जाते हैं जिसका विस्तत परिचय हमने प्रारम्भ में दिया है। यहाँ केवल आदि में 'ॐ' तथा अन्त में 'नमः' लगाकर चतुर्थी विभक्ति के साथ सभी नामों को अलग-अलग मुद्रित कर रहे हैं। इसका पाठ स्त्री, पुरुष, बालक, बालिका सभी कर सकते हैं और प्रभु की कृपा प्राप्त कर सकते हैं। विशेष प्रयोग के लिये मुरु महाराज से निर्देश प्राप्त करें। -सम्पादक Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सिद्धसहस्त्रनामावलीपाठः नमः 20 ॐ अनादिशुद्धाय नमः / , शुद्धात्मने ., स्वयंज्योतिषे , स्वयम्प्रभवे केवलाय केवलिने ज्ञानिने , केवलात्मने , कलोज्झिताय , सार्द्धसत्त्रिकलातीताय , , अन्यूनाधिककलानिधये , , अनन्तदशे अनन्तात्मने , अनन्तप्राप्तये , अनन्तजिते परमेष्ठिने " परब्रह्मण ,, परमात्मने सनातनाय ॐ सदाशिवाय ,, परंज्योतिष , ध्रुवाय .. सिद्धाय , निरञ्जनाय // अनन्तरूपाय ,, अनन्ताख्याय तथारूपाय तथागताय यथारूपाय ,, यथाज़ाताय यथाख्याताय ,, यथास्थिताय ,, लोकाग्रमौलये ,, लोकेशाय ,, लोकालोकविलोककाय ,, .. , लोकेड्याय ., लोकपाय , लोकत्रात्रे Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 सिद्धसहस्रनामावली ॐ लोकाग्रशेखराय नमः . ॐ मृत्युजयाय नमः , विश्वदशे , 40 , मत्युनिवारणाय / , विश्वतश्चक्षुषे ,, सर्वादये ... विश्वतः पाणये ,, सर्वगाय , आत्मभुवे ,, सर्वजनीनाय स्वयम्भुवे , सर्वदर्शनाय ., विश्वतो बाहवे ,, सुश्रुताय . विश्वात्मने " सुस्थिताय , विश्वतोमुखाय सुस्थाय , विश्वकृते " पुराणाय , विश्वरूपाय ,, प्राक्तनाय , विश्वव्यापिने ,, 50 ,, विभवे ,, विधिशेषाय ,, विधेःसाराय विश्वशीर्षाय .. ,, विधिनिषेधतः परस्मै नमद्विश्वाय / ,, प्रशान्त वाद्याय , विश्वाधाराय . निर्वाच्याय. , विश्वसुवे , दिक्भागपरिक्षयिने विश्वम्भराय.. ,, अपदाय शिवायं . ,, अनक्षराय विश्वावताराय ..., ,, अनिच्छाय ,, विश्वदर्पणाय , अतघ्यावृत्तिलक्षणायः ; : विश्वख्याताय : , ब्रह्मचर्यफलीभूताय , ,, जयाय ,, ब्रह्मणे . .., विधवे विधये Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामावली ॐ ब्रह्मादस्थिताय . नमः . . , प्रात्मवते : , वेदवते , विष्णवे ब्रह्मवते , ब्रह्मसम्भवाय " सूक्ष्माय परात्पराय जेत्रे , जयिने , सर्वमलोज्झिताय , . ,, उपासनानां फलदाय ,, , उपास्यत्वेन देशिताय , , सर्वाविप्रतिपन्नाय , 100 ,, धर्मविदे , धर्मकृते , धर्मिणे धर्मात्मने , धर्मदेशकाय 186 ॐ अनन्तधर्मणे , धर्मसाराय ,, स्वधर्मगाय , परधर्म विनिर्मुक्ताय ,, धर्मप्रापिणे ,, विधर्मभृते ,, धर्मचक्रिणे ,, महाधर्मणे ,, धर्ममूर्तये , सुधर्मदृशे , 120 , धर्माङ्गाय ,, धर्मसन्न्यासिनेः . .. ,, धर्माधर्मविजिताय , , धर्मोत्तराय , धर्मकीर्तये , धर्ममुदे , धर्ममण्डलाय ,, धर्मानोवाय , धर्ममौलये ,, धर्माप्राय , धर्मशासनाय , धर्मक्षमिने , धर्ममृदवे , धर्मजंवे ... : , सुधर्मणे ... 130 , धर्मदाय , धर्मनायकाय . " धर्मसारथये ...दशधमणे , , 110 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 - सिद्धसहस्रनामावली ॐ धर्मसंयमाय ॐ प्रेष्ठाय नमः ., धर्मसत्याय ,, पुरोहिताय. .,, 160 , धर्मतपसे ,, गरिष्ठधिये , धर्मब्रह्मणे . ,, अरिष्टच्छिदे , शुचये , बहिष्ठाय , धर्मत्यागिने , 140 , निष्ठाय .. , धर्ममुक्तये , व्योममूर्तये ,, धर्मस्थाय . , अमूर्तये . ,, धर्मशाश्वताय ,, अन्तरिक्षात्मन ,, धर्मलभ्याय . , नभोमयाय , धर्मसेव्याय ,, गगनात्मने , धर्मश्रद्धावशंवदाय , महाकाशाय . . . 170 ,, धर्मधातवे ,, अम्बरात्मने , क्षमाधातये .. ,, निरम्बराय , श्रद्धाधातवे , सुयज्वने . ,, अधातुभाजे 150 , यज्ञपुरुषाय ,, श्रीपाताय , यज्ञाङ्गाय 1, निपाताय ,, अमृताय , ह्रीपाताय ___...., हविषे , पातकक्ष यिने .,, धर्मयज्ञाय ; श्रेष्ठाय . :,, महावीराय ,, स्थविष्ठाय '' यजमानाय , स्थविराय ,, नियाजभाजे " ज्येष्ठाय , मन्त्रमूर्तये . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161 सिद्धसहस्रनामावली ॐ मन्त्रबीजाय .. नम: , मन्वन्यासाय , मन्त्रराजे , महामन्त्राय ,, मन्त्रपतये , धर्मस्थानाय , सुमन्त्रभुवे , चिन्मन्त्राय , मन्त्र संस्थानाय ,, मन्त्रेड्याय " मन्त्रपूजिताय , मन्त्रमात्राय , स्फुरन्मन्त्राय , मन्त्रदेवाय . . ,, ,, मान्त्रिकाय ...., " पञ्चमङ्गलमन्त्राय , , सर्वमन्त्रावतारवते . , . ,, मन्त्रे प्रत्यक्षरूपाय , 2 , जगन्नाथाय जगज्ज्ये ष्ठाय .. . . ., . जगत्स्वामिने ...... ॐ जगद्बन्धवे. नमः ,, जगद्गुरवे ,, जगत्त्रात्रे ,, जगत्पात्रे 210 ,, जगद्रक्षाय , जगत्सखाय ,, जगदीशाय ,, जगत्सष्ट्र ,, जगद्वन्द्याय ,, जगद्धिताय / ,, जमत्पतये .... , जगन्मान्याय जगच्छास्त्रे , जगन्मुखाय ,, जगच्चक्षुधे ,, जगन्मित्राय ....." ', जगद्दीपाय ,, जगत्सुहृदे ,, जगत्पूज्याय .,. जगद्धय याय ,, जगद्विदे ,, जगदर्यम्णे , जगन्मात्रे ,जगद्मात्रे ,, 230 " , जगत्पित्रे जगन्नेत्रे जगभर्ने : , ...: . ,, Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 सिद्धसहस्रनामावली. नमः .. ॐ जगद्भानवे ,, जगन्मणये , जगदाय , जगच्चिन्त्याय. जगत्काम्याय , जगत्प्रियाय जगद्धेतवे , जगत्केतवे जगत्सीम्ने जगन्निधये जगद्वैद्याय ,, जगज्ज्योतिष जगत्पोषिणे , जगद्वषाय जगत्पूष्णे , जगद्धर्याय जगद्बीजाय , जगत्तरवे जगत्साराय जगन्मूलाय सिद्धार्थाय सिद्धशासनाय ,, सिद्धस्थानाय , सुसिद्धान्ताय नमः . ॐ सिद्धगिरे. .., सिद्धधिये ., सुधिये , भवाब्ध्यगस्तये , भवहृते , भवच्छिदे / , अपुनर्भवाय ,, कालातीताय ,, भवातीताय , भयातीताय ,, कलातिगाय ,, गुणातीताय ,, रजोऽतीताय ,, कल्यातीताय ,, कुलातिगाय ,, वर्णातीताय ,, पदातीताय ,, मार्गातीताय ,, अक्षरातिगाय ,, वाक्यातीताय ,, स्मयातीताय ,, वाचोऽतीताय ,, नयातिगाय ,, वृत्त्यतीताय . Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामावली ॐ स्पृहातीताय ,, न्यासातीताय ,, जनातिगाय , छन्दोऽतीताय ,, जनातीताय ,, लोकातीताय / , लयातिगाय , योगातीताय , तपोऽतीताय , व्रतातीताय , यमातिगाय , ध्यानातीताय , मनोऽतीताय ,, चिन्तातीताय , चयातिगाय लेपातीताय ,, गदातीताय , कामातीताय , तमोऽतिगाय ,, वेदातीताय वयोऽतीताय ., सर्वातीताय , अमृतात्मने अमृतोद्भताय " अमृतस्रष्ट्र नमः / ॐ अमृतोद्भवाय ,,280 ,, अमृतौघाय ,, अमृताधाराय ,, अमृताङ्गाय ,, अमृतसंस्थितये ,, कृतज्ञाय ,, कृतकृत्याय, ,, कृतधर्मणे ,, कृतक्रतवे ,, कृतवेदाय ,, कृतात्मने ,, 260 , संस्कृताप्तये ,, असंस्कृताय ,, भावाय ,, स्वभावाय ,, निर्वय ,, मुख्यवर्गाय ,, अपवर्गभाजे ,, सत्तायै ,, पदार्थाय ,, पूर्णार्थाय ,, लक्षणार्थाय : ,, त्रिलक्षणाय ,, पद्मशाय Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 सिद्धसहस्रनामावली हापभाय "360 : चय काय ॐ पद्मसम्भूतये नमः ॐ नभःकेशाय ,, पद्मभुवे , स्थास्नवे. .. , पद्मविष्टराय , 320, जिष्णवे , हृत्पद्मस्थाय ,, पितामहाय .. 7, महापद्माय ... " , भिषग्वराय , पद्माय ..." , अगदङ्काराय , पद्मासनोदयाय ,, वैद्याय. .. , हिरण्यगर्भाय ,, ध्वस्तगदाय , श्रीगर्भाय , अगदाय , विरञ्चये ,, वरदाय " द्रुहिणाय ,, पारदाय , श्रीदाय ,, वेदगर्भाय 340 , सिद्धिदाय , शतानन्दाय : ,, सर्वशर्मदाय , , पुराणज्ञाय ,, वर्षीयसे , पुराणगाय ,, वृषभाय , विश्वरेतसे . ,, वर्षाय .., हंसगतये ,, वृषकेतवे . .... " महाहंसाय ,, वृषध्वजाय .. , हंसराजे ,, महाबोधये . , प्रजापतये __.. वर्द्धमानाय , प्रजानाथाय , , महद्धये , हिरण्येशाय ...., 350 , वृद्धिलक्षणाय.. , हिरण्मयाय ... , अहानिवृद्धये .... " हृषीकेशाय , . , स्तुत्यात्मने Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 सिद्धसहस्रनामावली ॐ त्रिलिङ्गाय . नमः ॐ कूटस्थाय , प्रतित्रिलिङ्गकाय , , शीलेशाय , निरक्षाय 380 , शीलनायकाय , कृतभूरक्षाय ,, शैलेशाय , रक्षोहन्त्रे ,, प्राप्तशैलशये ,, स्वरक्षिताय ,, निश्चयिने , आत्मेक्षणाय / ,, व्यवहारमुचे ,,क्षणमयाय " अनुपश्चये , शुभंयवे उपाधिच्छिदे ', पुष्कलेक्षणाय ,, सर्वोपाधिविशुद्धिमते , , त्रयीमयाय , ,, अनाचार्याय , त्रयीकेतवे , ,, अनुपाध्यायाय धारावाहिने , अगुरवे , त्रयीधराय , ,, गुरुशिरोमणये .. त्रयीतेजोमयाय . , ,, स्वयम्बुद्धाय , ,, विबुद्धाय ..., , दशपारमितेश्वराय , ,, सम्बुद्धाय त्रयीतनवे बुद्धजागराय , त्रयीगीताय , , तुरीयावस्थिताय ... , ,, पिटकत्रयदेशिताय :, . " तुर्याय ., त्रिस्थाय ..., ,, सिद्धजागरिकात्रयाय , ,, त्रिकरणोन्मुक्ताय : ,, अशस्त्राय . . " ,, त्रिब्रह्मप्रकृतये . ,400 ,, शस्त्रमुचे " शक्ताय , शस्त्रोज्झिताय .. .. ., ., निरेजसे : ..., ,, शस्त्रविजिताय ... ., " 31 त्रेताये Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 सिद्धसहस्रनामावाली नमः ॐ प्रशस्त्रिणे नमः . ॐ दयारामाय ,, परमाशस्त्राय ,, विरामवते. ,, अशस्त्रभिये ,, अजन्मरामाय ,, अकुतोभयाय ,, अतिरामाय , दयासिन्धवे ,, महारामाय , दयापालाय ,, मनोरमाय , दयानेत्रे :, स्वतोरामाय , दयानिधये , स्वयंरामाय : , दयालवे ,, केवलरामाय , स्वदयाचिह्नाय ,, महेन्द्राव्य , दयाश्रष्ठाय .... ,, महेन्द्र ड्याय , दयोदयाय .. ,, महेन्द्राय दयास्थायिने :,, 440 , अतीन्द्रियार्थदृशे दयास्थानाय . .. , अनिन्द्रियाय सर्वशुद्धदयामयाय , . . , अहमिन्द्राव्य दयापात्राय , अतीन्द्राय , दयामात्राय , अतीन्द्रियदृशे . , दयाव्यासाय ,, स्वदृशे / , दयोन्नतये , भूतात्मने , आत्मारामाय , भूतभृते , चिदारामाय , भूत रक्षिणे , चिद्रामाय भूताभयङ्कराय रामसत्तमाय 450 , प्रभवाय , श्रीरामाय .. , विभवाय , केवलारामाय . . भूताधाराय 470 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 नमः "480 सिद्धसहस्रनामावली ॐ भूतानुपग्रहाय . . नमः ॐ महाज्योतिषे ,, अस्तप्राणाय , महासिद्धाय ,, महाप्राणाय ., महाध्रुवाय ,, प्राणदाय ,, महादृष्टये 1, प्राणितेश्वराय , महाप्राप्तये , प्राणेशाय 1, महारूपाय .., प्राणदयिताय ,, महायशसे प्राणायाय , महात्रात्रे , प्राणवल्लभाय / ', महाचक्षुषे " प्राणोत्तराय , महाधाराय , प्राणगतये , महाविधये ., अप्राणाय ,, महाविभवे , प्राणिनामिनाय , 460 ,, महासाराय , महावेदाय " अग्राह्याय , महागमाय " गहनाय " महोपास्याय , गूह्याय ., महाध्येयाय प्रणवाय ',, महाव्यापिने 1. प्रणवोत्सवाय ,, महामहाय , प्राणायामप्रकटिताय , महानाथाय " प्राणमन्त्राय , महाज्येष्ठाय ,, महास्वामिमे ,, महासुहृदे . " कलंङ्कलीभावाय. , 500 .. " महाशिवाय . . महात्रष्ट्र .", .. महावन्द्याय , जपजपाय. " , ब्रष्ट्र Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 नमः w "560 ॐ महामान्याय ,, महामुनये " महापूज्याय ,, महाभ्रात्रे : ,, महाकाम्याय , महाप्रियाय ,, महाहेतवे " महासीम्ने ,, महावैद्याय महौषधाय , महामार्गाय 1, महान्यासाय , महापूष्ण ,, महाचलाय , महामूर्तये ., महाचक्रिणे ,, महाराजाय , महानयाय. / महाकीर्तये " महास्फूर्तये " महासत्यायः "महातपसे , महामुक्तये 1. महात्वामिने , महाब्रह्मणे सिद्धसहस्रनामावली नमः . ॐ महाशुचये , महाधातवे " महाप्रष्ठाय ,, महायज्वने ,, महाहविषे ,, महाव्योम्ने :,, महाबीजाय " . ,, महामात्राय . , महाधृतये ,, महाकृताय , महाभावाय , महावर्गाय महाधराय , महासनाय ,, महाभूतये ,, महेशाय . ,, महावृषाय ,, महाशिष्टये , महादेशाय ,, महाज्ञाय / ,, महावताय , महागतये , महास्थास्नवे ,550, महावृद्धये . महाक्षणाय . Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामावली ॐ महागुरवे . नमः , महाणवे ,, महावेश्मने , महावशिने , महाशक्राय ,, महाशोलाय , महाचार्याय " महागुणाथ ,, महादयाय ,, महापात्राय ,, महाव्याप्तये , महोन्नतये ,, महार्णवाय , महामेरवे ".560 महाशाखाय , महाधनाय महावसवे , महावेदाय महापोताय महागृहाय महादित्याय , महासोमाष ,, महाप्रज्ञाकुराय ..., ,, महातर्कावताराय..६.०० ॐ विजयाय ,, वैजयन्ताय ,, जयन्ताय , अपराजिताय है, सर्वार्थ सिद्धाय , तीर्थार्चाय , स्वयम्भूरमणाय जयाय सदातनाय सदाज्ञानाय सदासत्याय ,, सदाश्रयाय ,, सदासुहृदे ,, सदासौख्याय ,, सदाविद्याय ,, सदोदयाय , सदायोगाय , सदाभोगाय , सदातृप्ताय , सदानघाय ,, सदास्नाताप ,, सदालेपाय ,, सदोद्योताय , सदास्थितये ..... Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 " 630 सिद्धसहस्रनामावली ॐ अतुल्याय - नमः . ॐ विषमाय नमः , विषमास्त्रजिते . . . ,, 650 " असदशाय , अकल्याय ,, जितारये ,, अजिताय "असमानाय , सर्वयसे ,, धर्ममेधाय नगाय ,, अमोघाय अगाय ,, शम्भवाय , नगाधिराजाय ., ,, सुप्रतिष्ठाय , स्थावराय " दृढरथाय " जङ्गमाश्रयाय ,, विश्वसेनाय ,, प्रक्षीणबन्धाय महारथाय ,, चिन्तामणये , कामारये , प्रमाणपरिधये , सुरमणये , प्रधिये , कामकुम्भाय सुरद्रुमाय " कृतानन्दाय .. ,, रोहणाय , कृतामोदाय ,, दक्षिणावर्ताय ,, तशर्मणे ,, कामधेनवे , कृतोदयाय , अकश्मलाय ,, कृतान्तसृजे , चितार्धप्रदाय ;; कृतान्तच्छिदे ,, चैत्याय , कृतान्तज्ञाय ,, चिरच्छायाय 670 , कृतान्तहते ,, चिरस्थितये .. , समयाय , जैवातृकाय. . : .. , समयातीताय'... .... अनभिज्ञानाय / Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .201 700 सिद्धसहस्रनामावली ॐ विस्पर्शाय , स्पर्शगोचराय , असम्मोहाप्याय , उन्नेयाय पुरुहूताय , अवतारमुचे , दशलाक्षणिकायः , देशाय " अनुद्दे शाय , अनुपचारभुवे ,, बन्धुराय , रुचिराय , चारवे ,, बन्धवे रूप्याय शोभनाय ,, शतशाखाय शताय , शतताराय , शताध्वगाय , शतोपायाय " शताख्यानाय , शतकीर्तये नमः ॐ शताह्वयाय नमः ,, शतगृह्याय ,, शतोद्गीथाय ,, शतवृत्तये ,, धीशाय ,, धियःपतये , धीन्द्राय ,, धिषणाय , शेमुषीधराय , धीगणाय ,, धीसमूहाय ,, गीष्पतये , गिराम्पतये ,, वाचस्पतये , वचःस्रष्ट्र .. बृहदात्मने // 660 : , बृहस्पतये , बृहदारण्यकोद्योतिने 1, मनीषीशाय ,, मनीषिताय . ,, नयोत्क्रान्ताय , नयोद्भेदिने , ज्ञानगर्भाय / प्रभास्वराय 720 . . Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामावली र .. 202 ॐ रत्नगर्भाय ,, दयागर्भाय पुण्यगर्भाय स्वगर्भगाय लक्ष्मीशाय कमलानाथाय ., निर्मन्तवे , मन्तुमोचनाय , आशामोचनाय 1, उद्दामाय , 730 आशा विश्रामभाजनाय , धर्मयुपाय ,, धर्मगणाय ,, धर्मनेमये अकर्मठाय धर्मचक्रायुधाय धर्मघोषणाय धर्मपोषणाय स्पृहामुक्ताय ,, स्पृहात्या गिने ,, स्पृहापर्शवे ,, स्पृहोज्झिताय ,, दूरस्थाय , दूरदर्श . दूरपथाय , तथ्याय ॐ स्थितिप्रणिये नमः ,, अध्यात्मगम्याय // . , अध्यात्माङ्गाय , ,, अध्यात्माप्याय , , 750 , अध्यात्मलोचनाय , ,, अध्यात्माधित्यकाय , . ,, अध्यात्मकैलाशाय . , ., अध्यात्मशासनाय ,, अध्यात्मवासाय ,, अध्यात्मार्चाय , ,, अध्यात्मर्काय ., ,, अध्यात्मभा कराय , ,,'अध्यात्माँशवे घनाध्यात्माय ,, स्वाध्यात्माय ,, अध्यात्मसंग्रहाय , अध्यात्मकोटये , अध्यात्मसाराय ,, अध्यात्मपरिग्रहाय , अध्यात्मसृष्टये अध्यात्मपवित्राय अध्यात्मपारगाय ,, अध्यात्मपूर्णाय , अध्यात्मेष्टाय ....., 770 . अध्यात्मादयाय " 760 740 , Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामावली. 203 नमः , ॐ अध्यात्मसंश्रयाय नमः / ॐ प्राध्यात्म य , अध्यात्मयज्ञाय " अध्यात्मसन्तानाय , अध्यात्मेन्द्राय ,, अध्यात्माख्याय अध्यात्मेनाय ., अध्यात्मविदे , अध्यात्मवासिताय ,, अभाय अध्यात्मभाव्याय " अनदाय अध्यात्मेद्धाय ,, अरवाय अध्यात्माधवने . अनादाय ,, अध्यात्मसङ्गताय ,,780 ,, अस्वराय अध्यात्मरङ्गाय अस्वानाय , अध्यात्मार्थाय , अध्यात्माभाय ___, अस्वनाय अध्यात्ममन्दिराय अध्यात्मपूताय ,, अवृद्धये , अध्यात्मास्थाय ,, अगुणाय अध्यात्माज्ञाय ,, विन्दवे , अध्यात्मसंवराय मविसर्गाय ., अध्यात्मस्थाय , अध्यात्मधनाय , 760 , अक्रमाय , अध्यात्मज्ञाय अहसाय , अध्यात्मविष्टराय अमातृकाय , अध्यात्मपीठाय अप्रत्याहाराय , अध्यात्मेलाय ., ,, अघोषाय , अध्यात्मेताय . , ,, अनुपाहिताय ,, अध्यात्मसन्ताताय , , अनाम्ने ., अध्वनये ., .,, अलके 2 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 पाय ॐअप्रातिपदिकाय ,, असमासाय , अविग्रहाय ,, अग्रहाय . अनाख्याताय , अकृदन्ताय ,, अतद्धिताय ,, नाप्युणादिकाय ,, अयोगाय ,, अरूढये . ,, अस्तोभाय ,, अच्छन्दसे , अनलकृतये अपाताय अलम्बनाय ,, अक्रान्तये ,, अराशये ,, अनहर्गणाय ,, अनताय , अनुन्नताय , अलग्नाय , अनुच्चाय , अनीचाय , अदिगन्त राय सिद्ध सहस्रनामावली नमः . ॐ मनाय ,, अनाटकाय ,, अनाटयाय ,, अविभवाय , अतनुभावकाय , स्थायिने // 850 , रसाय ,, अश्लथाय ,, अनाथाय ,, 830 , अकाव्याय ,, अगीतये , अपिङ्गलाय ,, अनिघण्टवे ,, अनध्यायाय ,, असंहिताय ,, अवैद्यकाय ,,860 ,, अव्यथाय , अग्रामाय ,, अमूर्च्छनाय ,,840 // अवाद्याय ,, अनेपथ्याय ,, अनिङ्गिताय , लयाय . / , पश्यत्यात्ममे Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामावली 201 नमः ,,870 ,900 ॐ अघनाय , अभाषाय ,, अवैखरये " अमध्यमाय ,, अश्वेताय , अपाटलाय , अश्यामाय ,, अनीलाय अबभ्रवे , अपीतिम्ने , अतिक्ताय ,, अमधुराय अनम्लाय ,, अकषायाय ., अलवणाय ,, अकटवे , प्रसौगन्ध्याय ,, अपदौर्गन्ध्याय , अनुष्णाय , अशीताय ,, अखराय , अमृदवे , अस्निग्धाय , अगौरवाय , अलूक्षाय ॐ असंस्थानाय , अलघवे ,, अस्मयाय ,, अवेदाय ,, वेदसङ्गोताय ,, श्रीयुक्ताय ,, श्रीपतये ,, आदिदेवाय ,, युगादीशाय , युगेशाय , युगपाय ,, युगाय उपज्ञाय , समयोपज्ञाय ,, अप्रत्यू हाय , महाबलाय ,, शिवतातये ,, महाशान्तये , निर्वृताय ,, संवृताय , अवताय ,, अरध्ने ,, अरुहाय ,, अरोहाय .. 10 0 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 ॐ प्राद्यध्येयाय , पदोत्तराय ,, आत्मरक्षायै ,, प्रात्मकवचाय 2, आत्मत्रा। , प्रात्मपञ्जराय / अकुण्ठाय , त्र्यम्बकाय ,, सार्वाय ,, शर्वाय ,, सर्वेश्वराय 950 ., मडाय सिद्धसहस्रनामावली नमः . ॐ निराक्रियाय नमः ,, नन्द्याय // 620 , नादीनवाय , नन्द्यावर्ताय ,, अर्हाय ,, स्वस्तिकाय ,, अस्तिकाय ,, प्रौढाय , अनढाय ,, मन्त्रशिखाय ,, दीप्ताय ,, अरिघ्नाय ,, निरन्तराय ,, भद्राय ,, अनीदृशे . ., अनित्थंस्थाय , अयुतसिद्धाय / , सुसंयुताय , अलोकस्पृशे ,, लोकमध्याय , लोकमान्याय ,, विसंशयाय , जागरूकाय ,, सदोन्निद्राय " , निस्तन्द्राय 930 960 ,, आद्येड्याय ,, आद्यचारित्राय ,, पाद्यमन्त्राय ,, ऋगादिमाय आद्यवाचे आद्यभुवे प्राद्यनेत्रे आद्यर्षये ,, वृषादिमाय ,, श्राद्यमेघाय , प्रधानाद्याय क्ष्माद्याय " नाद्याय Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 880 सिद्धसहस्रनामावली. ,, निःप्रमीलदृशे ,, एकमार्गाय ,, अनिमेषाय ,, एकधाम्ने निमेषेन्द्राय ___,670 , एकशासनाय प्रमाप्यकाय , एकातपत्राय प्रमाणाय , एकाज्ञाय प्रमासम्प्रदानाय ,, एकाग्राय शुद्धत्रमाश्रयाय ,, एकमन्दिराय प्रमापादानाय ,, गभस्तये प्रमायाः सम्बन्धिने ,, तरणये. ,, स्वप्रमोद्गताय ,, ताराय ,, सवित्रे , मार्गप्रभवे 80 , ध्वान्तनाशनाय , मार्गस्वामिने ,, चतुष्कभाजे , मार्गविशोधकाय ,, अष्टगुणाय , एकधिये , एकपुरे ,, भक्तवत्सलाय ,, एकवेश्मने ,, कृपालवे ,, एकस्थितये ,, स्फीतकरुणाय " एकभुवे . , धीराय , एकोद्भवाय ,, श्रीरमणाय नमः ,, मार्गाय 1000 "दीनपाय , 1008 // इति श्रीसिद्धसहस्रनामावली सम्पूर्णा / / Page #343 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्काः 106 112 5 आर्षभीय-चरितमहाकाव्यस्य श्लोकानामकाराद्यनुक्रमणिका पद्यानि पृष्ठाङ्काः | पद्यानि अग्रतः कटु रराट अधिगत्य तदा अङ्कसङ्कलनया अनुजादनुजारि अचिन्त्यशक्तिः अनुजा यदि याचिता अजनिष्ट महान् अनुपस्थितिरत्र अजितेन जितं अनेन मे वार्षिक अतिघट्टनतो अन्तःपुरं तस्य अतितुच्छ० अन्त:प्रकाशायत अतिदुःसहता अन्येष्विव त्वय्यपि अथ तस्य रुचा अपारिजातोऽपि अथ तान् प्रतिधूम० अपि प्रबुद्धेः अथ पक्षयुगेऽपि अपोहमूह अथ प्रभुः पारमहंस्य अबाधयानेन अथवाऽश्लथवासना अब्धिर्वारिगणै० अथ साधुरिव अभवत् तपना प्रथापि पश्याभिमुखं अभिधावति यस्य अदस्तुलाभृत्पर० अभिषेकमहे अधः सुधाकुण्डगणं अभीष्टभूयः अधिकं समुपासितश्च अभूदसावुन्नत० अधिक स्म विदन्ति .. अभुद् विभोः अधिकेऽत्र न 45 / अमलायत० mr m 9 m' ' M Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 श्लोकानुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः m o . 9 mi Sim . m . पद्यानि पृष्ठाङ्काः | पद्यानि अमानतद्दान० अष्टापदादा अमिता वयमत्र असंख्यकालाजित प्रमी इति स्वान्त असंख्यशक्ते० अमी चतुर्मुष्टिक० असाविदं ध्यायति अमी जनाः स्वामि० असुहृत्प्रमदाश्रु अमी हि कच्छप्रमुखा असौ धतध्यान अमुनाऽपि जयोद्भवं ... अस्मिन् दृढीभूत० . अमुष्य सच्चामर 0 अस्याननं अमुष्य संशुद्ध० . अस्या वशीभूय अमूदृशं रूपमनुत्तरं 25 / अहरन् रजतादि अमूदृशाः केऽपि 72 अहो परब्रह्म अयमुद्धतसेनया | अहो महासाहस० अयमेतु वयं 52 | आघ्नन्तो द्राक् अयं जनस्त्वां | आदाय तातानु० अलक्षितस्वार्थ आदितः स्ववशः अलक्षिताभ्यन्तर० आनन्दनश्चन्दन अलं परासङ्गति आलम्ब्य लोका अल्पो हि जल्पो आशा निराशी० अल्पो हि सह्यो प्राशीविषीयै० अवर्षि वर्ष इति तानभिधाय अवैति शत्रु | इति तेषु वितीर्य प्रवैमि राजेन्द्र ! इति ब्रु वाण अश्वव्रजोत्खात० 86 | इति मोहनृप० ~ m 4 0 6 Wm Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. W0 वाम 1 M. WI . श्लोकानुक्रमणिका 211 पद्यानि पृष्ठाङ्का: / पद्यामि पृष्ठाङ्काः इति सचिव० ऋजुसूत्रविचार इतीरिते भूमि एकत्र भीत्यै इत्यादिचिन्ता एकातपत्रीकृत इत्युद्धतद्वैत० एकेन चक्रेण इदमस्त्वथ . एकोऽपि तेषां इदं विमश्य एतै रिदानीं पितु इन्द्रनीलमणि एवमेष विनिरीक्ष्य इमां जगद्भक्षण. एष्यद्विनिर्यद् इमां समुद्दीपित ऐक्षवं रसमिनाय इमां स शिक्षा ऐन्द्रस्तोमनता इयतैव निजा कचच्छलाद् मुष्टि उचितं भरतेश्वरो . कनकाभरण उज्जागरप्रशम कपालनाशात् उत्थितैः क्षिति करवाल इव उत्पातवृष्टौ करवालकरालता उदरम्भरिरेव कबिर्बुधश्चा उदितास्मदुप कापिलीयामव किमपश्यदमुद्रितेक्षण उदीक्ष्य तादात्विक किमयं विमनस्कतोदिता उद्वासयन्त्यन्य किमेष मेरुन उन्मिषत्पुर किमेष विष्णुन उपनीय विकल्प कियज्जितं जाग्रति उप्तः प्रभाते 77 / किं तरक्षुहरि I WC 44 Is my my w 106 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 2 212 श्लोकानुक्रमणिका पद्यानि पृष्ठाङ्काः / पद्यानि . .. पृष्ठाङ्काः किं नाम रत्नं गुणा विवेकप्रमुखाः कुटिला हसितेन गुणास्तदीयाः कुठारिकामानक गुरुवारिद कुपितं समुदीक्ष्य 61 गृहाङ्गणं नो कुसुमस्मितया | गृहाण भिक्षां कूपकुक्षिमुपभिद्य गृहेषु सर्वोत्तममस्तु कृतमस्य निजाजित० . 48 ग्रहेषु भास्वानिव कृतौ स्फुट 80 ग्रामराजिषु क्रमोच्चभूति 32 घटयत्यमुना क्षमाभतः शत्रुषु 61 - घनजितज० क्षेत्रमैक्षत स 108 धोषितर्षभंगुणा खचरीषु चक्र सहस्रेण गजकुम्भभवास्त्र चक्रेण सौभ्रात्र 67 गजवाजिरथैः चतुरङ्गचमूवृतः चरणाश्रयणं तु गा इव त्वदधिपस्य चलतां लहरीभ्य गुणकमलहिमानी चस्कले रसनया चाषमीक्षितुमनाः 103 गुणग्रहात् चित्र न यच्छ. गुणग्रहेणैव चित्रिते रतिमनाप्य गुणवान् रहसि चिरान्निबद्धो गुणसंस्तव एव 67 / छलादुदीर्य गुणान्वये भद्र 28 | छायया कवलिता . 107 86 गलितैनिजदृग् 50 116 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकामुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः 107 25 40 78 102 87 108 पद्यामि जगज्जयात्यन्त जगत्यशेषस्तदुपज्ञ जगद्धितार्थं जननीधृतिरुद्यमः जनसंवननाय जलदैरपि भो जागत्ति नाज्ञां जित्वा क्षणेनोत्तर जिनेश्वरस्तेन जीर्णेन जीर्णा ज्येष्ठस्य नाज्ञां तं प्रतिप्रवलगर्व तं स्म सस्मयवशा ततान धूमायित ततो विनीता तत्र कस्त्वमिति तथापि चक्र सदवारित तदस्य पूर्व तदागमाब्धरुप. तदीयकोशे तद्रूपसौन्दर्य तनयावनयाव पृष्ठाङ्काः | पद्यानि 63 | तनयोऽस्य च तनुं कृशीकृत्य तन्न तेन वन० तपोनिधिः तरलान् युधि तरसा न महा तव प्रभुत्वे | तस्य दैवमंति तस्य प्रतापानल 64 | तस्य यत्र गगनो. 66 तादृशैरशकुनैरपि 115 | तानत्युन्नतगर्व 113 तिलमात्रमपि तीक्ष्णाग्रभाजा तुरगानुगारि तैस्त्यक्तसङ्गै 114 त्यक्तगोवध त्यक्तसौवविषया त्रिलोकभाऽपि त्वया त्वमुष्मिन् ददती स्वगणे ददाति यो नावसरे दधत् परं सर्व 63 | दधदातपवारणं سلسل 110 8 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 पद्यानि दमनादमनः दमनाम भटः दिदृक्षुरीय दुःखैकखानि दुष्टदूत इति यत्र दूतं ततो द्विधाऽप्यभक्तः द्विषां दृशोरुग्रविष धनस्य पूतौं धनदः धनिनामभिमान धान्यमै क्षि कृषिकः धृतिरेव हि नः . ध्रुवोपकार्ये . ध्वजिनी बहु न के मदोरिक्षप्त न क्रोधव ह्रर्यदमी न चक्रभाव न जातु कोपात् नत्यर्थनाया न दोषमात्रेण न सस्य देयोन्नति नने मृदुत्वं श्लोकानुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः | पद्यानि पृष्ठाङ्काः 56 / न यत्र चन्द्रार्क 64 | न रजितौ न वयं तु भजामहै. न वेत्ति वक्तुं खलु न वेदना मे . न संविदानोऽपि / | निकुञ्जगुञ्जन् निजबन्धुषु निजवेश्मनि निरीक्ष्य तं चेतसि पतितं युधि पदो: प्रमादोऽभिगतो परोपकारार्थ पशुपाणिभिरपि पापकेतुतत. पापयोरपथ पालितांसु बहु पुरं प्रविश्याक्षकपाट पुरा न पृष्टो पूजितो जय ति स 68 | पूर्णतावदगज० Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 पृष्ठाङ्काः 114 20 एलोकानुक्रमणिका . पद्यानि पृष्ठाङ्का: / पद्यानि पूर्णप्रयत्मे . 76 बुध्यते न भरतः पृथ्व्यां प्रसिद्धां बुभुत्सुरेतस्य प्रतिग्रहेणानुगृहाण . भगवानपि प्रत्यक्षतां गच्छति भगिनीपति प्रथमानरस भवतीह प्रदर्शयन्तामिह भवत्यहीन्द्रानन प्रदेयचित्त भवसिन्धुमपि प्रभुत्वमन्त्री भविककमलोल्लास प्रभुप्रभावादथवा भवेन्न तुङ्गानत प्रभूत्तमाङ्गस्थिति भाग्यं दृशोदौ त्य प्रभोस्तितिक्षा भुवि जाग्रति प्रमादसुप्तो यदि भूरि बन्धवृत प्रयातु पाटीररजो भृङ्गसङ्गतलता प्रवर्धमानं भ्रातृव्रजप्रव्रजनो प्रसिद्ध जीवाभय मणिचारिमभाजि प्रस्थितं प्रभु मदनो निजरूप प्राचीनमार्गे . मदनो वदनोरु फलं विना याम मदर्थसंरक्षित बभूव रत्नत्रय मनस्विनाऽज्ञो वलिनो यदि मरुत्प्रियो रुद्ध मरुत् बहिः प्लवन्तामिह 24 | मिथ्यात्ववैताढ्य बहिर्महः किञ्चिद० 24 | मित्रं तदास्यस्य 3 104 107 9 mroM Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 यदवनन 216 श्लोकानुक्रमणिका पद्यानि पृष्ठाङ्काः। पद्यानि .. . .. पृष्ठाङ्काः मित्रवन्नव | यद्वनद्रुमगणे मुकुटांशुभिः 42 यशसाभरणं मुदिता जननी यशोनिधिः सोम मुदोचितं दास्यति / 33 यां स्नेहपीयूष मुनये वितरन्ति या दिव्यन सुखै 0 . यज्जिनेन्द्रगृह . 114 याऽपरोक्षपद यत्र काम्यवरणाय युक्तं त्रिलोकोपकृता यत्र गजितपराः 106 युधि योधयशः यत्र नीलशितिशुभ्र 117 युधि यस्य पदातयो यत्र भर्तरि स 106 येषां प्रवृत्तौ न यत्र येन ददृशे रतिकेलिरहस्य यत्र वल्गनपरै 112 रतिहासविलास यत्र वृक्षतल रत्नराशिषु. . यत्र शाब्दिक रथाश्वकन्येभ यथा करिष्यत्यय मेष रदनानिव शक़ यथा यथा नीतिमति. रविनिशायां यदसिभ्रमतो राज्ञामसुभ्यो यदि नर्तयितुं लघुतूलवदिन्दु यदिभैनिज लब्ध्वा निधानानि यदि वा तरसा लभते यदमर्त्य यदि वा न दिवा 50 ललु: पुराष्टा . यद्ग्रहोन्नतगवाक्ष 118 | लोभान्न शोभाँ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यानि 18 58. 118 वाक्कौशलाद 106 10 104 or : श्लोकानुक्रमणिका 217 * पृष्ठाङ्काः पद्यानि पृष्ठाङ्काः वदान्यभावा विशारदः शारद वनीपकानां भृतये विशिष्टपात्र. वधिष्णत्रिदश विश्वेश्वरोऽपि वसुव्ययादा 14 विषवत् कमला वहति क्षिति विस्तृतस्फटिकवेश्म - वृषाङ्कमेकं किल वाममेव हरिणा वेधसः स्फटमबद्ध वारितोऽपि पथि . व्यचिन्तयश्चेदमहो वासरान्न तिमिरेण व्यात्तमास्यमिव विचार्यते स्वोपमितिः व्रतं जिघृक्ष विदधाति कुविद्यया व्रतत्रपामूनि विदधाति खमेव | व्रतोत्सवे कुन्तल विधाय वक्षो 65 | शक्र चिकीर्षु नंनु विधाय वामं शते सुतानां विधुरङ्गति शबरीधृतसार विधुविशदयशः शयिताः स्वसुखे विधोः सुधायां शयितुं किमु विना न हर्षाथ शशाक नैव विनापि विश्व शिखरस्थित विनिपात्य गुरुत्व शिक्षिताश्ववर विभोः करस्थेक्षुरसं श्रुतस्थितेर्यः विभोः सहेलो. श्रुत्वैतार्तोऽनुज विलसेद बलव० संशेरते चेन्मम विलीयतें हन्त / संशोधिते विलोकनादेव स एव देवः किल विवदन्त 56 / सकलभरत 42 17 .104 व Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 श्लोकानुक्रमणिका . पृष्ठाङ्काः 9 عرمہ क سم مر S 0 44 Y पद्यानि सकला स्वजला सकलौषधि स कि नपो स जग्रसे तानि स तत्र गत्वा स तेन पूर्व स त्वामगत्वा सदा सपोल्लसितां सन्ततं दहनमण्डल : सन्तापिता: स्वामि | स प्रपा:पथि समग्रशास्त्रेऽपि समाधिसारैः समुत्थितांहः समुपैति विवेक सम्पुटीकृत नभो सम्भावितं युद्ध स हि चित्तमहा स ह्यनन्तबल साधुदानविधि सान्द्रविद्र मघनो सार्ध त्रयोदश सिद्धा जिगीषा सुकुटुम्बगृहस्थता सुकृत स्वपते सुखिनो विषय सुदुःसहं किञ्चन पृष्ठाङ्काः पद्यानि . . . सुधीभिरक्ष द्र सुविकल्पत्तुरङ्गमाः सुवृत्तसङ्गीत सूत्रार्थभिन्ना सृजत्वसौ बाल | सौभ्रात्रभङ्ग | स्थानेन यावत् ___3 स्थास्नुरस्य पथि 103 स्नात्वा जयाशा स्फटिकोरुशिला स्फुटीकरोत्येव | स्मरति स्वतन स्मरः किमङ्गी स्वकीयगाम्भीर्य स्वकुलोपकृता स्वपरैकमति स्वमतान् मनुजान् स्वयं तपोभिः / स्वयं न गोत्रे स्वरपूरणया स्वान्ते चिराद् स्वीयच्छविच्छन्न स्वैरं भनक्त्यप्रति हरि: कणेहत्य हित्वानुतापद्रवत - 68 | हृदये मलिनेक्ष्यते " 9 mom. U : Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोल्लास-महाकाव्यस्य श्लोकानामकाराद्यनुक्रमणिका पष्ठांकाः 151 145 151 पद्यानि अचूचुरच्चामर अतरोरनुनीयते प्रतिकान्तमिदं प्रथ कथमपि प्रदसीयमुखं अधः कृतामेव प्रधरे विधुना अनया मदनो अनया विजिता अनाश्रितेऽस्मिन् अनेन सम्पूरयता अपारिजातोऽपि अमृतस्य विधो अवधार्य विधे अस्थयेमौज्झ० अस्य द्विषद् अहो भवस्यैव आभ्यन्तरं यन् आलस्यभङ्गे इतः समुद्रा० . इदमाननकान्ति इदमाननकारिणं इदमाननपुष्टये पृष्ठांकाः / पद्यानि इदमाननराज 148 इदमास्यतुला 161 इदमास्यमवेक्ष्य इदमीयदृशा 158 इदमीयदृशो 125 इदमीयमना 164 इदमीयमुखं इदमीयमुख्य 1.46 इमां कथञ्चित् 138 उचितं मदनाय 134 उचितः किल | उद्गतेन तमसो उद्वेलमुत्सर्पति 151 उन्मज्जदावि 137 एतद्गुणैश्चन्द्र | ऐङ्कारमाराधयतां 135 | ऐङ्गारसारस्मति 127 ऐन्द्र प्रकाशं औचित्यभाजो कथन्न चक्षुः 163 कथमेतदिदं कविभिः क्रियतां 163 / कस्तूरिकापङ्किल 160 153 152 155 156 161 145 155 156 146 144 133 134 122 121 121 142 130 143 156 163 152 140 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 158 162 160 143 122 पद्यानि किमगोचरितः किम् तद्वनस्थ कुकालपाताल कुसुमानि क्रान्त वणिग्भिः क्व योग्यताऽस्या गच्छे श्रीविजया गलन्निमेष गुणेन दानस्य गुणैनिजैदिग्जय चिकुरालिमयीं चिकूरैः सह चौर्यं परस्वेषु जगन्ति जेता जेतुं जगद् यस्य तं युवानमन ततः कृतार्था तन्त्रात्-प्रयोगात् तारामिषात् त्रिजगज्जया त्रिजगद्रुचिरा दयैव तेनान्तर दुर्गेरुदणैर्नवभिः द्रष्टु किमासीन द्रु हिणेन तदा द्विजराज़ इवैतदा श्लोकानुक्रमणिका पृष्ठांकाः | पद्यानि . .. पृष्ठांकाः 162 द्विजराजकलिङ्कनो 157 | धुरिकान्ति 123 नयनाम्बु नलिनं मलिनं 130 | नाम्नैव धाम्ना 12.3 | निजश्रियं येन 122 नितमामिदमीय निदर्शनत्वं 122 निर्वेदतः किं 142 नीतिर्नवीनेय० 125 151 न्यूनाधिकाभ्यां पचेलिमं पक्षि 126 परिणामसहाय पीनीभविष्णोः 131 पुरतो न तदा पुरन्दरो गोत्र पुरुषोत्तममेन 144 पुरो मुखस्या 141 123 / प्रकटय्य प्रकामवन्ध्या प्रथिता किल 146 फणाभिरुच्चैः 130 124 फलं ददुर्गा 124 136 फलार्थिनः श्रीफल 127 158 बभूव भूवल्लं० 163 | भजते हरिणो . 150 126 / 144 14 161 ~ ~ 135 ~ WW WKc ~ 138 152 162 137 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका 221 पद्यानि و ه पृष्ठांका: 125 146 132 123 134 132 ه له 152 عر م 157 و 154 س 137 م د مر 158 भयतो महतस्तया भव समासेव्य भानोः प्रभेव भूपो भुनक्ति मदनस्य चतु मदनस्य तदीय . मदनस्य तनो मात्राधिकस्यापि मुख्यो महेन्द्र मगखञ्जन यं वीक्ष्य साक्षा य इमां भुवनाति य इहाश्रययो यच्चैत्यवाय यत्रानिशं स्फटिक यत्रापणश्रेणिषु यवेन्दुकान्ता यत्रोल्लसत्स्फाटि 0 यदापणन्यस्त यद्भास्वताऽनेन यद्भूर्भुवः स्वः यद्यत्र भास्वान् यद्वप्रपालीब यदुश्मनां च यस्मिन् सभा युद्धे च लक्ष्मीः युवनेत्रविलासि مر पृष्ठांका: / पद्यानि 150 यो यत्र दोषः 146 | रतिरेतु तरि 146 लङ्कामिवावेत्य लावायलक्ष्मी वनीपकानामिव वप्रेषु यस्मिन् वयसा शिशु विजितं किल 138 विद्यागुरोरेव विद्याभिरेतस्य विधुमेव सुरा विधुराब्ज विविधये विमानलक्ष्मी विहितसदृश | वेगप्रकर्षाद व्यलसन् दश व्यशीशिषद् शुचितद्वदना शुचितस्मित श्रयतां शशिन० श्रियमिव हरिणा श्रीद: श्रिया श्रतिगमित | श्रेणीभवत्स 128 श्वभ्रे बलिः 146 | सकलकच wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww 127 136 146 ا 126 W US w rm a سه اس 157 110 162 اس ع >> ل w 126 153 145 136 سه لم 126 130 134 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 श्लोकानुक्रमणिका 134 पृष्ठांकाः 122 143 155 पद्यानि सकलोऽपि सतीव्रतोच्छेद सदाच्युतश्री. सदालिष प्रीति सन्त्यज्य जाडय स मांसलांस सर्वाङ्गशेत्य स विधिः शुचि पृष्ठांका: | पद्यानि 156 | सुधांशुनाम्नैव सीमा किमस्मि 131 सुषमासु परी स्तुतिःक्ष० 140 स्मितविस्मित 142 : स्वकान्तिमित्र * 144 | स्वरूपलक्ष्म्यैव 156 .. 125 156 145 पृष्ठांका: 182 173 167 180 180 पद्यानि अजन्मरामो अतिक्तोऽमधुरो अतुल्योऽसदृशो अध्यात्मकोटि अध्यात्मगम्यो अध्यात्मपीठो अध्यात्मपतो अध्यात्मपूर्णों अध्यात्मभाव्यो अध्यात्मवासो अनन्तरूपो अनाख्यातो अनर्कोऽनाटको अनादिशुद्धः अनिघण्टु सिद्धसहस्रनामकोशस्य श्लोकानामकाराद्यनुक्रमणिका - पृष्ठांकाः। पद्यानि 174 अनिमेषो 181 | अनुपाधि 177 | अपदोऽनक्षरो 176 अपातोऽलम्बनो अभोऽनदो 180 अमृतात्मा 176 | अलोकस्पग 176 प्रशस्त्रः शस्त्रमुक अष्टोत्तरं नाम असम्मोहाय्य 166 अस्तप्राणो 180 अस्निग्धोऽगौरवो 180 | अहसोऽमातृको 166 - आत्मरक्षा 181 / आत्मवान् 176 182 173 183 177 174 176 181 180 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका - 223 पृष्ठांका: 173 172 174 174 167 पद्यानि : मात्मारामश्चिदा० प्रादिदेवो प्राधमेघः प्राधेड्य प्राद्य उपासनानां एकधीरेकपू: एकातपत्र ऐन्द्री श्रीः कृतज्ञः कृत० कृतान्तसट गच्छे श्रीविनय गुणातीतो चतुष्कभागष्ट चितार्धिप्रद चिन्तामणिः तिन्मन्त्रो छन्दोऽतीतो जगत्माता जगत्पतिर्जग० जगत्पूज्यो जगत्सारो जगदयों जगद्वैद्यो जगन्नाथो जितारिरजिती तत्सातीर्थ्य भता तस्याष्टसहस्राख्या ur or FUur or Us or पृष्ठांकाः / पद्यानि 174 त्रयीतनुस्त्रयी 181 त्रयीमयस्त्रयी 182 दयासिन्धर्दया 182 दयास्थायी 167 दशधर्माऽनन्त 183 धर्मचक्री 171 धर्मत्यागी धर्मधातु 171 धर्मयूपो . 177 धर्मविद्धर्म 183 धर्मदम्भी . 170 धर्मोत्तरो 183 / धीशो धियः 177 ध्यानातीतो | नयोत्क्रान्तो 166 निरक्षः कृत 171 पञ्चमङ्गल 166 पद्मशः पद्म 170 परमेष्ठी 170 पश्यत्यात्मा 170 प्रमापादान: प्रक्षीण वन्धः 170 / प्राणायामप्रकटितः प्राणोत्तरः 177 प्रौढोऽनढो 184 बन्धुरो रुचिर 165 | भवान्ध्यगस्ति 178 171 178 172 166 172 181 182 170 177 174 182 178 170 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 176: 176 पद्यानि भावः स्वभावो भूतात्मा भूत मन्त्रमूर्ति महागतिर्महा महात्राता महादित्यो महाबोधि महामुक्ति महामूतिर्महा महार्णवो महाव्योम महाशको महाशिवो महासनो महास्रष्टा महाहेतुर्महा महेन्द्रायों महोपास्यो लक्ष्मीशः लोकाग्रमौलि वरद: पारदः वाक्यातीतः श्लोकानुक्रमणिका पृष्ठांकाः | पद्यानि पृष्ठांकाः 171 | वाचस्पतिर्वचः 178 174 | विजयो वैज० 177 166 | विधिशेषो 167 176 विश्वकृद 175 | विश्वद्ग . विश्वम्भरः - 172 / विश्वरेता 172 वेदातीतो 176 व्योममूर्ति 168 176 | शक्तो निरेजः 173 176 शतोपायः 178 176 शिवतातिर्महा 175 | श्रष्ठः स्थविष्ठः 168 सदातनः 177 सदायोगः 177 सर्वादिः .. सार्धसत्त्रिकला सुयज्वा यज्ञ 168 स्पृहामुक्तः / 176 178 स्वयम्बुद्धो 173 हिरण्यगर्भः 172 हृषीकेशः 172 176 176 175 175 175 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसहस्रनामकोशस्य नाम्नामकाराद्यनुक्रमणिका नामानि पृष्ठाङ्काः नामानि पृष्ठाङ्काः अ 205 अगुणाय 202 . अकटवे अकर्मठाय.. अकल्याय अकश्मलाय प्रकषायाय अकाव्याय अकुण्ठाय: अकुतोभयाय अकृदन्ताय अक्रमाय अक्रान्तये अक्षरातीताय प्रखराय अगदङ्कारसय अगदाय अगाय प्रगीतये 0 0 0 0 n o orx w w x mx rrrrrrrrrrMrom 0 0 0 0 अगुरवे अगौरवाय अग्रहाय अग्रामाय अग्राह्याय अधनायं अघोषाय अच्छन्दसे अजन्मरामाय Morrrrrrrrrrrrrrror o wooo woo woo is oo w w अजिताय 162 अतद्धिताय 05 अतद्व्यावृत्तिलक्षणाय | अतनुभावकाय 164 अतिक्ताय 200 अतित्रिलिङ्गाय 206 | अतिरामाय 164 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका 166 o X o 0 0 0 202 226 नामानि अतीन्द्राय अतीन्द्रियार्थदृशे अतुल्याय अदिगन्त राय अधातुभाजे अध्यात्मकैलाशाय अध्यात्मकोटये अध्यात्मगम्याय अध्यात्मज्ञाय अध्यात्मधनाय. अध्यात्मपरिग्रहाय अध्यात्मपवित्राय अध्यात्मपारगाय अध्यात्मपीठाय अध्यात्मपूताय अध्यात्मपूर्णाय अध्यात्मभाव्याय अध्यात्मभास्कराय अध्यात्ममन्दिराय अध्यात्मयज्ञाय अध्यात्मरङ्गाय अध्यात्मलोचनाय अध्यात्मवासाय अध्यात्मवासिताय अध्यात्म विदे अध्यात्मविष्ट राय अध्यात्मशासनाय पृष्ठाङ्काः नामानि पृष्ठाङ्काः अध्यात्मसङ्गताय ... 203 अध्यात्मसग्रहाय अध्यात्मसन्तताय अध्यान्मसन्तानाय / अध्यात्मसंवराय - अध्यात्मसंश्रयाय. 202 अध्यात्मसाराय अध्यात्मसृष्टये अध्यात्मस्थाय 203 अध्यात्मांशाय 202 अध्यात्माख्याय 203 अध्यात्माङ्काय अध्यात्माज्ञाय 203 अध्यात्माढ्याय अध्यात्माधिपत्यकाय अध्यात्माध्वने अध्यात्माप्याय अध्यात्माभाय अध्यात्मार्काय. अध्यात्मार्चाय अध्यात्मार्थाय अध्यात्मास्थाय अध्यात्मेताय अध्यात्मेद्धाय 203 अध्यात्मनाय अध्यात्मेन्द्राय अध्यात्मेलाय. अध्यात्मेष्टाय 203 202 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका 227 . पृष्ठाङ्काः 206 204 187 187 नामानि अध्वनये अनक्षराय अनताय अनदाय अनध्यायाय अनन्तजिते अनन्तदशे अनन्तधमणे अनन्तप्राप्तये अनन्तरूपाय अनन्ताख्याय अनन्तात्मने अनभिज्ञानाय अनम्लाय अनर्णय अनलङ कृतये अनहगंणाय अनाख्याताय अनाचार्याय अनाटकाय अनाट्याय अनाथाय .. अनादाय अनादिशुद्धाय अनाम्ने / अनिघण्टवे अनिङ्गिताय अनि छाय .. पृष्ठाङ्काः नामानि 203 | अनित्थंस्थाय 188 | अनिन्द्रियाय 204 अनिमेषाय 203, अनीचाय 204 अनीदशे 187 अनीलाय अनुच्चाय अनुद्दे शाय अनुन्नताय अनुपचारभुवे अनुपाधये अनुपाध्याय अनुपाहिताय 205 अनुष्णाय अनढाय अनेपथ्याय अन्तरिक्षात्मने अन्यूनाधिककलानिधये 165 अपदाय अपदोगन्ध्याय अपराजिताय अपवर्गभाजे . 202 अपाटलाय 187 अपाताय अपिङ्गलाय अपीतिम्ने अपुनर्भवाय अप्रत्याहाराय 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 or 90 or xxx odm x uro 09 dam x 0 0 0 0 0 4 0 यि . . 204 188 205 16 . . 205 0 204 205 162 203 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः 0 0 ا 140 م و 205 204 ا عر < 0 0 . 0 ... 204 205 204 205 203 205 160 0 नामानि अप्रत्यहाय अप्रातिपदिकाय अप्राणाय अबभ्रवे. अभाय अभाषाय अमधुराय अमध्यमाय अमातृकाय अमर्च्छनाय अमूर्तये अमृतसंस्थितये अमृतस्रष्ट्र अमृताङ्गाय अमृतात्मने अमृताधाराय अमृताय अमृतोद्भवाय अमृतोद्भूताय अमृतौघाय अमदवे अमोघाय अम्बरात्मने अयुतसिद्धाय प्रयोगाय अरघ्ने अरवाय अराशये पृष्ठाङ्काः नामानि 205 / अरिघ्नाय अरिष्टच्छिदे अरुहाय अरूढये अरोहाय 205 अर्हाय . अलग्नाय अलघवे अलम्बनाय अलवणाय अलुके 163 अलूक्षाय अलोकस्पृशे अवतारमुचे अवाद्याय अविग्रहाय अविभवाय अविसर्गाय अवृताय अवृद्धये अवेदाय अवैखरये अवैद्यकाय अव्यथाय प्रशस्त्रभिदे प्रशस्त्राय अशस्त्रिणे . 204 ! अशीताय 201 204 uu 2 0 205 203 205 0 * 0 0 204 0 0 0 166 0 165 0 w w our our 203 196 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः पृष्ठाङ्काः नामानि 205 | आत्मपञ्जराय 204 आत्मभवे | आत्मरक्षायै 207 प्रात्मवते आत्मारामाय आत्मक्षरगाय ग्रादि देवाय आद्यचारित्राय प्राद्यध्येयाय आद्यनेत्र प्राधेड्याय आद्यमन्त्राय 205 प्राद्यमेघाय प्राद्यर्षये आद्यवाचे आघेऽयाम प्राशामोचनाय आशाविश्रामभाजनाय नामानि अश्यामाय. अश्लथाय अश्वेताय अष्टगुणाय असदशाय असमानाय असमासाय असहय असंस्कृताय असंस्थानाय असंहिताय असम्मोहाप्याय असौगन्ध्याय अस्तप्राणाय अस्तिकाय अस्तोभाय अस्निग्धाय अस्मयाय अस्वनाय अस्वराय अस्वनाय अहमिन्द्राक्य अहसाय अहानिवृद्धये आ rrrrrrrrrrrrrrrr 205 204 201 00 Wics 202 201 203 164 उद्दामाय उन्नेयाय उपज्ञाय उपाधिच्छिदे उपासनानां फलदाय उपास्यत्वेन देशिताय 165 186 206 ऋ प्रात्मकवचाय आत्मत्रात्र ऋगादिमाय 206 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका नामानि पृष्ठाङ्काः 165 163 0 . ... 0 0 एकधाम्ने एकधिये एकपुरे एकभुवे एकमन्दिराय एकमार्गाय . एकवेश्मने एकशासनाय एकस्थितये एकाग्राय एकाज्ञाय एकातपत्राय एकोद्भवाय 0 0 पृष्ठाङ्काः . नामानि . . कूटस्थाय - कृतकृत्याय कृतक्रतवे कृतज्ञाय कृतधमण कृतवेदाय कृतभूरक्षाय कृतशर्मणे . कृतात्मने कृतानन्दाय कृतान्तच्छिदे कृतान्तज्ञाय कृतान्तसृजे कृतान्त हृते कृतामोदाय कृतोदयाय कृपालवे केवल रामाय केवलात्मने केवलाय केवलारामाय केवलिने ... ... 200 207 166 ال ل कमलानाथाय कलङ्कलीभावाय कलातिगाय कलोज्झिताय कल्यातीताय कामकुम्भाय कामधेनवे कामातीताय कामरये काय कालातीताय कुलातिगाय rmwarrrrrror 0040 167 165 192 क्षणमयाय क्षमाधातवे . क्ष्माद्याय 0 , दम - Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका नामानि .. पृष्ठाङ्काः नामानि पृष्ठाङ्काः छन्दोऽतीताय 83 ? 207 . 160 166 . गगनात्मने गदातीताय गभस्तये गंरिष्ठधिये गहनाय . गिराम्पतये गीष्पतये गुणातीताय - गशिरोमणये गृह्याय " . . . 165 . 167 घनाध्यात्माय जगत्काम्याय जगत्केतवे जगच्चक्षुषे 201 जगच्चिन्त्याय जगच्छास्त्रे 162 जगज्ज्येष्ठयाय जगज्ज्योतिषे जगत्तरवे जगत्त्रात्रे जगत्पतये 202 जगत्पात्रे जगत्पित्रे जगत्ज्याय 163 •जगत्वष्णे 201 जगत्योषिणे जगत्प्रियाय जगत्सखाय जगत्साराय जगत्सीम्ने 200 जगत्सुहृदे 166 जगत्स्रष्ट्र जगत्स्वामिने 200 जगदाय जगदर्यम्णे . . . 9 . . चतुष्कभाजे चयातिगाय चारवे चितार्धिप्रदाय. चिदारामाय चिद्रामाय चिन्तातीताय चिन्तामणये चिन्मन्वाय चिरच्छायाय चिरस्थितये चैत्याय 163 . . . 200 0 . . Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 166 ___सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः . नामानि ... पृष्ठाङ्काः जपञ्जयाय - 167 जयन्ताय जयाय 161 जयिने 186 162 जागरूकाय 206 जितारये जिष्णवे जेत्र 186 जैवातकाय 200 ज्येष्ठाय. ज्ञानगर्भाय . ज्ञानिने 161 164 0 007 . . नामानि जगदीशाय जगद्गुरवे जगद्दीपाय जगद्धिताय जगद्धर्याय जगद्धेतवे जगद्ध्येयाय जगद्वन्धवे जगबीजाय जगद्भत्रे जगदभानवे जगभ्रात्रे जगदक्षाय जगदवन्द्याय जगविदे जगद्वैद्याय जगन्नाथाय जगन्निधये जगन्नेत्रे जगन्मणये जगन्मात्र जगन्मान्याय जगन्मित्राय जगन्मुखाय जगन्मूलाय जङगमाश्रयाय जनातिगाय जनातीताय :: 5 5 5 5 5 5 5 5 त 167 207 तथागताय तथारूपाय तथ्याय तपोऽतिगाय तपोतीताय तमोऽतिगाय तरणये ताराय तीर्थार्चाय तुरीयावस्थिताय 162 200 / त्रयीकेतवे त्रयीगीताय ,, | त्रयीतनवे 45.: 00 तुर्याय Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्त्रनाम्नामनुक्रमणिका 233 पृष्ठाङ्काः 166 165 201 नामानि . त्रयीतेजोमयाय त्रयीधराय त्रयीमयाय त्रिकरणोन्मुक्ताय त्रिब्रह्मप्रकृतये विलक्षणाय त्रिलिङ्गाय त्रिस्थाय त्रेताय व्यम्बकाय 207 163 eu .. पृष्ठाङ्काः नामानि 165 / दशधर्मणे दशपारमितेश्वराय दशलाक्षणिकाय दिग्भागपरिक्षयने दीनपाय दीप्ताय 165 दूरदृशे दूरपथाय दूरस्थाय 206 दृढ रथाय दशाय द्रष्ट्र द्रहिणाय 202 202 0 0 0 0 0 My 9 or Y . . 0 Mur. 0 0 0 200 194 7 . 0 . दक्षिणावर्ताय दयागर्भाय दयानिधये दयानेत्रे दयापात्राय दयापालाय दयमात्राय दयारामाय दयालवे दयाव्यासाय दयाश्रेष्ठाय दयासिन्धवे दयास्थानाय . दयास्थायिने दयोदयाय दयोन्नतये 166 धर्मकीतये धर्मकृते धर्मक्षमिने धर्मगणाय धर्मघोषणाय धर्मचक्रायुधाय धर्मचक्रिण धर्मतपसे धर्मत्यागिने धर्मदाय धर्मदेशकाय धर्मधातवे / धर्मनायकाय 186 4 / / . . 2 / / Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 " 202 186 worror om. as as US सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः नामानि पृष्टाङ्काः धर्माङ्गाय . धर्मात्मने धर्माधर्मविजिताय धर्मानोघाय मिणे धर्मोत्तराय धारावाहिने धियः पतये 201 धिप्रणाय धीगणाय 186 धीनदाय धीराय 202 धोशाय धोसमहाय 110 ध्यानातीताय ध्वस्तगदाय. 164 ध्वान्तनाशकाय 169 ध्रुवाय 1 . नामानि धर्मनेमये धर्मपोषणाय धर्मप्रापिणे धर्मब्रह्मणे . धर्ममण्डलाय धर्म मुक्तये धर्ममुदे धर्ममर्तये धर्ममदवे धर्म मेघाय धर्ममौलये धर्मज्ञाय धर्मयपाय धर्मर्जवे धर्मलभ्याय धर्मविदे धर्मशाश्वताय धर्मशासनाय धर्मश्रद्धावशंवदाय धर्मसत्याय धर्मसंन्यासिने धमसंयमाय धर्मसारथये धर्मसाराय धर्मसेव्याय धर्मस्थानाय धर्मस्थाय धर्मानाय 7 a mor ror or. ... .. is a uuu 207 189 200 160 186 नगाधिराजाय नगाय नन्द्याय नन्द्यावर्ताय नभ केशाय नभोमयाय नमद्विश्वाय . नयातिगाय 160 161 164 160 188 8 / Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 235 पृष्ठाङ्काः 206 164 164 165 187 सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका नामानि ... पृष्ठाङ्काः नामानि नयोत्क्रान्ताय 201: पदोत्तराय नवो दिने " पद्मभुवे नादीनवाय 206 पद्मविष्ट राय नाद्याय पद्मसम्भूतये नाप्युणादिकाय 204 पद्माय निपाताय 160 पद्मासनोदयाय निःप्रमीलदशे 207 पद्म शाय निमेषेन्द्राय परधर्मविनिम्वताय नियाजभाजे परब्रह्मणे निरक्षाय / परमात्मने निरञ्जनाय परमाशस्त्राय निरन्तराय परमेष्ठिने निरम्बराय परंज्योतिष निराक्रियाय 206 परात्पराय निरेजसे पश्यत्यात्मने निर्मन्तवे पात कक्षयिने निर्वर्गाय पारदाय निर्वाच्याय पिटकंत्रयदेशिताय निर्वताय 205 पितामहाय निश्चेयिने पुण्यगर्भाय निष्ठाय : पुराणगाय निस्तन्द्राय पुराणज्ञाय न्यासातीत्राय पुराणाय पुरुहूताय पुरोहिताय पञ्चमङ्गलमन्त्राय पुष्कलेक्षणाय पदातीताय पूर्णार्थाय पदार्थाय प्रक्षीणबन्धाय 0 0 0 FREER ARREEEEEEEEES : 0 < 0 0 owww WOW 5 is owww 0 206 188 0 ..wcom 2 200 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः नामानि ... . पृष्ठाङ्काः 164 / प्राप्तशैलशये 165 प्रेष्ठाय प्रौढाय 160 200 1066 160 165 201 नामानि प्रजानाथाय प्रजापतये प्रणवाय प्रणवोत्सवाय प्रधानाद्याय प्रधिये प्रभवाय प्रभास्वराय प्रमाणपरिधये प्रमाणाय प्रमापादानाय प्रमाप्यकाय प्रमाया: सम्बन्धिने प्रमासम्प्रदानाय प्रशान्तवाह्याय प्राक्तनाय प्राणगतये प्राणदयिताय प्राणदाय प्राणमन्त्राय प्राणवल्लभाय प्राणाग्रयाय प्राणायामप्रकटिताय प्राणितेश्वराय 'प्राणिनामिनाय प्राणेशाय प्राणोत्तराय प्राध्यात्माय बन्धवे बन्धराय बहिष्ठाय बुद्धजागराय बृहदात्मने बहदारण्यकोद्योतिने बृहस्पतये ब्रह्मचर्यफलीभूताय ब्रह्मणे ब्रह्मपदस्थिताय ब्रह्मवते ब्रह्मसम्भवाय 206 3 3 107 207 167 162 भक्तवत्सलाय भद्राय भयातीताय भवच्छिदे भवहृते भवातीताय भवाब्ध्यगस्तये भावाय भिषग्वराय / भूतभृते 167 163 164 166 203 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 सहस्त्रनाम्नामनुक्रमणिका नामानि पृष्ठाङ्काः 168 भूतरक्षिणे भूतात्मने भूताधाराय भूतानुपग्रहाय भूताभयङ्कराय 197 0 0 . oran murror पृष्ठाङ्काः नामानि 166 | महा महाकृताय महाक्षणाय महागतये महागर्भाय महागुणाय महाग रवे महागहाय महाचक्रिणे महाचक्षुष महाचलाय महाचार्याय महाश्रेष्ठाय महाज्योतिष महाज्ञाय महाणवे महातपसे महातकविताराय महात्यागिने महात्रात्रे महादयाय 206 महादित्याय महादृष्टये महादेशाय महाधनाय 164 महाधराय 198 महाधर्मणे महाधातवे , / महाधाराय . . मनीषिताय मनीषीशाय मनोऽतीताय मनोरमाय मन्तुमोचनाय मन्त्रदेवाय मन्त्रन्यासाय मन्त्रपतये मन्त्राजिताय मन्त्रबीजाय मन्त्रमायाय मन्त्रमूर्तये मन्त्रराजे मन्त्रशिखाय . मन्त्रसंस्थानाय मन्त्रड्याय मन्त्रे प्रत्यक्षरूपाय . महर्द्धये. महाकाम्याय महाकाशाय महाकीर्तये . w . is I is Momowow own a 2 is w is 209 Wwuuuuuuuuuuuuuuuuu w Is I w w MMonow ow on Mon or or wo wom o is w is w is g. . . . Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 - महायज्वने 167 Mmmm 198 238 सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका नामानि पृष्ठाङ्काः नामानि पृष्ठाङ्काः महाधृतये महामुनये महाध्येयाय महामर्तये महाधूवाय महामे रवे महानयाय महानाथाय महायशसे महान्यासाय महारथाय . महापद्माय महाराजाय . महापात्राय महारामाय महापूज्याय महारूपाय 197 महापष्णे महागवाय महापोताय महावन्द्याय 167 महाप्रज्ञाङ्कुराय . महावय महाप्रष्ठाय महावशिने महाप्राणाय महाबसवे महाप्राप्तय महाविधये महात्रियाय महाविभवे महाबलाय महावीराय 160 महाबीजाय महावृताय. महाबोधये महावृद्धये महाब्रह्मणे 198 महावृषाय महाभावाय महावेदाय महाभूतये महावेश्मने महा भ्रात्र महावद्याय महामहाय महाव्यापिने 167 महामन्त्राय महाव्याप्तय 169 महामात्राय महायोम्ने 168 महामान्याय महावताय . . महामार्गाय महाशकाय . महायुक्तये .. , महाशाखाय uuuuuu.. 205. 168 168 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 पृष्ठाङ्काः 207 www .w 162 163 & 166 160 सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका नामानि .. पृष्ठाङ्काः नामानि महाशान्तये 205 | मार्गविशोधकाय महाशिवाय मार्गस्वामिने महाशिष्टये मार्गातीताय महाशीलाय मार्गाय महाशुचये मुख्यवर्गाय महासत्याय मृडाय महासनाय मृत्युञ्जयाय महासाराय मृत्युनिवारणाय महासिद्धाय महासीम्ने महासूहदे यजमानाय महामोमाय महास्यास्तवे यज्ञपुरुषाय महास्फर्तये यज्ञाङ्गाय महाराष्ट्र ययाख्याताय महास्वामिने यथाजाताय महाहविष यथारूपाय यास्थिताय महाहंसाय महाहेतवे यमातिगाय - महेन्द्राय. युगपाय महेन्द्रााय युगादीशाय महेन्द्रड्याय युगाय महेशाय यूगेशाय 198 महोन्नतये योगातीताय महोपास्याय महौषधाय मान्त्रि काय रक्षोहन्त्रे मार्गप्रभवे 07 / रजोऽतीताय 198 187 163 205 163 166 197 168 161 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 नामानि रत्नगर्भाय रसाय रामसत्तमाय रुचिराय रूण्याय रोहणाय . सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः नामानि पृष्ठाङ्काः 202 / वर्द्धमानाय .. 164 वर्षाय 166 वर्षीयसे वावयातीताय 162 वाचस्पतये / 201 200 वाचोऽतीताय 162 विजयाय . विधये 189 पातिगाय iw अ८७ . m 166 8 . . . . . FREEEER: REEEEE: is लक्षणार्थाय लक्ष्मीशाय लयातिगाय लयाय लेपातीताय लोकत्रात्रे लोकपाय लोकमध्याय लोकमान्याय लोकाग्रमौलये लोकाग्रशेखराय लोकातीय लोकालोकविलोककाय लोकेड्याय लोकेशाय . व वचःस्रष्ट्र वयोऽतीताय वरदाय वर्णातीताय 187 विधर्मभृते 202 विधवे 204 विधिनिषेधतः परस्मै विधिशेषाय विधेः साराय | विन्दवे विबुद्धाय विभवाय विभवे 180 विरञ्चये विरामवते / विश्वकृते विश्वख्याताय विश्वतः पाणये विश्वतश्चक्षुष विश्वतो बाहवे 163 | विश्वतो मुखाय विश्वदर्पणाय 192 | विश्वदृशे 164 166 188 188. . 201 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहननाम्नामनुक्रमणिका .. पृष्ठाङ्काः नामानि व्रतातीताय व्योममूर्तये 241 पृष्ठाङ्काः 163 160 164 165 201 188 . नामानि . विश्वम्भराय विश्वरूपाय विश्वरेतसे विश्वव्यापिने विश्वशीर्षाय विश्वसुवे विश्वसेनाय . विश्वात्मने विश्वाधाराय विश्वावताराय विषमाय विषमास्त्रजिते विष्णवे विसंशयाय विस्पर्शाय वृत्तातीताय वद्धिलक्षणाय वृषकेतवे वृषध्वजाय 200 : 12:3:: :: : . 164 206 201 शवताय शतकीर्तये शतगृह्याय शतताराय शतीय शतवृत्तये शतशाखाय शताख्यानाय शतावागाय शतानन्दाय शतावयाय शतोदगीथाय शतोपायाय शम्भवाय शर्वाय शस्त्रमुचे शस्त्राविजिताय शस्त्रोज्झिताय. शिवतातये शिवाय शीलनायकाय शीलेशाय शुचये शुद्धप्रमाश्रयाय 164 . 0 206 6 वृषभाय 0 - 0 .164 186 205 वषादिमाय वेदगर्भाय वेदवते वेदसङ्गीताय वेदातीताय वैजयन्ताय वैद्याय व्यवहारमुचे 163 0.ua 0 .xxx.00 0 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 201 नामानि शुद्धात्मने शुभंयवे शेमुषीधराय शैलेशाय . शोभनाय श्रद्धाधातवे श्रीगर्भाय श्रीदाय श्रीपतये श्रीपाताय श्रीयुक्ताय श्रीरमणाय श्रीरामाय श्रेष्ठाय मचाताताय य सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः नामानि पृष्ठाङ्काः 187 / सदासुहृदे 165 सदासौख्याय 201 संदास्थितये सदास्नाताय सदोदयाय सदोद्योताय सदोन्निद्राय सनातनाय समयातीताय 200 160 समयाय 205 समयोपज्ञाय सम्बुद्धाय 166. सर्वगाय 160 सर्वजनीनाय सर्वदर्शनाय सर्वमन्त्रावतारवते सर्वमलोज्झिताय सर्वशर्मदाय सर्वशुद्धदयामयाय सर्वातीताय सर्वादये सर्वार्थसिद्धाय सर्वाविप्रतिपन्नाय सर्वेश्वराय | सर्वोपाधिविशुद्धि मते 187 | सवयसे . सवित्रे 207 सत्तायै 166 164 1 सदाज्ञानाय सदातनाय सदातृप्ताय सदानघाय सदाभोगाय सदायोगाय सदालेपाय सदाविद्याय सदाशिवाय सदाश्रयाय सदासत्याय 165 200 '.", संवृताय 205 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहननाम्नामनुक्रमणिका 243 पृष्ठाङ्काः 202 201 163 187 164 नामानि . .. पृष्ठाङ्काः . नामानि संस्कृताप्तये 163 / स्थायिने 'सार्द्ध सस्त्रिकलातीताय . 187 / स्थावराय / सार्वाय 206 / स्थास्नवे सिद्धगिरे 162 स्थितिप्रणिये सिद्धजागरिकात्रयाय 165 स्पर्शगोचराय सिद्धधिये 162 स्पृहातीताय सिद्धशासनाय स्पृहात्यागिने सिद्धस्थानाय . स्पृहापर्शवे सिद्धार्थाय सिद्धाय . स्पृहामुक्ताय सिद्धिदाय स्पृहोज्झिताय सुधर्मणे स्फीतकरुणाय 186 सुधर्मदृशे स्फुरन्मन्त्राय सुधिये स्मयातीताय सुमन्त्रभुवे स्वगर्भगाय सुयज्वने स्वतोरामाय सुरद्रमाय 200 स्वदयाचिह्नाय सुप्रतिष्ठाय स्वदृशे सुरमणये स्वधर्मगाय सुश्रुताय स्वयज्योतिष सुसंयुताय. 206 स्वयम्प्रभवे सुसिद्धान्ताय स्वयम्बुद्धाय सुस्थाय 168 स्वयम्भुवे सुस्थिताय स्वयम्भूरमणाय सूक्ष्माय स्वयंरामाय स्तुत्यात्मने 164 स्वरक्षिताय स्थविराय 160 / स्वस्तिकाय स्थविष्ठाय स्वाध्यात्माय 22o w wo w w w Is is 9 MNY urduru 188 187 162 - . ar is w iw is www. w or w w 206 202 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 नामानि ho सहस्रनाम्नामनुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः नामानि ... पृष्ठाङ्काः हिरण्मयाय . 164 हिरण्येशाय 160 हृत्पद्मस्थाय हृषीकेशाय 164 | हीपाताय हविषे हंसगतये हंसराजे हिरण्यगर्भाय 194 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र पृ० 50 प्राक्कथन अशुद्ध प्रशुद्ध शुद्ध 23 25 418 . महशत्रु ई० स० 1682 जयविजयजी मोहशत्रु ई० स० 1582 नयविजयजी 24 17 ह्यमु पार्षभीयचरित तथा विजयोल्लासकाव्य - 4 5 शाड्गुण्य षाड्गुण्य वासीभि वासोभि 12 सुधां क्षुधां 16 . 18 * कलत्वात्त कुलत्वात्त ध्यापु ध्यान ह्य, . तदही तदहो व्यजिज्ञपम् व्यजिज्ञपन पाटलिम हिमाशोः पाटलिमाहिमांशोः दशोर्दोत्य दृशोदौ त्य 787 श्रुत्वैता? श्रुत्वैतदा? 86 . 11 . कविबुंध कविबुध संशयित संशयितं धनमेव धनस्येव 6. दिग्मोह दिङमोह ,999 is sww Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 शुद्धि-पत्र - शुद्ध 101 102 116 Burs aur 220 123 127 131 अशुद्ध प्रेषयामा सराजा व्यूनहा भ्रकुटि सम्पादिस च सङ्गल भरम्राजि कुलश्रा हियापितां धनु राशः प्रेषयामास राजा व्यूहना भृकुटि सम्पादितं च मङ्गल भरभ्राजि कुलश्री . हियापितां धनुरीशः 146 152 सिद्धसहस्रनामकोश 172 12 तिस्त्रिलिङ्गक: तित्रिलिङ्गकः 176 16 के पश्चात् निम्नलिखित पुष्पिका चाहिये___ इति महोपाध्याय "श्रीयशोविजयगणि' समुच्चिते राजनगरवास्तव्यसङ्घमुख्य-साह पनजी सुभूषिते श्रीसिद्धनामकोशे षष्ठशतकप्रकाशः // 6 // 1808 नादोस्वरो नादोऽस्वरो 181 15. उपज्ञा उपज्ञः Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय, श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय द्वारा रचित ग्रन्थों की सूची' संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के उपलब्ध ग्रन्थ 1 अज्झत्तमयपरिक्खा 4 अनेकान्त [मत] व्यवस्था (अध्यात्ममतपरीक्षा) [अपरनाम-जैनतर्क] स्वोपज्ञटीका सहित +5 अस्पृशद्गतिवाद +2 अध्यात्मसार मार .. [अपरनाम-आध्यात्मिकमत३ अध्यात्मोपनिषद् खण्डन स्वोपज्ञटीकासहित] 1. सूची के सम्बन्ध में ज्ञातव्य प्रस्तुत सूची पूर्व प्रकाशित सभी सूचियों के संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्धन के पश्चात् यथासम्भक परिपूर्णरूप में सावधानी पूर्वक व्यवस्थित रूप से प्रकाशित की जा रही है। इसमें बहुत से ग्रन्थ नए भी जोड़े गए हैं / ___ इसमें ग्रन्थों के अन्तर्गत आए हुए छोटे-बड़े वादों को प्रस्तुत नहीं किया गया है। यहाँ प्रस्तुत ग्रन्थों के नामों में कुछ ग्रन्थों के नाम उनकी हस्तलिखित प्रतियों पर अंकित नामान्तर से भी देखने में आए हैं। अत: उपाध्यायजी महाराज के नाम पर अनुचित ढंग से अंकित कृतियों के नाम यहाँ नहीं दिये गये हैं। कुछ कृतियाँ ऐसी भी हैं जो इन्हीं की है अथवा नहीं ? इस सम्बन्ध में अभी तक निर्णय नहीं हो पाया है, उनके नाम भी यहाँ सम्मिलित नहीं किये गये हैं / तथा अद्यावधि अज्ञातरूप में स्थित Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ख ) +6 आत्मख्याति* +11 कूवठ्ठिन्तत्रिशईकरण +7 माराधकविराधकचतडी (कूपदृष्टान्तविशदीकरण) स्वोपज्ञटीका सहित स्वोपज्ञटीका सहित +8 आर्षभीय वरित-महा 12 गुरुतत्तविणिच्छय काव्य*x (गुरुतत्त्वविनिश्चय) स्वोपज्ञटीका सहित 6 उवएसरहस्स (उपदेश- : रहस्य) 13 जइलक्खणसमुच्चय) स्वोपज्ञटीका सहित (यतिलक्षणसमुच्चय) +10 ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका 14 जैन तर्कभाषा स्वोपज्ञटीका सहित 15 ज्ञानबिन्दु कुछ कृतियाँ अपने ही ज्ञान-भण्डारों के सूची-पत्रों में अन्य रचयिताओं के नाम पर चढ़ी हुई हैं / इसी प्रकार कुछ कृतियाँ ऐसी हैं जिनके आदि और अन्त में उपाध्याय जी के नाम का उल्लेख नहीं होने से वे अनामी के रूप में ही उल्लिखित हैं, उनके बारे में भविष्य में ज्ञात होना सम्भव है। संकेतचिह्न-बोध __ प्रस्तुत सूची में कुछ संकेत चिह्नों का प्रयोग किया गया है, जिनमें* ऐसा पुष्प चिह्न अनूदित कृतियों का सूचक है। *x पुष्प एवं (कास) गुणन-चिह्न ऐसे दोनों प्रकार के चिह्न अनूदित होने के साथ ही अपूर्ण तथा खण्डित कृतियों के लिए प्रयुक्त हैं। + ऐसा धन चिह्न स्वयं उपाध्याय जी महाराज के अपने ही हाथ से लिखे गये प्रथमादर्शरूप ग्रन्थों का परिचायक है। (?)ऐसा प्रश्नवाचक चिह्न “यह कृति उपाध्यायजी द्वारा रचित है अथवा नहीं?" इस प्रकार की शंका को अभिव्यक्त करता है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ग ) 16 ज्ञानसार 32 प्रतिमस्स्थापनन्याय 17 ज्ञानार्णव +33 प्रमेयमाला*+ स्वोपज्ञटीका सहित +34 भासारहस्स (भाषारहस्स) + चक्षुप्राप्यकारितावाद स्वोपज्ञटीका सहित +16 तिङन्वयोक्ति*x +35 मार्गपरिशुद्धि 20 देवधर्मपरीक्षा 36 यतिदिनचर्या (?)* 21 द्वात्रिंशद्वात्रिशिका +37 वादमाला प्रथम स्वोपज्ञटीका सहित +38 वादमाला द्वितीय*x 22 धर्मपरिक्खा (धर्मपरीक्षा.) +36 वादमाला तृतीय*x ___ स्वोपज्ञटीका सहित +40 विजयप्रभसूरिक्षामणक२३ नयप्रदीप विज्ञप्तिपत्र* +24 नयरहस्य 41 विजयप्रभसूरिस्वाध्याय 25 नयोपदेश __+42 विजयोल्लासकाव्य x* स्वोपज्ञटीका सहित +43 विषयतावाद +26 न्यायखण्डनखाद्य टीका . 44 वैराग्यकल्पलता ... [स्वकृत 'महावीरस्तव' . - मूल पर निर्मित] . +45 वैराग्यरतिx +27 न्यायालोक 46 सामाचारीपयरण (सामा चारीप्रकरण) +28 निशाभक्तदुष्टत्वविचार स्वोपज्ञटीका सहित प्रकरण 26 परमज्योतिः पञ्चविंशतिका ___47 सिद्धसहस्रनामकोश* x 48 स्तोत्रावली३० परमात्मापञ्चविंशतिका —ादिजिनस्तोत्र 31 प्रतिमाशतक --शमीनाभिधपार्श्वनाथ स्वोपज्ञटीका सहित स्तोत्र [पद्य सं० 6] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( घ) -वाराणसीपार्श्वनाथस्तोत्र -महावीरप्रभुस्तोत्र. [पद्य सं० 21] [पद्य सं०] -शङ्केश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र –शङ्केश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र [पद्य सं० 33] [पद्य सं० 113] —शवेश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र [पद्य सं० 68] -वीरस्तव [पद्य सं० 106] —गोडीपार्श्वनाथस्तोत्र. ' समाधिसाम्यद्वात्रिंशिका [पद्य सं० 108] -स्तुतिगीति तथा पत्रकाव्य' पूर्वाचार्यकृत संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों पर उपलब्ध टीका तथा भाषा ग्रन्थ श्वेताम्बर ग्रन्थों पर टीकाए +5 जोगविहारण वीसिया(योग+१ उत्पादादिसिद्धिप्रकरण विधानवि शिका की टीका) की टीकाx +6 वीतरागस्तोत्र-अष्टम +2 कम्मपयडि (कर्मप्रकृति) प्रकाश की 'स्याद्वादबृहत्टोका रहस्य'नामक तीन टीकाए'* 3 कम्मपयडि लघुटीका [+उत्कृष्ट, मध्यम तथा [प्रारम्भमात्र प्राप्त X जघन्य] +4 तत्त्वार्थसूत्र की टीका 7 शास्त्रवार्तासमुच्चय की [प्रथमाध्याय मात्र उपलब्ध] 'स्यादवादकल्पलता' टीका 1. स्तोत्रावली में ये सभी स्तोत्र हिन्दी अनुवाद सहित छपकर प्रकाशित हो Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 षोडशक की टीका 6 स्याद्वादमञ्जरी की टीका(?)* दिगम्बर ग्रन्थों पर टीका +1 प्रष्टसाहस्री को टीका जैनेतर ग्रन्थों पर टीकाएँ +1 काव्यप्रकाश को टीका*x' 2 न्यायसिद्धान्तमञ्जरी शब्दखण्ड की टीका +3 पातञ्जलयोगदर्शन की टीका अन्यकर्तृक-लभ्य संशोधित ग्रन्थ 1. धर्मसंग्रह [स्वकीय टिप्पणी-सहित] 2. उवएसमाला-(उपदेशमाला बालावबोध) सम्पादित-ग्रन्थ .. द्वादशारनचयक्रोद्धार टीका प्रालेखनादि स्वकृत संस्कृत और प्राकृत के अलभ्य ग्रन्थ तथा टीकाएँ 1 अध्यात्मबिन्दु * 5 प्रालोकततावाद 2 अध्यात्मोपदेश 6 छन्दश्चूडामरिण की टीका 3 अनेकान्त (वाद) प्रवेश [हैम छन्दोनुशासन की . स्वोपज्ञ 'छन्दश्चूडामणि' 4 प्रलङ्कारचूडामणि की टीका स्वोपज्ञ 'छन्दश्चूडामणि' [हैमकाव्यानुशासन की की टीका पर की गई टीका] स्वोपज्ञ 'अलङ्कारचूडामणि' 7 ज्ञानसार प्रवचणि टीका पर की गई टीका] 8 तत्त्वालोकविवरण 1. यह ग्रन्थ भी हिन्दी अनुवाद तथा विस्तृत उपोद्घात सहित अभी छपा है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( च ) 6 त्रिसूत्र्यालोकविवरण 10 द्रव्यालोक स्वोपनटीका सहित 11 न्याय बिन्दु (?) 12 न्यायवादार्थ 13 प्रमारहस्य 14 मङ्गलवाद 15 वादरहस्य 16 वादार्णव 17 विधिवाद 18 वेदान्तनिर्णय 16 वेदान्तविवेकसर्वस्व 20 शठप्रकरण / 21 सिरिपुज्जलेह (श्रीपूज्यलेख) . 22 सप्तभङ्गीतरङ्गिणी 23 सिद्धान्ततर्कपरिष्कार इनके अतिरिक्त [हारिभद्रीय] - 16 विशिकाओं पर की गई 16 टीकाएँ तथा अन्त में 'रहस्य शब्द-पद से अलंकृत अनेक प्रकरणग्रन्थ और अन्य उल्लिखित 'चित्ररूपप्रकाश', ज्ञानकर्म समुच्चयवाद' आदि छोटी-बड़ी कृतियाँ। इसी प्रकार बहुत-सी कृतियाँ अप्राप्य भी हो गई हैं। गुजराती, हिन्दी और मिश्रभाषा में उपलब्ध कृतियां' 1 अगियार अंग सज्झाय *4 अध्यात्ममत परीक्षा बाला२ अगियार गणधर नमस्कार वबोध 3 अढार पापस्थानक सज्झाय' 5 प्रमतवेलीनी सज्झायो (दो) 1. इन गूर्जर कृतियों का अधिकांश भाग 'गूर्जरसाहित्य संग्रह' भाग-१, 2 में मुद्रित हो चुका है / 2. सज्झाय शब्द मूलतः स्वाध्याय का प्राकृत रूप है / Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( छ ) 46 प्रादेशपट्टक 22 नवपदपूजा (श्रीपालरास के 7 आनन्दंघन अष्टपदी अन्तर्गत) 8 पाठ दृष्टिनी सज्झाय 23 नवनिधान स्तवनो 6 एक सौ पाठ बोल संग्रह 24 नयरहस्यभित सीमन्धर x 10 कायस्थिति स्तवन स्वामी की विनतिरूप स्तवन, स्तवक सहित 11 चड्या पड्यानी सज्झाय (पृ० सं० 125) . 12 चौबीसीसो (तीन), [पद्य 25 निश्चयव्यवहारगर्भित सं० 336) शान्तिजिनस्तवन 13 जस विलास (प्राध्यात्मिक (प०.सं० 48) पद) (पद्य सं० 242) 27 नेमराजुल गीत +14 जम्बूस्वामी रास 28 पंचपरमेष्ठी गीता (पद्य सं० 664) (प० सं० 131) 15 जिनप्रतिमा स्थापननी , 26 पंचगणधरभास सज्झाय (तीन). 16 जैसलमेर के दो पत्र ३०.प्रतिक्रमणहेतुगर्भ सज्झाय 31 पंचनियंठि (पंच निर्ग्रन्थ 4 17 ज्ञानसार बालावबोध संग्रह) बालावबोध x18 तत्त्वार्थाधिगमस्तोत्र, बालावबोध 32 पांच कुगुरु सज्झाय x 16 तेर काठिया निबन्ध (?) 33 पिस्तालीश पागम सज्झाय 20 विक्पट चोरासी बोल 34 ब्रह्मगीता 21. द्रव्यगुण पर्याय रास 35 मौन एकादशी स्तवन स्वोपज्ञ टबार्थ सहित 36 यतिधर्म बत्रोसी Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ज) 437 विचार बिन्दु 55 सम्यक्त्व चौपाई, प्रपरनाम (धर्मपरीक्षा का वार्तिक) षट्स्थानक स्वाध्याय 38 विहरमान जिनविंशतिका स्वोपज्ञ टीका सहित (प० सं० 123) 46 साध-वन्दना रास 36 वीरस्तुतिरूप हडो का (प० सं० 108) स्तवन स्वोपज्ञ बालावबोध 47 साम्यशतक (समताशतक) सहित (प० सं० 150). 48 स्थापनाचार्यकल्प सज्झाय ... 40 श्रीपालरास (केवल उत्त- 46 सिद्धसहस्रनाम छन्द रार्ध) , (प० सं० 21) 41 समाधिशतक (तन्त्र) ५०.सिद्धान्तविचारगर्भित सीमX४२ समुद्र-वहाण संवाद न्धरजिन स्तवन 443 संयमश्रेणि विचार सज्झायः स्वोपज्ञ टबार्थ स्वोपज्ञ टबार्थ सहित प० सं० 350 44 सम्यक्त्वना सड़सठ बोधनी 51 सुगुरुसज्झाय सज्झाय (प० सं० 65). 52 तर्कसंग्रह बालावबोध अन्यकर्तृक ग्रन्थों के अनुवाद रूप में गुर्जर भाषा को अप्राप्य कृतियां . 1. प्रानन्दघन बावीशी-बालावबोध तथा 2. अपभ्रंश प्रबन्ध (?) - यह चिह्न अप्रकाशित कृतियों का सूचक है। . + यह चिह्न उपलब्ध संस्कृत सूची में अनुल्लिखित कृतियों का सूचक है क्योंकि ये ग्रन्थांश रूप में ही प्राप्त हैं। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-कलारत्न, मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज के साहित्य एवं कला-लक्षी कार्यों की सूची . [पू० मुनि श्री यशोविजयजी महाराज (इस ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक तथा संयोजक) ने श्रुतसाहित्य तथा जैनकला के क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सेवा की है / हिन्दी साहित्य का पाठक-वर्ग भी आपकी कृतियों से परिचित हो, इस दृष्टि से यहां निम्नलिखित सूची प्रस्तुत की जा रही है। –सम्पादक] (1) स्वरचित एवं सम्पादित कृतियां १-'सुयश जिन स्तवनावली' (सं० 1601) २-चन्द्रसूर्यमण्डल कर्णिका निरूपण (सं० 1662 ३-बृहत्संग्रहणी (संग्रहणीरत्न). चित्रावली (65 चित्र) (सं० 1968) ४-पाँच परिशिष्ट' (सं० 200) ५-भगवान् श्रीमहावीर. के 15 चित्रों का परिचय, स्वयं मुनिजी के हाथों से चित्रित (सं० 2015). ६-उपाध्यायजी महाराज द्वारा स्वहस्तलिखित एवं अन्य प्रतियों के आद्य तथा अन्तिम पृष्ठों की 50 प्रतिकृतियों का सम्पुट (प्रालबम-चित्राधार) (सं० 2017) ७-आगमरत्न पिस्तालीशी (गुजराती पद्य) (सं० 2023) 1. इस कृति की अब तक पाठ आवृत्तियां छप चुकी हैं। पाठवीं प्रावृत्ति वि. सं. 2000 में छपी थी। 2. इसमें से नौ गुजराती और एक हिन्दी स्तवन 'मोहन-माला' में दिये हैं। इसके अतिरिक्त इसमें मुनिजी द्वारा रचित गहुंली को भी स्थान दिया . गया है। 3. ये परिशिष्ट बृहत्संग्रहणी सानुवाद प्रकाशित हुई है उससे सम्बन्धित हैं। ... Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ज ८-तीर्थङ्कर भगवान् महावीर [ग्रन्थ के 35 चित्रों का तीन भाषाओं में परिचय, 12 परिशिष्ट तथा 105 प्रतीक एवं 40 रेखा पट्टिकाओं का परिचय] (सं० 2028) (2) अनूदित कृतियां १-बृहत्संग्रहणी सूत्र, यन्त्र, कोष्ठक तथा 65 रंग-बिरंगे स्व निर्मित चित्रों से युक्त (सं० 1665) २-बृहत्संग्रहणी सूत्रनी गाथाओ, गाथार्थ सहित (सं० 1965) ३-सुजसवेली भास; महत्त्वपूर्ण टिप्पणी के साथ (सं० 2006) (3) संशोधित तथा सम्पादित कृतियां १-नव्वाणु यात्रानी विधि (सं० 2000) २-यात्म-कल्याण माला (चैत्यवन्दन, थोय, सज्झाय, ढालियां आदि का विपुल संग्रह (आ. 2. सं० 2007) ३-सज्झायो तथा ढालियाँ (सं० 2007) ४-श्रीपौषध विधि (आ. 4. सं० 2008) ५-जिनेन्द्र-स्तवादि-गुणगुम्फित मोहनमाला' (अ० 4, सं० 2006) ६-सुजस वेली भास (सं० 2006) ७-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, प्रति के प्राकार में कति पय उपयोगी विशेषताओं के साथ (सं० 2010) ८-ऋषिमण्डल स्तोत्र (लघ और बहत) 16 पृष्ठात्मक तथा 102 पाठ-भेदों के सहित का संशोधन, 32 पृष्ठात्मक की दो आवत्तियां, (सं० 2012, 2017 तथा 2023) ६-यशोविजय स्मृतिग्रन्थ (सं० 2013) १०-ऐन्द्रस्तुति सटीक (सं० 2018) ११-यशोदोहन (सं० 2022) 1. इसकी द्वितीय भावत्ति सं. 1981 में प्रकाशित करवाई गई थी। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ट ) (4) संयोजित और सम्पादित कृतियाँ १-यक्ष-यक्षिणी चित्रावली (24 यक्ष और 24 यक्षिणियों के जयपूरी शैली में चित्रित एकरंगी चित्र) (सं० 2018) २-संवच्छरी प्रतिक्रमणनी सरल विधि, अनेक चित्रसहित (प्रासन और मुद्राओं से सम्बन्धित 32 चित्रों के साथ) (सं० 2028 तथा 40 चित्रों के साथ सं० 2026) ३-प्रतिक्रमण चित्रावली (केवल चित्र तथा उनके परिचय सहित, सं० 2028) . (5) संशोधित कृतियाँ १-जगदुद्धारक भगवान महावीर (सं० 2020) २-नवतत्त्व दीपिका (सं० 2022) ३-नमस्कार-मन्त्रसिद्धि (सं० 2023) ४-भक्तामर-रहस्य . (सं० 2027) ५-ऋषिमण्डल अाराधना (सं० 2028) (6) प्रेरित कृतियाँ / १-ट्विंशिका चतुष्कप्रकरण (सं.१९६०) २-नवतत्त्व-प्रकरणम् सुमङ्गलाटीकासहितम् (सं. 1960) ३-धर्मबोध ग्रन्थमाला (सं. 2008) ४-जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग 1-2-3 (सं. 2013, 2025 तथा 2026) ५-यशोदोहन (सं. 2022) (7) निम्नलिखित कृतियों की प्रस्तावनाएं १-बृहत्संग्रहणी भाषान्तर ___ (सं. 1966) * २-भुवनविहार-दर्पण / ३-जगदुद्धारक भगवान महावीर 1. इस कृति का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है / Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) ४-नमस्कार मन्त्र-सिद्धि ५-जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास भाग 1-2-3 ६-यशोदोहन (सं० 2022) ७-उवसग्गहरं स्तोत्र याने जैनमन्त्रवादनी जयगाथा (सं. 2025) ८.ऋषिमण्डल आराधना -ह-समाधिमरणनी चाबी (सं. 2024) १०-संगीत, नृत्य अने नाट्य सम्बन्धी जैन उल्लेखो अने ग्रन्थो (सं० 2026) ११-ऋषिमण्डलस्तोत्र , (सं० 2012) १२-ऐन्द्रस्तुति . (सं० 2010) १३-वैराग्यरति: (सं० 2025) इसके अतिरिक्त मुनिजी ने 'खेमो देदराणी, संगीतसुधा, जैन तपावलि और तपोविधि, जैनदर्शन संग्रह स्थान परिचय, यक्ष-यक्षिणीचित्रावली, अमृतधारा,. नवतत्त्व-दीपिका, अमर उपाध्यायजी, प्रगटयो प्रेमप्रकाश इत्यादि लघु पुस्तकों पर छोटे तथा आवश्यकतानुसार प्राक्कथन अथवा प्रस्तावनाएं भी लिखी हैं। (8) अप्रकाशित कृतियां १-पाणिनीय 'धातुकोश' (सम्पूर्ण रूप तथा आवश्यक टिप्पणी सहित) २-पाणिनीय 'उणादिकोश' (धातु, गण, सूत्र, प्रत्यय, व्युत्पत्ति, लिङ्ग और फलित शब्द उनके हिन्दी, अंग्रेजी एवं गुजराती पर्याय सहित / ३-सिद्धचक्रबृहद्यन्त्रोद्धारपूजन विधि (विविध चित्रसहित) 1. इसमें उपाध्यायजी की स्वहस्तलिखित तथा अन्य प्रतियों के आद्य एवं अन्तिम पत्रों की 50 प्रतिकृतियों के पालम्बन की सं. 2017 में प्रकाशित प्रस्तावना को स्थान दिया गया है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-ऋषिमण्डलयन्त्र पूजनविधि (विविध चित्रसहित) ५-हारिभद्रीय कतिपय विशिकाओं का भाषान्तर ६-ऋषिमण्डल स्तोत्र (मूल, अर्थ तथा आवश्यक चित्रों के साथ) ७-अढार अभिषेक विधि . (6) विचाराधीन कृतियां १-पारिभाषिक शब्द-ज्ञान कोश, जैनधर्म से सम्बन्धित निम्नलिखित कोश चित्र सहित१-आगमशब्दकोश (पञ्चाङ्गी) २-आचारशब्दकोश ३-प्रतिक्रमणसूत्र शब्दकोश ४-द्रव्यानुयोग शब्दकोशः ५-भूगोल, खगोल, ऐतिहासिक जैन राजा, मन्त्री आदि से सम्बद्ध परिचय कोश ६-कथाकोश (व्यक्ति के नाम तथा उसकी अति संक्षिप्त प्रामाणिक कथा) - ७-विधि अनुष्ठान-कोश इस प्रकार विविध पद्धति के सात भागों में कोश तैयार कराने की योजना विचाराधीन है। २-भारत की अनेक भाषा तथा विदेश की मुख्य भाषाओं में __ जैनधर्म के मुख्य-मुख्य विषयों से सम्बद्ध 50 से 100 पृष्ठों के बीच आकारवाली पृथक्-पृथक पुस्तकें तैयार कराना आदि। .. प्रेस कापियाँ न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी गणी विरचित निम्नलिखित कृतियों की मुनि जी प्रेस कापियाँ तैयार करवाई हैं Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ढ ) * १-प्रात्मख्याति (माध्यम नव्यन्याय-दार्शनिक कृति) * २-प्रमेयमाला * ३-विषयतावाद * ४-वीतराग स्तोत्र (अष्टम प्रकाश)—बृहद् वृत्ति (,.) * 5-, ( , )-मध्यम वृत्ति (,,) *6- , ( , )-जघन्य वृत्ति (,) . * ७-वादमाला' (नव्यन्याय-दार्शनिक) * ८-वादमाला ( " ) * 8-चक्षुरप्राप्यकारितावाद (पद्यमय) * १०-न्यायसिद्धान्तमञ्जरी (शब्दखण्ड टीका) ११-तिङन्वयोक्ति (व्याकरण) १२-काव्यप्रकाश (द्वितीय तथा तृतीय उल्लास टीका) १३-सिद्धसहस्रनामकोश (पर्यायवाचक नाम) १४-आर्षभीय-चरित्र (महाकाव्य), १५-विजयोल्लास महाकाव्य १६-कूपदृष्टान्तविशदीकरण (धर्मशास्त्र) १७-यतिदिनचर्या (आचारशास्त्र) १८-'विजयप्रभसरिक्षामणकपत्र (पत्रकाव्य) * १६-स्तोत्रावली (हिन्दी अनुवाद सहित) २०-एक सौ आठ बोलसंग्रह 1. 0 इस चिह्न वाली कृतियां संशोधनपूर्वक मुद्रित हो चुकी हैं / 2. यह कृति हिन्दी अनुवाद, विस्तृत भूमिका एवं अन्य मावश्यक टिप्पणियों के साथ प्रकाशित हो चुकी है। 3. यह काव्य हिन्दी अनुवाद सहित 'स्तोत्रावली'-ग्रन्थ में प्रकाशित है। 4. इस ग्रन्थ का गुजराती भाषान्तर के साथ प्रकाशन भी शीघ्र ही करने की सम्भावना है। 5. इस संग्रह का मुद्रण चल रहा है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१-तेर काठिया निबन्ध २२-कायस्थिति स्तवन ढालियावाल २३-विचारबिन्दु (धर्मपरीक्षा का वार्तिक) २४---आदि अने अन्तभाग (उपाध्यायजी के समस्त ग्रन्थों का ___अनुवाद सहित) इसके अतिरिक्त न्यायाचार्य जी के जीवन-कवन के सम्बन्ध में तथा अन्य अनेक कृतियों के अनुवाद और उनके बालावबोध-टब्बानों के प्रकाशन की योजना भी प्रस्तुत मुनिराज ने बनाई है। आपके प्रकाशित एवं अप्रकाशित लेखों की सूची भी पर्याप्त विस्तृत है। ___ कलामय कार्यों की सूची (पूज्य मुनि श्री यशोविजय जी महाराज कला के क्षेत्र में भी नैसर्गिक अभिरुचि रखते हैं तथा उसके बारे में गम्भीर लाक्षणिक सूझ रखते हैं फलतः वे कला के क्षेत्र में भी कुछ न कुछ अभिनव-सर्जन करते ही रहते हैं / ऐसे सर्जन की संक्षिप्त जानकारी भी यहां पाठकों के परिचयार्थ दी जा रही है।) १-महाराज श्री के स्वहस्त से निर्मित बृहत्संग्रहणी ग्रन्थ (संग्रहणीरत्न) के प्रायः 40 चित्र। जो कि एक कलर से लेकर चार कलर तक के हैं। ये छपे हुए तथा 'बृहत्संग्रहणी चित्रावली' की पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हैं। (सं० 1668) २-सुनहरे अक्षरों में लिखवाया हुआ बारसा-कल्पसूत्र / जो कि विविध पद्धति से लिखे हुए पत्र, विविध प्रकार की सर्वश्रेष्ठ बॉर्डर, चित्र और अन्य अनेक विविधतामों से युक्त है। (सं० 2023) ३-रौप्याक्षरी प्रतियाँ-रुपहले अक्षरों से लिखाई गई भव्य प्रतियां / ४-बारसासूत्र (भगवान महावीर के जीवन से सम्बद्ध) के जयपुरी कलम में, पोथी के आकार में पत्रों पर मुनिजी ने अपनी कल्पना के अनुसार विशिष्ट प्रकार की हेतुलक्षी, बौद्धिक बॉर्डरों से तैयार करवाये गए अत्यन्त पाकर्षक, भव्य तथा मनोरम चित्र / Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( त ) ५-भगवान महावीर के जीवन से संबद्ध 34 तथा एक श्री गौतम स्वामी जी का इस प्रकार कुल 35 चित्रों का अपूर्व तथा बेजोड़ चित्र-सम्पुट / जिसमें चार रंग के, प्रायः '6X 12' इंच की साइज में छपे हए चित्र हैं। इनमें विविध हेतुलक्षी, अत्यन्त उपयोगी, बौद्धिक 40 बॉर्डर, जैन तथा भारतीय संस्कृति के-जैन कुकुमपत्रिका तथा कार्डों में प्रयोग किया जा सके और नया-नया ज्ञान मिले ऐसे—उपयोगी 121 प्रतीक हैं। इन 35 चित्रों का परिचय हिन्दी, गुजराती तथा इंग्लिश तीन भाषाओं में दिया गया है / तथा इनके साथ ही 12 परिशिष्ट भी जोड़े गए हैं। जिनमें भगवान महावीर के जीवन का संक्षेप में विशाल परिचय दिया गया है / सभी रेखापट्टियों (बॉर्डर) और प्रतीकों का परिचय 28 पृष्ठों में वर्णित है। ___ इन चित्रों की बाइडिंग की हुई पुस्तक जिस प्रकार तैयार की गई है वैसा ही खुले 35 चित्रों का पेकेट भी तैयार हुआ है। ६-विविध रंगों वाली डाक टिक्टिों से ही तैयार किए हुए भगवान श्री पार्श्वनाथ तथा श्री हेमचन्द्राचार्य जी के चित्र / ७-भरत काम (गूथन) में सपरिकर भगवान पार्श्वनाथ प्रादि / ८-रंगीन कांच पर सोने के पतरे द्वारा तैयार किया गया विविध आकृतियों का विशिष्ट संग्रह / ६-जम्बूद्वीप और अढ़ीद्वीप के स्केल के अनुसार ड्रेसिंग क्लाथ पर तैयार किये गए 5 फुट के नक्शे (सं० 2003) 10 - मिरर (बिल्लोरी) काच-ग्लासवर्क में तैयार कराये हुए चित्र / ११—जैन साधु प्रातःकाल से रात्रि शयन तक क्या प्रवृत्तियां करते हैं ? इससे सम्बद्ध दिनचर्या के तैयार किए जा रहे रंगीन 35 चित्र / १२-प्रतिक्रमण और जिन-मन्दिर में होने वाले . विविध-अनुष्ठान आदि में उपयोगी, आसन-मुद्राओं से सम्बन्धित पहली बार ही तैयार किया गया 42 चित्रों का संग्रह / (यह प्रदर्शन और प्रचार के लिए भी उपयोगी है।) . Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( थ ) १३–'पेपर कटिंग कला' पद्धति में पूर्णप्राय 'भगवान महावीर' के 30 मीवन प्रसंगों का कलासम्पुट / (यह सम्पुट भी भविष्य में मुद्रित होगा।) १४–इनके अतिरिक्त मुख्यरूप से भगवान आदिनाथ, श्री शान्तिनाथ, श्री नेमिनाथ और श्री पार्श्वनाथ इन चार तीर्थङ्करों के (और साथ ही साथ अवशिष्ट सभी तीर्थङ्करों के जीवन-प्रसंगों के) नए चित्र चित्रित करने का कार्य (द्वितीय चित्रसम्पुट की तैयारी के लिए) तीन वर्ष से चल रहा है। लगभग 30 से 40 चित्रों में यह कार्य पूर्ण होगा। भगवान श्री पार्श्वनाथ का जीवन तो चित्रित हो चुका है तथा भगवान श्री आदिनाथ जी का जीवनचित्रण चल रहा है। यह दूसरा चित्र-सम्पुट मुद्रण-कला की विशिष्ट-पद्धति से तैयार किया जाएगा। -भगवान श्रीमहावीर के चित्रसम्पुट में कुछ प्रसंग शेष हैं वे भी तैयार किए जाएंगे अथवा तो पूरा महावीर-जीवन चित्रित करवाया जाएगा। 15 -हाथी दांत, चन्दन, सुखड़, सीप, काष्ठ आदि के माध्यमों पर जिनमूर्तियां, गुरुमूर्तियां, यक्ष-यक्षिणी, देव-देवियों के कमल, बादाम की डिब्बियां, काजू, इलायची, मूगफली, मूंगफली के दाने, छुहारा, चावल के दाने एवं अन्य खाद्य पदार्थों के आकारों में तथा अन्य अनेक आकारों की वस्तुनों में पार्श्वनाथ जी, पद्मावती आदि देंव-देवियों की प्रतिकृतियां बनाई गई हैं। तथा मुनिजी ने कला को प्रोत्साहन देने और जैन-समाज कला के प्रति अनरागी बने इस दृष्टि से अनेक जैनों के घर ऐसी वस्तुएं पहुंचाई भी हैं। इसके लिए बम्बई में कलाकारों को भी आपने तैयार किया है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं को मनोरम बादाम, कमल आदि वस्तुएं सुगमता से प्राप्त हो सकती हैं / मुनिजी के पास इनका अच्छा संग्रह है। -बालकों के लिए भगवान महावीर की सचित्र पुस्तक तैयार हो Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (द) शिल्प-साहित्य १६-शिल्प-स्थापत्य में गहरी प्रीति और सूझ होने के कारण अपनी स्वतन्त्र कल्पना द्वारा शास्त्रीयता को पूर्णरूपेण सुरक्षित रखते हुए, विविध प्रकार के अनेक मूर्तिशिल्प मुनिजी ने तैयार करवाये हैं, इनमें कुछ तो ऐसे हैं कि जो जैन मूर्तिशिल्प के इतिहास में पहली बार ही तैयार हुए हैं। इन शिल्पों में जिन मूर्तियां, गुरुमूर्तियां, यक्षिणी तथा समवसरणरूप सिद्धचक्र आदि हैं / आज भी इस दिशा में कार्य चल रहा है तथा और भी अनूठे प्रकार के शिल्प तैयार होंगे, ऐसी संभावना है। मुनिजी के शिल्पों को आधार मानकर अन्य . मूर्ति-शिल्प गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के जैन मन्दिरों के लिए वहां के जनसंघों ने तैयार करवाए हैं। पूज्य मुनिजी द्वारा विगत 16 वर्षों से प्रारम्भ की गई अनेक अभिनव प्रवृत्तियों, पद्धतियों और प्रणालियों का अनुकरण अनेक स्थानों पर अपनाया गया है जोकि मुनिजी की समाजोपयोगी दृष्टि के प्रति आभारी है। प्रचार के क्षेत्र में जैन भक्ति-साहित्य के प्रचार की दिशा में 'जैन संस्कृति कलाकेन्द्र' संस्था ने पू० मुनि श्री की प्रेरणा से नवकार-मन्त्र तथा चार शरण की प्रार्थना, स्तवन, सज्झाय, पद आदि की छह रेकार्डे तैयार करवाई हैं / अब भगवान महाबीर के भक्तिगीतों से सम्बन्धित एल. पी. रेकार्ड तैयार हो रही है और भगवान महावीर के 35 चित्रों की स्लाइड भी तैयार हो रही है। भगवान महावीर देव की २५००वीं निर्वाण शताब्दी के निमित्त से जैनों के घरों में जैनत्व टिका रहे, एतदर्थ प्रेरणात्मक, गृहोपयोगी, धार्मिक तथा दर्शनीय सामग्री तैयार हो, ऐसी अनेक व्यक्तियों की इच्छा होने से इस दिशा में भी वे प्रयत्नशील हैं। धार्मिक यन्त्र-सामग्री . मुनिजी ने श्रेष्ठ और सुदृढ़ पद्धतिपूर्वक उत्तम प्रकार के संशोधित सिद्धचक्र तथा ऋषिमण्डल-यन्त्रों की त्रिरंगी, एकरंगी मुद्रित प्रतियां लेने वालों की Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ) . शक्ति और सुविधा को ध्यान में रखकर विविध प्राकारों में विविध रूप में तैयार करवाई हैं तथा जनसंघ को आराधना की सुन्दर और मनोऽनुकूल कृतियां दी हैं। ये यन्त्र कागज पर, वस्त्र पर, ताम्र, एल्युमिनियम, सुवर्ण तथा चांदी प्रादि धातुओं पर मीनाकारी से तैयार करवाये हैं। ये दोनों यन्त्र प्रायः तीस हजार की संख्या में तैयार हुए हैं। पूज्य मुनिजी के पास अन्य अर्वाचीन कला-संग्रह के साथ ही विशिष्ट प्रकार का प्राचीन संग्रह भी है। इस संग्रह को दर्शकगण देखकर प्रेरणा प्राप्त करें ऐसे एक संग्रहालय (म्यूजियम) की नितान्त आवश्यकता है। जैनसंघ इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक सक्रियता से विचार करें यह प्रत्यावश्यक हो गया है। दानवीर, ट्रस्ट मादि इस दिशा में मागे आयें, यही कामना है / प्रकाशन समिति Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज द्वारा रचित यशोमारती जन प्रकाशन समिति के अभिनव प्रकाशन १-ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका ( स्वोपज्ञ संस्कृत टीका, गुजराती एवं हिन्दी अनुवाद सहित ) २-वैराग्यरति : (पाठ सर्गों में 5511 पद्यों का अनुपम कथाकाव्य) ३-स्तोत्रावली : (हिन्दी अनुवाद सहित स्तोत्र एवं पत्रकाव्य का संग्रह) ४-काव्यप्रकाश : (द्वितीय-तृतीय उल्लास) उपाध्याय जी द्वारा रचित संस्कृत टीका, उसका अनुवाद तथा 146 टीका और टीकाकारों के परिचय से युक्त विस्तृत उपोद्घात / [ ऐसे ही अन्य और भी ग्रन्थ शीघ्र छप रहे हैं। ] प्राप्तिस्थानश्री यशोभारती जैन प्रकाशन समिति द्वारा-जे० चित्तरंजन एण्ड कम्पनी 312, मेकर भवन, रूम नं० 3, 21, न्यू मरीन लाइन्स, बम्बई-३० Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Silo