________________ 21 आज भी श्रीसंघ में किसी भी बात पर विवाद उत्पन्न होता है तो उपाध्याय जी द्वारा रचित शास्त्र अथवा टीका के 'प्रमाण' को अन्तिम प्रमाण माना जाता है / उपाध्याय जी का निर्णय कि मानो सर्वज्ञ का निर्णय / इसीलिए इनके समकालीन मुनिवरों ने आपको 'श्रुतकेवली' ऐसे विशेषण से संबोधित किया है। श्रुतकेवली का अर्थ है 'शास्त्रों के सर्वज्ञ' अर्थात् श्रुत के बल में केवली के समान / इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ के समान पदार्थ के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन कर सकने वाले / ऐसे उपाध्याय भगवान् को बाल्यावस्था में (प्रायः आठ वर्ष के निकट) दीक्षित होकर विद्या प्राप्त करने के लिए गुजरात में उच्चकोटि के विद्वानों के अभाव तथा अन्य किसी भी कारण से गुजरात छोड़कर दूर-सुदूर अपने गुरुदेव के साथ काशी के विद्याधाम में जाना पड़ा और वहाँ उन्होंने छहों दर्शनों तथा विद्याज्ञान की विविध शाखा-प्रशाखाओं का आमूल-चूल अभ्यास किया तथा उस पर उन्होंने अद्भुत प्रभुत्व प्राप्त किया। उसके फलस्वरूप विद्वानों में ये 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में विख्यात हो गए। काशी की राजसभा में एक महान् समर्थ दिग्गज विद्वान्-जो कि अजैन था, उसके साथ अनेक विद्वान् तथा अधिकारी वर्ग की उपस्थिति में प्रचण्ड शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला पहनी थी / पूज्य उपाध्याय जी के अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' * विरुद से अलंकृत किया था उस समय जैन-संस्कृति के एक ज्योतिर्धर ने-जैन प्रजा के एक सपूत नेजैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया था तथा जैनशासन की शान बढ़ाई थी। ऐसे विविध वाङ्मय के पारङ्गत विद्वान् को देखते हुए आज की दृष्टि से उन्हें दो-चार नहीं, अपितु अनेक विषयों के पी-एच० डी०-वाचस्पति कहें तो भी अनुचित न होगा। भाषा-ज्ञान एवं ग्रन्थ-रचना भाषा की दृष्टि से देखें तो उपाध्याय जी ने अल्पज्ञ अथवा विशेषज्ञ, बालक