________________ ( 11 ) होता है। किन्तु इससे पूर्व कोई कृति निर्मित हुई होगी क्या ? यह प्रश्न बना रहता है / यह कृति दिगम्बरीय है। ऐसी रचना शुष्क प्रतीत होती है / अतः इस दिशा में अत्यल्प व्यक्तियों ने लेखिनी चलाई है। प्राप्त साधनों से अनुमान किया जा सकता है कि चौथी शताब्दी से दो हजार की शताब्दी तक जैन समाज में सहशनाम से अंकित कृतियां पन्द्रह से अधिक तो नहीं ही होंगी। __ यह विषय ही ऐसा है कि जिसमें केवल नामों की ही रचना होती है। इसमें दूसरा कुछ कथनीय नहीं होता है / यद्यपि नाम-रचना का कार्य भी सरल नहीं है, इनमें भी कार्य-कारणभाव की व्यवस्थित तत्त्वव्यवस्था जिस दर्शन में हो, वहां शब्द निश्चित करने के लिये बहुत ही प्रतिभा और सावधानी की अपेक्षा हो, यह आवश्यक है / तथापि कुल मिला कर अन्य विषयों का जितना विस्तार हुआ है उसकी तुलना में इस दिशा का प्रयास छोटा कहा जा सकता है। यह एक अभिरुचि की-रस की बात है, अनिवार्य आवश्यकता की बात नहीं / तथापि हिन्दू परम्परा अथवा वैदिक क्षेत्र में स्पृष्ट क्षेत्र जैनी क्षेत्र में अस्पृष्ट रहे, इस क्षेत्र में जैनों की देन न हो यह एक स्वतन्त्र संस्कृति रखनेवाले जैनसंघ के लिये समुचित न होने से जैनमुनियों द्वारा किया गया यह प्रयास वस्तुतः जैनसंघ के लिये अत्यावश्यक तथा उपकारक माना जाये वैसा है। ___ जैन साधुओं की देश काल को पहचान कर समय के साथ ताल मिलाने की युगलक्ष्यी उदात्तभावना के परिणामस्वरूप त्याग तथा वैराग्य की नींव पर खड़े हुए जैनधर्म में भी बेजोड़ विपयों पर जैनाचार्यो-मुनियों ने विशाल सर्जन किया है। अनेक विषयों के क्षेत्र सींच दिये और फलस्वरूप जैन समाज को महान् संस्कृति की महान् धरोहर प्राप्त हुई / जिसके कारण आज जैन समाज अपनी इस विशाल ज्ञान-साहित्य-समृद्धि के कारण मस्तक उन्नत करके जीवन जी रहा है और विगत पच्चीस वर्षों में देश-विदेश में भी संशोधन के क्षेत्र में, जैन तत्त्वज्ञान ने और जैनग्रन्यों ने विद्वानों में भारी उत्साह तथा आतुरता जगा दी है। जन-मानस विविध संस्कारों से परिपूर्ण है। अनेक कम्प्यूटरों को लज्जित बना सके ऐसे अगाध, विशाल, व्यापक और विविध दृष्टियों को रखने वाले