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________________ सर्वविघ्नहरणाय श्रीलोढणपार्श्वनाथाय नमः / सिद्धसहस्र की प्रस्तावना सिद्धकोश अथवा सिद्धसहस्रनामप्रकरण इन दोनों नामों से पहचानी जाने वाली इस लघु कृति के बारे में जो कुछ कथयितव्य था वह बहुधा धर्मस्नेही श्रीअमृतलाल भाई ने लिख दिया है और वह इसी ग्रन्थ में मुद्रित करके प्रकट कर दिया है जिसे इसी पुस्तक के पृष्ठ 36 से पढ़ लें, जिससे कृति का विस्तृत परिचय मिल जाएगा। जो शेष मुझे कहना है उसका यहां कथन करता हूं। ___ भारत में सह नामों के द्वारा किसी भी इष्ट देव-देवी के विविध नामों द्वारा गुणोत्कीर्तन नामस्तवन-स्तुति करने की परम्परा' युगों पुरानी है। सबसे पहले अजैनों ने सहनामों द्वारा ऐसी स्तुति रचनाएँ कीं। तदनन्तर बौद्ध-जैनों ने भी की। जैनदर्शन में भी यह परम्परा अर्वाचीन नहीं है, प्राचीन मात्र नहीं, अपितु अतिप्राचीन-पुरानी प्रथा है / उपलब्ध कृति के आधार पर कहें तो जैनसंघ में चौथी शताब्दी से जिनसहईनाम की कृति मिल जाने से 1600 वर्ष पूर्व यह थी ऐसा प्रमाणित 1. ऋग्वेद जितनी प्राचीन तो अवश्य ही है / 2. सहस्र रचना की. अजैनों की सूची अतिदीर्घ होने से उदाहरणस्वरूप में ही कुछ नामों का यहाँ निर्देश करता हूं। १---विष्णुसहस्र, गोपालसहस्र, गणेश, दत्तात्रेय, सूर्यनारायण, पुरुषोत्तम आदि के सह नामों की रचना हुई है / देवियों में लक्ष्मी, रेणुका, पद्मावती के भी सह नाम बने हैं। 3. 'जिन' शब्द का अर्थ - "जीतता है वह जिन है।" इतने से अर्थतृप्ति नहीं होती। अर्थ साकांक्ष रहता है / अतः प्रश्न होता है कि किसे जीते ? तो उत्तर होगा आत्मा के रागद्वेषरूपी शत्रु को। इसे जीत लिया जाए तो आत्मा वीतराग बन जाए। जिन-वीतराग एक ही अर्थ के वाचक हैं। वीतराग हुए अर्थात् सर्वत्र समभाव वाले बन गये तभी सर्वगुणसम्पन्न बने।
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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