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________________ (12 ) . मस्तिष्क को छोटे नहीं अपितु विशाल विचार, छोटी कल्पना नहीं अपितु विशाल कल्पनाएँ अधिक आकृष्ट कर सकती हैं। यह अतिज्ञानियों-बुद्धिशालियों के सम्बन्ध में सुपरिचित समझी जा सके ऐसी घटना है। छोटी आकृति की अपेक्षा बड़ी आकृति (नेत्र के स्तर से बड़ी) अधिक ध्यान आकृष्ट करती है। यह मानव चक्षु और मन का सरल गणित है। अल्पता की अपेक्षा (अच्छी बातों की) विशालता किसे. अच्छी नहीं लगती ? . ऐसे मानसिक कारण से एक नाम की अपेक्षा अनेक नामों से, अनेक की अपेक्षा दस नामों से, दस की अपेक्षा अधिक करने से जब अधिक आनन्द का अनुभव किया कि मन आगे बढ़ा / दस में अधिक आनन्द आया तो सौ मैं तो आनन्द की लहरें उछलेंगी, ऐसी किसी पुण्यभावना से शतकों की रचना हुई। तदनन्तर इससे सम्बद्ध लक्ष्मणरेखा लांघ जाने पर जीव सीधी छलांग लगा कर हजार, वास्तविक रूप में तो' 1008 नाम की रचना पर पहुंचा और इस इच्छा को सन्तुष्ट करने के लिये भगवान् को विविध रूप में कल्पित करने लगा / विविध गुणों से अलंकृत करना पड़ा / बुद्धि गहरे कार्य में लगाकर मन्थन किया, येनकेन प्रकारेण अनेक सान्वर्थक नाम बनाकर (छन्द के अनुकूल रहते हुए) सहस्रनाम की भव्य कृति को जन्म दिया अथवा कहिये कि जन्म मिला। ऊपर जो कहा गया है वह 'मानव--स्वभाव को लक्ष्य में रखकर कहा गया है, किन्तु इससे भी अधिक वास्तविक कारण यह ज्ञात होता है कि - 'मन्त्रशास्त्र का एक सर्वसामान्य नियम-परम्परा ऐसी है कि कार्य की सफलता के लिये किसी भी मन्त्र का जप कम-से-कम एक हजार प्रतिदिन होना चाहिए तभी उसकी फलश्रुति के कुछ दर्शन हों, प्रतिदिन एक सहस्र संख्या में जप होता जाए तो दीर्घकाल के पश्चात् जापक को अभूतपूर्व शक्ति का संचार, दर्शन तथा रहस्यों का कुछ अनुभव हुए बिना नहीं रहता / किन्तु इससे भी अधिक वास्त 1. देखिये, शिल्प में क्या हुआ कि भगवान् श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति में पांच-सात अथवा नौ फणों से सन्तोष नहीं हुआ, तब सीधा बढ़कर सहस्रफणा अर्थात् एक हजार सर्पमुख के आवरण वाली मूर्तियों का निर्माण होने लगा। ऐसा भी यहां सोचा जा सकता है /
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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