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________________ ( 13 ) विक यह प्रतीत होता है कि भगवान के शारीरिक लक्षणों की संख्या 1008 है। ऐसे अंक को लक्ष्य में रखकर भगवान् के गुणों से निष्पन्न 1008 नामों के द्वारा स्तुति करने का सम्भवतः विचार बना हो ! __ ऊपर बतलाये गये कारणों को लक्ष्य में रखकर भी ऐसे सहस्र (1008) नामों की कृतियां बनी हों तो यह सुसंगत बात है। ____ यद्यपि परमात्मा के गुण अनन्त हैं / अनन्त गुणों के अनन्त नाम भी बनाये जा सकते हैं, परन्तु मानव-बुद्धि से वह सम्भव नहीं है। अतः जो योग्य, भावोत्पादक, आकर्षक तथा उत्तम हों वैसे ही नामों का निर्माण करने की प्रथा है। इस प्रकार की प्रथा जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों ही संस्कृतियों में थी। ऐसी रचनाएँ मुख्यतया अपने-अपने इष्टदेवों और देवियों को केन्द्र मानकर निर्मित की जाती हैं। स्तव-स्तवन अथवा स्तोत्र चार प्रकार के होते हैं / 1. नाम-स्तव,२ 2. स्थापना स्तव, 3. द्रव्य-स्तव तथा 4. भाव-स्तव / इस स्तवना में सर्वकाल के, सर्वक्षेत्र के तीर्थंकरों-परमात्माओं को आवजित कर लिया जाता है / जिससे किसी भी स्थान के किसी भी क्षेत्र स्थित ईश्वरीय व्यक्ति अस्तुत्य नहीं रह जाएं, तथा उससे परम मङ्गल-- कल्याण की प्राप्ति हो। सहस्रनामों की रचना अरिहन्तों-- अर्हन्तों के अतिरिक्त वर्तमान चौबीसी के किसी भी तीर्थंङ्कर को उद्देश करके की जा सकती है। किंतु इस चौबीसी में सहस्रनाम की रचना की जा सके अथवा प्राप्त हों, ऐसे भगवान् यदि कोई भी हों तो भगवान् पार्श्वनाथ हैं। इसलिए उनके नामों की स्तुति निर्मित हुई है, जिसका नाम 'पार्श्वनाथनाम-सहस्र' है। अरिहन्त से अधिक उच्च स्थान प्राप्त सिद्धात्माओं के सहस्रनाम की रचना उपाध्याय जी के अतिरिक्त किसी अन्य ने की हो ऐसा ज्ञात नहीं है, इसीलिए सहस्रनाम की रचना उपाध्याय जी तक अरिहन्तों को लक्ष्य में रखकर ही की जाती थी यह ध्यान में रखना चाहिये। 1. देखो महा० पु० पर्व 25, श्लोक 66 / 2. इन्हीं के द्वारा निर्मित 'आदिपुराण' के एक अंश-भाग के रूप में यह कृति है, किन्तु स्वतन्त्र रचना नहीं /
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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