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________________ ( 14 ) इस प्रथा का आदर श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में हुआ है। इसमें सहस्र की सबसे प्राचीन रचना श्वेताम्बर आचार्य श्रीसिद्धसेन दिवाकर जी की है और उसका समय चौथी शताब्दी का है। उसके पश्चात् प्रायः 500 वर्ष के बाद विद्वान् दिगम्बर आचार्यश्री ने 'जिनसहस्र' नामक स्तोत्र-स्तवन की रचना की। इस रचना का समय नौवीं शताब्दी का है। परन्तु इसमें एक विवेक करना आवश्यक है कि दिवाकरजी की रचना में नाम भले ही एक हजार हों, किन्तु वे गद्यपद्धति से संगृहीत हुए हैं, पद्य श्लोकरूप में नहीं हैं; और शैली का प्रकार भी भिन्न है। अतः वास्तविक रूप से श्लोकबद्ध पद्धति से निर्मित रचना सबसे पहली आचार्य श्री जिनसेन की है। ऐसा प्राप्तसाधनों के देखने से कहा जा सकता है। जिनसेन जी की कृति के पश्चात् प्रायः तीन सौ वर्षों के बाद (वि० सं० 1226 में) कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य जी ऐसी ही कृति हमें प्रदान करते हैं / केवल नाम में कुछ अन्तर करके 'अईन-नाम-सहनसमुच्चय' ऐसा नाम रख देते हैं। यद्यपि इस दृष्टि से अर्हन अथवा जिन एक ही अर्थ के वाचक हैं जबकि इस कृति को 'जिनसहस्र' नाम से भी पहचाना जाता ही है। जिन सहस्रनाम स्तोत्र अथवा अर्हन्नमस्कार स्तोत्र ऐसे नाम वाली अन्तिम मुद्रित कृति सत्रहवीं शताब्दी (सं० 1731) की प्राप्त होती है। जिसके कर्ता उपाध्याय श्रीविनयविजयजी महाराज हैं। जिनसहस्र की रचनाएँ कुल सात प्राप्त हुई हैं, इनमें तीन दिगम्बर की और चार श्वेताम्बर की हैं। दिगम्बर की तीनों कृतियाँ मुद्रित हो गई हैं, जबकि श्वेताम्बर की दो मुद्रित हुई हैं और दो 1. दिगम्बरीय जिनसहस्र के नामों और श्वेताम्बरीय अर्हन समुच्चय के नामों में ग्रन्थगत नौवें शतक की रचना को छोड़ दें तो शेष शतकों के नामों में असाधारण साम्यदृष्टिगोचर होता है / आज इस पद्धति को एक समस्या के रूप में देखने की अपेक्षा साहित्य के क्षेत्र में परस्पर एक-दूसरे के आदान-प्रदान करने की कैसी पद्धति थी, इस रूप में समझना अधिक उपयुक्त होगा।
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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