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________________ अमुद्रित छाणी तथा पूना के भण्डार में हस्तलिखित प्रति के रूप में विद्यमान हैं। __इनमें मुझे दिगम्बरीय आशाधर पण्डित (वि० सं० 1287) विरचित कृति उसकी विशिष्ट क्रमबद्ध योजना तथा नामों में व्यक्त होनेवाली प्रतिभा के कारण रचना की दृष्टि से अति विशिष्ट कृति प्रतीत हुई है। आशाधर को 'कवि कालिदास' के रूप में व्यक्त किया गया है / वे गृहस्थ विद्वान् थे / 1. भारत अनेकविध धर्मों और पन्थों का देश है / ऐसे देश में प्रजाजनों के बीच परस्पर सहिष्णुता का सेतु बना रहे, शान्ति का सूत्र पिरोया रहे, तो जनता विविधता में भी एकता का अनुभव करती रहे, जिससे भ्रातृभाव, प्रेम और मैत्री की भावना दृढ़ होती रहे / इसके लिए जैनाचार्यों ने प्रसङ्गवश साहित्य के क्षेत्र में उदात्त उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इनमें प्राचीनों में सुप्रसिद्ध, महान् आचार्यों में सूरिपुङ्गव श्रीहरिभद्रजी, इनके पश्चात् श्रीहेमचन्द्राचार्यजी, श्री मानतुङ्गसूरिजी और उनके पश्चात् उपाध्यायजी यशोविजयजी आदि को गिनाया जा सकता है। दिगम्बरों में पण्डितप्रवर श्री आशाधरजी को प्रस्तुत किया जा सकता है। आशाधरजी के द्वारा सहस्रनामों के शतकों में अर्थ की दृष्टि से जनदृष्टि को ध्यान में रखकर ब्रह्मशतक, बुद्धशतक आदि की योजनाएँ इस बात के प्रबुद्ध उदाहरण हैं। यह, भगवान महावीर द्वारा इस देश को दी गई सर्वथा नवीन, अद्भुत अनेकान्त दृष्टि की सर्वतोमुखी दृष्टि की आभारी है / भेद में अभेद और अभेद में भेद को स्थापित करके सत्य को जीवित रखना, यह इस दृष्टि की फलश्रुति है। सापेक्षदृष्टि यह अनेकान्त का दूसरा नाम है। समस्त संघर्षों के समाधान के लिए यह एक महान् सिद्धान्त है, और इस अनेकान्त के सिद्धान्त को 'स्याद्'वादशैली के द्वारा जैनाचार्यों ने पर्याप्त विकसित किया उपाध्यायजी ने भी उपर्युक्त परम्परा का आदर यथोचित किया है। इन्हीने शाब्दिक झगड़े से दूर रहने की बात कहते हुए भाषा में रचित 'सिद्धसहस्रनाम वर्णन' की कृति में कहा है कि - इस्या सिद्ध जिननां कह्यां सहस्रनाम, रहो शब्द झगडो कहां लहो शुद्ध धाम /
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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