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________________ ( 16 ) 'सहस्र' नाम की सबसे प्रथम रचना (अजैन कृति) विष्णु-सहस्र' नाम की है / तथा इसी दृष्टि से सहस्रनाम-वाङमय में वह सबसे अधिक प्राचीन है। जिनसहस्रनाम के अतिरिक्त व्यक्तिगत तीर्थकर की रचना एक उपलब्ध है जो भगवान् पार्श्वनाथजी की है, और यही कारण है कि उसका नाम 'पावसहस्र नाम' है जो बात ऊपर कही गई है। भगवान् पार्श्वनाथ इस काल के लोकप्रिय रहे हैं और सदैव रहेंगे / 23 में एक ही भगवान् ऐसे हैं कि जो सैंकड़ों नामों से भारत में पहचाने जाते हैं और उनके मन्दिर तथा मूर्तियां भी अधिक हैं / जैनेतरों में शंकर का जो स्थान है वैसा ही स्थान जैनों के लोकहृदय में पार्श्वनाथ प्रभु का है। जैसे शंकर आशुतोष कहलाते हैं उसी प्रकार भगवान् पार्श्व की भक्ति भी शीव्र तोष करने वाली है। इसके अतिरिक्त ग्रहों में देखें तो मुख्य सूर्यग्रह के समान ही श्री पद्मावती आदि देव-देवियों के भी सहस्रनामों की रचना प्राप्त होती है। सहस्रनाम की रचनाएँ संस्कृत से अनभिज्ञ जीवों के लिये भाषा में भी हुई हैं। इनके रचनाकारों के रूप में बनारसीदास, जीवहर्ष तथा उपाध्यायजी तो हैं ही। X अब प्रस्तुत ग्रन्थ के मूल विषय पर आएँ, जिस कृति के कारण उपर्युक्त भूमिका बांधनी पड़ी उस कृति का नाम है 'सिद्धसहस्रकोश' जिसे पहले बता चुका हूं। जिन सहस्रनामों की कृतियां जैन संघ के पास थीं अतः उपाध्यायजी ने एक ही वस्तु में अधिक योग करने की अपेक्षा नया विषय पसन्द करना उचित माना और उनके मन में (जिन अरिहन्त की रचना को छोड़कर) सिद्ध भगवन्तों 1. यह कृति महाभारत के अनुशासन पर्व में हैं। 2. आशु अर्थात् जल्दी, तोष-प्रसन्न हो, सन्तोष प्रदान करे वह / 3. जनेतरों में उन्हें मान्य अम्बिकासहस्र, रेणुकासहस्र-आदि की अनेक देवियों की कृतियां हैं।
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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