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________________ ( 17 ) के सहस्रनामों की रचना करने सम्बन्धी अभिनव कल्पना स्फुरित हुई तथा उसे साकार बनाकर हमें 'सिद्धसहस्रनाम' की विशिष्ट भेट दी। यह वस्तुतः उपाध्यायजी की बुद्धि प्रतिभा की आभारी है / जिनसहस्र में जैसी नामों की रचना होती है वैसी तो इसमें कहाँ से हो ? क्योंकि जिन-तीर्थङ्करों की उस समय की गुणावस्था पृथक् है। जिन उस समय सदेही हैं। उपदेश की प्रवृत्ति आदि से तन्तुलित रहते हैं / अघाती चार कर्म भी विद्यमान रहते हैं जबकि सिद्धों को इनमें से कुछ भी नहीं होता / अतः स्वाभाविक रूप से ही सकल कर्म-रहित बने हुए सिद्धों को जो गुण घटते हों उन गुणों का निर्माण करना पड़े और उसी तरह नाम संग्रह किया जाता है / यद्यपि इनमें जिनसंग्रह के नाम मिलेंगे अवश्य परन्तु वे थोड़े ही। 1008 नामों के संग्रह के लिये स्थापित प्रक्रिया के अनुसार शतक का निर्धारण करके दस शतकों का निर्माण किया गया है। इस कृति के लिये सम्पूर्ण रूप से अनुकूल माने जानेवाले अनुष्टुप् छन्द को स्वीकृत किया गया है। प्रत्येक शतक में 100 नामों का उत्तम संग्रह हुआ है किन्तु सौ नामों के लिये विभागों की संख्या समान नहीं है / नाम अल्पाक्षरी हों तब उनके लिये श्लोक भी कम बनाने पड़ते हैं। इससे दस शतकों में 6 से 13 की संख्या तक के श्लोकों की व्यवस्था है / कर्ता ने स्वयं को उपाध्याय नहीं अपितु गणि के रूप में अभिव्यक्त किया है। यह कृति पू० आ० श्री देवसूरिजी के साम्राज्य में निर्मित हुई है। उनके भक्तजनों के श्रवणार्थ रचना की गई है ऐसा उन्होंने शतक के अन्त में बतलाया है / सिद्ध का तात्पर्य क्या है ? जैन जिस देव को मानते हैं उनके दो प्रकार हैं---एक साकार तथा द्वितीय निराकार / एक कर्मसहित हैं और एक कर्मरहित / साकार अर्थात् देहधारी हों वह अवस्था। देहधारी होते हैं तब जन-कल्याण के लिये वे अविरत उपदेश की वर्षा करते हैं और वे ही साकार देहधारी देव अपने मानव देह का आयुष्य पूर्ण होने पर शेष जो चार अघाती कर्म हों उनका
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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