________________ सर्वथा क्षय करके सर्वात्म प्रदेश से निष्कर्म बनकर, सकल कर्म से मुक्त होने पर आत्मा का स्वयं का शाश्वत जो स्थान मोक्ष अथवा मुक्ति जो कि अरबों अरब मील दूर है वहां आंख की एक पलक में बीतते हुए. असंख्य क्षणों--(समयों) में से केवल एक ही क्षण में पहुंच जाते हैं। वहां अनादि काल से ज्योतिरूप में अनन्तानन्त आत्माएँ विद्यमान हैं। शाश्वत नियम के अनुसार एक आत्मा की ज्योति में अनन्तानन्त आत्माओं की ज्योति समाविष्ट होती ही रहती है। (जैसे . प्रकाश में प्रकाश मिलता रहता है उसी प्रकार) वहां न शरीर है, न घर है, न. खाना-पीना है, कोई वस्तु नहीं, कोई उपाधि नहीं, इसी का नाम मोक्ष है। मोक्ष का दूसरा नाम सिद्ध है, शिव-मुक्ति, निर्वाण आदि हैं। इस मोक्षसिद्ध स्थान में रहने वाले जीव भी सिद्ध ही कहलाते हैं और सर्वकर्म-विमुक्त अत एव सर्व-गुणसम्पन्न, सर्वोच्च कोटि में पहुंचे हुए इन्हीं 'सिद्धान्माओं की उपाध्यायजी ने विविधरूप से स्तुति की है। दूसरी बात यह स्पष्ट करनी आवश्यक है कि जिनसहस्र में प्रयुक्त 'सहस्र' शब्द से पूरे एक हजार नाम ही नहीं समझना चाहिए अपितु एक हजार और आठ समझना है। किन्तु. 'अष्टाधिकजिनसहस्र ऐसा नामकरण उचित नहीं प्रतीत होता, इसलिये ग्रन्थ के नामकरण में सहस्र का पूर्णांक रखा है और वह उचित है। मानव की प्रवृत्ति सदा फलोद्देश्यक होती है। प्रवृत्ति का अच्छा फल मिलेगा ऐसा लगता है तो श्रद्धापूर्वक प्रवृत्ति करता है और नहीं लगता है तो नहीं करता है। कदाचित् करता भी है तो उन्मन होकर / इसलिये प्रश्न उठता है कि नामसहस्र का पाठ करने से क्या लाभ होता है ? इसका उत्तर यह है कि नामावलि के रचयिताओं ने तो नामस्तव करने वाला व्यक्ति, तीर्थंकर नामकर्म 1. उपाध्यायजी ने सिद्धों की गुजराती भाषा में भी स्तुति की है, जिसका नाम 'सिद्ध-सहस्र-नाम-वर्णन-छन्द' रखा है। जो गुर्जर साहित्य संग्रह, भाग एक में मुद्रित हुआ है / यद्यपि उपलब्ध इस कृति में नाम बहुत कम हैं।