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________________ (16) . अर्थात् ईश्वर बनने तक का पुण्य बांध सकता है इतनी सीमा तक की महिमा गाई है। वह प्राप्त हो उसके बीच-मध्यकाल की अवस्थाओं में इन सहस्रनामों का पाठ करने से शुभ की ओर परमशान्ति की प्राप्ति, पापों का नाश, अभीष्टसिद्धि और सर्वदुःखों से मुक्ति आदि लाभ मिलते हैं। उपाध्यायजी महाराज ने भी सिद्धों को नमस्कार करने से गौणफल के रूप में ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति और मुख्य फल के रूप में महोदय-प्राप्ति-मुक्ति की प्राप्ति बताया है। मुक्ति का ही दूसरा नाम महोदय है। उदय शब्द तो संसारवर्ती उन्नति से सम्बन्ध रखता है, किन्तुं महान् उदय (यथार्थस्वरूप में महोदय) सृष्टि पर होता ही नहीं / यह तो मोक्ष में ही पहुंचा जाए तब वहीं उसका अनुभव किया जाता है / यह दिखाया है सिद्धों के प्रणिपात नमस्कार का फल / ' स्मरण का फल क्या है ? तो उपाध्यायजी ने कहा है कि मंगल नहीं अपितु परममंगल / मंगल अर्थात् पाप का-विघ्न का नाश / साथ ही स्वर्ग की प्राप्ति और उसके सर्वोत्तम फल में सिद्ध-स्थान की प्राप्ति / तात्पर्य यह कि यह स्तवन मुक्ति और मुक्तिप्रद है अर्थात् बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के सुखों को देने वाला है। यहां चर्चा के लिये स्थान नहीं है / परन्तु एकांगी, और निश्चय नयवादी धर्माराधन अथवा भक्ति के फल के रूप में केवल मुक्ति को ही बताना चाहिए ऐसा आग्रह रखने वाला व्यक्ति मुक्ति शब्द की ओर दृष्टि डाले / ___ इससे कतिपय वाचकों को ऐसा लगे कि स्तवन का महत्त्व बढ़ाने के लिये ही ऐसे प्रलोभन बताये जाते हों ! ऐसा तो नहीं है न ? 1. स्तुवन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् / (विष्णुसहस्र) -सर्वविघ्नैकहरणं सर्वकामफलप्रदम् / (गणेशसहस्र) -परमं शं प्रशास्महे / (महापुराण 25-66)
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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