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________________ ( 3 ) प्रतिभा साहित्यशास्त्रीय प्राचीन विश्वास के आधार पर किसी देवता के प्रसाद से अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर पहुंचती है। वामन ने 'कवित्वबीजं प्रतिभानम्' कहकर इसकी व्याख्या की है तो अभिनव गुप्त इसके कारण ही 'अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमता' का उल्लेख करते हैं / यह चाहे 'सहजा' हो अथवा 'उत्पाद्या'; किन्तु इसका यह गुण राजशेखर ने ठीक ही परखा है कि-'या शब्दग्राममर्थसार्थमलङ्कारतन्त्रमुक्तिमार्गमन्यदपि तथाविधमधिहृदयं प्रतिभासयति सा प्रतिभा / अप्रतिभस्य पदार्थसार्थः परोक्ष एव / प्रतिभावतः पुनरप्रत्यक्षतोऽपि प्रत्यक्ष एव / इत्यादि / इसी प्रतिभा के प्रसाद से कवि मस्तिष्क की प्रच्छन्न क्रियाशीलता से सष्टि-व्यापार को प्रत्यक्ष करता है, आत्मसात् करता है तथा उससे प्रेरणा प्राप्त करके प्राकृतिक अवयवों को तोड़-मरोड़ कर अथवा गला-पिघलाकर एक नवीन सष्टि का निर्माण करता है। इस सृष्टि-समुन्मीलन में सभी जीवन-तत्त्व-'सयाग-वियोग, सघषसमन्वय, अन्तर्वाह्य, स्थिर-अस्थिर, नवोन-प्राचोन, परािचतअपरिचित, * साधारण-असाधारण, हृदय-मस्तिष्क, चेतन-अवचेतन, भूत, वर्तमान, भविष्य, व्यक्ति, जाति, भिन्न आकार-प्रकार के शब्द और उनकी विभिन्न ध्वनियां, स्वच्छन्दता और नियन्त्रण आदि''समाविष्ट रहते हैं। कवि-परिणति के लिए आवश्यकतत्त्व राजशेखर 'कवि' शब्द की व्युत्पति ‘कवृ-वर्णने' धातु से मानकर कवि की 'वर्णना' शक्ति को मुख्यता प्रदान करते हैं / भट्ट 1. 'कवि' शब्द की व्युत्पत्ति और परिभाषा के सम्बन्ध में हमने श्रीयशोविजय जी उपाध्याय रचित. टीका वाले 'काव्यप्रकाश' की भूमिका में विस्तार से विचार किया है / कृपया वहां भी देखें /
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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