________________ ( 4 ) . गोपाल-'कौति शब्दायते विमति रसभावानिति' कहकर कवि की भावुकता एवं सहज गाननिपुणता को प्रथम स्थान देते हैं। जबकि मम्मट 'लोकोत्तरवर्णनानिपुणं कविकर्म' कहकर 'वास्तविक वस्तु का पालौकिक रूप मूर्तिमान करना कविकर्म बतलाते हैं / और भट्टतौत भी अपने 'काव्यानुशासन' में “स तत्त्वदर्शनादेव शास्त्रेष पठितः कविः / ... . दर्शनाद वर्णनाच्चाथ रूढा लोके कविश्रुतिः // तथा हि दर्शने स्वच्छ नित्येऽप्यादिकवेमनेः / नोदिता कविता लोके यावज्जाता न वर्णना॥" इस प्रकार कहकर कवि के लिए 'दर्शन' और 'वर्णन' की आवश्यकता पर बल देते हैं और दर्शन एवं वर्णन दोनों ही एक दसरे के पूरक तत्त्व हैं। इनके बिना आदि कवि बाल्मीकि भी अपनी रचना में सफल नहीं हो सकते थे, यह भी कहा है। - वैसे इन दोनों के साथ श्रवण को भी जोड़ना अनेक विद्वानों को अभीष्ट है। 'श्रुतं च बहु निर्मलम्' (दण्डी) इसी का प्रतीक है। इन तीनों की त्रिवेणी में सुस्नात कवि साहित्यकार ही पूर्ण सफल होकर जगती में आदर और प्रसिद्धि का भाजन बनना है / अतः १-हमने भी इस सम्बन्ध में एक पद्य इस प्रकार लिखा है - श्रुतं बुधेभ्यः पठितं गुरुभ्य: समीक्षितं नेत्रयुगेन येन / स्नातं त्रिवेण्यामथ भक्तिभावः साहित्यकार: प्रथते स भूमौ / / -रुद्रदेव त्रिपाठी 2. पूरा पद्य इस प्रकार है नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतञ्च बहुनिर्मलम् / अमन्दश्चाभियोगश्च कारणं काव्यसम्पदः / /