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________________ (20 ) प्रथम पद्य-श्रुतस्थितैर्यः कमलालयो यशः (1-1) इत्यादि में नाभिनन्दन को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समन्वित रूप में व्यक्त करने के लिए प्रत्येक के विशिष्ट गुण को श्री ऋषभदेव में दिखलाया है जो श्लेषालंकार से ही बोध्य है। . अर्थान्तरन्यास के प्रयोग प्रस्तुत काव्य में बहुधा हुए हैं। यथान शार्वरध्वान्तहरं विना रवेरवेक्ष्यते (1-4), न चिन्तनीयं चरितं महात्मनाम् (1-5) विवादभाजोः करभामृताशिनोर्न क्लप्तयुक्तिः कलहं व्यपोहति (1-101), शलभो लभते कियद यशस्तरणौ क्लप्तरणः ऋधारुणः (2-36) नभस्यलुप्त्वा ग्रहमात्रदीप्ति ग्रहाधिपख्यातिमुपैति नार्कः (3-72) इत्यादि। . उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अपह्न ति (1-67), परिवृत्ति (1-85), समासोक्ति (1-84), विरोधाभास (3-62) आदि अलंकारों की छटा सर्वत्र अपनी सुषमा बिखेर रही है। यहां कवि ने अपने मुनिजीवन के अनुभव, संसार की असारता, लक्ष्मी की चञ्चलता और मतिविभ्रमकारिता आदि के वर्णनों के साथ ही शास्त्रीय विषयों का समावेश करने में भी प्रवीणता दिखलाई है / यथा क्षुधा के बारे में कहे गये ये पद्यपुरं प्रविश्याक्षकपाटपाटना-पुरस्सरं लुण्ठितसारसम्पदः / करोति यः क्षुत्कटकस्य निग्रह, तमन्नदेवं समुपास्महे वयम् // 1-43 // तथा कुठारिकामानकपाटपाटने, विलज्जता नाट्यनटीपटीयसी / विचित्रवंशस्थितिचित्रलुम्पने, मषीसखीयं जठरोद्भवा व्यथा // 1-4 // क्षुधा की भीषणता को जहां व्यक्त करते हैं वहीं अन्नदान के महत्त्व को भी उन्होंने बड़ा महत्त्व दिया है और कहा है कि
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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