________________ . ( 21 ) ददाति यो नावसरेऽन्नथिने, प्रदाह्य चिन्तासु परं प्ररोदयन् / स्वयं चितायां ज्वलतः स्वरोदकात्, स बध्वमुष्टिर्म तकाद् विशिष्यते // 1-44 // इसी प्रकार कृपणों को 'कृपाणतुल्य' (1-46) कहकर उनकी निन्दा भी की है। लक्ष्मी के बारे में उसकी कुटिलता, अस्थिरता, विषभगिनीत्व एवं सूकृतछेत्तता (2-88 से 15 तक) के वर्णन के साथ ही एक स्थान पर स्त्री के बारे में भी कवि ने कहा है कि कुटिला हसितेन फेनिला, सलिलावर्त-विवत नाभिभूत् / प्रमुना विहिताङ्गनानदी, नरके पातयति प्रमादिनः // 2-103 // यह प्रमादियों को नरक में गिराती है / उपनिषद् वाक्यों से साम्य दिखलाने वाले (1-66 और 2-48) पद्य हैं जिनमें 'मात्मा वारे द्रष्टव्यः' तथा 'केवलाघो भवति केवलादी' इन वाक्यों का पोषण हुआ है। न्यायशास्त्र के तत्त्वों का समावेश-न सिद्धय सिद्धयोः स्फुटनिग्रहस्थलाम् (1-66), कपालनाशात् कलशक्षये यथा (1-114) तत्सङ्कटव्याघ्रतटीयमेतत (3-84), में और इसी प्रकार वहीं द्वैतअद्वैत (3-100), ज्योतिष (3.85), * शकूनशास्त्र (4-1 से 17 तक) तथा वैद्यक (3-61) आदि का भी परिज्ञान कवि ने करवाया है और राजनीति के उपदेश भी इसमें मार्मिक हैं। इस प्रकार संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि यद्यपि इस महाकाव्य का यह उपलब्धांश अपनी भव्य आयोजना की भूमिका ही प्रस्तुत कर पाया हैं तथापि "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" इस लोकोक्ति के अनुसार यह अवश्य ही अपनो परम्परा का एक अनूठा एवं बेजोड़ महाकाव्य रहा होगा। प्रतीक्षा है इसके अन्य अवशिष्ट अंश के अवलोकन की...........