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________________ [द्वितीय-कृति] विजयोल्लास-महाकाव्य द्वितीय सर्ग के ६५वें पद्य तक उपलब्ध 'विजयोल्लास-महाकाव्य' का यह अंश संक्षिप्त होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है। इसकी रचना में श्रीयशोविजयजी महाराज ने 'सकलभट्टारकशिरोमणि भट्टारक श्रीविजयदेवसूरीश्वर गुरु' की स्तुति को प्रमुखता देते हुए अपने विजय की कामना को प्रमुखता दी है। जो कि-'सूरीश्वरं श्रीविजयादिसिंह स्तोतु प्रवत्त विजयाभिकांक्षी' इस पद्यांश से स्पष्ट है। इन दो सर्गों में निम्नरूप से काव्यांश प्रस्तुत हुआ है प्रथम सर्ग-श्रीशङ्केश्वर पार्श्वनाथ; सरस्वतीदेवी एवं गुरुस्मरणरूप मङ्गलाचरणों से सर्गारम्भ हुआ है। कथावस्तु को प्रस्तुत करते हुए यहां सात पद्यों के कुलक से काव्य-निर्माण-प्रवृत्ति का संकेत देकर सर्वप्रथम 'मंडोवरापार्श्वनाथ' की भूमि का वर्णन किया है / तदनन्तर फलवधि-फलोधि चैत्य और नगर का वर्णन, वहां 'अनघमल्ल' नामक श्रेष्ठी का निवास, उसके विभिन्न गुण, शारीरिक सौन्दर्य, विद्या, बुद्धि, वैभव आदि का वर्णन नायकदेवी का उसपर मुग्ध होना और उसी के साथ विवाह होना वर्णित है। - द्वितीय-सर्ग-अनघमल्ल और नायकदेवी के विवाह से सुधीजनों को अत्यन्त आनन्द होता है। इन दोनों के सौन्दर्य और यौवन के वर्णन के साथ ही 'नायकदेवी' के अङ्गलावण्य, केशकलाप, मुखमण्डल, भ्रयुगल, नेत्र, नासिका, अधर, दन्तपंक्ति तथा वदन-सौन्दर्य की छटा अंकित करने में ही यह सर्ग अपूर्ण रह गया है / उपर्युक्त वर्णन
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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