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________________ ( 23 ) में बडी उदारता से कल्पनाओं का प्राश्रय एवं अलंकारों का आलम्बन लेकर विस्तार हआ है। इसी से यह अनुमान किया जाता है कवि विषय को सुदूर तक ले जाने की भावना से शून्य नहीं था। ___साहित्य-समीक्षा-पूर्ववणित काव्य के समान ही इस काव्य में भी रचना में पूरा सौष्ठव प्रस्तुत हुआ है / प्रथम सर्ग में 1 से 14 तक एवं 67 वे पद्य में उपजाति वृत्त का प्रयोग है / तथा रथोद्धता, पुष्पिताग्रा, मालिनी, वसन्ततिलका और शार्दूलविकीडित में भी दो-दो और एक-एक पद्य हैं। इस प्रकार यह सर्ग 102 पद्यों में पूर्ण हुआ है। द्वितीय सर्ग के सभी 65 पद्य वियोगिनी छन्द में हैं। प्रारम्भिक वर्णन में गुरुभक्ति के साथ ही कवि का साहित्यिक अन्तरंग परिस्फुट होने लगता है / शब्दों के चयन में एक प्रकार का मार्दव तो है ही, साथ ही नादगत सौन्दर्य को भी पूरा प्रश्रय मिला है। अनङ्गसङ्ग कथमङ्गतीति (1-6) कुकाल-पातालतलावमज्जद् (1-6), नाम्नैव धाम्नामनुरूपरूपं (1-10) मेरुन मेरुर्जगदीश्वरेण (1-66), सहस्रजिह्वोऽपि सहस्रजिह्वः (1-73), रक्तोत्पलपल्लवाभ्यां प्रतिक्षणात् क्षीणविपल्लवाभ्याम् 1.86) प्रथिता किल सा तिलोत्तमा कथमस्याः पुरतस्तिलोत्तमा (2-6), रतिरेतु रति रतिरेवान्तरिता (2-10), सकला कचपाशचुम्बिनी न कलापेऽनुकलापिनः कला। सकलाकलितार्द्ध चन्द्रको मुखचन्द्रोपरि संञ्चरः परः (2-11), रजनीकरकष्टमष्टमीरजनीमण्डनखण्डन तपः (2-16), श्रगणान्दोलनलोललीलया (2-21) और अधरे निधुना सुधारसः (2-65) जैसी मसण पदावलियों के प्रयोग से अनुप्रास और यमक अलंकार की प्रयोग चातुरी सहज ही परिलक्षित होती है / 1. प्रचू चुरच्चामरभासमस्य केशोच्च यश्चामरभासमस्य / ___ वने निवासं चमरी च लेभे विपर्ययं किन्न गतिश्चलेभे / / (2-76) यहां भी पादान्तयमक दर्शनीय है।
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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