________________ ( 24 ) इसी प्रकार अर्थालंकारों के प्रयोग में भी अपना नैपुण्य व्यक्त करते हुए-उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अपह नुति, भ्रान्तिमान्, परिसंख्या, निश्चय, श्लेष, विरोधाभास, अर्थान्तरन्यास आदि का समुचित प्रयोग किया है / उत्प्रेक्षाओं में पर्याप्त नवीनता है तो रूपक में दीर्घसमास वाले पद प्रयुक्त हैं। अपह्न ति के लिए वास्तविक को अवास्तविक में व्यक्त करने का प्रयास उत्तम है / जैसे- यत्रानिशं स्फाटिकजनसद्म (1-26) इत्यादि पद्य में जैन मन्दिरों की स्फटिकसमधवलिमा से प्रहत अन्धकार में नवयौवनाओं के कुचों में कस्तूरिका के रूप में अमावस्या का शयन वणित' है। अन्यत्र (पद्य 1-53 के) वर्णन में अनघमल्ल के दान से अपने दान को न्यून मानकर बलि का पाताल में छिपना भी प्रभावपूर्ण है / व्याकरण, न्याय. संगीत आदि शास्त्रों का पाण्डित्य भी यत्र-तत्र पद्यों में विशेष रूप से समाविष्ट है जिससे शास्त्रकाव्य की झलक सहसा प्राप्त होती है। वर्णन में महाकवि कालिदास, हर्ष और पण्डितराज जगन्नाथ के पद्यों की छाया क्रमशः प्रथमसर्ग 'में 47, 51, 67 और 86 में देखी जा सकती है। जिससे कवि की स्वाध्यायशीलता का आभास मिलता है। "नैषधीयचरित" के समान ही यहाँ सर्गान्त में एक पद्य कविवर्णन और उसके आदिमसर्ग समाप्ति का सूचक है। साधुजीवन में रहते हुए भी कवि के दायित्व को पूर्ण करने के लिए गणिजी ने कहीं संकोच नहीं किया है। प्रायः देखा जाता है कि कुछ विरक्त कवि शृङ्गाररस के वर्णन में उदासीन हो जाते हैं अथवा अवसर पाकर शृङ्गारिकता की निन्दा करने में भी नहीं चूकते / किन्तु उपाध्यायजी इसमें अपवाद प्रतीत होते है। प्रस्तुत काव्य के द्वितीय सर्ग में नायकदेवी का सौन्दर्य-वर्णन इसका प्रमाण है। __ क्या ही अच्छा होता ! यदि यह काव्य पूरा उपलब्ध होता ! ? 1. प्रस्तुत काव्य की पाण्डुलिपि बहुत समय के पश्चात् प्राप्त हुई है। इसी कारण श्री कापड़िया जी द्वारा लिखित 'यशोदोहन' नामक गुजराती ग्रन्थ में इसका उल्लेख भी नहीं हुआ है।