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________________ ( 32 ) 5. जिनसहस्रनाम-स्तोत्र- दि० सकलकीति (१५वीं शती ई०) यह स्तोत्र 138 पदों में निर्मित है। रचनाशैली पूर्ववत् है। . 6. जिनसहस्रनाम-स्तोत्र- देवविजयगण (१७वीं शती ई०. पूर्वाध) - इस स्तोत्र के नाम 'अहन्नाम (सहस्र) समच्चय अथवा 'अर्हतसहस्रनाम' भी हैं। कर्ता के गुरु कल्याणविजय गणि हैं। कर्ता ने ही इस पर स्वोपज्ञ टीका की रचना की है। इसकी पाण्डुलिपि छाणी (गु०) के भण्डार में सुरक्षित है। ,.. 7. जिनसहस्रनामस्तोत्र- विनयविजयगरिण- (17 वीं शती उत्तरार्ध ई०) वाचक कीतिविजय के शिष्य द्वारा रचित यह स्तोत्र 'अर्हन्नमस्कार स्तोत्र' नाम से भी प्रसिद्ध है। इसमें 146 पद्य हैं। १४७वें पद्य में अरिहंतों को एक हजार नमस्कार करने का उल्लेख है। जिनरत्नकोश (वि० 1, पृ० 16) में अर्हन्नमस्कारस्तोत्र और वहीं अन्य पृ० 138 में जिनसहस्रनामस्तोत्र नाम से इसका सूचन है किन्तु ये दोनों कृतियां एक ही हैं इसका कोई निर्देश नहीं है। रचना-विधान की दष्टि से इसमें 1 से 144 तक के पद्य भजंगप्रयात छन्द में रचित हैं। प्रत्येक का चतुर्थ चरण 'नमस्ते नमस्ते. नमस्ते, नमस्ते' समान है और पूरे पद में सात-सात बार नमस्ते पद की योजना है। २१वें पद्य से ११७वें पद्य तक तीर्थंकरों के बारे में गर्भवास से लेकर उनके निर्वाण तक के प्रसंगों में जो विशिष्ट प्रसंग गणनायोग्य कर्ता को प्रतीत हुए उनका क्रमश: सूचन है। यहां एक विशेष बात यह है कि सभी तीर्थंकरों की समान भूमिका का चित्रण' इसमें प्रस्तुत हुआ है। इसके पश्चात् दस क्षेत्रों के तीनों काल की
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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