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________________ ( 45 ) कारण सरकारी शाला और जैनसंघ की ओर से चल रही संगीत-शाला में प्रविष्ट हुए तथा प्रायः 6-7 वर्ष तक संगीत की अनवरत शिक्षा प्राप्त करके संगीत विद्या में प्रवीण बने / आपकी ग्रहण-धारण शक्ति उत्तम होने से दोनों प्रकार के अभ्यास में प्रापने प्रगति की। सुप्रसिद्ध भारतरत्न फैयाजखान के भानेज श्री गुलाम रसूल आपके संगीत-गुरु थे। आपका कण्ठ बहुत ही मधुर था और गाने की पद्धति बहुत अच्छी थी, अतः आपने संगीत गुरु का अपूर्व प्रेम सम्पादित किया था। जैनधर्म में पूजामों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इन पूजामों में सित्तर भेदी पूजा उसके विभिन्न. 35 राग-रागिनियों के ज्ञान के साथ आपने कण्ठस्थ कर ली तथा प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समस्त पूजामों की गान-पद्धति भी सुन्दर रागरागिनी तथा देशी-पद्धतियों में सीख ली और साथ ही साथ गाने की उत्तम प्रक्रिया भी सम्पादित की। विशेषतः नत्यकला के प्रति भी आपका उतना ही आकर्षण था, अतः उसका ज्ञान भी प्राप्त किया और समय-समय पर विशाल सभात्रों में उसके दर्शन भी कराए। इस प्रकार व्यावहारिक तथा धार्मिक शिक्षण, संगीत एवं नृत्यकला के उत्तम संयोग से अापके जीवन का निर्माण उत्तम रूप से हुआ और आप उज्ज्वल भविष्य की झाँकी प्रस्तुत करने लगे। परन्तु इसी बीच ज्ञानी सद्गुरु का योग प्राप्त हो जाने से आपके अन्तर में संयम-चरित्र की भावना जगी और आपके जीवन का प्रवाह बदल गया, इस में भी प्रकृति का कोई गढ़ संकेत तो होगा ही? भागवती दीक्षा और शास्त्राभ्यास . वि. सं. 1987 की अक्षय तृतीया के मङ्गल दिन कदम्ब गिरि की पवित्र छाया में परमपूज्य आचार्य श्री विजय मोहन सूरीश्वर जी के प्रशिष्य श्री धर्मविजयजी महाराज (वर्तमान प्राचार्य श्री विजय धर्म सूरीश्वर जी महाराज) ने पापको भागवती दीक्षा देकर मुनि श्री यशोविजयजी के नाम से अपने शिष्य के रूप में घोषित किया /
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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