________________ ( 26 ) यही स्थिति समस्त उपास्यदेवों के नामों की है / अतः पूर्वाचार्यों द्वारा संगहीत एवं स्वानुभव द्वारा विशिष्टरूपेण भगवतकृपाप्राप्ति के साधनभूत नामों का स्मरण अत्यावश्यक समझना चाहिये / ऐसे ही दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर श्रद्धेय श्रीमद् यशोविजयजी गणि ने भी 'सिद्धसहस्रनाम' की रचना की है, जिसका विवरण और प्रारम्भ में उपलब्ध पूर्ववर्ती जैन सहस्रनामस्तोत्रों का संक्षिप्त परिचय पहले यहां दिया जा रहा है। जैन स्तुतिसाहित्य में सहस्रनाम स्तोत्र__पूर्वोक्त परम्परा एवं प्रवृत्ति के अनुरूप ही जैन स्तुति साहित्य में भी सहस्रनाम स्तोत्रों का विधान प्राचीनकाल से प्रचलित है। तथा सहस्रफणा पाश्र्वनाथ, सहस्रदल कमल-निवासिनी पद्मावती, जैन तीर्थंकरों के देह का 1008 लक्षणों से समन्वित होना आदि इसके प्रेरक तत्त्व कहे जा सकते हैं। जैनों के श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में जिनसहस्रनाम' जैसी कृतियां मिलती हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर (चौथी शती.) और दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचार्य जिनसेन (नौवीं शती) दोनों ने सम्भवत: इस प्रकार की रचना का प्रारम्भ किया है। इनके पश्चात् पाँच-सात कृतियां और बनी हैं जिनका क्रमिक परिचय इस प्रकार हैं 1. जिन सहस्रनाम-स्तोत्र-सिद्धसेन दिवाकर (चौथी शती का . अन्तिम भाग) ____ इसी कृति के 1. सिद्धश्रेयःसमुदय और 2. शक्रस्तव नाम भी प्रसिद्ध हैं। इसका निर्माण प्रमुखरूप से गद्य मे ही हुआ है। इसमें 'ॐ नमो' इत्यादि से प्रारम्भ होने वाला भाग स्वतन्त्र है। यहां ग्यारह मन्त्र हैं जिनमें प्रथम और द्वितीय मन्त्रों के कतिपय प्रारम्भिक भाग के कुछ विशेषण इसी क्रम से 'वीतराग स्तोत्र' के