________________ सिद्धनामकोश' अति प्राचीन काल प्रत्येक सम्प्रदभार में अपने अपने प्राराध्यदेवदेवियों की स्तुति के रूप में अनेक स्तुति-स्तोत्रों की रचना हुई है। स्तुतिस्तोत्रों का एकाग्रभाव से पाठ करने वाले को लौकिक-अलौकिक लाभ निश्चय ही प्राप्त होते हैं / इस दृष्टि से प्राचीनतम काल से अर्वाचीन समय तक विबिध स्तुति-स्तोत्रों की रचना और उनका पाठ करने की परम्परा चली पा रही है। अनेकविध वस्तुनिरूपण के रूप में रचित स्तुति-स्तोत्रों में पाराध्य देवदेवियों के नामोत्कीर्तन के रूप में विरचित स्तोत्र भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं, उन्हीं में अष्टोत्तर शतनामस्तोत्र तथा सहस्रनाम स्तोत्र भी निर्मित हैं / श्रमण प्रौर बाह्मण परम्परा में विविध सहस्रनामस्तोत्र निमित हुए हैं। श्रमण परम्परा में प्राचार्य श्री जिनसेन कृत-'जिन सहस्रनामस्तोत्र' प्राचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिकृत 'अर्हन्नामसहस्रसमुच्चय', पं० पाशाधर कृत 'जिनसहस्रनाम स्तोत्र', जीबहर्षगणिविरचित 'जिनसहस्रनामस्तोत्र' प्रसिद्ध हैं / ब्राह्मण-परम्परा में भी 'शिवसहस्रनामस्तोत्र' गणेशसहस्रनामस्तोत्र, पम्बिकासहस्रनामस्तोत्र, विष्णुसहस्रनामस्तोत्र आदि अनेक सहस्रनामस्तोत्र रचित हैं। .. महापुरुषों का योगबल ही ऐसा होता है कि उनके हाथों से खींची गई रेखाएँ भी मनुष्य के लिये सिद्धिदायक यन्त्र का कार्य करती हैं तथा उनके अन्तर की ऊमि से रचित स्तोत्र उनके पाठक को इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति प्रदान करते हैं। प्रस्तुत 'सिद्धसहस्रनामकोश' ऐसी ही कोटि की रचना है, यह बात कर्ता ने भी उपन्यास श्लोक में कही है। प्रस्तुत.सिद्धनामकोश को दस प्रकाशों में विभक्त करके ग्रन्थकार ने इसके दस विभाग दिखलाए हैं। एक से नौ तक के प्रत्येक प्रकाश में सिद्ध' शब्द के पर्यायरूप सौ शब्दों को तथा अन्तिम दसवें प्रकाश में एक सौ पाठ शब्दों को