________________ (11) ११वीं शती में वीरनन्दि ने 'चन्द्रप्रभचरित' की 15 सर्गों में रचना की और धनंजय ने 'राघवपाण्डवीय' श्लिष्ट महाकाव्य की। १२वीं शती में वाग्भट ने नेमिनिर्वाण तथा हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित' और कुमारपालचरित (द्वयाश्रय) की रचना की। __महाकवि हरिचन्द 1206 ई० का 'धर्मशर्माभ्युदय' इस परम्परा का एक प्रौढ महाकाव्य है जो 61 सर्गों में धर्मनाथ स्वामी के जीवनचरित को अलंकृत शैली में प्रस्तुत करता है / इसमें चित्रकाव्य' को भी स्थान मिला है। यही महाकवि ‘जीवन्घर-चम्पू' का भी रचयिता है जिसने जैन-परम्परा में चम्पूकाव्यशैली का भी सूत्रपात किया। अमरचन्दसूरि (1217 ई.) का 'पद्मानन्द-महाकाव्य' अथवा 'जिनेन्द्र-चरित' पौराणिकता के परिवेश में रहते हए भी शुद्ध ललित महाकाव्यों की धारा को आगे बढ़ाने में सक्षम हुआ। यह काव्य जैन-सम्प्रदाय की पौराणिक तथा ललित महाकाव्यों की श्रृंखला की योजक कड़ी के रूप में माना जा सकता है। .. एक परिपक्व पद्धति का परिपालन करते हुए तथा उसमें अपने• अपने अनुभव एवं प्रतिभा के योग से नावीन्य लाते हुए उक्त महाकाव्यों के अनन्तर निरन्तर प्रगतिपूर्ण महाकाव्यों की रचना हुई। इतना ही नहीं इस दिशा में १-द्वयाश्रयादि सन्धान काव्य २-विज्ञप्तिपत्रादिरूप काव्य, ३-एकाश्रयी काव्यादि की नवीन विधा के द्वारा कई प्रतिमान भी स्थापित हुए / 1. चित्रकाव्यमूलक हरिचन्द का एक पद्य इस प्रकार है प्राततिहरस्तपद्यमणि-सद्भरिप्रभाजिदवसद्रष्टव्यं हृदि चिह्नरत्नमसमं शौचं च पीनोन्नते। देहे धत्त हितं त्वमन्दमहदि क्षद्र ऽप्यतो दर्शने, वल्गुर्भद्रमहस्य रम्यमपरं क्षीणव्यपायं पदम् // 101 //