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________________ ( 41 ) . दसवें शतक के बारहवें श्लोक के बाद वाले श्लोक में "जो प्रातः काल में जागरूक भाव से इस एक हजार पाठ सिद्धनाम का पाठ करते हैं वे वारंवार स्वर्ग के सुख भोगकर सिद्धि-मोक्ष को प्राप्त होते हैं, इसमें सशय नहीं है', ऐसा कहकर सिद्धनामकोश के पाठ का माहात्म्य सूचित किया है / तथा अन्तिम शार्दूलविक्रीडित छन्द में कर्ता ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है-- 'गणों के समूह से स्वच्छ तथा सामर्थ्य के धामरूप श्रीविजयदेवसूरि सुगुरु के गच्छ में श्रेष्ठ सामर्थ्य को प्राप्त जीतविजय नामक प्राज्ञ पुरुष हैं, उनके गुरु-भाई तथा ज्ञानियों में श्रेष्ठ ऐसे जयविजयजी के बालक =शिष्ययशोविजय नामक मुनि ने यह [सिद्ध नामकोशरूप] किञ्चित् तत्त्व कहा है / महोपाध्याय श्री यशोविजयजी जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में आज से 288 वर्ष पूर्व, भारत के मूर्धन्य विद्वान् तथा सन्तों की प्रथम पंक्ति में सम्मानित 'न्यायविशारद महामहोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयजी' महाराज के जन्मसंवत् के बारे में भिन्नभिन्न विधान हुए है जबकि उनका निर्वाण संवत् 1743 है, इसमें मतभेद नहीं है / निर्वाण संवत् के सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान् प्रो० श्री हीरालाल र. कापड़िया ने वि० सं० 1745 को प्राधान्य दिया है वह श्री उ० श्रीयशोविजय जी कृत 'प्रतिक्रमणहेतुगर्भ सज्झाय' के रचना संवत् 'युग-युग मुनिविधु' पाठ का अर्थ वि० सं० 1744 मानकर / किन्तु प्रो० कापड़िया के विधान के बाद वाले वर्षों में पूज्यपाद मागम प्रभाकर मुनिवर्य श्रीपुण्यविजयजी महाराज को 'प्रतिक्रमण हेतु गर्भसज्झाय' की वि० सं० 1743 मे लिखी हुई प्रति मिली। जिसके आधार पर अब प्रस्तुत निर्वाण संवत् 1743 मानने में आपत्ति नहीं है।' उ० श्रीयशोविजयजी के जीवन और कवन का परिचय अनेक विद्वानों द्वारा विस्तार से दिया गया होने के कारण यहां इस सम्बन्ध में प्रो० 1. अन्य उपलब्ध संवत् प्रादि की सामग्री की प्रालोचना के बाद 1743 संवत् की बात में मेरी भी सम्मति हैं। -प्रधान सम्पादक
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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