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________________ ( 6 ) . दुर्भाग्य की बात यह है कि ये दोनों कृतियां' अपूर्ण प्राप्त हुई हैं। प्रथम कृति का 'आर्षभीय' नाम पाठकों को अपरिचित-सा लगेगा। ऐसे नाम की प्रसिद्धि भी कहीं देखने में नहीं आयी है। सामान्य पाठक को विचार आ सकता है कि आषभीय का तात्पर्य क्या होगा? व्याकरण के नियम से 'ऋषभस्य इदं आर्षभीयम्' ऋषभदेव सम्बन्धी जो हो, वह आर्षभीय तथा यह चरित्र है इसलिये ऋषभ का जो चरित वह आर्षभीयचरित कहलाता है / पहले तीर्थङ्कर का उनके माता-पिता द्वारा सान्वर्थक नाम ऋषभ था। ऋषभ ईश्वर बने तब सभी के नाथ-स्वामी बने ऐसा कहा गया, किन्तु उच्चारण की थोड़ी सी असरलता के कारण अथवा किसी अन्य चाहे जिस कारण से ऋषभ नाम के स्थान पर आदि भगवान होने से आदिनाथ-आदीश्वर इस नाम को पर्याप्त प्रसिद्धि मिली है / अजैन ग्रन्थ वेद-पुराणादिक में ऋषभ तथा आदिनाथ दोनों नामों का उल्लेख हुआ है। ऋषभदेव की महिमा जब इस देश में उत्कृष्ट हुई होगी तब अजैन धार्मिक अग्रणियों ने जैनों के प्रथम तीर्थङ्कर को अपने ईश्वरी अवतार में समाविष्ट करने का विचार-निर्णय किया, उस समय उन्होंने चौबीस में से किसी अन्य को न चुनते हुए बुद्धिकौशल का उपयोग करके इन पहले तीर्थङ्कर को चुनकर इन्हें अवतार में स्थापित कर दिया। और उन्होंने अवताररूप नामों में 'ऋषभ' नाम ही पसन्द किया तथा ऋषभ को अवतार के रूप में घोषित कर 1. कृतियाँ अपूर्ण क्यों रही होंगी? यह प्रश्नार्थक ही रहेगा? 2. साधना करनेवाले के लिए तो ऋषभ नाम का उपयोग लाभप्रद है। 3. कल्पसूत्र ग्रन्थ में भगवान् का पांच विशेषणों से परिचय दिया है उसभ, पढमोराया, पढमभिक्खायरे, पढमजिणे तथा पढमतित्थिंकरे / उसभ- ऋषभ, प्रथम राजा, प्रथम भिक्षाचर-साधु, आदि वीतराग एवं आदि तीर्थङ्कर / आज कोई प्रश्न करे कि इस युग के आदि राजा, साधु, पहले वीतराग और आदि तीर्थङ्कर कौन हैं तो उत्तर होगा 'ऋषभदेव'।
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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