________________ प्रारम्भ की दो कृतियां चरित्ररूप हैं। दोनों कृतियाँ काव्यात्मक हैं। ये दोनों काव्य' महाकाव्यों की पंक्ति में खड़े रहें ऐसे हैं। एक का नाम 'आर्षभीय' और दूसरे का नाम है 'विजयोल्लास' / दोनों को कुछ ऐतिहासिक भी कहा जा सकता है। आर्षभीय काव्य अधिकांशरूप में द्वयर्थक काव्य है / अर्थात् एक श्लोक के दो प्रकार के भिन्न-भिन्न अर्थों को व्यक्त करता है। ये दो कृतियां काव्य की हैं। काव्य के विषय पर बहुत-बहुत लिखा जा सकता है। जैन साहित्य-काव्य पर अनेक विद्वानों ने यथोचित लिखा है / इतना होने पर भी मेरे ज्ञान विकास के लिये तथा कतिपय अस्पृष्ट बातों को लक्ष्य में रखकर काव्य के पक्ष में कुछ लिखा जा सकता है। जिसमें-जैनधर्म में काव्यपरम्परा का क्या स्थान था ? इस परम्परा में केवल साधु-समुदाय ही ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र सम्हालते रहे हैं, तो गृहस्थ (आरम्भ के अपवादों को छोड़कर) किस लिये विद्या से अस्पृष्ट रहे और आज हैं ? जैन-अजैन काव्यों के बीच तुलनात्मक समीक्षा / जैनधर्म में स्वतन्त्र प्रतिभा रखने वाले काव्य हैं क्या ? अनुशासक अथवा उपजीव्य कृर्तियां कौन-सी हैं ? स्वतन्त्र एवं उपजीव्य में अधिक मात्रा किसको है ? काव्य में रुचि न हो किन्तु इसका पूर्ण विराम जैनअजैन दोनों में समान बिन्दु पर था अथवा असमान ? इनका पर्यवसान किस रस में होता था और जैनधर्म की इस मूलभूत विशेषता, अन्तिम ध्येय अथवा अन्तिम लक्ष्य की निरन्तरता का कवियों ने किस प्रकार संरक्षण किया ? इसके अतिरिक्त शताब्दी क्रम से काव्य की रचना कौन-कौन सी हुई और उनसे सम्बद्ध आवश्यक वातों की यथाशक्ति-यथामति' रूपरेखा देने की तीव्र इच्छा थी परन्तु आजकल की शारीरिक, मानसिक अथवा मस्तिष्क की प्रतिकूल परिस्थिति और अन्य साधनाक्रम चलता रहने के कारण आज यह सब लिखा जा सके ऐसी स्थिति नहीं हैं, किन्तु इससे इसका दुःख अवश्य है। 1. सर्जन की आश्चर्यपूर्ण धूनी जगाने वाले उपाध्यायजी की सर्जन-समृद्धि ____ और उसके पीछे उनका अप्रमत्तभाव देखते हुए प्रत्येक का सिर झुक जाए जैसा है।