________________ . . (6). ३-संर्गसंख्या-निर्धारण, 4. सर्गों के वर्ण्य विषयों की व्यवस्था और ५-वस्तु-व्यापारों की संख्या का विस्तार' भी स्पष्ट करते हैं। जैनाचार्यों में वाग्भट (प्रथम) ने - साधुशब्दार्थसन्दर्भ-गुणालङ्कार-भूषितम् / स्फुटरीति-रसोपेत, काव्यं कुर्वीत कोर्तये / कहा और प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने ___ 'अदोषौ सगुणौ सालङ्कारौ च शब्दार्थो काव्यम्' कहकर काव्य में निवश्य तत्त्वों की पुष्टि की। प्राचार्य अजितसेन ने महाकाव्य के वर्ण्य-विषयों का विस्तार से वर्णन करने के पूर्व एक पद्य में मकेत किया है कि-- शब्दार्थालङ्कृतीद्ध नवरसकलितं रोतिभावाभिरामं, व्यङ्ग्याद्ययं विदोषं गुणगणकलितं नेतृसवर्णनाढयम् / लोकद्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमग्रय सुखार्थो, नानाशास्त्रप्रवीणः कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरु हेतुम् // .. यह लक्षण सर्वसामान्य महाकाव्यों को अपनी परिधि में आवजित कर लेता है / वैसे कवि के मतिवैभव से निर्मित रचना पहले मूर्तरूप लेती है और लक्षणकार लक्ष्यानुसारीणि लक्षणानि भवन्ति' इस उक्ति के अनुसार ही लक्षण-निर्धारण करते हैं अत: उन लक्षणों में परिवर्तनपरिवर्धन एव परिकार हों, यह स्वाभाविक ही है। महाकाव्य-पराम्परा और जैनाचार्य-- संस्कृत भाषा में महाकाव्य-निर्माण की परम्परा अति प्राचीन है। वैदिक, जैन और बौद्ध मान्यताओं के अनुसार सभी ने अपने-अपने प्राद्य ग्रन्थ-वेद, आगम और पिटकों को इसका उद्गम तथा प्रेरणा 1. साहित्य दर्पण–परि० 6 पद्य 315 से 328 / 2. वाग्भटालङ्कार. 1/2 / 3. काव्यानुशासन पृ. 16 / 4. अलङ्कार-चिन्तामणि /