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________________ अनुराग करके महशत्रु के साथ युद्ध करने की बात कहते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे सभी भाई प्रबोध प्राप्त करके संयम ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार यह द्वितीय सर्ग अनेक महत्त्वपूर्ण प्रसंगों, उपदेशों और रमणीय वर्णनों से परिपूर्ण है। तृतीय सर्ग- इस सर्ग में अठानवे राजपुत्रों का प्रतिसन्देश एव अष्टापद पर्वत पर जाकर प्रभ के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की घटना से महाराजा भरत के दूतों के मन में कुछ ग्लानि उत्पन्न होती है। वे मन में सोचते हैं कि 'ऐसे साहसी और उत्तम चरित्रशाली उन राजपुत्रों को हमने अपने स्वामी के अग्नि जैसे उष्ण वचनों को सुनाकर बहुत दुःख पहुंचाया है, अत: इसका प्रायश्चित्त यही है कि हम भरत महाराजा के समक्ष अब उनकी प्रशंसा करें / ' यह सोचकर वे 'विनीता' नगरी में पहचते हैं और महाराजा के समक्ष उन राजपुत्रों के प्रतिसन्देश को सुनाते हैं। साथ ही उनके आश्चर्यकारी चरित्र, समस्त पैतृकसम्पत्ति के प्रति अधिकार त्याग, मक्तसंग होकर योगरंग में रंगना, युद्धरस को शान्तरस में परिवर्तित कर देने आदि का प्रशंसनीय वर्णन करके उनके द्वारा अपने समस्त कुल को पवित्र कर देने की बात कहते हैं। इससे महाराजा भरत भ्रात-वियोग से कछ खिन्न होते हैं तथापि मोहवश भाइयों के राज्यों को अपने अधिकार में ले लेते हैं। तब सभी तत्कालीन राजा-महाराजा उनके अधीन हो जाते हैं, सर्वत्र उन्हीं का साम्राज्य होता है किन्तु मानसिक शान्ति नहीं होती। इसी से उद्विग्न भरत एक योगी के समान विचार करते हैं कि-- "सभी राजा मेरे चरणों में विनत हैं, मेरी आज्ञा को पुष्पमाला के समान वे शिरोधार्य मानते हैं, विश्व की सर्वविध सम्पत्ति एवं सिन्ध देश से प्राप्त नवनिधि मेरे खजाने में स्थित है, उत्तम रथ, गज, तुरग मेरे पास हैं फिर भी 'चक्र' आयुध मेरी आयुधशाला में क्यों नहीं प्रविष्ट होता? यह मेरे अन्तःकरण में कांटे की तरह चुभता है।"
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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