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________________ ( 15 ) विस्तृत वर्णन किया है वहीं उनके राज्याभिषेक का प्रसंग उपस्थित किया है। इस महत्त्वपूर्ण अवसर पर अनेक राजा-महाराजाओं की उपस्थिति स्वाभाविक थी, किन्तु स्वयं भरत के 18 सहोदरों की अनुपस्थिति को जानकर महाराज ऋद्ध हो जाते हैं और दूतों के द्वारा भाइयों को सन्देश देते हैं कि-"इस राज्याभिषेक-महोत्सव में तुम्हारे उपस्थित न होने का क्या कारण है ? इस अनुपस्थिति से तुम्हारी स्थिति संशयापन्न बन गई है। यदि मेरा तेज असह्य होने के कारण ईर्ष्या हो तो कहीं अन्यत्र जाकर रहो और यदि युद्ध की इच्छा हो तो मुझ से युद्ध करो।' इस सन्देश को पाकर उनके भाई प्रत्युत्तर देते हैं कि-"पाप के अधीनस्थ राजाओं के द्वारा आपका राज्याभिषेक हो, यह ठीक है। परन्तु जो बन्धु-प्रिय है वह उसे अपने बन्धुओं में विभक्त किये बिना प्रसन्न नहीं होता / हमें अपने पिता के द्वारा प्रदत्त सम्पत्ति के प्रति कोई मोह नहीं है। फिर हमें आपकी उपासना से क्या मिलेगा? आप यमराज से नहीं बचा सकते, ललाट पर लिखी रेखाए मिटा नहीं सकते, वार्धक्य को तरुणावस्था में बदल नहीं सकते, वासनाओं से मुक्त नहीं कर सकते और न ही इन्द्रियों को वश में करके परब्रह्म में निमग्न कर सकते हैं ? रही बात युद्ध की तो हमारे शस्त्र भी कुण्ठित नहीं हैं ? किन्तु हम बन्धुद्रोह नहीं चाहते / फिर भी यदि युद्ध करना चाहते हैं तो हम तेयार हैं पर पिताजी की आज्ञा के बिना हम भाइयों में युद्ध नहीं होने दगे।" यह प्रतिसन्देश देकर वे 68 भाई अप्टापद पर्वत पर-जहाँ भगवान् तपस्या में लीन हैं वहां पहुंचते हैं और सारी घटना सुनाते हैं। ऐसी स्थिति मे भगवान् उन्हें अपने उपदेशामृत से शान्त करके युद्ध से विरस' करते हैं और लक्ष्मी के दुर्गुण, संसार की असारता, संयम जप, अध्यात्म, रति, धृति, उद्यम, तुष्टि, क्षमा, कृपा आदि से
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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